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अङ्क ५-६]
प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ कैसी था ?
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दिगंबर संप्रदाय है और बाकी ९ श्वेताम्बरसंप्र- अहवा सव्वपसिद्धं सित्तुंजय-उज्जयतं-तित्थदुर्ग । दायके अंतर्गत गच्छ- समुदाय हैं । इन दशोंका जस्म्य तं आयत्तं सो संघो वीरजिणतित्थं ॥ १॥
उर्जितगिरिविवाए सासणसुरि कहणमित्थसंजायं । नामोल्लेख ग्रन्थारम्भमें इस एक 'गाथा द्वारा जो मण्णइ नारीणं मुत्तिं तस्सेव तित्थमिणं ॥२॥ किया गया है
तत्तो विसन्नचित्ता खमणा पासंडिआ विगयआसा । __ + खवणयं-पुण्णिम-खरयएँ-पलॅषिया
निय निय ठाणं पत्ता पन्भठा दाणमाणेहिं ॥ ३ ॥
मा पडिमाणविवाओ होहीत्ति विचिंतिऊण सिरि संघो। सड्डपुण्णिमा-गमिआ। पंडिमा मुणिअरि
कासी पल्लवचिंधं नवाण पडिमाणपयमूले ॥ ४॥ वैज्झा पासो पुणसंपइ दसमो॥
तं सोऊणं म्हो दुट्ठो खमणोवि कासि नगिणतं । ___ इन दशों मतों या संप्रदायोंकी एक एक प्रक- निअपडिमाणं जिणवर विगोविणं सोवि गयसत्तो ॥५॥ रण द्वारा क्रमशः समालोचना की गई है और तेण संपइ-पमुहपडिमाणं पल्लवंकणं नथि।
अत्थि पुण संपईणप्पडिमाणं विवायकालाओ ॥ ६ ॥ इस तरह यह सारा ग्रथं १० प्रकरणोंमें समाप्त । किया गया है । पहले प्रकरणमें दिगम्बर संप्रदा-.
पुब्धि जिणपडिमाणं नगिणतं नेव नवि अ पल्लवमओ। यके सिद्धान्तों या विचारोंकी समालोचना है
तेणं नागाटेणं भेओ उभएसि संभूओ ॥ ७ ॥ और उसमें स्त्रीमुक्ति केवलीमुक्ति आदि सुप्रसिद्ध इन गाथाओंका तात्पर्यार्थ यह है किमतभेदोंकी मीमांसा की गई है। यह मीमांसा “ सर्वप्रसिद्ध ऐसे जो शत्रुजय और उज्जयंत कैसी है ?-इस विषयका उत्तर देनेकी यहाँ आ- (गिरनार ) नामक तीर्थ हैं वे जिस संप्रदायके वश्यकता नहीं । उपाध्यायजीने इस मीमांसाके आधीन हो वही संप्रदाय-संघ वीरजिनका यथार्थ अंतमें 'श्वेताम्बर प्राचीन है या दिगम्बर ?-' अनुगामी हो सकता है-दूसरा नहीं । यह एक नया ही प्रश्न खड़ा करके उसका वि. पहले ( कब ?-इसका पता नहीं ) चित्र ढंगसे समाधान करनेका प्रयत्न किया है। जब उज्जयंत गिरिके वारेमें दिगम्बर और श्वेतायह बात पूर्वके किसी ग्रंथमें उपलब्ध नहीं होती, म्बरोंमें परस्पर झगड़ा हुआ तब शासन देवताने इस लिए इसके आविष्कारका मान इन्हींको आकर कहा कि जो संप्रदाय स्त्रीको ( उसी मिलना चाहिए।
भवमें ) मुक्ति मानता है, उसीका यह तीर्थ है।'
, इस वचनको सुनकर दिगम्बर पाखंडी खिन्न दिगम्बरसम्प्रदायको आप ' तीर्थबाह्य ।
- चित्त हो गये और विगताशा होकर अपने अपने उहराते हुए कहते हैं कि 'अय प्रकारान्तरेणापि
स्थान पर चले गये और उस समय श्रीसंघ तथा दर्शयितुं युक्तिमाह;'- अब और प्रकारसे
(श्वेताम्बर संप्रदाय) ने सोचा कि भविष्यमें भी दिगम्बर संप्रदायको तीर्थबाह्य दिखानेके लिए प्रतिमाओंके वारेमे कोई झगड़ा न होने पावे, युक्ति कही जाती है।' इस प्रकार अवतरण
इस लिए अब जो कोई नई जिनप्रतिमायें बनाई देकर आपने निम्न लिखित गाथायें दी हैं:
जायँ उनके पादमूलमें वस्त्रका चिह्न बना ४ अर्थात्-१ क्षपणक, (दिगम्बर ), २ पौर्णि. दिया जाय । इस बातको सुनकर दिगम्बमीयक, ३ खरतर, ४ आंचलिक, ५ सार्ध पौर्णमीयक, रोको क्रोध आ गया और उन्होंने अपनी प्रति६ आगमिक, ७ प्रतिमारि (लुंपाक ), मुनि अरि माओंको स्पष्ट नन बनाना शुरू कर दिया। (कटक ), ९ वभ्य (बीजामति ) और १० पार्श्व. यही कारण है कि संप्रति ( अशोकका पौत्र ) बन्द्रीय।
आदिकी बनाई हुई प्रतिमाओं पर वस्त्रलांछन नहीं
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