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________________ अङ्क ७] गोलमालकारिणी सभा। ३०३ आप जैनधर्मकी प्रत्येक बातपर अगाध श्रद्धा हुआ है और इसके लिए मैंने सामायिकके बाप्रकट करते हैं । भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यके दके पूरे दो घण्टे खर्च किये हैं। क्या आप ग्रन्थोंको आप जिस पूज्य दृष्टिसे देखते हैं, उससे मेरे गहरे आत्मानन्दको छलका देनेवाले ' अहः' भी तिलभर अधिक दृष्टि से भद्रबाहुसंहिताके कर्ता- 'ओह' आदि शब्दोंसे भी नहीं समझ सकते को देखते हैं । विधवाविवाहके पक्षपाती भी कि यह मेरी ही चीज है ? चक्रवर्तियोंकी एक अब आप नहीं हैं। आपने तमाम जैन पण्डि- हजार रानियोंवाली कथा पर विश्वास न करने तोंसे इसके विरोधमें लेख लिखनेका आग्रह किया वालोंका मुँह बन्द करनेके लिए मैंने जो सैकड़ों है । एक और सेठजीने इसका समर्थन करते हुए गायोंका स्वामी बनकर रहनेवाले साँड़का बेकहा कि आप इतिहासके भी अच्छे जानकार हैं। जोड़ दृष्टान्त ढूंढ़ निकाला है, वह भी तो इस आप तमाम पट्टावलियों, कथाओं और किंवदान्ति- व्याख्यानमें मौजूद है; जिससे आपको इसके योंको सोलह आनासच समझते हैं। जिस प्रतिमापर मेरे लिखे होने में कोई शंका न होनी चाहिए। कोई सन् संवत् न हो, उसे आप चौथे कालकी आपके व्याख्यानसे लोग तन्मय हो गये बनी हुई समझते हैं। यह आपकी खास खोज और सभामें बैठे बैठे ही झुकझुककर अनुभवानन्द है। आपने अपने किसी सहधर्मीकी लिखी हुई करने लगे । जब एक बड़ी तोंद और विस्तृत एक यात्रापुस्तकको किसी भण्डारमेंसे 'खोज पगड़ीवाले सज्जनने भीमगर्जनसे बोलना शुरू निकाली है और उसे छपाकर प्रकाशित भी कर किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि रातकी दिया है। और और लोग तो उसे किसी अफी- सब्जैक्ट कमेटीमें तय किये हुए प्रस्ताव पेश मचीकी लिखी हुई गहरी गप्प समझते हैं, परन्तु किये जा रहे हैं और तब बिचारोंको आँखें आपने उसे बिलकुल सच समझा है और उसके खोल देनी पड़ी । नीचे लिखे प्रस्ताव यथा अनुसार आप एक बड़े संघके साथ एक दुर्गम नियम उपस्थित किये गये और अनुमोदनादिके तीर्थकी यात्राके लिए जाना चाहते हैं। आपने बाद पास किये गये। एक बार प्रकट किया था कि जर्मन आदि १ त्रिवर्णाचार, भद्रबाहुसंहिता आदिके परी. देशोंने जो विज्ञानके बड़े बड़े आविष्कार किये क्षकोंकी बुद्धि पर सभा शोक प्रकाशित करती है हैं, वे सब हमारे ग्रन्थोंको ही पढ़कर किये हैं। जो जरूरतसे ज्यादा सत्यवक्ता बन रहे हैं भला ऐसी ऊँची समझ रखनेवाला सभापति और जैनविद्वानोंसे प्रार्थना करती है कि वे आपको और कौन मिलेगा ? उन्हें जिनवाणीनिन्दाके महान् पापसे बचानेके तालियोंकी प्रचण्ड गडगडाट के बीच श्री. लिए जीजानसे उद्योग करें। गोलमालानन्दजीने सभापतिका आसन स्वीकार १ जैनमित्र संपादक महाशयको सभा इस किया और अपना विस्तृत व्याख्यान पदमा लिए धन्यवाद देती है कि उन्होंने भद्रबाहुसंहिशुरू किया । उसे सुनकर कुछ श्रोता कानाफूसी ताकी परीक्षाको जैनमित्रमें उद्धृत नहीं किया और करने लगे कि यह आपका लिखा हुआ नहीं है। न उसके अनुकूल अपनी सम्मति प्रकाशित की। यह देखकर आपने कहा कि यद्यपि जैनोंके इस प्रशंसनीय कार्यसे सभा आपका वह अपराध सभापतियोंको अपना व्याख्यान दूसरोंसे लिख- क्षमा कर देती है जो आपने उमास्वामी श्रावकावानेका बहुत पुराना अधिकार है; परन्तु मैं उसे चारादिकी परीक्षाको जैनमित्रमें उद्धृत करके काममें नहीं लाया हूँ। यह मेरा खुदका लिखा किया था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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