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________________ अङ्क ५-६] वर्ण और जाति-विचार। २१३ है, जिसमें लिखा है कि ब्राह्मण चारों वर्णकी बादशाहने राजपूतोंकी कन्याओंको लिया, परन्तु कन्याओंसे विवाह कर सकता है, ब्राह्मण- उनको अपनी कन्यायें नहीं दी । यहाँ तक कि कन्याके सिवाय अन्ध तीन वर्णो की कन्याओंसे अकबर और उसके बेटे जहाँगीर और पोते शाहअत्री विवाह कर सकता है, वैश्य और शूद्रकी जहाँकी सब कन्यायें सारी उमर बिना ब्याही ही कन्याओंसे वैश्य विवाह कर सकता है और शूद् रहीं । अपनी कन्या अपनेसे उच्चकुलवालेको ही शूद्रकन्यासे ही विवाह कर सकता है। भावार्थ इस- देनी चाहिए, इसी खयालसे अब भी बंगालके का यह है कि सभी वर्ण अपनेसे नीच वर्णकी कुलीन ब्राह्मणोंके बीसों विवाह हो जाते हैं और कन्यासे तो विवाह कर लें; परन्तु अपनेसे नीच कन्यावाले अपना घरबार बेचकर उनको हजारों वर्णको अपनी कन्या न देवें । इस श्लोकमें जब रुपया भेटस्वरूप देते हैं, जिससे वह कुलीन ब्राह्मण, क्षत्री, और वैश्य इन तीनों ही उच्च वर्ण- उनकी कन्याको स्वीकार कर ले । फल इस सब वालोंको शूद्रकी कन्यासे भी विवाह करनेकी आज्ञा कथनका यह है कि जिस प्रकार उच्चवर्णवाला है, तब इस बातका तो प्रश्न ही नहीं उठ सकता अपनेसे नीच वर्णोंकी कन्याओंको ले सकता है कि इन चारों वर्षों में खानपानका कुछ भेद है। इसी प्रकार देनेमें भी कोई वास्तविक दोष तो विवाहके इस नियमने खानपान तो चारों वर्णोका है नहीं; हाँ, जबतक यह रिवाज प्रचलित है एक कर ही दिया, और भरतमहाराजने ३२ कि बेटी देनेवाला अधीन और लेनेवाला अफसर हजार म्लेच्छ कन्याओंसे विवाह करके आर्य और समझा जाता है उस समय तक कोई ऐसेको म्लेच्छोंके खानपानको भी एक कर दिया और अपनी बेटी न दे जिसके अधीन वह न बनना आयके लिए म्लेच्छकन्याओंसे विवाह करनेका भी चाहता हो और जब यह रिवाज न रहे और बेटी द्वार खोल दिया । हाँ, विवाहके मामलेमें इतना देनेवाला और लेनेवाला दोनों ही बराबर समझे प्रश्न अवश्य रह गया कि उच्च वर्णकी कन्या जाने लगें जैसा कि आजकल होता जाता है, तो नीच वर्णके परुषसे ब्याही जानेकी मनाही क्यों? फिर किसी बातका खटका ही नहीं; जहाँ पर कन्यापरन्तु उत्तर इसका बहुत सहज है। क्यों कि की योग्यता मिली वहीं विवाह कर दिया। जिन भाइयोंने कथाग्रन्थोंको पढ़ा है, उनको हिन्दुस्तानमें जब वर्णव्यवस्था जोरों पर मालूम होगा कि पहले समयमें जो राजा किसी थी और जब राज्यकी तरफसे भी इसकी देखराजाके अधीन या उस राजासे पराजित होते भाल थी, तब घटिया वर्णवालेको उससे उच्च थे, वे भेंटस्वरूप अपनी कन्या विजयी राजाको वर्णवालों पर अफ़सर नहीं बनाया जाता था देते थे। उस समयमें बहादुरीकी यही पहचान और उच्च वर्णवाला अपनेसे घटिया वर्णवालेके थी कि वह अमुक अमुक देशसे इतनी इतनी अधीन रहना कभी मंजूर नहीं करता था। उस कन्या विवाह कर लाया । यही कारण है कि समय विवाहके वास्ते भी यह नियम उचित ही सार्वभौम राजाके यहाँ ९६ हजारतक रानियाँ था कि उच्च वर्णवाला अपनेसे घटिया वर्णवाहो जाती थीं। उस समयमें सब कोई अपनी लेको कन्या न दे; परन्तु आज कल तो कन्याको अपनेसे बड़ेको ही देना चाहता था। घटिया वर्णके थानेदार, तहसीलदार, डिपुटी, अपनेसे घटियाको कन्या देकर उसके आधीन आदि अनेक हाकिम हैं, जिनके अधीन ब्राह्मण होना कोई भी पसन्द नहीं करता था । हिन्दु- क्षत्री आदिक अनेक उच्च जातिके लोग काम कर स्तानके इसी रिवाजको लेकर दिल्लीके अकबर रहे हैं और जिनको अनेक उन्न जातिके लोग सू-- Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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