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________________ जैनहितैषी [भाग १३ आत्मश्रद्धाके होने की बड़ी आवश्यकता है। यह है। यह काम एकदम सिद्ध नहीं होगा। यदि राजयोगकी 'प्रवेशिका परीक्षा' है । इस परीक्षाके आठ दस दिनतक विना उकताये अभ्यास जारी पास किये बिना किसी विद्यार्थी ( साधक) को रक्खोगे तो अवश्य सफलता होगी। इस क्रियासे साधनाके द्वारमें प्रवेश करनेका अधिकार नहीं तुम अपनी बड़ी-से-बड़ी थकावटको चाहे जब मिलता और यदि कोई ऐसी अपरिपक्क साधक- सहज ही मिटा सकोगे। आठ घंटेकी निद्रा लेने अवस्थामें प्रवेश करता है तो वह अवश्य ही से शरीरको जितनी विश्रान्ति मिलती है, उतनी ही निष्फल जाता है, और वह अपनी भूलके कारण इस शिथिल करनेकी क्रियासे कुछ मिनिटोंमें ही अथवा शीघ्रताके कारण निष्फल हो जानेसे मिल जायगी। शिथिल हो चुकने पर अब एक लम्बी योगविद्याका कट्टर शत्रु बन जाता है-उसे ढोंग श्वास लो । फेंफड़ोंमें एक साथ सब वायु मत या इन्द्रजाल समझने लगता है। भरो, और ठहर ठहरकर अटक अटक कर भी पहली सीढ़ी। श्वास मत लो; वरन् धीरेसे गहरी श्वास लो; उपरिलिखित रीत्यनुसार यदि तम अधि- फेंफड़े और छातीको वायुसे भर डालो और कारी हो, तो दृढता, आत्मश्रद्धा और मनो- वायुको नाभिपर्यंत जाने दो । यदि तुम्हें बलको अपना साथी बनाकर मेरे साथ किसी अभ्यास न हो तो कुंभककी अर्थात श्वासको अंदर एकान्त स्थानमें चलो और कमरेका दरवाजा रोकनेकी क्रिया मत करो। जैसे धीरे धीरे श्वास बंद कर लो । यदि तुम्हारे हृदयमें व्यग्रता. ली थी उसी प्रकार उसे धीरे धीरे छोड दो। फिर तर्क वितर्क आदि हो तो उन्हें बाहरके कमरेमें जितने क्षणतक विना श्वासके सुखपूर्वक रह रख जाओ और प्रसन्न चित्तसे मेरे सम्मुख आसन सको उतने समयतक श्वास मत लो । यही पर बैठ जाओ। मनमें किसी प्रकारका संशय उत्तम कुंभक है । इसके पश्चात् फिर धीरे धीरे मत रक्खो । कहा है कि-'संशयात्मा विनश्यति। गहरी श्वास लो और फिर धीरे धीरे बाहर इस क्रियामें कुछ भी कठिनाई नहीं है । यदि निकालो । इस क्रियाको सुख शान्तिपूर्वक तुम पद्मासनसे बैठ सकते हो तो ठीक है, नहीं करना चाहिए । फेंफड़े और हृदयको श्रमित तो एक आराम कुर्सी पर सो जाओ। यदि आराम मत होने दो । बीच बीचमें हो सके तो 'ओम कुर्सी भी न हो तो दरी पर सिर और पैरके नीचे का उच्चारण करो । यदि इस बतलाई हुई तकिया रखकर लेट जाओ। अब तुम अपने हाथों, प्रक्रियाके अनुसार अभ्यास करोगे तो तुम्हारा पैरों और गर्दनकी स्नायुओंको शिथिल कर दो। बाह्य मन स्थिर हो जायगा और आन्तरिक मन शिथिल करनेकी क्रिया बहुत ही आवश्यक है। तुम्हारी आज्ञायें ग्रहण करनेको सदैव यदि तुम प्रतिदिन एक या दो बार पाँच या तत्पर रहेगा। दस मिनिटतक शरीरको शिथिल करके नि:श्चेष्ट सामान्य आदश । होकर पड़े रहने का अभ्यास कर लोगे तो तुम्हारी जब तुम इस स्थिति तक पहुँचोगे तब, तुम्हारी सारी थकावट उतर जाया करेगी और नई शक्ति श्वास बहुत स्थिर हो जायगी, तुम्हारा मन आ जाया करेगी। इससे तुम्हारी आयुकी वृद्धि विचार करना या भटकना छोड़ देगा और तुमको होगी। अतएव शिथि होना सीखो। हाथ पैरोंको ऐसाभासने लगेगा कि सारे संसारमें मेरे सिवा और बिलकुल ढीले कर दो, कपड़ेके समान नरम कोई नहीं है । ऐसी स्थिति प्राप्त करनेके लिए तुम्हें हो जाओ, मानो शरीरमें बिलकुल शक्ति ही नहीं धैर्यके साथ प्रयत्न करना चाहिए । चाहे थोड़े दिन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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