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________________ जैनहितैषी [भाग १३ जीने जैनपत्रोंके जिन सम्पादकोंको लक्ष्य कर दिया और शेष सब पत्रोंको दश दश पाँच पाँच यह बात कही है जहाँ तक हम जानते हैं वे पत्र रुपयोंके लोभमें चाहे जिसके पक्षमें लिख देनेवाला बड़ी निर्भीकतासे चलाये जाते हैं और जो संपादक बना दिया, तो हमें आश्चर्य न मानना चाहिए। रिश्वत लेते हैं वे उतनी निर्भीकतासे नहीं लिख पत्रसम्पादकोंका यह घोर अपमान है। उनका सकते । हमें आशा है कि सेठ साहब अपने इन इससे और अधिक अपमान नहीं हो सकता । वचनोंको वापस लेंगे।" हमने जब इस समाचार- मालूम होता है कि सेठजी इस समय धनके मदसे पर विचार किया तो हमें मालूम हुआ कि उक्त उन्मत्त हो रहे हैं, इसी कारण उनके मुंहसे इस तरह सभामें ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीका और बाबू बेलगाम बातें निकल जाती हैं, और इधर सूरजमलजीका जो अपमान हुआ था, वह सेठजी- अधिकांश समाचारपत्र-विशेष करके हमारे को यथेष्ट नहीं मालूम हुआ-इस लिए उन्होंने सारे जैनपत्र दुर्बल, निःसत्व और घनियोंकी कृपाके ही सम्पादकोंका अपमान करके उसकी पूर्ति कर आधारसे चल रहे हैं । यदि ऐसा न होता तो डाली । ऊपराऊपरी विचार करनेवाले यही समझेंगे इस समय सेठजीको मालूम हो गया होता। कि उन्होंने अपमान करनेवालोंको समझाया; परन्तु वे जान जाते कि पत्रोंकी शक्ति कितनी वास्तवमें वे समझनेके लिए नहीं समझाये गये, होती है। जैनपत्रोंकी इससे अधिक दुर्बलता और किन्तु इसलिए समझाये गये कि उस समझानेके स्वात्मगौरवशून्यता क्या हो सकती है कि वे इस भीतर उन्हींकी बात प्रकारान्तरसे पुष्ट कर दी घोर अपमानको पानीके चूंट पी गये। दो महीनेसे जाय । जैसा कि उक्त सहयोगी लिखता है और आधिक होनेको आये, पर उनमेंसे किसीने भी जैसा कि हमने उक्त सभाके दर्शकोंके मुँहसे चूँ न की, बल्कि इसी बीचमें एक पत्रने तो सुना है, ब्रह्मचारीजीका अपमान इतना असह्य उनका दर्शनीय चित्र भी प्रकाशित कर डाला! था कि यदि उसे सेठजी सचमुच ही अपमान पत्रोंकी प्रतिष्ठाका श्राद्ध कर डाला !! समझते, तो वे उसका यह इलाज न करते; पर सेठजीके कथनमें सत्यताका भी कुछ केवल समझा ही न देते, अपमान करनेवालोंको अंश है, इस बातको हमें अवश्य स्वीकार करना धक्के देकर सभासे अलग करवा देते; परन्तु ऐसा होगा। जैनसमाजमें आधिकांश पत्र ऐसे ही हैं, तो तब किया जाता जब सेठजीकी नजरमें ब्रह्म- जो धनियोंके इशारों पर नाचा करते हैं। इन्हें चारीजीका या दूसरे सम्पादकोंका कुछ मूल्य होता। न अपनी प्रतिष्ठाका खयाल है, न अपने कर्तउनके हृदयमें तो उलटी एक अस्पष्ट आनन्दकी व्यका ज्ञान है, और न समाजकी भलाई बुरालहर उठ रही होगी; क्योंकि इसी वृद्धविवाहके ईका। बड़े आदमियोंको तो इन्होंने उनकी सम्बन्धमें जिसके कि कारण ब्रह्मचारीजी और प्रशंसा कर-करके बहुत ही बिगाड़ दिया है। ये सूरजमलजीका अपमान किया गया है, स्वयं सेठ- लोग ऐसे ऐसे धनियोंके भी चित्र और चरित्र जी पर भी तो सख्त टीका की गई थी। इस प्रकाशित करनेमें संकोच नहीं करते, जिनकी वृद्धविवाहके सौदेके १५०० ) रुपये सेठजीकी प्रशंसा करना तो दूर रहा, जिनकी निन्दा न दूकान पर ही जमा कराये गये थे और इस करना पाप है ! पर इससे इन्हें क्या सरोकार । कारण जातिप्रबोधक आदि पत्रोंने सेठजीको चित्र बनवाने और छपानेका खर्च भर इन्हें मिल बच आड़े हाथों लिया था । ऐसी दशामें यदि जाना चाहिए। चित्र जिसका है, वह नरकका सेठजीने दो सम्पादकोंका प्रत्यक्ष अपमान होने कीड़ा हो तो क्या और स्वर्गका देव हो तो क्या ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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