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________________ अङ्क ५-६] वर्ण और जाति-विचार। तच्छुद्धयशुद्धी बोद्धव्ये न्यायान्यायप्रवृत्तितः। आदिपुराणमें तीन प्रकारकी क्रियाओंको न्यायो दयावृत्तित्वमन्यायः प्राणिमारणं ॥१४११ वर्णन करते हुए एक दीक्षान्वय क्रियाका वर्णन -आदिपुराण, पर्व ३९। किया है, जो उन लोगोंके वास्ते है, जो पहले इस श्लोकसे विदित है कि जो हिंसा करता अजैन हों और अब जैन बनते हों । इस दीक्षाहै वह अन्याय करता है और अन्याय करने- न्वयक्रिया में ४८क्रियायें हैं, जिनमें सबसे पहली वाला ही अशद्ध है; और जो दया करता है वह अवतारक्रिया है। इसके विषयमें लिखा है कि न्यायवान् है और जो न्यायवान् है वह शुद्ध जब मिथ्या दृष्टि पुरुष श्रेष्ठ जैनधर्मको ग्रहण है। अर्थात् दया करनेवाला या अहिंसा धर्मको करने के सन्मुख होता है, तब यह क्रिया की पालनेवाला ही शुद्ध है। अभिप्राय यह कि शुद्धि जाती है: और अशुद्धि किसी वर्ण या जाति पर अवलम्बित तत्रावतारसंज्ञा स्यादाद्या दीक्षान्वयक्रिया। नहीं है, बल्कि मनुष्यके आचरणों पर है । इस मिथ्यात्वदूषिते भव्ये सन्मार्गग्रहणोन्मुखे ॥ १॥ विषयको बिलकुल ही साफ खोल देनेके वास्ते -आदिपुराण, पर्व ३८ .. अगले श्लोकमें लिखा है कि सभी जैनधर्मावलम्बी इस दीक्षान्वयंक्रियामें १८ वी क्रिया क्षुल्लक शुद्ध वृत्तिवाले होनेसे, अर्थात् अहिंसामय धर्मके बनना है और १२ वी क्रिया दिगम्बर मुनि पालनेसे उत्तम वर्णवाले हैं और विज हैं, वे किसी बनना हैतरह भी वर्णान्त पाती अर्थात् वर्णसे गिरे हुए त्यक्तागारस्य तस्यातस्तपोवनमुपेयुषः। नहीं हैं, बल्कि दया पालनेसे जगमान्य हैं। एकशाटकधारित्वं प्राग्वदीक्षाद्यमिष्यते ॥ ७७ ॥ विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जैना वर्णोत्तमा द्विजाः । ततोऽस्य जिनरूपत्वमिष्यते त्यक्तवाससः। वर्णान्तःपातिनो नेते जगन्मान्या इति स्थितम् १४२ धारण जातरूपस्य युक्ताचारागणेशिनः ॥ ७८ ।। -आदिपुराण, पर्व ३९ । -आदिपुराण, पर्व ३९॥ जैनी वर्णान्तःपाती नहीं हैं, इसका अर्थ ___ इससे विदित है कि अन्यमती भी जैन कोई कोई विद्वान ऐसा भी करते हैं कि “जैन- धर्मको ग्रहण करके दिगम्बर मुनि तक हो सकता धर्ममें ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्रका भेद है। इस दीक्षान्वयक्रियामें कहीं भी यह नहीं ही नहीं है। अहिंसा धर्म पालनेके कारण सबही लिखा है कि वह अन्यमती कौन वर्णका हो. जैन उत्तम और श्रेष्ठ माने जाते हैं।" कछ भी जिसका अर्थ यही होता है कि वह चाहे किसी अर्थ हों; परन्तु इससे यह बात स्पष्ट है कि भी वर्णका हो । यदि किसी विशेष वर्णवालेधर्मका वर्णसे कोई सम्बंध नहीं है । वर्ण पेशेके को ही दीक्षान्वयक्रिया करनेका अधिकार होता. वास्ते है और धर्म मनुष्य मात्रके वास्ते है। तो अवश्य इसका वर्णन स्पष्ट शब्दोंमें होता। इस बातको आदिपुराणके निम्न लिखित श्लोकमें अन्यमतवालोंमें भी वर्णव्यवस्था मानी जाय या स्पष्ट शब्दों द्वारा कहा है कि-जाति नाम कर्मके नहीं और यदि मानी जाय तो किस प्रकार ? उदयसे उत्पन्न हुई मनुष्यजाति एक ही है. इसके उत्तरमें यदि यह कहा जाय कि वे भी अर्थात् समान है; परन्तु पेशेके भेदसे वह चार ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र इस प्रकार प्रकारकी कही जाती है: चार ही वर्गों में विभाजित हैं, इस कारण मनुष्यजातिरेकैव जातिनामादयोद्भवा । उनमें भी वर्णव्यवस्था माननी चाहिए और वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥४५॥ उत्तम या नीच जो कुछ उनका वर्ण प्रसिद्ध है -आदिपुराण, पर्व ३८। उसे ही मानना चाहिए; तब तो हमारा सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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