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वर्णाश्रमका यहाँ स्वप्र में भेद नहीं है, तुझे किसीके लिए तनिक भी स्नेह नहीं है। वनिता बालक वृद्ध यहाँ सम हो जाते हैं, भीर वीर भी यहाँ पहुँचकर खो जाते हैं ॥ ६ ॥ त्यागी हो या गुही, भीरु हो या निर्भय हो, दुःखी हो या सुखी मलिन या सुषमालय हो । चिता ज्वलन में यहाँ सभी आकर सोते हैं, पलमें जलकर भस्म यहाँ आकर होते है ॥ ७ ॥ होरेही के भाव यहाँ कंकड़ बिकता है,
किसी भाँति भी नहीं यहाँ कोई टिकता है । जगमें जिसने व्यर्थ अन्यको धूल मिलाया, उसने हो क्या रज समय आ यहाँ न पाया ॥ ८॥ जिसे नहीं निर्वेद वेद पढ़ने से होगा, उसे यहाँ निर्वेद निकल पढ़नेसे होगा । एकी रस बीभत्स यहाँ पर स्थित रहता है, नश्वरता-जल-पूर्ण शोकका नद बहता है ॥ ९ ॥ आशाओं का काम यहाँ पर मिट जाता है, यहाँ नहीं षड्वर्ग किसीको दुख-दाता है। सपने में भी लू न लगी हो जिसके तनमें, यहाँ चिताको आग लगेगी उसके तनमें ॥ १० ॥ कनक भवनमें पुष्पसेजके सोनेवाले, क्षुधा - क्षीण हो गली गली के रोनेवाले ! आकरके वे सभी यहाँ ठोकर खाते हैं. या जलचर ही यहाँ उन्हें धोकर खाते हैं ॥। ११ ॥ जो वपु चंपक, चन्द्र, कनकसे भी बढ़कर है, मतवाला हो गया मदन जिसपर चढ़कर है। वही एक दिन यहाँ विवश होकर आता है, म के सम अस्पृश्य त्याज्य समझा जाता है ॥ १२ ॥
सड़ी देहको खान खाते कहीं हैं, अघाते नहीं हैं, घिनाते नहीं हैं । कभी बीच में बोलते जा रहे हैं. मनो कालकी कीर्ति वे गा रहे हैं ॥ १३ ॥ कहीं मत्येकी खोपड़ी भी पड़ी है, कहीं वायु-दुर्गन्धि आती कड़ी है। बना था बड़ा भव्य जो भूषणोंसे, ढका है वही हा यहाँ मृकणोंसे ॥ १४ ॥ विहंगावली बोलती जा रही है, निजावासको त्रासको पा रही है।
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जैनहितैषी -
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[ भाग १३
" हुई ज्ञात सूर्यास्त वेळा इसीसे
न था बोलता जन्तु कोई किसीसे ।। १५ ।।
नहीं सूर्य है चन्द्रमा भी नहीं है, हुई शान्तिवाली निराली मही है। दिवा है न, है रात सन्ध्या नहीं है,
न प्रत्यूष ही है न तारे कहीं हैं ॥ १६ ॥ यथा पुण्यके बादमें पाप आवे, सुखी जीव ज्यों अन्तमें दुःख पावे | तथा लोक आलोक से हीन होके,
हुआ है दुखी हा तमोलीन होके ।। १७ ।। हुआ व्योममें सूर्यका अस्त ज्यों हो, लगे बोलने हर्षसे स्वार त्यों हीं । टले लोकसे लोक-सन्ताप-दाता,
किसे चित्तमें तो न आनन्द आता ? ।। १८ ।। खल श्री कभी स्थायिनी क्या हुई है ? कभी आगमें भी टिकी क्या रुई है । सुखी क्यों रहे जो सुखावे सभीको, गिरेगा न क्यों जो गिराने सभीको १ ॥ १९ ॥
सदा दुःख ही देखते लोक में हैं, कभी सौख्य भी दृष्टि आता हमें है । शशी भी उसी भाँति है दृष्टि आता, छिपाये हुए हैं उसे वारिन्दाता ॥ २० ॥ यथा स्वप्नवलोक में आप देही,
तजे देहको देखते देखते ही उसी भाँति आई गई चन्द्रिका भी,
न बाँधी गई भूमिकी भूमिका भी ।। २१ ।। बुरी या भली वस्तु कोई नहीं हैं, बुराई मलाई सभी में नहीं है।
शशी देख जैसे चकोरी सुखी उसे देख त्यों चक्रवाकी दुखी हैं ॥ २२ ॥ रामदेव भी चिताबीच जलते थे कैसे, मरघट के मैदान दीप जलता हो जैसे ।
विविध भोग को भोग रही थी देह बली हो, अकरुण कालग्रस्त वही अब खेह चली हो ॥२३॥ जगतको अपना मत जानिए,
पर उसे सपना अनुमानिए ।
न परको दुख दे सुख कीजिए,
स्वकरसे अपकीर्ति न लीजिए ॥ २४ ॥
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