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________________ २६४ जैनहितषी [भाग १३ उसने अपना विचित्र मत बनाया था, उसीमें रद्दोबदल होता रहा और फिर वही सांख्य और योगके रूपमें एक बार व्यक्त हो गया । अर्थात् इनके सिद्धान्तोंके बीज मरीचिके मतमें मौजूद थे । सांख्य और योग दर्शनोंके प्रणेता लगभग ढाई हजार वर्ष पहले हुए हैं, पर ऋषभदेवको हुए जैनशास्त्रोक अनुसार करोड़ों ही नहीं किन्तु अर्बो खोंसे भी अधिक वर्ष बीत गये हैं । उनके समयमें सांख्य आदिका मानना इतिहासकी दृष्टि से नहीं बन सकता । श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थों में भी मरीचिको सांख्य और योगका प्ररूपक माना है। ७ पाँचवी गाथामें जो पाँच मिथ्यात्व बतलाये हैं, वे ही गोम्मटसारके जीवकाण्डमें भी दिये हैं:-- एयंतं विवरीयं विणयं संसयिदमण्णाणं । वहाँपर इन पाँचोंके उदाहरण भी दिये हैं:-- एयंत बुद्धदरसी विवरीओ बंभ ताबसो विणओ। इंदो वि य संसइओ मक्काडेओ चेव अण्णाणी ॥ इसमें बौद्धको एकान्तवादी,ब्रह्म या ब्राह्मणोंको विपरीतमति, तापसोंको वैनयिक, इन्द्रको सांशयिक, और मंखलि या मस्करीको अज्ञानी बतलाया है । टीकाकार लोग इन्द्रका अर्थ इन्द्र नामक श्वेताम्बराचार्य करते हैं, पर इसके ठीक होनेमें सन्देह है । आश्चर्य नहीं, जो गोम्मटसारके कर्ताका इस इन्द्रसे और ही किसी आचार्यका अभिप्राय हो जो किसी संशयरूप मतका प्रवर्तक हो । क्यों कि एक तो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस नामका कोई आचार्य प्रसिद्ध नहीं है और दूसरे इस दर्शनसारमें भद्रबाहुके शिष्य शान्ताचार्यका शिष्य जिन चन्द्र नामका साधु श्वेताम्बरसम्प्रदायका प्रवर्तक बतलाया गया है। ८ छठी और सातवीं गाथासे मालूम होता है कि बुद्धकीर्ति मुनिने बौद्धधर्मकी स्थापना की। बुद्धकीर्ति शायद बुद्धदेवका ही नामान्तर है । इसने दीक्षासे भ्रष्ट होकर अपना नया मत चलाया, इसका अभिप्राय यह है कि यह पहले जैनसाधु था। बुद्धकीर्ति नाम जैनसाधुओं जैसा ही है। बुद्धकीर्तिको पिहितास्रव नामक साधुका शिष्य बतलाया है । स्वामी आत्मारामजीने लिखा है कि पिहितास्रव पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्परामें था । श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे पता लगता है कि महावीर भगवानके समयमें पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्परा मौजूद थी। बौद्धधर्मकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें माथुरसंघके सुप्रसिद्ध आचार्य अमितगति लिखते हैं कि:-- रुष्टः श्रीवीरनाथस्य तपस्वी मौडिलायनः । शिष्यः श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ॥६॥ शुद्धोदनसुतं बुद्धं परमात्मानमब्रवीत् । अर्थात् पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्परामें मौडिलायन नामका तपस्वी था । उसने महावीर भगवानसे रुष्ट होकर बुद्धदर्शनको चलाया और शुद्धोदनके पुत्र बुद्धको परमात्मा कहा । दर्शनसार और धर्मपरीक्षाकी बतलाई हुई बातोंमें विरोध मालूम होता है । पर एक तरहसे दोनोंकी संगति बैठ जाती है। महावग्ग आदि बौद्ध ग्रन्थोंसे मालूम होता है कि मौडिलायन और सारीपुत्त दोनों बुद्धदेवके प्रधान शिष्य थे । ये जब बुद्धदेवके शिष्य होनेको जा रहे थे, तब इनके साथी संजय परिव्राजकने इन्हें रोका था। इससे मालूम होता है कि ये पहले जैन रहे होंगे और मौडिलायनका गुरु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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