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अङ्क ५-६]
दर्शनसार-विवेचना।
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इस लिए पुनाट ' का अर्थ द्रविड़ देश होगा, ऐसा जान पड़ता है। हरिवंशपुराणके प्रारममें पूज्यपादस्वामीके बाद वज्रनन्दिकी भी इस प्रकार स्तुति की गई है:
वज्रसूरेविचारण्यः सहेत्वोर्बन्धमोक्षयोः।
प्रमाणां धर्मशास्त्राणां प्रवक्तृणामिवोक्तयः ॥ ३२ ॥ इसमें आचार्य वज्रनन्दिके किसी ग्रन्थको जिसमें बन्धमोक्षका सहेतुक वर्णन है, धर्मशास्त्रोंके वक्ता गणधरोंकी वाणीके समान प्रमाणभूत माना है । ये वज्रनन्दि पूज्यपादके शिष्य ही हैं जिन्हें देवसेनसूरिने द्राविड संघका उत्पादक बतलाया है । हरिवंशके कर्ता उन्हें गणधरके समान प्रमाणभूत मानते हैं, इसीसे मालूम होता है कि वे स्वयं द्राविड संघी थे। विद्यविश्वेश्वर श्रीपालदेव, वैयाकरण दयापाल, मतिसागर, स्याद्वादविद्यापति वादिराजसूरि आदि बड़े बड़े विद्वान् इस संघमें हुए है। हरिवंशपुराणके कर्ताने अपने पूर्वके आचायाँकी एक लम्बी नामावली दी है जिसमें कई बड़े बड़े विद्वान् जान पड़ते हैं। इस संघमें भी कई गण और गच्छ हैं । ' नन्दि' नामक अन्वयका, 'अरुङ्गल,' 'एरोगित्तर ' इन दो गणोंका और 'मूलितल्' नामक गच्छका यत्र तत्र उल्लेख मिलता है। मूलसंघके साथ इसका किन किन बातोंमें विरोध है, इसका उल्लेख २७-२८ गाथाओंमें किया गया है । परन्तु इस संघके आचारसम्बन्धी ग्रन्थोंका परिचय न होनेसे कई बातोंका अर्थ स्पष्ट समझमें नहीं आता । ग्रन्थकर्ताने उन्हें कहा भी बहुत अस्पष्ट शब्दोंमें है। लिखा है वह बीजोंमें जीव नहीं मानता और यह भी लिखा है कि वह प्रासुक नहीं मानता। बीजोंमें जीव नहीं मानता, इसका अर्थ ही यह है कि वह बीजोंको प्रासुक मानता है । वह सावद्य भी नहीं मानता । सावद्यका अर्थ पाप होता है, पर 'पाप' कुछ होता ही नहीं है, ऐसा कोई जैनसंघ नहीं मान सकता। गृहकल्पित अर्थको नहीं गिनता, इसका अभिप्राय बहुत ही अस्पष्ट है ।
२५ वीं गाथामें यापनीय संघका उल्लेख मात्र है, परन्तु उसके सिद्धान्त वगैरह बिलकुल नहीं बतलाये हैं। जान पड़ता है कि ग्रन्थकर्ताको इस संघके सिद्धान्तोंका परिचय नहीं था। श्वेताम्बरसम्प्रदायमें श्रीकलश नामके आचार्य कोई हुए हैं या नहीं, जिन्होंने यापीय संघकी स्थापना की, पता नहीं लगा। अन्य ग्रन्थोंसे पता चलता है कि इस संघके साधु नग्न रहते थे; परन्तु दिगम्बर सम्प्रदायको जो दो बातें मान्य नहीं हैं एक तो स्त्रीमुक्ति और दूसरी केवलिभुक्ति, उन्हें यह मानता शं । श्वेताम्बर सम्प्रदायके आवश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति, आदि ग्रन्थोंको भी शायद वह मानता था, ऐसा शाकटायनकी अमोघ वृत्तिके कुछ उदाहरणोंसे मालूम होता है । आचार्य शाकटायन या पाल्यकीर्ति इसी संघके आचार्य थे। उन्होंने 'स्त्रीमुक्ति-केवलिभुक्तिसिद्धि' नामका एक ग्रन्थ बनाया था, जो अभी पाटणके एक भाण्डारमें उपलब्ध हुआ है । यापनीयको ' गोप्य ' संघ भी कहते हैं । आचार्य हरिभद्रकत षट्दर्शनसमुच्चयकी गुणरत्नकृत टीकाके चौथे अध्यायकी प्रस्तावनामें दिगम्बर सम्प्रदायके ( द्रविड संघको छोड़कर ) संघोंका इस प्रकार परिचय दिया है:
“ दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिङ्गः पाणिपात्राश्च । ते चतुर्धा, काष्ठासंघ-मूलसंघगाथुरसंघ-गोप्यसंघभेदात् । काष्ठासंघे चमरीबालैः पिच्छिका, मूलसंघे मायूरपिच्छैः पिच्छिका, माथुरसंघे मूलतोऽपि पिच्छिका नाहताः, गोप्या मयूरपिच्चिकाः। आधा
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