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अङ्क ५-६] श्रद्धा उठ गई।
२७९ थोंको, नेताओंको व्यभिचारी कहें, तो हम किस और तुमहीको नीचा देखना पड़ेगा। समाजमें मुंहसे उन्हें उत्तर दें ? यह सब धर्मकी अप्रभा- जो प्रातष्ठित और पूज्य समझे जाते हैं, वे सुधावना नहीं तो और क्या है ? चारित्रको आपने रमें रोड़ा अटकावेंगे ही; क्यों कि परिवर्तनके ऊपरी क्रियाकाण्ड या खानपान ही समझ पश्चात् निश्चय नहीं कि किसको उच्चासन मिलेगा। रक्खा है । हृदयकी स्वच्छता, जो उसका प्राण है वे अपनी प्रतिष्ठा स्थिर रखना चाहते हैं, और इसी उससे आपका मानों कोई सरोकार ही नहीं है। कारण विरोध करते हैं। यही कारण है कि सुधारको ___ अच्छा, तो फिर ये लोग सुधार क्यों नहीं विरोधके दाँतों से होकर निकलना पड़ता है। होने देते? सुधारोंमें बहुतसे शास्त्रानुकूल हैं, उन्हें सुधारसे साधारण जनताको बहुत लाभ होता . भी नहीं होने देते और जिनके लिए शास्त्रोंमें है। जिस धर्ममें साधारण जनता सुखी रहती है आज्ञा नहीं है उनके लिए तो मालूम नहीं ये वही धर्म फूलता फलता है और सब लोग कितनी उछल कूद मचावेंगे । परन्तु सुधार उसीको सच्चा समझते हैं । धर्म चीज ही ऐसी है सब ही होंगे, रुक नहीं सकते । शास्त्रोंमें केवल कि जो उसको धारण करे उसीका दुःख दूर हो टंग मिलेगा, नाम नहीं मिल सकते । तुम तो जाय । परन्तु धर्मके पास धरा ही क्या है । उसके जलेबी बनानेकी रीति और सुपारी तरा- अस्त्र-शस्त्र, रुपया-पैसा, फौज-फाँटा सब धार्मिक शनेकी तरकीब भी शास्त्रोंमेंसे खोजना ही तो हैं। उन्हींको चाहिए कि उस धर्मके चाहते हो । पर यह तो कहो कि रेलमें धारण करनेवाले किसी भी व्यक्तिको किसी बैठते समय भी किसीने शास्त्र खोलकर प्रकारका दुःख न होने दें। उनकी वासनाओंको देखे थे ? और म्लेच्छ साहबोंसे हाथ मिला- केवल दबाना ही न चाहिए, किन्तु उनको एक नेकी आज्ञा भी किसी वर्णाचारके ग्रन्थसे उचित सीमाके भीतर चरितार्थ होने देनेका भी ले ली थी ? यदि भगवान् अकलंक भट्ट इन प्रबन्ध करना चाहिए । यही बुद्धिमत्ता है। हल्लह मचानेवालोंकी परवा करते, तो क्या वे मनुष्य पशु नहीं, जो लाठीसे हाँके जावें । उनकी बौद्ध गुरुओंके पास जाकर पढ़ सकते या जिन- इच्छाओंका भी ध्यान रखना होगा । भूखेको प्रतिमाके ऊपर होकर कूद जाते ? लोग देवद- यह कह देनेसे ही काम न चलेगा कि सब्र करो, र्शनके लिए ही हाय हाय मचा रहे हैं। सुधार- या अभी रात है । उसको पहले खाना देना कोंको प्रतिमायें लॉधनी पड़ेंगी यदि धर्म कायम होगा, पीछे धर्मका उपदेश । में उसको सच्चा रखना है तो। द्रव्य, क्षेत्र, काल, मावका भी साधु समझता हूँ, जो एक मनुष्यको करोड़पती शास्त्रोंमें वर्णन है। इसीसे सुधारकोंकी छाती बननेकी विद्या सिखलाकर और उसे वैसा ही डेढ डेढ़ गजकी हो रही है । सुधार तो कोई बनाकर फिर त्यागी बननेका उपदेश देता है। रुकता नहीं । क्यों कि वह समयकी पुकार है। भुखमरों और नंगोंको त्यागी बनाना या त्याग उसको रोकना मानों ऋतुपरिवर्तनके सिद्धान्तको करनेका उपदेश देना मूर्खता ही नहीं, अन्याय है। लात मारकर अपनी हँसी कराना है। चारपाईको एक करोड़पतीके त्यागी बननेसे समाजकी दरिद्रता, भीगनेसे बचानेके लिए मेहको रोकनेकी कोशिश मूर्खता, स्वार्थान्धता, आदि अनेक आपत्तियाँ मत करो। चारपाईको ही उठाकर अन्दर क्यों दूर हो सकती हैं । परन्तु भुक्कड़ोंको त्यागी नहीं रख देते ? मेहके बन्द हो जाने पर उसे बनानेसे धर्मको लजानेके सिवा और कोई लाम फिर बाहर ले आना और आरामसे हवामें सोना। नहीं हो सकता, जैसा कि प्रत्यक्ष देखनेमें आ सुधार होने दो। यदि रोकोगे तो देर लगेगी रहा है।
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