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________________ जैनहितवी [ भाव १३ इस समय जैन जाति अपने जैनशास्त्रोंके हैं, उस देशके जैन भी ऐसा ही करते हैं और वचनों पर न चल कर हिन्दुओंका अनुकरण जहाँ हिन्दू ऐसा नहीं करते, वहाँ जैन भी नहीं कर रही है । जिस जिस प्रान्तमें जो जो करते । जिस देशमें हिन्दू लोग धीवर, माली, रिवाज इस विषयमें हिन्दू लोगोंमें प्रचलित हैं, आदि ऐसे लोगोंके हाथका पानी पीते हैं, उनहीं पर उस प्रान्तकी जैन जाति भी चल रही जिनके हाथकी रोटी नहीं खाते, उस देशके है और उसहीको भगवानकी आज्ञा मानती है। जैनोंको भी उनके हाथका पानी पानसे घृणा जैन शास्त्रोंमें खेती करनेवाले किसान, पशु नहीं है; परन्तु उनके हाथकी रोटी सानेमें धमा पालनेवाले घोसी और दूकानदारी करनेवाले होती है । जिस देशमें हिन्दू लोग बाजारका बनिये सब एक वैश्य वर्णमें शामिल किये गये हैं; सिर्फ दूधपेड़ा ही खाते हैं, ल घेवर आदि परन्तु अब हमारे जैन भाई किसानों और ऐसी वस्तुयें-जिनमें अन्न पड़ा हो-नहीं खाते घोसियोंको वैश्य वर्णमें नहीं मानते। जैन शास्त्रोंमें उस देशके जैन भी ऐसा ही करते हैं और दूसः हजारों कथायें बड़े बड़े योग्य पुरुषोंकी ऐसी देशके जैनोंको बाजारकी पूरी कचौरी खाते वर्णन की गई हैं जिन्होंने अपनी मामाकी देखकर हँसते हैं । गुजरातके हिन्दुओंमें आपसमें बेटीसे या बुआकी बेटीसे विवाह किया है। खानपानकी ज्यादा ठूत-छात और पानी य. ऐसी भी कई कथायें हैं जिनमें दो भाई-बहनोंमेंसे वर्तनके झूठा हो जानेका ज्यादा सयाल भाईका बेटा बहनकी बेटीसे और बहनका बेटा नहीं है, वहाँ इस विषयमें बहत ही टीले नियन उसही भाईको बेटीसे व्याहा गया है। परन्त आज हैं , इस वारते यही जन-माई भी वैसा ही कल हमारे जैन भाई ऐसा करने पर तैयार नहीं करते हैं । गरज कहाँ तक कह, खान पान के हैं। श्रीआदिनाथ भगवानकी स्पष्ट आज्ञा है कि विषधर्म आज कलके जैनोंका कोई एक सब कोई अपनेसे नीच वर्गों की कन्याओंसे विवाह सिद्धान्त नहीं है; जो कुछ भी है, वह हिन्दुओंक कर ले; परन्तु आजकल यदि एक वर्णवाला अनुकरण है। दूसरे वर्णकी कल्यासे विवाह कर ले, तो ऐसा इस कथनसे सिद्ध हो गया कि हम विवाहक भारी दोष समझा जाता है; जिसका इलाज जाति- मामलेमें जैनशास्त्रोंके बिलकल खिलाफ चल रहे से बाहर निकाल देनेके सिवाय और कुछ है ही हैं और खानपानके मामलेमें अपना कोई सिद्धानहीं। बल्कि आज कल तो एक ही वर्णमें भी विवाह न्त ही नहीं रखते। बल्कि हिन्दुओंका अनुकरण करने की इजाजत नहीं है । अग्रवाल, खंडेलवाल कर रहे हैं । ऐसी दशामें यदि हमारे सब जन आदिक अनेक जातियाँ वैश्यवर्णमें गिनी जाती हैं, भाई द्रव्य क्षेत्र काल भावके अनुसार कोई एक परन्तु इनका भी आपसमें विवाह नहीं हो सकता; सिद्धान्त स्थिर कर लें, तो किसी तरह भी अनुयदि कोई कर ले तो वह जातिसे बाहर कर दिया चित न होगा । बल्कि ऐसा करना बहुत ही आवजावे । इसही प्रकार ऐसी बहुत बातें हैं जो शास्त्रोंकी श्यक मालूम होता है; परन्तु यह तभी हो सकता आज्ञाके विरुद्ध की जाती हैं और विरुद्ध करना ही है जब कि सबको अपना अपना विचार प्रगट धर्म समझा जाता है । रहा खानपानका व्यवहार, करनेकी स्वतंत्रता हो और शान्तिके साथ बिना सो वह तो बिलकुल ही हिन्दुओंके अनुसार किया किसी प्रकारकी भड़कके सबके विचारोंकी जाँच जाता है । जिस देशमें हिन्दू लोग कचौरी पूरी की जावे। आदि पक्का साना रसोई घरसे बाहर खा लेते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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