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________________ २७४ जैनहितैषी - [ भाग १३ । स्त्रयोऽपि संघा वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति । स्त्रीणां मुक्तिं केवलिनां भुक्ति सहतस्यापि सचीवरस्य मुक्तिं च न मन्वते । गोप्यास्तु बन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति । स्त्रीणां मुक्ति केवलिनां भुक्तिं च मन्यन्ते । गोप्या यापनीय इत्यप्युच्यन्ते । सर्वेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वात्रिंशदन्तराया मलाश्च चतुर्दश वर्जनीयाः । शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वं श्वेताम्बरैस्तुल्यम् । नास्ति तेषां मिथः शास्त्रेषु तर्केषु परो भेदः । " 1 तथा अर्थात् “ दिगम्बर नग्न रहते हैं और हाथमें भोजन करते हैं । इनके चार भेद हैं । काष्ठासंघ, मूलसंघ, माथुर, गोप्य । इनमेंसे काष्ठासंघके साधु चमरीके बालोंकी और मूलसंघ तथा यापनीय संघके साधु मोरके पंखोंकी पिच्छिका रखते हैं; पर माथुरसंघके साधु पिच्छिका बिलकुल ही नहीं रखते हैं। पहले तीन बन्दना करनेवालेको ' धर्मवृद्धि ' देते हैं और स्त्रीमुक्ति, केवलिमुक्ति, वस्त्रसहित मुनिको मुक्ति नहीं मानते हैं । गोप्यसंघवाले ' धर्मलाभ ' कहते हैं और स्त्रीमुक्ति केवलि - भुक्तिको मानते हैं । गोप्य संघको यापनीय भी कहते हैं। चारों ही संघके साधु भिक्षाटन में और भोजनमें ३२ अन्तराय और १४ मलोंको टालते हैं । इसके सिवाय शेष आचारमें तथा देवगुरुके विषयमें ये सत्र श्वेताम्बरोंके ही तुल्य हैं । उनमें शास्त्रमें और तर्क में परस्पर और कोई भेद नहीं है । ” इस उल्लेखसे यापनीय संघ के विषय में कई बातें मालूम हो जाती हैं और दूसरे संघों में भी जो भेद हैं उनका पता लग जाता है। । इस विषय में हम इतना और कह देना चाहते हैं कि यापनीयको छोड़कर शेष तीन संघोंका मूल संघ से इतना पार्थक्य नहीं है कि वे जैनाभास बतला दिये जायँ, अथवा उनके प्रवर्तकों को दुष्ट, महामोह, जैसे विशेषण दिये जायँ । ग्रन्थकर्त्ताने इस विषय में बहुत ही अनुदारता प्रकट की है । १८ गाथा ४३ वीं से मालूम होता है कि कुंदकुंदस्वामी के विषय में जो यह किंवदन्ती प्रसिद्ध है कि वे विदेहक्षेत्रको गये थे और वहाँके वर्तमान तीर्थंकर सीमंधर स्वामी के समवसरण में जाकर उन्होंने अपनी शंकाओंका समाधान किया था सो विक्रमकी नौवीं दशवीं शताब्दिमें भी सत्य मानी जाती थी । अर्थात् यह किंवदन्ती बहुत पुरानी है । इसीकी देखादेखी लोगोंने पूज्यपाद के विषय में भी एक ऐसी ही कथा गढ़ली है । १९ गाथा ४५-४६ में ग्रन्थकर्ताने एक भविष्यवाणी की हैं। कहा है कि विक्रमके १८०० बीतने पर श्रवणवे गुलके पासके एक गाँव में वरिचन्द्र नामका मुनि भिल्लक नामके संघको चलायेगा | मालूम नहीं, इस भविष्यद्वाणीका आधार क्या है । कमसे भगवानकी कही हुई तो यह मालूम नहीं होती । क्योंकि इस घटना के समयको बीते १७४ वर्ष बीत चुके; पर न तो कोई इस प्रकारका वीरचन्द नामका साधु हुआ और न उसने कोई संघ ही चलाया । ग्रंथकर्ताकी यह खुदकी ही ' ईजाद ' मालूम होती है । हमारी समझ में इसमें कोई तथ्य नहीं है । इस प्रकारकी भविष्यवाणियों पर विश्वास करनेके अब दिन नहीं रहे । अन्य किसी प्रामाणिक ग्रंथ में भी इस संघके होने का उल्लेख नहीं पाया जाता । २० आगे ४८ वीं गाथा में भी एक भविष्यवाणी कहीं हैं। पंचमकालके अंत में वीरांगज नामक एक मूलगुणों का धारण करनेवाला मुनि होगा जो भगवान् महावरि के समान लोगोंको उपदेश देगा । त्रैलोक्यसार में भी इस बातका उल्लेख किया है । यथा:-- Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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