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________________ ३१४ जीवन व्यतीत करना होगा । उधर विधवायें पाप करेंगी और धीरे धीरे जाति से च्युत होती जायँगी । इस तरह ऐसी जातियोंका क्षय अवयंभावी है । जैनहितैषी - धन्यवाद । गत अंक में हमने इशारा किया था कि जैनहितैषी में पिछले वर्ष लगभग २०० ) का घाटा रहा है। उसे पढ़कर जैनहितैषी के सच्चे शुभचिन्तक और विशेष लेखक श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तारने २५ ) पच्चीस रुपये मनी - आर्डर द्वारा सहायतार्थ भेजे हैं, जो उनके अतिशय आग्रहके कारण धन्यवादपूर्वक स्वीकार किये जाते हैं । ग्रन्थपरीक्षा लेखमाला | जैनहितैषीमें प्रकाशित हुए ग्रन्थपरीक्षा-विषयक लेखक हम पुस्तकाकार छपवा रहे हैं । इनका एक भाग भद्रबाहु -संहिताकी परीक्षा छप चुका है। दूसरा भाग छप रहा है, जिसमें उमास्वामिश्रावकाचार, कुन्दकुन्द श्रावकाचार और जिन - सेन त्रिवर्णाचार इन तीन ग्रन्थोंके परीक्षालेख रहेंगे । मूल्य लागत मात्र रक्खा जायगा । सिर्फ ५०० कापियाँ छपवाई जा रही हैं। जो धर्मात्मा सज्जन भट्टारकी साहित्यकी पोल खोलना चाहते हैं, भट्टारकोंके शिथिलाचारपोषक ग्रन्थोंसे समाजकी रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें इन दोनों पुस्तकों की दश दश बीस बीस कापियाँ बाँटनेके लिए अवश्य मँगा लेना चाहिए । दशलक्षण पर्व में ये पुस्तकें प्रत्येक मन्दिर में पढ़ी जानी चाहिएँ । Jain Education International [ भाग १३ धर्मपरीक्षा । ( ग्रंथ - परीक्षा लेखमालाका पाँचवा लेख | ) [ लेखक - श्रीयुत बाबू जुगल किशोरजी मुख्तार । ] कृत्वा कृतीः पूर्वकृताः पुरस्तात्प्रत्यादरं ताः पुनरीक्षमाणः तथैव जल्पेदथयोन्यथा वा स काव्यचोरोस्तु स पातकी चा --सोमदेवः । " श्वेताम्बर जैनसम्प्रदाय में, श्रीधर्मसागर महोपाध्यायके शिष्य पद्मसागर गणीका बनाया हुआ धर्मपरीक्षा' नाम का एक संस्कृत ग्रंथ है, जिसे कुछ समय हुआ, सेठ देवचन्दलालभाईके जैनपुस्तकोद्धार फंड बम्बईने छपाकर प्रकाशित भी किया है । यह ग्रंथ संवत् १६४५ का बना हुआ है। जैसा कि इसके अन्तमें दिये हुए निम्नपयसे प्रगट है:-- तद्राज्ये विजयिन्यनन्यमतयः श्रीवाचकाग्रेसरा द्योतन्ते भुवि धर्मसागरमहोपाध्यायशुद्धा धिया । तेषां शिष्यकणेन पंचयुगषट् चंद्रांकिते (१६४५ ) वत्सरे वेलाकूलपुरे स्थितेन रचितो ग्रन्थोऽयमानन्दतः॥ १४८३ दिगम्बर जैनसम्प्रदाय में भी ' धर्मपरीक्षा ' नामका एक ग्रंथ है जिसे श्री माधवसेनाचार्य के शिष्य ' अमितगति' नामके आचार्यने विक्रमसंवत् १०७० में बनाकर समाप्त किया है । यह ग्रंथ भी छपकर प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रंथका रचना - संवत् सूचक, अन्तिम पद्य इसप्रकार है: संवत्सराणां विगते सहस्रे, सप्ततौ १०७० विक्रमपार्थिवस्य । इदं निषिध्यान्यमतं समाप्तं, जिनेन्द्रधर्मामितयुक्तिशास्त्रम् ॥ २० ॥ इन दोनों ग्रंथोंका प्रतिपाद्य विषय प्रायः एक है । दोनोंमें 'मनोवेग' और 'पवनवेग' की प्रधान कथा और उसके अंतर्गत अन्य अनेक उपकथाओंका समान रूपसे वर्णन पाया जाता है; बल्कि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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