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जैनहितैषी -
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नहीं वेताम्बर हैं, अथवा जैनोंमें अमुक बातें अमुक समय में दाखिल हुई हैं । इनको लक्ष्य करके भी कुछ आक्षेपयुक्त लेख लिखे गये हैं इस विषय में उनकी युक्तियाँ इस ढँगकी हैं:ये धर्मको डुबा देने के लिए तैयार हुए हैं। इन्हें धर्मशास्त्रों पर श्रद्धा नहीं है । ये अपनेको अवतर समझते हैं । ये श्वेताम्बरी हो गये हैं । इन्हें दिगम्बर धर्म पर श्रद्धा नहीं है । बस, इसी तरह के लेखोंसे हमारे समाजके वे लोग भड़काये जा रहें हैं, जिनमें स्वयं कुछ सोचने-विचारनेकी शक्ति नहीं है जो केवल दूसरोंके इशारों पर चलते हैं और दुर्भाग्य से समाजमें ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है । पर हमें इसकी परवा नहीं। हम जो कुछ कर रहे हैं, वह जनसाधारणकी सच्ची कल्याण कामनासे कर रहे हैं । सत्यको छुपाने को हम • अधर्म समझते हैं और सत्यको प्रकाशित करना - चाहे वह अप्रिय ही क्यों न हो - परम धर्म । ऐसी गालियोंसे हम डरनेवाले होते, तो इस मार्ग में पैर ही नहीं रखते । ग्रन्थ छपाने के काममें हमने जो गालियाँ और जो अपमान सहे हैं, वे इनसे किसी कदर कम नहीं थे । जब उन्हें हम सहन कर चुके हैं, तब इन्हें भी विजयके साथ सहन कर लेंगे, इसमें हमें जरा भी सन्देह नहीं है । कोई कितना ही समाजको भड़कावे, पर उससे हमारा सदभिप्राय छुप नहीं सकता। विधवाविवाह के विषय में हम पहले भी कई बार लिख चुके हैं और अब भी लिखते हैं कि हमने इस विषयको केवल विचार करने के लिए - sant Hit और बुरी दोनों बाजुओंको प्रकाशमें लाने के लिए उठाया है । हम इसे कोई धर्म भी नहीं समझते । पातिव्रतकी अपेक्षा यह सदैव नीचा समझा जायगा, नीचा है भी; पर गुप्त पापों भ्रूणहत्याओं और रातदिनके मानसिक व्यभिचारोंसे हजार दर्जे अच्छा है । जो विधवायें अपने शीलकी रक्षा नहीं कर सकती हैं,
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[ भाग १३
वासनाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकती हैं, उन्हें जबर्दस्ती रोकना और गुप्त व्यभिचार करने के लिए मजबूर करना सामाजिक पवित्रताका मूल्य नहीं समझना है | हमारे विरोधी इन सब बातोंको भूल जाते हैं और पुरानी पवित्रताकी गाथायें गा-गा कर जिनका मूल प्रश्नसे कोई सम्बन्ध ही नहीं है, हमें व्यभिचारके प्रचारक बतलाते हैं । ग्रन्थपरीक्षादि लेखोंके द्वारा हम अपने समाज में सदसद्विवेक बुद्धि उत्पन्न करना चाहते हैं जिसका कि इस समय सर्वथा अभाव हो रहा है । ग्रन्थों के नामसे इस समय शिथिलाचारी, स्वार्थी और धूर्तों के भी ग्रन्थ पुज रहे हैं और उन्हें लोग भगवान् जिनेन्द्रदेवकी वाणी समझ रहे हैं। इनके विरुद्ध कुछ सोचने विचारने और धर्मका सच्चा स्वरूप समझने की ओर उनकी प्रवृत्ति ही नहीं होती है । ग्रन्थपरीक्षा जैसे लेखों को पढ़कर लोग यह समझने लगेंगे कि किसी दिगम्बर जैनाचार्य या विद्वानकी छाप लगी हुई होनेसे ही किसी ग्रन्थको मस्तक पर चढ़ा लेना जोखिमका काम है । हमारा यह काम नया भी नहीं है । जयपुरके तेरहपंथी विद्वानोंने इस ओर बहुत कुछ प्रयत्न किया था । उन्हें अच्छी तरह विश्वास हो गया था कि बहुतसे भट्टारक नामधारी धूर्तोंने जैनधर्मको गेंदला कर दिया है, इसलिए किसी ग्रन्थको बुद्धिकी कसौटी पर चढ़ाये विना नहीं मानना चाहिए | विद्वज्जनबो - धक आदि ग्रन्थ इसके साक्षी हैं | तेरहपंथी उत्पत्ति ही इसी कारणसे हुई थी और हमें यह न भूल जाना चाहिए कि यदि तेरहपंथकी महान् ज्योतिका प्रकाश न हुआ होता, तो दिगम्बर सम्प्रदायका अब तक गला ही घुट गया होता - भट्टारक नामधारी साधुओंने इसे अभी तक न जाने किस ' किम्भूत किमाकार ' रूपमें खड़ा कर दिया होता। यहाँ हम यह भी कह देना चाहते हैं कि जिन आचार्योंको लोग अभी
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