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________________ दर्शनसार-विवेचना। २७१ चाहता है । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हरिभद्र नामके एक बहुत प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं । विक्रम संवत् ५८५ में उनका स्वर्गवास हुआ है और उन्होंने अपनी 'ललितविस्तरा टीका' में यापनीय तंत्रका स्पष्ट उल्लेख किया है। इससे मालूम होता है कि ५८५ से बहुत पहले यापनीय संघका प्रादुर्भाव हो चुका था। इसके सिवाय रायल एशियाटिक सुसाइटी बाम्बे बेंचके जरनल की जिल्द १२(सन् १८७६)में कदम्बवंशी राजाओंके तीन दानपत्र प्रकाशित हुए हैं, जिनमेंसे तीसरेमें अश्वमेध यज्ञके हगनेवाले महाराज कृष्णवर्माके पुत्र देववर्माके द्वारा यापनीय संघके अधिपतिको मन्दिरके लिए कुछ जमीन वगैरह दान की जानेका उल्लेख है । चेरा-दानपत्रोंमें भी इसी कृष्णवर्माका उल्लेख है और उसका समय वि० संवत् ५२३ के पहले है । अतएव ऐसी दशामें यापनीय संघकी उत्पत्तिका समय आठवीं नहीं किन्तु छट्ठी शतब्दिके पहले समझना चाहिए । आश्चर्य नहीं जो ग प्रतिका २०५ संवत् ही ठीक हो । दर्शनसारकी अन्य दो चार प्रतियोंके पाठ देखनेसे इसका निश्चय हो जायगा। काष्ठासंघका समय विक्रम संवत् ७५३ बतलाया है; परन्तु यदि काष्ठासंघका स्थापक जिनसेनके सतीर्थ विनयसेनका शिष्य कुमारसेन ही है, जैसा कि ३०-३३ गाथाओंमें बतलाया है, तो अवश्य ही यह समय ठीक नहीं है । गुणभद्रस्वामीकी मृत्युके पश्चात् कुमारसेनने काष्ठासंघको स्थापित किया है और गुणभद्रस्वामीने महापुराण शक संवत् ८२० अर्थात् विक्रम संवत् ९५५ में समाप्त किया है। यदि इसी समय उनकी मृत्यु मान ली जाय, तो भी काष्ठासंघकी उत्पत्ति विक्रम संवत् ९५५ के लगभग माननी चाहिए; पर दर्शनसारके कर्ता ७५३ बतलाते हैं। ऐसी दशामें या तो यह मानना चाहिए कि गुणभद्रस्वामीके समसामयिक कुमारसेनके सिवाय कोई दूसरे ही कुमार सेन रहे होंगे, जिनका समय ७५३ के लगभग होगा, और जिनके नामसाम्यक कारण विनयसेनके शिष्य कुमारसेनको दर्शनसारके कर्त्ताने काष्ठासंघका स्थापक समझ लिया होगा, और या काष्ठासंघकी उत्पत्तिका यह समय ही ठीक नहीं है । अब रहा माथुरसंघ; सो इसे काष्ठासंघसे २०० वर्ष पीछे अर्थात् विक्रम संवत् ९५३ में हुआ बतलाया है; परन्तु इसमें सबसे बड़ा सन्देह तो यह है कि जब दर्शनसार संवत् ९०९ में बना है, जैसा कि इसकी ५० वीं गाथासे मालूम होता है तब उसमें आगे ४४ वर्ष बाद होनेवाले संघका उल्लेख कैसे किया गया । यदि यह कहा जाय कि दर्शनसारके बननेका जो संवत् है वह शक संवत् होगा, अर्थात् वह विक्रम संवत् १०४४ में बना होगा; परन्तु इसके विरुद्ध दो बातें कहीं जा सकती हैं । एक तो यह कि जब सारे ग्रन्थमें विक्रम संवत्का उल्लेख किया गया है, तब केवल अन्तकी गाथामें शक संवत् लिखा होगा, इस बातको माननेकी ओर प्रवृत्ति नहीं होती, दूसरी यह कि धारानगरी मालवेमें हैं । मालवेका प्रधान संवत् विक्रम है । उस ओर शक संवतके लिखनेकी पद्धति नहीं है । इसके सिवाय ऐसा मालूम होता है कि माथुरसंघ सं० ९५३ से पहले ही स्थापित हो गया होगा। आचार्य आमितगति माथुर संघमें ही हुए हैं। उन्होंने विक्रम संवत् १०५० में 'सुभाषितरत्नसन्दोह ग्रन्थ रचा है । उन्होंने अपनी जो गुरुपरम्परा दी है, वह इस प्रकार है:- १ वीरसेन, २ देवसेन, ३ अमितगति ( प्रथम ), ४ नेमिषेण, ५ माधवसेन और ६ आमितगति । यदि यह माना जाय कि अमितगति १०५० के लगभग आचार्य हुए होंगे और उनसे पहलेके पाँच आचार्योंका समय केवल बीस ही बीस वर्ष मान लिया जाय, तो वीरसेन आचार्यका समय वि० संवत् ९५० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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