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________________ २२४ जैनहितैषी [भाग १३ है । वहाँ भी मीठे पानीका निर्मल झरना अपनी आत्मसंरक्षण करनेकी बुद्धि दी है, वही प्रकृति भाषामें परमेश्वरकी सिखाई हुई कविताका गान लगभग सब प्राणियोंको नाना प्रकारकी उपाधिकरता हुआ बहता है । धूप और गरमीसे दुःखित योंसे बचानेके उपायों की पूर्ति करती है। पश पथिक उस झरनेके शीतल जलको पीता और जब बीमार होते हैं तब वे भखे रहते हैं। उप. वृक्षोंकी घनी छायामें बैठकर विश्राम करता है । वास करनेसे व्याधि स्वाभाविक रीतिसे घटती पानीसे भी आवश्यक वायु है । जलके विना है। इस बातको हमारे भारतीय विद्वान् पहलेसे कुछ घंटों तक मनुष्य जीवित भी रह सकता है, ही कहते आये हैं, परंतु अब यूरोप और अमेरिपरंतु वायुके विना तो पलभर भी जीना कठिन काके विद्वान् भी इस बातको मानने लगे हैं। है । अब आप बतलावें कि ऐसा कौन स्थान परंतु पशुओं को यह नियम सृष्टि के आरंभसे है जहाँ वायु नहीं है ? ये दोनों बातें तुम्हें क्या ही ज्ञात है । मनुष्यका उदाहरण लो । जब शिक्षा देती हैं ? यही कि मनुष्यकी आवश्यक हमें कहीं चोट लग जाती है तब हम उस जगह वस्तुयें उसके निकट ही हैं। प्रकृतिने उन्हें दूर पर हाथ फेरते हैं अथवा फूंक मारते हैं; पेटमें खोजने जाने की आवश्यकता नहीं रखी । यदि दर्द होता है तब पेट पर हाथ फेरते हैं। इस हम विश्व के स्वाभाविक नियमोंका परिशीलन प्रकारसे हम अपने शरीरकी एक गप्त शक्तिको करें तो हमें विदित होगा कि यह नियम अन्धोंको काममें लाते हैं, भेद केवल इतना ही है कि भी दिखाई दे जाय, ऐसे मोटे अक्षरों में जहाँ तहाँ हमें उस शक्तिका ज्ञान नहीं होता। लिखा हुआ है। जब ऐसा है तो मनुष्यको शक्तिका आकर्षण । व्याधियों को निर्मल करने के लिए जंगलों में जड़ी- इतने विवेचनसे तुमको यह स्पष्ट रीतिसे बटियोंके ढूँढने को जाने की क्या आवश्यकता है ? समझमें आगया होगा कि तुम्हारा शरीर तथा विषके समान कड़वी औषधियाँ क्यो पिये ? उसके आसपासका सारा जगत् एक अद्भुत किस लिए वैद्य और सबटरोंको मुँह माँगे दाम शक्तिसे व्याप्त है । तुम्हें यह भी मानना पड़ेगा है और उनी सुशामद करे ? सच तो यह है कि कि इस शक्ति के द्वारा प्रत्येक व्याधिका निवारण प्रकतिने मनुष्यको क्षुद्र नहीं बनाया, वह स्वयं हो सकता है। तम कहोगे कि प्रत्यक्ष देखे बिना अपनी ही अज्ञानताके कारण क्षुद्र बन रहा है । । ९ हम नहीं मान सकते । परंतु हम कहते हैं कि और दुःख पाता है। तुम विना देखी हुई कई बातें मानते हो तब यह कुछ स्वाभाविक उपाय। एक और मान लो । यदि कुछ समय तक यह छोटासा बालक जब भूखा होता है तब रोने बात सत्य है ' ऐसा विश्वास करके तम इसका लगता है । कुत्तेको या अनजान मनुष्यको देख- प्रयोग करोगे तो इच्छित प्रत्यक्षानुभव भी तुम्हें कर चीख मारता है या आप-ही-आप उससे दूर प्राप्त हो जायगा। अतः अब तुम्हें यह स्वीकार हटने लगता है । इसका कारण क्या है ? करना ही पड़ेगा कि तुम्हारा शरीर और सम्पूर्ण प्रकृतिने उसे आत्मसंरक्षण करनेकी बुद्धि दी है। जगह एक परम शक्तिसे भरपूर है और यदि अतः अपनी बुद्धिके अनुसार उसे जो कुछ तुम किसी अक्रिया द्वारा इस शक्तिको अपने भयकर या भयप्रद प्रतीत होता है उससे वह शरीरमें भर सकोगे तो तुम बातकी बात में सम्पूभलीभाँति बचने और दूर रहनेका प्रयत्न करता ण व्याधियोंसे मुक्त हो जाओगे । तुम्हारा रुधिर है । जिस प्रकृतिले बालकों तथा सब प्राणियोंको धमनियों में तेजीसे बहने लगेगा, तुम्हारा मंद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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