SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१८ जैनहितैषी [भाग १३ पहलेके कुछ पद्य छोड़ दिये गये हैं और इस " द्रौपद्याः पंच भर्तारः कथ्यन्ते यत्र पाण्डवाः । लिए वे पर कटे हुए कबूतरकी समान लँडूरे मालूम जनन्यास्तव को दोषस्तत्र भर्तृदयेसति ॥ ९७९ ॥ होते हैं। ____ इस श्लोकमें द्रौपदीके पंचभर्तार होनेकी बात (२) अमितगतिने अपनी धर्मपरीक्षाके . कटाक्ष रूपसे कही गई है। जिसका आगे प्रति १५ वें परिच्छेदमें, 'युक्तितो घटते यन्न' इत्यादि बाद होनेकी जरूरत थी और जिसे गणीजीने पद्य नं० ४७ के बाद, जिसे पद्मसागरजीने भी नहीं किया । यदि गीजीको एक स्त्रीके अनेक अपने ग्रंथमें नं० १०८९ पर ज्योंका त्यों उध्दृत पति होना अनिष्ट न था तब आपको अपने ग्रंथमें किया है, नीचे लिखे दो पद्योंद्वारा एक स्त्रीके यह श्लोक भी रखना उचित न था और न इस पंच भर्तार होनेको अति निंद्य कर्म ठहराया है; विषयकी कोई चर्चा ही चलानेकी जरूरत थी। और इस तरहपर द्रौपदीके पंचपति होनेका परन्तु आपने ऐसा न करके अपनी धर्मपरीक्षामें निषेध किया है। वे दोनों पद्य इस प्रकार हैं:- उक्त श्लोक और उसके सम्बंधकी दूसरी चर्चाको, सम्बंधा भुवि विद्यन्ते सर्वे सर्वस्य भूरिशः। विना किसी प्रतिवादके, ज्योंका त्यों स्थिर * भर्तृणां क्वापि पंचानां नैकया भार्यया पुनः ॥ ४८॥ रक्खा है, इस लिए कहना पड़ता है कि आपने सर्वे सर्वेष कुर्वन्ति संविभागं महाधियः। ऐसा करके निःसन्देह भारी भूल की है । और इससे महिलासंविभागस्तु निन्द्यानामपि निन्दितः॥४९॥ आपकी योग्यता तथा विचारशीलताका भी बहुत पद्मसागरजीने यद्यपि इन पद्योंसे पहले और कुछ परिचय मिल जाता है। पीछेके बहुतसे पद्योंकी एकदम ज्योंकी त्यों । (३) श्वेताम्बर धर्मपरीक्षा में, एक स्थाननकल कर डाली है, तो भी आपने इन , पर, ये तीन पद्य दिये हैं:दोनों पद्योंको अपनी धर्मपरीक्षामें स्थान नहीं 'विलोक्य वेगतः खर्या क्रमस्योपरिमे क्रमः । दिया। क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें, हिन्दु भन्नो मुशलमादाय दत्तनिष्ठुरघातया ॥ ५१५ ॥ ओंकी तरह, द्रौपदीके पंचभर्तार ही माने जाते हैं। अथैतयोर्महाराटिः प्रवृत्ता दुर्निवारणा। पाँचों पांडवोंके गलेमें द्रौपदीने वरमाला डाली लोकानां प्रेक्षणी भूता राक्षस्योरिव रुष्टयोः ॥५१६॥ थी और उन्हें, अपना पति बनाया था; ऐसा अरे । रक्षतु ते पादं त्वदीया जननी स्वयम् । कथन श्वेताम्बरोंके ' त्रिशष्ठिशलाकापुरुषच रुष्टखा निगद्येति पादो भन्नो द्वितीयकः ॥५१॥ रित ' आदि अनेक ग्रंथोंमें पाया जाता है । उक्त ____ इन पद्योंमेंसे पहला पद्य ज्योंका त्यों बही दोनों पद्योंको स्थान देनेसे यह ग्रंथ कहा है जो दिगम्बरी धर्मपरीक्षाके ९ वें परिच्छेदमें श्वेताम्बर धर्मके अहातेसे बाहर न निकल जाय, नं० २७ पर दर्ज है। दूसरे पद्यमें सिर्फ इसी भयसे शायद गणीजी महाराजने उन्हें 'इत्थं तयोः । के स्थानमें ' अथैतयोः ' का स्थान देनेका साहस नहीं किया । परन्तु पाठ- और तीसरे पद्यमें 'बोडे' के स्थानमें 'अरे' और कोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि गणीजीने । 'रुष्टया ' के स्थानमें ' रुष्टखर्या ' का परिवअपने ग्रंथमें उस श्लोकको ज्योंका त्यों रहने । रहन र्तन किया गया है । पिछले दोनों पद्य दिगम्बरी दिया जो आक्षेपके रूपमें ब्राह्मणोंके सम्मुख । धर्मपरीक्षाके उक्त परिच्छेदमें क्रमशः नं० ३२ उपस्थित किया गया था और जिसका प्रतिवाद करनेके लिए ही अमितगति आचार्यको उक्त और ३३ पर दर्ज हैं। इन दोनों पद्योंसे पहले दोनों पद्योंके लिखनेकी जरूरत पड़ी थी। वह अमितगतिने जो चार पद्य और दिये थे और श्लोक यह है: जिनमें कक्षी तथा खरी नामकी दोनों स्त्रियोंके 7. . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy