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भाग १३
सीधा जवाल यह था कि हमारा वर्ण ब्राह्मण बान जिनेंद्रदेव ही ब्रह्मा है। क्योंकि वे ही सम्ब.. बनने से पहले यात्री या वैश्य था, इस कारण हम ग्दर्शन आदि आत्माको गोंके बहाने वाले हैं पहले भी उन वर्णके थे और अब भी हैं; हम भूयोपि संप्रवक्ष्यामि ब्राह्मणान सस्क्रिय चितान । न पहले घटिया थे, न अब हैं । परन्तु भरतने जातिवादाइलेपस्य निरासा मतःपरं !! १२६ ।। उनको यह उसरन बताकर यह उत्तर सिखाया ब्रह्मणोऽसत्यमित्येवं ब्राह्मणाः समुदाहृताः। हैं कि जिनेद्रदेव ही हमारा पिता और ज्ञान ही ब्रह्मा स्वयंभूभगवान्परमेष्ठी जिलोत्तमः ।। १२७ १५
सह्यादिपरमब्रह्मा जिनेद्रो गुणवहमान। हमारा निर्मल गर्ने है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान
परं ब्रह्म यदायत्तमाननीत नुनीश्वराः ।। १२८ चरित्ररूपी संस्कारजन्मसे हम पैदा हुए हैं,
-आदिपुराण, पर्व १२ । अर्थात हम बिना योनिके पैदा हुए हैं, इस
इस कथनका अभिप्राय दूसरे शब्दोंने यह है वास्ते देव हैं । हमारे समान जो कोई भी हों
कि "जात पात जाने ना कोय, हर को भजे सं: उनको देव ब्राह्मण समझना चाहिए । यथा
हरका होय । ” अर्थात् चाहे कोई आर्य हो या श्रयतां भो दिजन्य लयाऽस्मद्दिव्यसंभवः ।
. म्लेच्छ, द्विज हो या शूद्र, जो कोई भी ! जिनो जनयितास्माइ गर्मोऽतिनिमल: ।।११॥
जिनेन्द्रदेवके धर्म पर चलता है, वही देव ब्राह्मण तत्राहिती त्रिधा सिनो शक्ति गुथ्यसंश्रितां ।
हो जाता है। इसी प्रकार भरत महाराज साह्मणांक स्वसात्कृत्य समुद्धता वयं संस्कारजन्मना ।। ११५॥
समझाते हुए कहते हैं कि जिन्होंने जिनेंद्रदेवके अयोनिसंभवास्तेन देवा एव न मानुषाः । वयं वयमिवान्येऽपि सति चेद ब्रूहि तद्विधान् ॥११६॥
ज्ञानरूपी गर्भसे जन्म धारण किया है, वे है
द्विज है और से द्विजों को अन्तःपाती अर्थात -आदिपुराण; पर्व ३९ ॥
वर्गसे गिरा हुआ नहीं कहना चाहिए । यथा-- आदिपुराणक उपयुक्त कथनस कवल यह दिव्यमूजिनद्रस्य ज्ञानगादनाविलात् । ही सिद्ध नहीं हुआ कि सदर है। बहुत करके समासादितजन्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ॥ १३ ॥ ब्राह्मण बनाये गये थे. बाल्के इससे स्पष्ट शब्दोंमें वर्णान्तःपातिनो नैते मंतव्या द्विजसत्तमाः। यह भीमामहेता है कि धर्मका वर्णसे या ,
व्रतमंत्रादिसंस्कारसमारोपितगौरवाः ।।१३३॥ जन्मसे कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई आदमी
-आदिपुराण, पर्व ३९ किसी भी वर्ण या किसी भी जातिका हो, वह इस बातको और भी स्पष्ट करने के वास्ते श्लोक यदि जिनेद्र भगवानका उपदेश हुआ किया जैनधर्म १३२ में खोल कर ही कह दिया है कि जिसके स्वीकार करता है, तो वह ही बड़ा है । हम आचरण उत्तम है उसहीका वर्ण उत्तम है:बिना योनिके पैदा हुए हैं " ये शब्द जन्मकी वर्णोत्तमानिमान् विद्मः क्षांतिशौचपरायणान् । बड़ाई छटाईको बिलकुल रद कर देते हैं और संतुष्ट न प्राप्तवैशिष्टयान् क्लिष्टाचारभूषणान् ॥ १३२१ यही शिक्षा देने हैं कि जो जैसा करेगा, वह
-आदिप पर्व ३२ । वैसा माना जागा । इसहीको पुत्रिमें भरत नहा इस बातको और भी ज्यादा खोलनेके लिए राज अपने बनाये हुए ब्राहगोको समझाते हुए कहा है कि शुद्धि और अशुद्धि न्यायरूप वृत्ति कहते हैं कि ''जातिवादका अभिमान दूर माननी चाहिए, अर्थात् जो न्यायरूप चलता है करनेके वास्ते उत्तम क्रियाओंको काने वाले वह शुद्ध है और जो अन्यायरून प्रवर्तता है वह ब्राह्मणोंको मैं और भी समझाता हूँ कि जो ब्र. अशुद्ध है; इयारूप केवल वृत्तिको न्याय कहते की सन्तान हो उसे ब्रह्मा कहते हैं, और भा- हैं. और जोडोंको दिमाको अन्याय कहते हैं।
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