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________________ अङ्क ५-६] विचित्र-व्याह। अपना कार्य और आन्दोलन जारी रखना चाहिए। विषयक साहित्यका सर्वत्र प्रचार करके अपने आन्दोलन के सफल होने पर विरोधी शान्त हो देश या समाजके साहित्यको सुधारनेमें समर्थ जायेंगे, उन्हें स्वयं अपनी भूल मालूम पड़ेगी हो जायेंगे तो फिर देश या समाजके सुधरने में और आगे चलकर वे तुम्हारे कार्योंके अनुमोदक कुछ भी देर नहीं लगेगी । उसका सुधार और सहायक ही नहीं बल्कि अच्छे प्रचारक और अनिवार्य हो जायगा । यही सुधारका मूलमंत्र तम्होर पूर्ण अनुयायी बन जायगे । जैनग्रंथोंके है। परन्तु इतना खयाल रहे कि साहित्य जित पानेका कितना बिरोध रहा ! परन्तु अब ना ही उन्नत, सबल और प्रौढ होगा उतना ही वही लोग, जो उस विरोधमें शामिल थे और उसका प्रभाव भी अधिक पड़ेगा और वह अधिक जिन्होंने छपे हुए शास्त्रोंको न पढ़ने की प्रति- कालतक ठहर भी सकेगा । इस लिए जहाँतक ज्ञाओंपर अपने हस्ताक्षर भी कर दिये थे, खुशीसे बने खूब प्रबल और पुष्ट साहित्य फैलाना चाहिए। उप हए ग्रन्थोंको पढ़ते पढ़ाते और उनका प्रचार ता. २५-४-१७। करते हुए देखे जाते हैं । जिधर देखो उधर छपे हुए ग्रंथोंकी महिमा और प्रशंसाके गीत गाये जाते विचित्र व्याह। हैं। यदि उस समय छपे ग्रन्थोंका प्रचार करनेबालोंक हृदयोंमें इस विरोधसे निर्बलता आ - (ले०-६० रामचरित उपाध्याय) जाती और द अपंन कर्त्तव्यको छोड़ बैठते तो तृतीय सर्ग। आज छपे ग्रन्थों की पासे जैनसमाजको शुक्ला एकादशी श्रावणी रही जिसी दिन, जो असीम लाभ पहुंच रहा है उससे वह वंचित रामदेव परलोकनिवासी हुए उसी दिन । रह जाता और उसका भविष्य बहुत कुछ अध नभमें काली घटा धनोंकी उमड़ रही थी, कारमय हो जाता । इस लिए विरोधके कारण कुछ बाकी था दिवस, साँझ हो गई नहीं थी ॥१॥ घबराकर कभी अपने हृदयमें कमजोरी न लानी कोई कहीं मलार प्रेमपूर्वक गाता था। चाहिए और न फलप्राप्तिके लिए जल्दी करके कोई झूले झूल रहा था, सुख पाता था। इताश ही हो जाना चाहिए। बल्कि बड़े धैर्य रामदेव भी रथी चढ़े सोते जाते थे, और गांभीर्यके साथ बराबर उद्योग करते रहना उनके पीछे दुखी बन्धु रोते जाते थे ॥२॥ चाहिए और नये पुराने सभी मागासे जिस मरघट पहुँचा रामदेव-शव घरसे चलकर, .. 'जिस प्रकार बने अपने सुधारविषयक साहित्यका उसे भूमि रख सभी लगे रोने कर मलकर । सर्वत्र प्रचार करना चाहिए । सच्चे हृदयसे काम कलरव करके जहाँ जन्हु-कन्या बहती थी, क्यों रोते हो व्यर्थ? मनो वह यों कहती थी॥३॥ करनेवालों और सच्चे आन्दोलनकारियोंको सफलता होगी और फिर होगी। उन्हें अनेक काम जो आता है उसे कभी जाना पड़ता है, जो नीचे है गिरा वही ऊपर चढ़ता है। करनेवाले, सहायता देनेवाले और उनके कार्यो यों गंगाके कूल ऊल कर जल कहता था, को फैलानेवाले मिलेंगे। इस लिए घबरानेकी जग अस्थिर है इसी लिए अस्थिर रहता था। कोई बात नहीं है । जो लोग देश या समाजके मरघट ! तुझमें पक्षपातका नाम नहीं है, सच्चे हितैषी होते हैं वे सब कुछ कष्ट उठाकर भी __वश कर लेना तुझे किसीका काम नहीं है। उसकी हितसाधन किया करते हैं। इस तरह पर तूने राजा-रंक सदा देखे सम दृगसे, सब कुछ सहन करते हुए, यदि आप सुधार- तूने नाता नहीं कभी जोड़ा है जग ॥ ५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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