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________________ अङ्क ७] विविध प्रसङ्ग। ३०५ विविध प्रसङ्ग। वालोंके साथमें बैठकर मी अपने धर्मको ‘बरकरार' बनाये रख सकते हैं। इनका सुकुमार धर्म ऐसा छुईमुईका झाड़ है कि दूसरोंका स्पर्श होते ही कुम्हला जायगा । इसी लिए ये १संयुक्त जैनपुस्तकालयका विराधा उसे दूसरोंकी छायासे बचाये रखना चाहते हैं । सन्दौरकी गत ' महावीर जयन्ती ' पर एक पर धर्म इस तरह डिब्बीमें बन्द करके रखनेकी महावीरजैनपुस्तकालयके स्थापित करनेका चीज नहीं है । उसे विशाल विश्वमें अपने सहप्रस्ताव हुआ था, और उसमें वहाँके धनकुबेर योगियोंके साथ निःसंकोच भावसे खडा होने सेठ हुकमचन्दजीने तथा अन्यान्य धनिकाने देना चाहिए । इसके लिए विशाल हृदय चाहिए। सहायता देनेका वचन दिया था । महावीर ये सार्वजनिक पुस्तकालयकी स्थापनाके कार्य पुस्तकालयमें तीनों सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंका बड़ा ज्ञानवृद्धिकी विश्वव्यापिनी भावनाके वशवर्ती भारी संग्रह रहेगा, जिससे जैनधर्मके जिज्ञासुओं- होकर किये जाते हैं । किसी मतकी निन्दा को-जैनों और अजैनों दोनोंको लाभ होगा। इस या प्रशंसाके तुच्छ विचार उनके स्थापकोंके प्रकारके एक नहीं अनेक पुस्तकालयोंके स्थापित हृदयमें स्थान नहीं पाते । हमारे मन्दिरों और करनेकी आवश्यकता है और इन पुस्तकाल- मठोंमें जो बड़े बड़े प्राचीन भण्डार हैं, उनमें योंकी उपयोगिताको इस समयका धर्मान्धसे भी हजारों जैनेतर ग्रन्थोंका संग्रह पाया जाता है और धर्मान्ध पुरुष स्वीकार करता है । परन्तु जैन- अजैनोंके पुस्तकालयोंमें सैकड़ों जैनग्रन्थ पाये गजटके धर्ममर्मज्ञ सम्पादक इसका घोर विरोध जाते हैं । यदि हमारे प्राचीन आचार्योंके भी करते हैं और सेठजीको शिक्षा देते हैं कि आप ऐसे ही तुच्छ विचार होते, तो वे अपने ग्रन्थोंमें महासभाके सभापति हैं, शुद्ध तेरहपंथी हैं, दूसरे मतोंकी उत्कृष्ट आलोचना कैसे कर पाते ? आपको ऐसी उदारता नहीं दिखलानी चाहिए हमारे कई आचार्य 'स्वसमयपरसमयवेदी ' थी । आप भारतजैनमहामण्डलके भक्तोंकी कहलाते थे, सो वे क्या दूसरोंके ग्रन्थोंको अपने बातोंमें आ गये हैं । तीनों सम्प्रदायके ग्रन्थ भण्डारोंमें रक्खे विना ही 'परसमयवेदी' हो संग्रह करनेके कार्यमें अमूढदृष्टि अंगका पालन गये थे ? और महावीर पुस्तकालयमें सेठजीके नहीं होगा । दिगम्बरजैनग्रन्थोंके अतिरिक्त धनसे जो ग्रन्थ रक्खे जायँगे, सो आपने यह और सब ग्रन्थ दुःश्रुति हैं। उनका संग्रह कर- कैसे जान लिया कि वे उन्हें परमाराध्य और नेमें मिथ्यात्वके अनुमोदनका दोष लगेगा। प्रमाणभूत मानकर ही रक्खेंगे जिससे कि जैनासेठजीको इसका विचार कर लेना चाहिए । भासोंके प्रशंसक कहलायँगे ? इसके सिवाय इत्यादि । जिस तरह आषाढके अन्धेको हरा ही क्या उनकी और कोई मानता ही नहीं हो सकती हरा सूझा करता है, उसी तरह इन धर्ममर्म- है ? ' तीनों सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंको लोग पढ़ें, ज्ञोंको इस समयका प्रत्येक कार्य मिथ्यात्वके मनन करें और देखें कि उनमें कौनसा सत्य है, गहरे रंगसे रँगा हुआ दिखलाई देता है । इनके मुझे अपने सम्प्रदाय पर पूरा विश्वास है, अवश्य हृदय इतने छोटे हैं कि उनमें दूसरोंके लिए ही उन्हें मेरा ही सम्प्रदाय सत्य मालूम होगा,' जरा भी स्थान नहीं । ये इसका विचार भी नहीं इस तरहकी भावनासे भी तो वे तीनों सम्प्रदाकर सकते कि हम दूसरे मतों या सम्प्रदाय - योंके ग्रन्थोंके लिए धन दे सकते हैं। इसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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