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जैनहितैषी -
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है; परन्तु दिगम्बर-संप्रदाय में इससे विपरीत प्रकार देखा जाता है । दिगम्बर मूर्तियाँ संप्रदाय के नामानुसार सर्वथा दिगम्बर नग्न ही होती हैं । इस भिन्नताका कारण स्पष्ट और सुप्रसिद्ध ही है इन दोनों संप्रदायोंका परस्पर सबसे बड़ा मन्तव्यविरोध है वही इन प्रतिमाओंकी भी भिन्नताका कारण है । श्वेताम्बरोंकी मानतानुसार तीर्थकर और उनके स्थविर - श्रमण सदा वस्त्र धारण किये रहते हैं और दिगम्बरोंके कथनानुसार वे दीक्षाकालसे लेकर आजीवन केवल दिशारूप वस्त्रके सिवा और कोई दूसरा वस्त्र नहीं रखते, अर्थात् वे सदैव नग्न ही रहते हैं । यही मतभेद इन दोनों संप्रदायोंके भिन्नत्वका मूल और मुख्य कारण है और इसी कारण दोनों संप्रदायोंकी जिनमूर्तियों में भी भेद-भाव है ।
श्रमण भगवान् महावीरोपदिष्ट अविभक्त जैनधर्ममें इस प्रकारका द्वैधीभाव कब उत्पन्न हुआ और इस द्वैधीभावके उत्पन्न होने के पूर्व में उस अविभक्त जैनदर्शनका स्वरूप, इन दोनों संप्रदायों से किसके साथ विशेष मेल रखता था, इस गहन ग्रन्थिके खोलने का मार्ग आधुनिक ऐतिहासिकोंको अद्यापि ठीक ठीक नहीं मिला है । यद्यपि दोनों संप्रदायोंके साहित्यमें इस विषयका जिकर और निर्णय अपने अपने पक्षानुकूल बहुत कुछ किया गया है, परंतु इस समय के तत्त्वमीमांसकों और इतिहासान्वेषकों को उससे सन्तोष नहीं होता है । और इसी लिए वे प्रश्न करते हैं कि- “ प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ "कैसी थी ?” अर्थात् पूर्वकालमें जब कि जैनधर्म अविभक्त रूपमें था, या भेदकी मात्राने जबतक उग्र रूप नहीं धारण किया था तब जो जिनप्रतिमायें होती थीं वे श्वेताम्बरोंके मतानुकूल वखाकारसहित गुह्यप्रदेशावच्छन्न होती थीं या दिगम्बरों के वक्तव्यानुसार प्रकट नग्न ही होती थीं
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[ भाग १३
श्वेताम्बरसम्प्रदाय के तपागच्छ नामक मुख्य समुदायमें, धर्मसागर उपाध्याय नामके एक प्रसिद्ध विद्वान् विक्रमकी सत्रहवीं शताब्दीके पूर्वभाग में हो गये हैं । ये उन सुप्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरिके गुरुभ्राता और सहाध्यायी थे जिनको मुगल सम्राट् अकबर बादशाहने 'जगगुरु' की उपाधि समर्पित की थी; जिनके शुभ प्रयत्नसे अकबर जैसे मुसलमान बादशाह के उतने बड़े साम्राज्य में महीनोंतक जीवहिंसा-प्राणिवध करनेके लिए मनाईके हुक्म जारी किये गये थे । उपाध्याय धर्मसागरजी बड़े प्रतिभाशाली ग्रन्थकार थे, परंतु स्वभाव आपका बड़ा उम और स्वसंप्रदायका असीम पक्षपाती था । दूसरे संप्रदायोंके साथ झगड़ने में और कटोरशब्दप्रयुक्त खण्डन- मण्डन विषयक ग्रंथ लिखने में आपकी उत्कट अभिरुचि थी । आपने अपनी इस अभिरुचिको जैनसाहित्य में 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ ' प्रकट रखने के लिए कई बड़े बड़े ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें आपके भावका अच्छा प्रतिबिम्ब प्रतिबिम्बित है ।
आपकी ग्रन्थसन्ततिमें से एक बड़ा और प्रतिष्ठित ग्रंथ है, जिसका नाम ' कुपक्षकौशिक - सहस्रकिरण अथवा ' प्रवचनपरीक्षा ' है । ग्रंथका मूल प्राकृत गाथाबद्ध है और उसे विस्तृत स्वोपज्ञ वृत्तिसे विभूषित किया गया है । सारा ग्रंथ कोई १५,००० श्लोक प्रमाण है ! इस ग्रन्थ में उपाध्यायजीने अपने संप्रदाय को छोड़कर बाकी सब ही जैनधर्म के प्रसिद्ध प्रसिद्ध संप्रदायोंके सिद्धान्तों- मन्तव्यों की समालोचना की है। ( यहाँ पर समालोचनासे मतलब सिर्फ खण्डनहीका समझिए मुझे खण्डन' शब्द से प्रेम नहीं है इस कारण मैंने यह आधुनिक सभ्य शब्द प्रयुक्त किया है ।) समालोचित संप्रदायोंकी संख्या १० हैं जिनमें एक तो समुच्चय
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