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________________ वर्ण और जाति-विचार । २०९ तेषां कृतानि चिह्नानि सूत्रैः पद्माह्वयानिधेः। ऐसी दशामें ब्राह्मण बनना उनही लोगोंने उपात्तैर्ब्रह्मसूत्राद्वैरेकायेकादशान्तकैः ॥२१॥ पसन्द किया होगा, जिन्होंने उस समय भी और गुणभूमिकृताद्भदात्कृप्तयज्ञोपवीतिनाम् । भविष्यतमें भी सन्तान प्रतिसन्तान दान लेना सत्कारः क्रियतेस्मैषामव्रताश्च बहिःकृताः ॥ २२ ॥ पसन्द किया होगा। अर्थात् धनी-मानी, सेठ ___आदिपुराण, पर्व ३८ । साहूकार और राजा-महाराजा लोग ब्राह्मण नहीं इन श्लोकोंके अनुसार जब भरत महाराजने बने होंगे; बल्कि धनहीन धर्मात्मा ही ब्राह्मण पहली प्रतिमावालेको भी ब्राह्मण समझ लिया, बने होंगे; अर्थात् बहुत करके अणवती शद्रोंने नब यह हो नहीं सकता कि शूद्र न बुलाये ही ब्राह्मण बनाना स्वीकार किया होगा। गये हों और उनमें से भी ब्राह्मण न बनाये गये ब्राह्मण बहत करके शुद्रोंसे ही बनाये गये, हों; क्योंकि शूद्रोंको पहली प्रतिमाके भी योग्य , मा पाग्य यह बात आदिपुराणके उस कथनसे भी सिद्ध न समझना जैनधर्मको ही न माननेके समान है। है, जहाँ भरतने अपने बनाये हुए ब्राह्मणोंको ऊपर उद्धृत किये गये आदिपुराण पर्व ३८ के समझाया है कि “ यदि कोई मनुष्य अपने श्लोक ८-९ से स्पष्ट विदित है कि महाराज उच्च वर्णके घमंडमें तुमसे कहे कि क्या तू अमुभरतने समस्त ही राजाओंको और उनके इष्ट कका बेटा नहीं है, क्या तेरी मा अमुककी बेटी मित्रोंको बुलाया था; परन्तु भगवानके श्रेयान, नहीं है, तेरी जाति वह ही है जो पहले थी अकम्पन, बाहुबलि आदि एक सौ बेटे, जयकु- और तेरा कुल वही है जो पहले था और मार और उसके भाई, चक्रवर्तीके बेटे, तथा तू भी वह ही है जो पहले था; तब फिर तू और भी-जिन जिन क्षत्रियोंका वर्णन आदि पुरा- अपनेको बड़ा क्यों मानता है ?-तो" यथा-. णमें आया है और जो ऐसे ऊँचे दर्जेके धर्मात्मा अथ जातिमदावेशाकश्चिदेनं द्विज ब्रुवः ।। थे कि उनमेंसे करीब करीब सबहीने दीक्षा ली ब्रूयादेवं किमद्यैव देवभूयं गतो भवान् ॥ १०८॥ और इनमेंसे बहुतसे उसी भवमें मोक्ष गये-ब्राह्मण त्वमामुष्यायणः किं न किन्तेऽम्बाऽमुष्यपुत्रिका । नहीं हुए वे सब क्षत्री ही रहे । कारण इसका यह ही येनैवमुन्नतो भूत्वा याम्यसत्कृत्य मद्विधान् ॥ १०९ ॥ मालूम होता है कि भरतमहाराजने ब्राह्मण बनानेका जातिः सैव कुलं तच्च सोऽसि योऽसि प्रगेतनः। . यह सारा आडम्बर दान देनेके वास्ते ही किया था, तथापि देवतात्मानमात्मानं मन्यते भवान् ॥ ११ ॥ जैसा कि ऊपर उद्धृत किये हुए पर्व ३८ के -आदिपुराण; पर्व ३९ । श्लोक ८ में लिखा है कि इनको धन सवारी इस कथनसे स्पष्ट सिद्ध है कि बहुत करके आदिक देकर संतुष्ट करना चाहिए और पद्मपु- शूद्रोंमेंसे ही ब्राह्मण बनाये गये । यदि क्षत्री या राणमें लिखा है कि भरतने उनको वस्त्राभरण वैश्य दोनों उच्च वर्गों से ही ब्राह्मण बनाये जाते, दिये । भरतने स्वयं ही इनको दान नहीं तो कौन ऐसा आक्षेप कर सकता था और भरत दिया है; बल्कि आगेके वास्ते सबहीको यह महाराज क्यों ऐसी संभावना करते । भरत महाउपदेश दिया है कि इनको अवश्य दान देना राजने ऐसे आक्षेपकी संभावना करके जो उत्तर चाहिए। ब्राह्मणोंको सिखाया है उससे भी यही सिद्ध प्रदानाहत्वमस्येप्टं पात्रत्वं गुणगौरवात् । होता है कि बहुत करके दोमेस ही ब्राह्मण बनाये गुणाधिको हि लोकेऽस्मिन्पूज्यः स्यालोकपृजितैः॥१८५ गये हैं। क्यों कि यदि शूद्रोंमेंसे ही ब्राह्मण __ -आदिपुराण, पर्व ४॥ न बनाये गये होते, तो उपर्युक्त आक्षेपका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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