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बिलकुल ही मान्य हो जाता है । क्योंकि ऐसा मानने से यह सिद्ध हो गया कि अधर्मका श्रद्धान रखते हुए भी, और अधर्म क्रिया करते हुए भी - यहाँ तक कि मांसादिभक्षण करते हुए भी और जैनधर्मसे पूर्ण विरोध रखते हुए भी, मनुष्य ब्राह्मण क्षत्री वैश्य अर्थात् उच्च वर्णका बना रहेगा; चाहे ऐसा आचरण करते हुए उसकी सैकड़ों पीढ़ियाँ बीत गई हों । और अहिंसाधर्मको पालता हुआ एक धर्मात्मा जैन भी नीच शूद्र ही बना रहेगा, चाहे इस उत्तम धर्मको पालते हुए उसकी सैकड़ों पीढ़ियाँ बीत गई हों । अर्थात् धर्मसे वर्णभेदका कोई सम्बन्ध नहीं हैं । और यदि यह कहा जावे कि विधर्मियोंका कोई वर्ण ही नहीं मानना चाहिए, या हिंसादि करने और मांसादि भक्षण करने से उनका नीच वर्ण मानना चाहिए, तब भी हमारा सिद्धान्त सिद्ध होता है । क्यों कि दीक्षान्वय क्रियामें विधर्मियोंको जैन बनाकर दिगम्बर मुनि तक पहुँचाया है, अर्थात कोई नीच वर्णका हो, या उच्चका और चाहे किसीका कोई भी वर्णन हो; परन्तु जैनधर्मका द्वार सबके वास्ते खुला हुआ है और वे इस उदार धर्मको पाल सकते हैं ।
जैनहितैषी -
इस दीक्षान्ययक्रिया में १३ वीं क्रिया वर्णलाभक्रिया है । उसमें लिखा है कि प्रथमकी १२ क्रियायें हो चुकने पर वह नवीन जैन मुखिया श्रावकोंको बुलाकर उनसे प्रार्थना करे कि आप लोगोंको मुझे अपने समान बनाकर मेरा उपकार करना चाहिए | मैंने जैनधर्म अंगी - कार करके आवक के व्रत लिये हैं । गृहस्थों के जो धर्म हैं, वे सब मैंने धारण किये हैं और चिरकालसे पालन किये हुए मिथ्यात् कर सम्यक् चारित्र स्वीकार किया है, अर्थात् बिना योनिसे उत्पन्न हुआ जन्म धारण किया है | व्रतोंकी सिद्धिके वास्ते मैंने यज्ञोपवीत लिया है । इस कारण अत्र मुझको वर्णलाभ
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[ भाग १३
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होना चाहिए । इसके उत्तर में वे जैन पंच उसको अपने समान कर लेवें । यथा:चतुरः श्रावकज्येष्टानाहूय कृतसत्क्रियान् । तान्ब्रूयादरम्यनुग्राह्यो भवद्भिः स्वसमीकृतः ॥ ६२ ॥ यूयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकपूजिताः । अहं च कृतदोक्षोऽस्मि गृहीतोपासकव्रतः ॥ ६३ ॥ मया तु चरितो धर्मः पुष्कलो गृहमेधिनां । दत्तान्यपि च दानानि कृतं च गुरुपूजनं ॥ ६४ ॥ अयोनिसंभवं जन्म लब्ध्वाऽहं गुर्वनुग्रहात् । चिरभावितमुत्सृज्य प्राप्तो वृत्तमभावितं ॥ ६५ ॥ त्रतसिद्धयर्थमेवाहमुपनीतोऽस्मि सांप्रतं । कृतविद्यश्च जातोऽस्मि स्वधीतोपासकः ॥ ६६ ॥ एवं कृतव्रतस्याद्य वर्णलाभो ममोचितः । सुलभः सोऽपि युष्माकमनुज्ञानात्सधर्मणां ॥ ६८ ॥ इत्युत्कैनं समाश्वास्य वर्णलाभेन युंजते । विधिवत्सोऽपि तं लब्ध्वा याति तत्समकक्षतां ।। ७१ ॥ -- आदिपुराण, पर्व ३९
वर्णलाभ के इस कथन से प्रत्यक्ष है कि अन्यमती वर्णलाभसे पहले ही धर्मग्रहण कर सकता है, यज्ञोपवीत धारण कर सकता है, और सद्गृहस्थ के योग्य पूजादि सब क्रियायें कर सकता वर्णका सम्बन्ध केवल पेशेसे या आपसके सांसाहै । अर्थात् धर्मका वर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है । रिक व्यवहार से है ।
इस प्रकार अनेक हेतुओंसे यह बात सिद्ध हो जाने पर कि धर्म प्राणिमात्र के वास्ते है, और इसके धारण करनेमें किसी को कोई रोकटोक नहीं है, परीक्षाप्रधानीको उचित है कि वह इस उदार सिद्धान्तसे विरुद्ध जो कोई कथन या हेतु ि उन सबकी जाँच करे और उक्त हेतुओंसे उनकी तुलना करें; फिर जो कुछ सत्य प्रतीत हो उसका ।
वर्ण और जातिका रोटी-बेटीव्यवहार से सम्बन्ध |
इससे पहले इसही लेखमें हमने आदिपुराण के १६ वें पर्व का एक श्लोक (२४७) उद्धृत किया
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