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अङ्क ५-६]
दर्शनसार-विवेचना।
अवश्य ही पार्श्वनाथकी परम्पराका कोई साध होगा। मौडिलायन बौद्धधर्मके प्रधान प्रचारकोंमें था, इस कारण ही शायद वह बौद्धधर्मका प्रवर्तक कह दिया गया है; परन्तु वास्तवमें वह शुद्धोदनसुत बुद्धका शिष्य और उन्हींके सिद्धान्तोंका प्रचारक था । अब उक्त दोनों ग्रन्थोंका सम्मिलित अभिप्राय यह निकला कि पार्श्वनाथके धर्मतीर्थमें पिाहतास्रव नामक जैनसाधुके शिष्य बुद्धदेव हुए और बुद्धदेवका शिष्य मौडिलायन हुआ, जो स्वयं भी पहले जैन था।
९ आठवींसे १० वीं गाथातक बौद्धधर्मके कुछ सिद्धान्त बतलाये गये हैं । पहला यह है कि मांसमें जीव नहीं है । बौद्धधर्ममें 'प्राणिवध ' का तो तीव्र निषेध है; परन्तु यह आश्चर्य है कि वह मरे हुए प्राणीके मांसमें जीव नहीं मानता । मद्यके पीनेमें दोष नहीं है ऐसा जो कहा गया है, सो ठीक नहीं मालूम होता । क्योंकि बौद्ध साधुओंको ‘विनयपिटक' आदि ग्रंथोंके अनुसार जो दशशील ग्रहण करना पड़ते हैं और जिन्हें बौद्धधर्मके मूल गुण कहना चाहिए उनमेंसे पाँचवाँ शील इन शब्दोंमें, ग्रहण करना पड़ता है-' मैं मद्य या किसी भी मादक द्रव्यका सेवन नहीं करूँगा।' ऐसी दशामें शराब पीनेकी आज्ञा बुद्धदेवने दी, यह नहीं कहा जा सकता।
१० ग्यारहवीं और बारहवीं गाथामें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय और उसने उत्पादकका नाम बतलाया गया है। श्वेताम्बरके समान और और संप्रदायोंकी उत्पत्तिका समय भी इसमें बतलाया है। इस विषयमें यह बात विचारणीय है कि क्या किसी सम्प्रदायकी उत्पत्ति किसी एक नियत समयमें हुई, ऐसा कहा जा सकता है ? हमारी समझमें प्रत्येक सम्प्रदायकी उत्पत्ति लोगोंके मानसक्षेत्रोंमें बहुत पहलेसे हुआ करती है और वही धीरे धीरे बढ़ती बढ़ती जब खूब विस्तार पा लेती है तब किसी एक नेताके द्वारा प्रकट रूप धारण कर लेती है। अत एव किसी सम्प्रदायकी उत्पत्तिका जो समय बतलाया गया हो, समझना चाहिए कि उसके लगभग उस सम्प्रदायक विचार फैल रहे थे । ठीक उसी वर्षमें यह संभव हो सकता है कि उस सम्प्रदायके प्रधान पुरुषने कोई खास आदेश या उपदेश दिया हो, अथवा वह अपने अनुयायियोंको लेकर जुदा हो गया हो।
११ दर्शनसारमें श्वेताम्बरोंकी उत्पत्तिका जो समय (वि० संवत् १३६ ) बतलाया गया है, उससे बिलकुल मिलता हुआ समय श्वेताम्बरग्रन्थों में दिगम्बरोंकी उत्पत्तिका बतलाया है । यथाः--
छव्वाससहस्सेहिं नवुत्तरहिं सिद्धिं गयस्स वीरस्स।
तो वोडियाण दिही रहवीरपुरे समुप्पन्ना ॥ . अर्थात् वीर भगवानके मुक्त होनेके ६०९ वर्ष बाद बोट्टिकों ( दिगम्बरों ) का प्रवर्तक स्थवीरपुरमें उत्पन्न हुआ । इसके अनुसार विक्रम संवत् १३९ में दिगम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई। दोनोंमें केवल ३ वर्षका अन्तर है । पर यह समय प्रामाणिक नहीं जान पड़ता । क्योंकि भद्रबाहु श्रुतकेवलीका समय श्रुतावतारादि अनेक ग्रन्थोंके अनुसार वीरनिर्वाणसंवत् १६२ के लगभग निश्चित है । १६२ में उनका स्वर्गवास हो चुका था । श्वेताम्बर गुर्वावलियोंमें बतलाया हुआ समय भी इसीके समीप है । उनके अनुसार वीर नि० संवत् १७० में भद्रबाहुका स्वर्गवास हुआ है । अर्थात् दोनोंके मतसे भद्रबाहुका समय मिल जाता है। भद्रबाहुके समयमें जो १२ वर्षका दुर्भिक्ष पड़ा था, उसका उल्लेख भी श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें है, जिसे दिगम्बर ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर सम्प्रदायके होनेका एक मुख्य कारण माना है। अब यदि भद्रबाहुके शिष्य शान्त्याचार्य और उनके शिष्य जिनचन्द्र इन दोनोंके होनेमें ४० वर्ष मान लिये जायें तो दर्शनसारके अनुसार वीर निक संवत् २०० (वि० सं० ६७०) में जिनचन्द्राचार्यन श्वेताम्बर सम्प्रदायकी स्थापना की, ऐसा मानना
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