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________________ 'योग- चिकित्सा | अङ्क ५-६ ] २२९ म्भमें पूरा मंत्र उच्चारण करने के लिए तुम्हें पाँचसे दस मिनिट लगेंगे, बाद में जब तुम्हारा अभ्यास बढ़ जायगा, तब तुम अधिक समयतक एक ही विचारमें मग्न रहना सीखोगे और वैसे ही अधिकाधिक बल और आरोग्यता प्राप्त करोगे । लगे चाहे अधिक; परंतु इस स्थिति तक पहुँच सब सकते हैं। जब तुम ऐसी स्थिति में प्रवेश करोगे तब तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारा आंतरिक मन तुम्हारा आदेश ग्रहण करनेके योग्य हो गया है । इतना हो चुकने पर निम्न लिखित महामंत्रको मनन करते हुए उच्चार करो। याद रखना चाहिए कि इस मंत्र के शब्दों को केवल मुँह से जपने या कह जानेसे कुछ लाभ नहीं होता । इसके अर्थको समझकर और स्थिरता के साथ विचार करके उसके भावको हृदयङ्गम करना चाहिए । प्रत्येक वाक्य कहते समय उसका जो प्रातःकालकी क्रिया । ऊपर बतलाई हुई क्रियाका उपयोग दिन में जब कभी दस दस पाँच पाँच मिनिटका अदकाश मिले तभी करने लगना चाहिए और इसका अभ्यास बढ़ाना चाहिए। पहले थोड़े दिनतक मनको याद दिलानी पड़ेगी, परंतु कुछ भाव हो, तुम यथार्थमें वैसे ही हो ऐसी दृढ़ धा-देनोंके बाद अभ्यास बढ़ जाने पर मन आप-ही T रणा करनी चाहिए | कलना मिथ्या नहीं होती है । स्मरण रक्खो, तुम जैसी कल्पना करोगे वैसे ह्रीं हो जाओगे | जब तुम श्रद्धापूर्वक यह मान लेते हो कि मैं बलवान् हूँ तब तुम सचमुच में ही बलवान् हो । अत एव तुम ऐसी कल्पना करो कि हमारे हाथ, पाँव, पीठ, छाती आदि सब स्नायु बद्ध और रुधिरसे परिपूर्ण हैं। थोड़े समके बाद तुम्हें इस क्रियाका चमत्कार दिखाई देगा | आप स्वाभाविक रीति से ध्यानस्थ हो जायगा । परंतु जो साधक पूर्ण आरोग्य और बल प्राप्त कर नेकी इच्छा रखते हों, उन्हें प्रतिदिन प्रातः काल मनको स्थिर करके एक क्रिया करनी चाहिए ! पहले तो ऊपर कहे अनुसार शिथिल होकर बाह्य मनको स्थिर करो, फिर अपने सामने हनुमान, भीम, राममूर्ति अथवा और किसी महाबलवान्, पुरुषका चित्र रक्खो । उसके शरीरके प्रत्येक अंगको प्रेमपूर्वक देखो और फिर नेत्र बंदू करके नीचे लिखे अनुसार कल्पना करो - " मेरा शरीर वज्र के समान दृढ़ और शक्तिमान् है । मेरे हाथ पैर और सब शरीर के स्नायु कठिन, मोटे और सशक्त हैं । शरीरके किसी भाग में भी रोग नहीं है । सम्पूर्ण शरीर अलौकिक चेतन शक्तिसे परिपूर्ण है ।" इस विचारको मनमें खूब स्थिर करो । ऐसी कल्पना करके कि हम स्वतः वैसे हैं अपने हाथ, पाँव और छाती पर हाथ फेरो | बारंबार नाभिपर्यंत दीर्घ श्वास लो । इस क्रियाको प्रतिदिन १० से १५ मिनिटतक करो । महामंत्र - – “ ॐ मैं अपने शरीरका स्वामी हूँ | मैं सुखरूप हूँ | मैं बलवान् हूँ | मेरा रुधिर सब नाड़ियों में निरामय वेगसे भ्रमण करता है। मेरे फेंफड़े और हृदय अपना कार्य नियमित रीति से करते हैं । मेरी जठराग्नि उत्तम रीति से अन्नको पचाती है। उससे शुद्ध रुधिर उत्पन्न होता है । तें निरुपयोगी मलको बाहर निकालती हैं । " मैं फिर कहे देता हूँ कि इसका प्रत्येक वाक्य उच्चारण करते समय ऐसी दृढ़ कल्पना करना चाहिए कि मैं जो कह रहा हूँ उसके अनुसार शरीरमें क्रियायें हो रही हैं, अथवा उन क्रियाओं की मूर्तिको अपने हृदय में बनाना चाहिए | तुम्हारी कल्पना जितनी दृढ़, श्रद्धायुक्त और सतेज होगी उतना ही अधिक तुमको लाभ होगा। आर Jain Education International उपयोगी व्यायाम । सदैव विस्तरोंसे उठकर छत पर जाओ । यदि छत न हो तो कमरेकी सब खिड़कियाँ खोलकर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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