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________________ २९० है और आधुनिक प्रतिमाओं पर है । पूर्वकालीन प्रतिमाओं पर वस्त्रलांछन भी नहीं है और स्पष्ट नम्रत्व भी नहीं है । ” जैनहितैषी - सांप्रदायिक दृष्टि से यह कथन कितना युक्तिसङ्गत या असङ्गत है, इसका यहाँ पर मैं नाम भी नहीं लेना चाहता हूँ। क्योंकि यहाँ पर मुझे केवल ऐतिहासिक विचार करना है । उपाध्यायजीके इस कथन में, लेखनिर्दिष्ट मुख्य बातके सिवा नीचे लिखी बातों पर प्रकाश पड़ता है । १ - दोनों संप्रदायोंमें जिस तरह आज कल तीर्थोंके अधिकारके वारेमें झगड़े हो रहे हैं, वैसे पहले भी होते थे। परंतु उनके फैसले आजकलकी तरह अदालतों द्वारा न होकर किसी और ही प्रकार से किये जाते थे । २ - उज्जयंत ( गिरिनार ) के बारेमें विवाद होनेका उल्लेख और भी एक दो श्वेताम्बर ग्रंथोंमें मिलता है दिगम्बर ग्रन्थोंमें भी इस बातका जिक्र है, इसलिए इस कथनमें कुछ ऐतिहासिक सत्यका होना अवश्य पाया जाता है - जो अभी तक हमें अज्ञात है । ३ श्वेताम्बरोंमें कई स्थानोंकी प्रतिमाओं को संप्रति राजाकी बनवाई हुई मानते हैं । यह मानता तीन सौ चार सौ वर्ष पहले भी इसी तरह प्रचलित थी और अच्छे अच्छे विद्वान भी इस पर श्रद्धा रखते थे । अब मूल और मुख्य बातकी तरफ ध्यान देना चाहिए । उपाध्यायजीके कथनका रहस्यार्थ यह निकलता है, कि दोनों सम्प्रदायोंमें जब तक अधिक मतभेद या विशेष विरोध न होने पाया था तब तक दोनों में एक ही आकारवाली प्रतिमायें पूजी जाती थीं । मतभेदकी मात्राके बढ़ जानेसे और आपसमें वैर - विरोधकी भावना के प्रज्वलित हो जाने से वर्तमान समय में दिखाई देनेवाले चिह्नभेदों की सृष्टि हुई है । मेरी समझमें उपाध्यायजीके इस कथनमें कुछ न कुछ तथ्य Jain Education International [ भाग १३ अवश्य संगृहीत है । यह कथन कुछ तो उन्हों स्वयं अन्वेषण और विचार करके लिखा होगा और कुछ परंपरागत श्रवण करके । I अब इसमें विचारने की बात यह है कि-“ पुव्विं जिणपडिमानं नगिणत्वं नेव नवि पल्लवओ; पहले जिनप्रतिमायें न नग्न हीं थीं और न वस्त्रचिह्नयुक्त | यह जो कथन हैं सो किस प्रकारकी प्रतिमाओं को उद्दिष्ट कर के है ? जैन मूर्तियाँ दो प्रकारकी होतीं हैं - एक तो पद्मासनस्थ बैठी हुई और दूसरी ऊर्ध्वदेहाकार कायोत्सर्गस्थ - खड़ी हुई । तो क्या उपाध्यायजी - का जो कथन है वह पद्मासनस्थ प्रतिमाओंके लिए हैं या ऊर्ध्वदेहस्थ प्रतिमाओंके लिए ? अथवा दोनोंही के लिए ? जहाँ तक मैने सोचा और विचारा है उससे पद्मासनस्थ प्रतिमा के बारे में तो यह कथन सङ्गत हो सकता है। क्योंकि पलथी मार कर बैठनेवाला मनुष्य जिस तरह वस्त्रके न रखने पर भी उचित प्रयत्न से खुल्लमखुल्ला नग्न नहीं दिखाई दे सकता है, वैसे ही पद्मासनस्थ प्रतिमाओंके विषयमें भी शिल्पीके चातुर्यसे नग्नत्वके दर्शनका अभाव हो जानेपर भी मूर्तिके यथोचित आकार दर्शनमें और भव्य - त्वमें किसी प्रकारकी क्षति नहीं आ सकती ! मैंने स्वयं ऐसी बहुत सी मूर्तियाँ देखी हैं जिनके पादमूलमें उपाध्यायजी के कथना.... नुसार न पल्लवका चिन्ह है और न स्पष्ट नम है । परंतु ऊर्ध्वदेहाकार प्रतिमाओंके वारे में यह कथन असंदिग्ध नहीं मालूम देता कि वे भी इस प्रकार - न नग्न और न सवस्त्र - होती थीं। शंका होती है कि जब इन दोनों प्रकारों का उनमें अभाव था तो फिर वे थीं किस प्रकारकी ? और इस प्रकार स्पष्ट रूपसे आकार के दर्शनाभाव में वे आकृतिसे रमणीय भी कैसे लगती होगी ? अभी तक कहीं पर भी ऐसी विलक्षण मूर्ति देखने सुननेमें नहीं आई है। इससे तो यह अनु For Personal & Private Use Only ܕ www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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