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________________ अङ्क ७ ] क्या उसके ये कार्य सोलहवें स्वर्गके अच्युतेन्द्र होनेके योग्य हो सकते हैं ? जैनधर्म हिन्दुओकी सतीदाहप्रथाका सदासे विरोधी रहा है; पर यह खुली चिट्ठी उसको उलटी उत्तेजना देती है - आत्महत्याको पुण्य बतलाती है । इस बात को तो हम मान सकते हैं कि पद्मिनी आदि स्त्रियाँ श्रेष्ठ पतिव्रता थीं; उनकी वह एकनिष्ठता और पतिभक्ति साधारण नहीं थी, जिसके वश होकर उन्होंने अपने प्राणों को भी तुच्छ समझा था, परन्तु आग में जलकर वे ' अच्युतेन्द्र ' हो गई होंगी और अब वहाँसे चयकर शायद आगामी कालमें तीर्थकर पद पालेंगी, इस बात को आप और आपके धर्मसे अविरुद्ध लिखनेवाले लेखक ही सत्य बतला सकते हैं । विविध प्रसङ्ग । " ३ सम्पादकों का अपमान । गत २४ जूनको 'जैनसिद्धान्तविद्यालय ' के सम्बन्धमें इंदौर में जो सभा हुई थी, उसकी कुछ ऐसी बातोंको जैनपत्रोंने दबा दिया है जिन पर चर्चा होनेकी बहुत बड़ी आवश्यकता थी । इन्दौर के सहयोगी मल्लारिमार्तण्डविजय ' ने उन पर प्रकाश डालने की कृपा की है । वह लिखता है-“ जैनसमाज कितना पिछड़ा हुआ है और उसके कुछ लोग सभ्यतासे कितनी दूर रहते हैं यह बात बड़े दुःखके साथ उस दिन देखी गई । समाजसुधारकी चर्चा अभी कुछ ही दिनोंसे जैनों में होने लगी है । इस समाज के कुछ सुशिक्षित नवयुवक अन्तर्जातीय विवाह और विधवाविवाह आदि पर अपने स्वतंत्र विचार प्रकाशित करने हैं और परम्परागत कुरीतियों के खिलाफ जोरोंसे आवाज उठाने लगे हैं । जातीय उत्थानके ये शुभ चिह्न हैं । जैन समाज धनमें अग्रसर होने पर भी विद्यामें पिछड़ी हुई है । उसमें रूढियोंके ही भक्त विशेषतासे मिलेंगे । सुधारकोंका अपमान करनेमें-उनके पथमें काँटे विछानेमें ये 'बाबा वाक्यं प्रमाणं ' माननेवाले लोग कोई कसर नहीं Jain Education International ३०७ उठा रखते। उस दिन जैन मित्र के सम्पादक श्रीयुत शीतलप्रसादजी ब्रह्मचारीका भर सभा में ऐसे ऐसे कुशब्दों द्वारा अपमान किया गया कि जिस मनुष्यमें जरा भी मनुष्यत्व है, वह ऐसे शब्दोंको अपनी जबान पर नहीं ला सकता । ब्रह्मचारीजीका अपराध जहाँतक हम समझते हैं, केवल यही था कि उन्होंनें एक दफा जैनों के अन्दर अन्तर्जातीय विवाह पर अपनी अनुकूल सम्मति प्रकाशित की थी । जैनप्रभातके सम्पादक बाबू सूरजमलजीका भी ऐसा ही हाल हुआ । वृद्धविवाह के विरुद्ध जोशीले लेख लिखने के बदले और एक वृद्धविवाह पर कड़ी टीका करनेके बदले दो एक मनुष्य - नामधारियोंने अपने मुँह से ऐसे ऐसे जौहर निकाले जो उन्हीं के लिए शोभास्पद कहे जा सकते हैं । सभ्य मनुष्यकी ताकत नहीं कि वे ऐसे शब्दोंको काममें लावें । ” इसके बाद उक्त पत्र लिखता है कि 4 66 करना इस सभा सभापति दानवीर सेठ हुकमचन्दजीने इन लोगों को समझानेकी चेष्टा करते हुए कहा कि हमें अपनी कमजोरियों को सुनने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए । अगर अखबार हमें अपने दुर्गुण बतलावे तो हमें इसके लिए उनपर नाराज होनेके बदले अपने दुर्गुण निकालने का प्रयत्न चाहिए । मैंने अपने पुत्रके विवाह में नृत् कराया था। इस पर समाचारपत्रोंने मुझ पर कड़ी टीका की । मैं इस पर कुछ नाराज नहीं हुआ । आज मैं इस सभामें सबके सामने वैश्यानृत्य न करानेकी कसम खाता हूँ। इन बातोंके साथ साथ सेठ हुकमचन्दजीने एक ऐसी बात कह डाली - जो उन जैसे जवाबदार और बुद्धिमान सज्जनके लिए योग्य नहीं कही जा सकती । आपने कहा कि अखबारवालोंका क्या ? जो आदमी उन्हें पाँच दस रुपया दे देता है, उसीके पक्षमें वे लिख देते हैं ।.... सेट For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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