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________________ अङ्क ५-६] योग-चिकित्सा। २२७ तर्क करने लग जाता है। कभी कभी तो वह कदापि नहीं पहुँचेंगीं। इस लिए पहले बाह्य मनको तुम्हारी आज्ञा स्वीकार कर लेता है और कभी स्थिर करना चाहिए, अथवा उसे सुषुप्ति अवकभी सामने हो जाता है । वह बहुत चपल और स्थामें लाना चाहिए । जब मालूम हो कि बाह्य मन अस्थिर है । बंदरकी नाई वह एक विषयसे दूसरे सुषुप्ति अवस्थामें है अथवा स्थिर हो गया है, तब विषयकी ओर दौड़ता है । परंतु आन्तरिक मन आन्तरिक मनको जो आज्ञायें देनी हों दे डालो, छोटे बालकके समान सरल है। उसे जो आज्ञा जो संस्कार डालना हो, डाल दो, वे सब सफल दी जाती है उसे वह एकदम ग्रहण कर लेता है होंगे। ये राजयोगकी गुप्त कुंजियाँ लोकहितके लिए और बरावर उसी तरह, लेशमात्र भूल या हेर- प्रकट की जाती हैं। इनसे लाभ उठाकर बलवान् फेर किये विना उसे कार्यमें परिणत करता है। और विजयी होना अथवा लाभ न उठाकर दुर्बल , वह लेशमात्र भी विचार नहीं करता; उसे भली- और पराधीन रहना स्वयं तुम्हारे ही हाथमें है। बुरी जो आज्ञा दो, वह तुरंत मान लेता है। प्रत्येक मनुष्य अपने सद्भाग्यका स्वयं कर्ता यह तुम्हें मालूम ही है कि तुम्हारे शरीरके भी- हर्ता है । तरी अवयवों, तुम्हारे विचारों और तुम्हारे साधनाका द्वार। . स्वभाव पर उसका पूरा प्रभाव है-पूरा अधिकार अब यदि तुम बलवान् और स्वस्थ होनेके । है । अब तुम आंतरिक प्रक्रियाद्वारा शरीरकी लिए उत्सुक हो, जो गुप्त रीतियाँ बताई जाती हैं सम्पूर्ण व्याधियों और कुटेवोंको पराजय करने- उनका लगातार अभ्यास करते रहनेकी दृढ़ता की गुप्त रीतियोंका कुछ भेद समझ गये होओगे। रखते हो तो आगेकी पंक्तियोंको पढ़ो, नहीं तो यदि न समझे होओगे तो आगे समझ जाओगे। इस लेखको एक ओर ताकमें रख दो, अथवा तुम अपने शरीरके स्वामी कहलाते हो, मैं कहता किसी विशेष अधिकारी मित्रके स्वाधीन कर दो। हूँ कि तुम सचमुच ही उसके सम्पूर्ण स्वामी बन कितने ही मनुष्य छोटे बालकके समान जिज्ञासु जाओ। मैं चाहता हूँ कि तुम बलवान् और होते हैं । वे कोई नई बात सुनकर तुरंत नीरोग बनो। उसके मोहमें पड़ जाते हैं और उसके पीछे आवश्यकीय सूचना। दौड़ने लगते हैं। वे एक या दो दिन उसका जिन मनुष्योंने राजयोगके मार्गमें प्रवेश प्रयोग करते हैं और मनःकल्पित परिणामकी किया है, वे ऊपर कही हुई बातोंको सहज ही सिद्धि न दिखाई देने पर उसे छोड़ देते हैं। *मान लेंगे, परंत जो केवल जिज्ञासु हैं वे इन एक बालक जमीनमें बीज बोता है, उसके ऊपर । बातोंको स्वीकार करने में संशय करेंगे। उनका जलसिंचन करता है, मिट्टीके द्वारा उसे ढाँक । यह संशय दूर करनेके लिए पहले दो एक सरल देता है; परंतु अंकुर फूटा या नहीं यह देखने के प्रयोगं बतलाऊँगा, जिनको आजमाकर देख- लिए अधीर होकर दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह . नेसे उनका संशय-तिमिर हट जावेगा, आत्म- मिनिटमें मिट्टी खोदकर देखता है । अब विचारो, श्रद्धा बढ़ेगी और आवश्यकीय क्रियायें करनेके क्या वह बीज कभी अंकुरित होगा ? यदि तुम लिए उनको बल प्राप्त होगा। साधनारूपी मार्ग- इस बालकके समान अधीर हो-जो एक या दो पर चलनेवाले प्रत्येक शिष्यको स्मरण रखना दिवसके अभ्यासमें सिद्धिकी आशा रखता हैचाहिए कि जबतक बाह्य मन चंचल है, तबतक तो यह मार्ग तुम्हारे लिए नहीं है । साधनाके तुम्हारी आशायें और सूचनायें आन्तरिक मन तक द्वारमें प्रवेश करनेके पहले तुममें दृढ़ता और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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