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________________ भाग १३ ] पुरुष, समाजमें कोई भी स्त्री, बालक और बालिका अशिक्षित न रहने पावे । न सब बातोंके सिवाय जो जो रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार अथवा सिद्धान्त उन्नति और उत्थानके बाधक हो, जिनमें कोई वास्तविक तत्त्व न हो और जो समय समयपर किसी कारणवशेषसे देश या समाजमें प्रचलित हो गये हों उन सबको सुले श शब्दों में आलोचना कीजिए और उनके गुणदोष सर्वसाधारणपर प्रगट कीजिए | सची आलोचनामें कभी संकोच न होना चाहिए । बिना समालोचनाके दोषोंका पृथक्करण नहीं होता । साथ ही, इस बातका भी खयाल रखिए कि इन सब कार्योंके सम्पादन करने और करानेमें अथवा यह सब साहित्य फैलानेमें आपको अनेक प्रकारकी आपत्तियाँ आवंगी, रुकावट पैदा होंगी, बाधायें उपस्थित होंगी और आश्चर्य नहीं कि उनके कारण कुछ हानि या कष्ट भी उठाना पड़े । परन्तु उन सबका मुकाबला बड़ी शांति और धैर्य के साथ होना चाहिए, चित्तमें कभी क्षोभ न लाना चाहिएक्षोभमें योग्यायोग्यविचार नष्ट हो जाता है-और न कभी इस बातकी परवाह करनी चाहिए कि हमारे कार्योंका विरोध होता है । विरोध होना अच्छा है और वह शीघ्र सफलताका मल है। कैसा ही अच्छेसे अच्छा काम क्यों न हो, यदि वह पूर्व संस्कारो के प्रतिकूल होता है तो उसका विरोध जरूर हुआ करता है । अमेरिका आदि देशों में जब गुलामोंको गुलामी से छुड़ानेका आन्दोलन उठा, तब खुद गुलामोंने भी उसका विरोध किया था । पागल मनुष्य अपना हित करनेवाले डाक्टर पर भी हमला किया करता है । इस लिए महत्पुरुषोको इन सब बातीका कुछ भी खयाल ने होना चाहिए। अन्यथा, वे भ्रष्ट हो जावेंगे और सफलमनारेथ न हो सकेंगे। उन्हें बराबर Jain Education International १९८ व्यक्तियोंको स्वावलम्बनकी शिक्षा दीजिए, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना सिखलाइए, भाग्यके भरोसे रहने की उनकी आदत छुड़ाइए, मीख माँगने तथा ईश्वरसे वस्तुतः याचना और प्रार्थना करनेकी पद्धतिको उठाइए, ' कोई गुप्त देवी शक्ति हमें सहायता देगी ' इस खयालको भुलाइए अकर्मण्य और आलसी मनुष्योंको कर्मनिष्ठ और पुरुषार्थी बनाइये; पारस्परिक ईर्षा, द्वेष, घृणा, निन्दा और अदेखसका भावको हटाकर आपस में प्रेमका संचार कीजिए; निष्फल क्रियाकांड और नुमायशी ( दिखावे के ) कामों में होनेवाले शक्तिके ह्रासको रोकिए; द्रव्य और समयका सदुपयोग करना बतलाइए; विलास - प्रियताकी दलदल में फँसने और अंधश्रद्धा के गड्ढे में गिरने से बचाइए; अनेक प्रकारके कलकारखाने खोलिए; उद्योगशालायें और प्रयोगशालायें जारी कीजिए; शिल्प व्यापार और विज्ञानोन्नतिकी ओर लोगों को पूरी तौरसे लगाइए; मिलकर काम करना, एक दूसरेको सहायता देना और देश तथा समाजके हितको अपना हित समझना सिखलाइए; बाल, वृद्ध तथा अनमेल विवाहोंका मूलोच्छेद हो सके ऐसा यत्न कीजिए; सच्चरित्रता और सत्यका व्यवहार फैलाइए; विचारस्वातंत्र्यको खूब उत्तेजन दीजिए; योग्य आहारविहारद्वारा बलाढ्य बनना सिखलाइए; वीरता, धीरता, निर्भीकता, समुदारता, गुणग्राहकता, सहनशीलता और दृढप्रतिज्ञता आदि गुणों का संचार कीजिए; एकता और विद्या में कितनी शक्ति है; इसका अनुभव कराइए, धर्मनीति, राजनीति और समाजनीतिका रहस्य और भेद समझाइए; समुद्रयात्राका भय हटाइए विदेशों में जानेका संकोच और हिच कचाट दूर कीजिए; अनेक भाषाओंका ज्ञान कराइए; तरह तरहकी विद्यायें सिखलाइए और शिक्षाका इतना प्रचार कर दीजिए कि देश या जैनहितैषी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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