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________________ अङ्क विविध प्रसङ्ग । तक २८ मूल गुणोंके धारी परम दिगम्बर मुनि ५ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी समझ रहे हैं, उनमेंसे भी बहुतसे भट्टारक नहीं चरणपादुका। जो भट्टारकोंसे मिलते जुलते अवश्य थे और उन्होंने भी बहुतसे गोलमाल किये हैं । इन सब रायचूरके पं० चोलप्पा जैनब्राह्मणका एक कारणोंसे हम जैनधर्मको इस समयमें जिस स्वरू- पत्र हमारे पास आया है । उससे मालूम हुआ चमें देख रहे हैं उसमें उसका असली रूप छप कि रायचूर (निजाम स्टेट) स्टेशनसे पश्चिमकी गया है-उसपर भट्टारकों और उनके भाइयोंका ओर और रायचूर नगरसे ईशानकी ओर श्रीमगहरा रंग चढ़ा हुआ है । अत एव त्कुन्दकुन्दाचार्यकी तपोभूमि है । फ्राम रोडसे तुलनात्मक पद्धतिसे तमाम ग्रन्थोंकी छानबीन नगरमें जानेके समय पूर्व दिशामें एक तालाब की जायगी और इन सब छानबीनोंसे धीरे धीरे दिखलाई देगा, जिसका नाम आम्र सरोवर है । हम उस वास्तविक जैनधर्मके स्वरूपको प्रत्यक्ष इस तालाबसे लगे हुए दो तीन छोटे छोटे पहाड कर सकेंगे, जिसका निरूपण भगवान् कुन्दकुन्द हैं। इनमेंसे आग्नेय दिशाकी ओरके पहाड पर आदि आचार्योंने किया है। यह स्थान है। वहाँ पर उक्त आचार्यके चरण अब रहा यह कि हम किसी दिगम्बर ग्रन्थको प्रतिष्ठित हैं। उन पर कनडी लिपि और कनड़ी श्वेताम्बर बतलाते हैं; सो इसे तो हम कोई सम्प्र- भाषामें लिखा हुआ एक शिलालेख है । वह इस दायका प्रश्न नहीं समझते हैं । यह तो 'सत्य' प्रकार हैका प्रश्न है। यदि किसी श्वेताम्बर ग्रन्थको " श्रीश्रतयो भव्याजीवं...दानाततं जबर्दस्ती दिगम्बर कहते जाना ही 'दिगम्बरत्व' श्रीकोंडकुंदमुनिपदयुग्मं स्तुति गैचि सलहै, तो ऐसे दिगम्बरत्वको नमस्कार ! हम रीद श्रतकीर्ति यतीश नेसगि सुकृतमनातं ऐसे मूर्खतापूर्ण अन्धविश्वाससे आक्रान्त नहीं है हैं, जो यह कहता है कि दिगम्बर विद्वानोंमें कोई श्रीकोंडकुंदमुनिपं भूकांति य नंदु नाल काइ वेरल नितं सोंक दे धरि यो ल रसीयनेकांचोर हुए ही नहीं हैं। हमारा सीधा सादा विश्वास स तमतके कडे य चारणनादं श्री..." यह है कि बुरे और भले सर्वत्र होते हैं। इन सब बातोंको लेकर हमें कोई कितना ही . इसका तात्पर्य उक्त चोलप्पाजीने इस प्रकार बदनाम क्यों न करे, पर हम अपना प्रयत्न न लिखकर भेजा हैछोडेंगे और हमें विश्वास है कि इस कार्य में हमें “ शास्त्रप्रधान श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके चरणऔर हमारे मित्रोंको सफलता मिले बिना कमलोंकी स्तुति, वन्दन और पूजन करके नहीं रहेगी। श्रीश्रुतकीर्ति यतीश कहते हैं कि मैं सुकृत यहाँ हम यह भी प्रकट कर देना चाहते हैं करनेका अधिकारी हुआ हूँ। कुन्दकुन्दाचार्य कि हमारा कोई 'दल' नहीं है। हम यह चाहते भूमिसे चार अंगुल ऊपर अधर रहते थे।...... भी नहीं है कि जैनसमाजमें कोई स्वतंत्र 'दल' ये अन्तिम चारण परमेष्ठी थे।" मालूम नहीं, खड़ा किया जाय । इस तरहके भाव रखनेवालेको लेखकी कापी कहाँतक ठीक हुई है और उसका हम समाजका घोर अशुभचिन्तक समझते हैं। यह अर्थ वास्तविक है या नहीं। श्रुतकीर्ति नामके हम केवल यह चाहते हैं कि लोग अपना हिता- किसी आचार्यने उक्त चरणोंकी स्थापना की होगी, हित समझने लगे और वे और और बातोंके ऐसा मालूम होता है । श्रुतकीर्ति नामके एक समान बुद्धिक विषयमें भी दूसरोंके गुलाम न रहें। आचार्यकी मृत्यु शक संवत् १३६५ ( वि० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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