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ऊं नमः
श्री देवेंइरिविरचितं चैत्यवंदनादि जाप्य त्रय
बालावबोध सहितं प्रारभ्यते.
तत्र प्रथमं श्री चैत्यवंदन जाष्य प्रारंजोयं
ग्रंथकर्ता मंगलाचरण माटे गाथा कहे बे. वंदित्तु वदलिओ, सधे विश्वंदणाइ सु विधारं ॥ बहु वित्ति जास चुनि सुयाणुसा
"
रेण बुच्चामि ॥ १
बालावबोध कर्तानुं मंगलाचरण कहे बे. प्रणम्य प्रणतानंद कारकं विघ्नवारकं ॥ श्रीमद्विजय देवाहं लसलावण्य धारकं ॥ १ ॥ मेरु धीरं स्फुर वीर, तीरं नीरधी शवत् ॥ जाप्य श्रयायें बोधाय, बालकोधो विधीयते ॥ २ ॥
१
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देववंदन जाय अर्थसहित.
अर्थ : - ( वंदलिके के ) वंदनीयान् एटले बांदवा योग्य एवा जे ( सधे के० ) सर्वे श्रीतीर्थं करदेव अथवा श्री अरिहंतादिक ( स के०) सर्वे पांचे परमेष्ठी तेसने ( वंदित्तु के० ) वंदित्वा एटले वांदीने ( चिश्वंदणाइ के० ) चैत्यवंदनादिक ए टले चैत्यवंदन तथा आदिशब्दधी गुरु वंदन अने पञ्चरकाल पण लेवां ते रूप ( सुविधारं के० ) सुविचारं एटले रुमा विचारप्रत्यें ( बहु के ) घणा एवा जे (वित्ति के० ) वृत्ति, (आस के जाप्य अने ( चुसी के० ) चूर्णितादियुक्ति प्रमुख ग्रंथो तडूप ( सुयागु सारेण के ) श्रुतने अनुसारें करीने ( वुन्नामि के० ) कोश. परंतु महारी मतिकल्पनायें नहीं कहीश. एटले धर्मरुचि जीवोने पंचांगी सम्मत चैत्यवंदनादिकनो विधि कदीश. कारण के समकितनुं बीज तो शुद्ध देव, शुद्ध गुरु अने शुद्ध धर्मनुं स्वरूप जाणवुं, थने सदहवं बे ते माटे प्रथम अढार दोष रहित, नि कलंक एवा जे श्रीअरिहंत देव वे, ते शुद्ध देव बे. तेना स्थापनादिक चारे मिपा दांदवा योग्य
२
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देववंदन नाप्य अर्थसहित. ३ ने, तो शहां चैत्यशब्दं श्रीअरिहंत तथा श्रीअरि हंतनी प्रतिमा तेनी जे वंदना करवी, ते विधि स दित करवी ते विधि कहीश ॥ इति ॥१॥ ___ हवे ते चैत्यवंदननो विधि मूल तो चोवीश. हारे सचवाय , ते चोवीशना वली उत्तर नेद २०७४ थाय . माटें चोवीश हारनां नाम, 4 त्येक झरना उत्तर नेदनी संख्या सहित चार गाथायें करी कदे .
