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________________ अङ्क ७] राजा हरदौल। मैदान मारे हुए, यही दोनों पहलवान कादिर- गर्दनें आप ही आप उठ जातीं, पर किसीके मुँहसे खाँका घमण्ड चर करनेके लिए चुने गये। एक शब्द भी नहीं निकलता था। अखाड़ेके दूसरे दिन किलेके सामने तालाबके किनारे अन्दर तलवारोंकी खींचतान थी; पर देखनेबड़े मैदानमें ओरछेके छोटे बड़े जमा हुए। वालोंके लिए अखाड़ेके बाहर मैदानमें इससे भी कैसे कैसे सजीले अलबेले जबान थे-सिरपर बढ़ कर तमाशा था, बार बार जातीय प्रतिष्ठाके खुशरंग बाँकी पगड़ी, माथे पर चन्दनका तिलक, विचारसे मनके भावोंको रोकना और प्रसन्नता आँखोंमें मर्दानगीका सरूर, कमरोंमें तलवार । या दुःखका शब्द मुँहसे बाहर न निकलने देना और कैसे कैसे बूढ़े थे तनी हुई मूंछे, सादी तलवारोंकी वार बचानेसे अधिक कठिन काम पर तिरछी पगड़ी, कानोंसे बँधी हुई दाढ़ियाँ, था। एकाएक कादिरखाँ ( अल्लाहो अकबर ' देखने में तो बूढ़े पर काममें जवान, किसीको चिल्लाया, मानों बादल गरजा उठा और उसके कुछ न समझनेवाले । उनकी मर्दाना चालढाल गरजते ही कालदेवके सिर पर बिजली गिर पड़ी। नौजवानोंको लजाती थी । हरएकके मुँहसे कालदेवके गिरते ही बुन्देलोंको सब न रहा, वीरताकी बातें . निकल रही थीं। नौजवान कहते हर एक चेहरे पर निर्बल क्रोध और कुचले हुए थे देखें आज ओरछेकी लाज रहती है या नहीं। घमण्डकी तसबीर खिंच गई । हजारों आदमी पर बूढे कहते थे कि ओरछेकी हार कभी नहीं जोशमें आकर अखाड़े पर दौड़े, पर हरदौलने हुई और न होगी। वीरोंका यह जोश देखकर कहा 'खबरदार! अब कोई आगे न बढ़े ।' इस राजा हरदौलने बड़े जोरसे कह दिया था, आवाजने पैरोंके साथ जंजीरका काम किया। “खबरदार, बुन्देलोंकी लाज रहे या न रहे, दर्शकोंको रोककर जब वे अखाड़ेमें गये और पर उनकी प्रतिष्ठामें बल न पड़ने पावे । यदि कालदेवको देखा, तो आँखोंमें आँसू भर आये। किसीने औरोंको यह कहने का अवसर दिया कि जखमी शेर जमीन पर पड़ा तड़प रहा था । उस ओरछेवाले तलवारसे न जीते, तो धाँधली कर के जीवनकी तरह उसके तलवारके दो टुकड़े बैठे, वह अपनेको जातिका शत्रु समझे । ” हो गये थे। आजका दिन बीता । रात आई । सूर्य निकल आये थे । एकाएक नगाड़े पर पर बुन्देलोंकी आँखोंमें नींद कहाँ ? लोगोंने करचोब पड़ी और आशा तथा भयने लोगोंके वटें बदलकर रात काटी । जैसे दुःखित मनुष्य मनको उछालकर मुँहतक पहुँचा दिया । बिकलतासे सुबहकी वाट जोहता है, उसी तरह कालदेव और कादिरखाँ दोनों लंगोट कसे शेरोंकी बुन्देले रह-रहकर आकाशकी तरफ देखते और तरह अखाड़में उतरे और गले मिल गये। उसकी धीमी चाल पर झुंझलाते थे । उनके तब दोनों तरफसे तलवारें निकलीं और दोनोंके जातीय घमण्ड पर गहरा घाव लगा था । दूसरे बगलोंमें चली गई। फिर बादलके दो टुकड़ोंसे दिन ज्योंही सूर्य निकला, तीन लाख बुन्देले बिजलियां निकलने लगीं । पूरे तीन घण्टेतक तालाबके किनारे पहुँचे। जिस समय भालदेव शेरकी यही मालूम होता था कि दो अँगारे हैं । हज़ारों तरह अखाडेकी तरफ़ चला, दिलोंमें धड़कआदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदानमें नसी होने लगी। कल जब कालदेव अखाड़ेमें आधीरातका सा सन्नाटा छाया था। हाँ, जब उतरा था बुन्देलोंके हौसले बढ़े हुए थे, पर कभी कालदेव कोई गिरहदार हाथ चलाता या आज बह बात न थी। हृदयोंमें आशाकी जगह कोई पेचदार बार बचा जाता, तो लोगोंकी डर घुसा हुआ था । जब कादिरखाँ कोई चुटीला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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