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________________ वर्ण और जाति-विधार। २०७ कर वैश्य या शूद्र हो जाते । जैसा कि आज- है; धर्मसे इसका कोई सम्बध नहीं है। क्यों कि यदि कल राज्यको तरफसे स्वतंत्रता मिलने पर कोई एक शूद्र खेती करने लथे, यशुपालनसे आजीभी जनं क्षत्री नहीं रहा है, प्रायः सब ही वैश्य हो विका करने लगे, किसी प्रकार की दूकान गये हैं या वैश्य ही जैन रह गये हैं। और वैश्य करने लगे, या सिपाहोपलेकी नौकरी करने लगे, होकर भी उन्होंने प्रायः खेती आदि ऐसे पेशोंको तब तो वह वर्णसंकर हो जाय और ऐसा वर्णछोड़ दिया है और छोड़ते जाते हैं जिनमें संकर न होने देनेके वास्ते भगवानने राज्यका ज्यादा हिंसा होती है । परन्तु कुछ हो, दंड कायम किया; परन्तु इस बातकी स्वयं भगवानको तो उस समय पूर्ण रीतिसे आज्ञा दे दी कि ब्राह्मण क्षत्री और वैश्य तीनों लौकिक प्रबन्ध करना था, इस वास्ते उन्हों- ही उच्चवर्णवाले शूद्रकी कन्यासे विवाह कर ने राज्यका पहरा बिठाकर उन लोगोंको लें और ऐसा करनेसे न वर्णसंकरता हो और न जबर्दस्ती ही फौजी बनाये रक्खा, जिनको कोई अन्य बिगाड़ पैदा हो । यदि चारों वर्गों में उन्होंने हथियार चलाना सिखाया था, चाहे वे धर्मसम्बंधी कोई भी भेद होता, तो कदाचित लोग इस पेशेको कितना ही पापपूर्ण समझते हों; भी उच्च वर्णवालेको नीच वर्णकी कन्यासे विवाह और जबर्दस्ती उन लोंगोंको शूद्र ही बनाये करनेकी आज्ञा न होती; बल्कि इस बातकी रक्खा जिनको शूद्रका नीच काम सिखाया था, पूरी पूरी रोक की जाती, ऐसा करनेवालेको चाहे वे लोग इस पेशेसे कितनी ही घिन करते राज्यसे भी दंड मिलनेका प्रबन्ध किया जाता हों, और ऊँचा पेशा करने की योग्यता रखते हों। और पेशा बदलने पर विशेष ध्यान न दिया इस सब कयनसे दो पहरके प्रकाश के समान यह जाता । क्यों कि यदि कोई क्षत्री वैश्यका काम बात सिद्ध हो गई कि वर्णव्यवस्था लौकिक करने लगे, या कोई वैश्य क्षत्रीका काम करने दृष्टिसे की गई है, धर्मका इसमें कुछ भी खयाल लगे, तो इसमें धर्मकी कोई हानि नहीं होती है; नहीं रक्खा गया है। परन्तु उस समय तो भगवानको केवल लौकिक एक पेशेका आदमी यदि दूसरे पेशेका काम प्रबन्ध करना था, इस वास्ते उन्होंने पेशेके ही बदकरने लगेगा, तो वर्णसंकर हो जायगा। इस कारण लनेसे वर्णसंकर होना बताया और इसहोके वास्ते ऐसा करनेवालेको राज्यसे दण्ड मिलना चाहिए , राज्यका दंड नियत किया। ब्राह्मण, क्षत्री वा वैश्य ...इस कड़े नियमके साथ विवाहका नियम यहाँ तक यदि शूद्रासे विवाह कर लें तो वे वर्णसंकर ढीला कर दिया गया है कि ब्राह्मण चारों वर्णोकी न हों और ब्राह्मण-क्षत्री-वैश्यके द्वारा शूद्रके कन्याओंसे, क्षत्री अपने वर्णकी तथा वैश्य और पेटसे पैदा हुआ बालक ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य ही शंद्रकी कन्याओंसे, और वैश्य अपने वर्णकी हो और ऐसा होनेसे भी कोई वर्णसंकरता न कन्यासे तथा शूद्रकी कन्यासे विवाह कर सकता हो । हाँ, यदि कोई शद्र या क्षत्री खेती करने है। यथाः . लगे, या और कोई पेशा बदल ले तो वर्णसंकर शूद्रा शग वोढव्या नान्या स्वां तां च नैगमः। वहेत्स्वांते च राजन्यः स्वां द्विजन्माक्कचिच्च ताः२४७ ' हो जावे और ऐसा करनेसे राज्यसे उसको दंड मिले । इससे ज़्यादा इस बातका और क्या विवाहके इस नियमले इस बातमें कुछ भी संदेह सुबूत हो सकता है कि वर्णभेद सिर्फ पेशेके नहीं रहता है कि वर्णव्यवस्था केवल पेोके वास्ते वास्ते है, धर्मके वास्ते नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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