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________________ जैनहितैषी [भाग १३ प्रचारका साधन है । साहित्य कहते हैं भावोंके काँपने लग जाते हैं; कामसाहित्यके प्राबल्यमें वातावरणको, और वह वातावरण शब्दों, अनेक प्रकारकी कामचेष्टायें होने लगती हैं और भाषाओं, वार्तालापों, व्याख्यानों, चेष्टाओं, व्यव- द्वेषसाहित्यके प्रभावसे हम लड़ने, लड़ाने, घृणा हारों, विचारों, लेखों, पुस्तकों, चित्रों, आकृ- करने तथा एक दूसरेको हानि पहुँचानेके लिए तियों, मूर्तियों और इतर पदार्थोंके द्वारा उत्पन्न आमादा और तत्पर हो जाते हैं । युद्धमें क्या होता है अथवा उत्पन्न किया जाता है । इस होता है ? युद्धसाहित्यका प्रचार । अर्थात् युद्धलिए साहित्यके इन सब साधनोंको भी साहित्य सामग्रीको एकत्रित, संचित और सुरक्षित करनेके कहते हैं अथवा ये सब साहित्यप्रचारके मार्ग हैं। सिवाय युद्धकी महिमा गाई जाती है; युद्ध साहित्यके सामान्यापेक्षया क्षणिक, स्थायी, चर- करना कर्तव्य, और धर्म ठहराया जाता है; अपने स्थिर, उन्नत-अवनत, सबल-निर्बल और प्रौढ- देश धर्म और समाजकी मानरक्षा के लिए प्राणोंका -अप्रौढ ऐसे भेद किये जा सकते हैं। परन्तु बलि देना सिखलाया जाता है; अपमानित विशेषापेक्षया उसके शांतिसाहित्य, शोकसाहित्य, जीवनसे मरना श्रेष्ठ है, इस प्रकारकी शिक्षायें प्रेमसाहित्य, हास्यसाहित्य, भयसा०, कामसा०, दी जाती हैं; युद्धमें मरनेवालोंकी कीर्ति अमर हो द्वेषसा०, रागसा०, वैराग्यसा०, सुखसा०, दुख- जाती है और उनके लिए हरदम स्वर्ग या वैकुंठसा०, धर्मसा०, अधर्मसा०, आत्मसा०, अना- का द्वार खुला रहता है, इस प्रकारकी शिक्षायें दी स्मसा०, उदारसा०, अनुदारसा०, देशसा०, जाती हैं; शत्रुओंके असत् व्यवहारोंको दिखलाते समाजसा०, युद्धसा०, कलहसा०, ईर्षासा०, हुए उनसे घृणा पैदा कराई जाती है और उन्हें घणासा० हिंसासा०, दयासा०, क्षमासा०, तुष्टि- दण्ड देनेके लिए लोगोंको उत्तेजित किया जाता सा०, पुष्टिसा०, विद्यासा०, विज्ञानसा०, कर्मसा०, है । साथही सैनिकोंको और भी अनेक प्रकारके क्रोधसा०, मानसा०, मायासा०, लोभसाहित्य प्रोत्साहन दिये जाते हैं, वीरोंका खूब कीर्तिगान इत्यादि असंख्यात भेद हैं । बल्कि दूसरे शब्दोंमें होता है और कायरोंकी भरपेट निन्दा भी की यों कहना भी अनुचित न होगा कि स्थूल रूपसे जाती है। नतीजा इस संपूर्ण साहित्यप्रचारका भावोंके जितने भेद किये जा सकते हैं साहित्यके यह होता है कि मुर्दोमें भी एक बार जान पड़ भी प्रायः उतने ही भेद हैं । शांतिसाहित्यके जाती है, उनकी मुरझाई हुई आशालतायें फिरसामने आनेसे चाहे वह किसी द्वारसे आया हो, से हरीभरी होकर लहलहाने लगती हैं और वे यदि वह प्रबल है तो, हम शांत हो जाते हैं- कायर भी जो अभीतक युद्धसे भाग रहे थे अथवा हमारा क्रोध जाता रहता है; शोकसाहित्यके जिन्होंने हथियार डाल दिये थे, युद्ध में शत्रुओंप्रभावसे हम रोने लगते हैं-हमारा धैर्य छूट पर विजय प्राप्त करनेके लिए जीजानसे लड़नेजाता है; प्रेमसाहित्यके प्रसादसे हम प्रेम कर- खुशीसे अपने प्राणोंतककी आहुति देनेके लिए नेके लिए तैयार हो जाते हैं-दूसरोंके प्रति हमारा तैयार हो जाते हैं, पूर्ण उत्साहक साथ शत्रु पर धावा अनुराग और वात्सल्य बढ़ जाता है; हँसीका करते हैं, खूब जमकर लड़ते हैं और अन्तमें शत्रुसाहित्य हमें हँसने या मुसकरानेके लिए बाध्य को परास्त भी कर देते हैं । इससे पाठक समझ कर देता है; भयका साहित्य हमें भीरु और डरपोक सकते हैं कि साहित्यप्रचारमें कितनी शक्ति है। बना देता है-हम वातबातमें डरमे बदराने और जिन पाठकोंको इस दिषयका अधिक अनुभव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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