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________________ अङ्क ५-६ श्रद्धा उठ गई। २७७ सहधर्मियोंके सामने उसका बड़ा मयंकर पं0--दिगम्बरजैनधर्मसे। स्वरूप उपस्थित करते थे । क्या अचरज, जो हम-कौनसे दि० जैनधर्मसे । पक्षपातपूर्ण मनुष्योंको वास्तवमें ऐसा ही दीख पं०--तेरहपंथसे । पड़ता हो । साधारण गतानुगतिक जनता इसके हम- शुद्ध तेरहपंथसे या विशुद्धसे ? सिवाय धर्मकी गाढ़ श्रद्धाका और परिचय ही पं०-शुद्ध विशुद्ध क्या होता है ? क्या दे सकती है, और परमनिःस्वार्थी भग- हम-शद्ध तो वह, जिसमें भगवानकी प्रति-- वान् तीर्थंकरोंके गाढे भक्त बननेवाले समाजकै माका ही अभिषेक करनेकी आज्ञा है । अदरदर्शी नेताओंने उन बेचारोंके हाथम झाँझ पं०-और विशद्ध ? मैंजीरा पकड़ाकर रातभर 'मोहे तारो साँव हम--विशुद्ध वह, कि जिसमें प्रतिमाका स्नान लिया तारो, मेरे गुण अवगुण न विचारो' न कराके एक दूसरे पात्रमें जलधारा छोड़नेकी की धुनमें बिता देनेके सिवाय और सिख विधि है। या ही क्या है ? सोच समझकर कोई ' धर्मका काम करनेकी तो मानों प्रतिज्ञा दिला पं0---अजी इससे क्या मतलब ? श्रद्धा उठ रक्खी है । ऐसी दशामें क्या वे यह पूछकर गई धर्मसे ! धर्मसे ! धर्मसे ! कि श्रद्धा क्या चीज है, अपनी प्रतिज्ञा तोड हम--पं० जी, क्षमा कीजिए, आपकी बातका डालें और आखडी-भंगके पापसे करे कराये मतलब समझमें नहीं आया। पुण्यकार्यों पर पानी फेर दें। ___पं०-अजीक्यों चालें चलते हो। मैं तुम्हें पहपरन्तु पढ़ी-लिखी जनताको तो इस हुल्लड़का चानता हू। तुम उन्हाक साथी हो । तुम धर्मको साथ नहीं देना था, वह तो कुछ बुद्धि रखती डुबाकर रहोगे, विधवाविवाह चलाकर रहोगे, जाति पाँति मिटाकर रहोगे, जाओ मेरे सामनेसे है, उसे तो कुछ पूछताछ करनी थी-किसकी ' हट जाओ । तुम सर्वज्ञवचनोंके सामने मुँह श्रद्धा उठ गई, कैसे उठ गई, वह पागल तो नहीं खोलनेके योग्य हो गये ? जो भगवान तुम्हें हो गया, आदि; परन्तु पढ़ी-लिखी जनता तो खाना देते रहे हैं, उन्हींका धर्म बिगाड़ोगे ? यदि मूर्ख जनतासे भी शायद पीछे है, वह न हुल्लड़के कोई होता जैन राजा तो तुम्हारी जीभ निकइधर है और उधर । लवा ली जाती। अब रह गये, हम जैसे झक्की और पीछे ही हमने ऊपर जो कुछ लिखा है, उसमें जरा पड़ गये कि पण्डितजी, बताइए तो सही कि भी अत्युक्ति नहीं है। लोगोंने जराजरासी विचारकिसकी श्रद्धा उठ गई ? स्वाधीनता, क्रियास्वाधीनता और प्रश्नस्वाधीपण्डितजी-देवदत्तकी। नताका नाम नास्तिकता और श्रद्धान उठ जाना हम-किस चीजसे! रख छोड़ा है और उसीका यह शोर-शराबा मचा हुआ है। यद्यपि शोर मचानेवाले स्वयं ही पं०-धर्मसे। वैसे विचार करते, क्रिया करते, और प्रश्न भी हम-किस धर्मसे ? करते हैं, परन्तु उन्होंने अपनी रक्षाका एक पं०-जैनधर्मसे । और ही उपाय सोच रक्खा है। वे स्वयं भी उसी इम-किस जैनधर्मसे ? शोरमें शामिल हो जाते हैं । उदाहरण लीजिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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