दहतिग अहिगम-पणगं, उदिसि तिहु गाह तिहा न वंदणया।पणिवाय-नमुक्कारा, वमा सोल-सब-सीयाला ॥३॥गसी सयं तु पया, सग-निनसंपयानपण दंमा ॥ बार अहिगार चनवं, दाणऊ सरणिका चन्ह जिणा ॥३॥ चनरो यु निमित्तष्ठ, बारह हेऊ सोल आगारा ॥ गुण वीस दोसठस्स, ग्ग माण युतं च सगवेलाan दस आसायण चान, सब्जे चिश्वंदणारठा
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४ देववंदन नाष्य अर्थसहित. पाइं॥ चनवीस वारेहिं, उसहस्सा हुति चन सयरा ॥॥ इतिदारगाहा ॥
अर्थः-प्रथम देव वांदतां नैषेधिक आदिक (द हतिग के७) दश त्रिक साचववा जोश्ये, तेनुंहार कदीश, बीजुं (अहिगमपणगं के) अन्निगमपं चक एटले पांच अनिगमर्नु हार कहीश. त्रीनुं देव वंदन करता स्त्रीने कयी दिशायें अने पुरुषने कयी दिशायें मना रहेQ जोश्ये, ते (उदिसि के) विदिशि एटले बे दिशाननु चार कहीश, चोधुं जघन्य, मध्यम अने नत्कृष्ट एवा (निन ग्गह के० ) ऋण प्रकारना अवग्रहनुं हार कहोश, पांचU (तिहानवंदणया के ) त्रिधातुवंदनया एटले त्रण प्रकारे वली चैत्यवंदना करवी. तेनं धार कहीश,हुं पंचांग एटले पांच अंगें पणिवाय के०) प्रणिपात करवो, तेनुं हार कहीश, सातमुं (नमुक्कारा के०) नमस्कार करवानुं हार कहीश, आठमुं देववंदनना अधिकारें जे नवकार प्रमुख नव सूत्रां श्रावे , तेना (वरमा के० ) वर्ण एटले मदर ते (सोलसयसीयाला के) सोलहों ने
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देववंदन जाय अर्थसहित.
Ա
सुडतालीश थाय, तेने गएणी देखामवानुं द्वार कदीश ॥ २ ॥
नवमं देववंदनना अधिकारें नवकार प्रमुख नव सूत्रानां ( इगसीइसयं के० ) एकसोने ए क्यासी (तु के० ) वली ( पया ० ) पदो थाय बे, ते देखामवानुं द्वार कहीश, दशमुं एज नवसू त्रांनां (सगनन के० ) सप्तनवति एटले सत्ताणुं ( संपयान के० ) संपदान थाय बे, ते देखामवानुं द्वार कदीश, अगीयारमुं नमुकुलादिक ( पदमा के) पांच दंमकनुं द्वार कदीश, वारमुं चैत्यवं दमने विषे पांच दमकमा ( बाराहिगार के ) बार अधिकार प्रवेबे, तेनुं द्वार कहीश, तेरमुं ( चनवंद शिऊ के० ) चार वांदवा योग्य तेनुं द्वार कदीश, चौदमुं नृपश्व टालवा निमित्तें एक (स रणिऊ के ) स्मरण करवा योग्य जे सम्यग्दृष्टि देवो तेमनुं द्वार कोश, पन्नरमुं नामस्थापनादिक ( चन्ह जिला के० ) चार प्रकारना जिननुं द्वार कदीश ॥ ३ ॥
सोलमुं ( चनरोथुइ के० ) चार स्तुति कदे
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६ देववंदन नाष्य अर्थसहित. वार्नु क्षार कहीश, सत्तरमुं देव वांदवामां पापक्ष पणादिक (निमित्त के ) निमित्त आठ डे, तेनुं हार कहीश, अढारमुं फल साधवा निमित्ते (बारहेऊ के० ) बार हेतुनुं हार कहीश, (अ के ) वली नगणीशमुं अपवादें कानस्लग्गना ( सोलसागारा के ) सोल आगार, हार क हीश, वीशमुं कानस्सग्गमां (गुणवीसदोस के) इंगणीश दोष नपजे तेनुं हार कहीश, एकवीसमुं (नस्सग्गमाण के) कानस्सग्गना प्रमाणनुं हार कहीश, बावीशमुं श्रीवीतरागर्नु (श्रुतं के ) स्तवन केवा प्रकारे करवू ? तेनुं हार कही,त्रे बीशमुं (अ के ) वली दिन प्रत्ये चैत्यवंदन ( सगवेला के ) सात वेला करवू, तेनुं हार कदीश ॥४॥
चोवीसमुं देववंदन करतां देरासरमां तांबूल प्रमुख (दसासायणचा के) दश आशात नानो त्याग करवो, तेनुं हार कहीश, एम (सत्वे के ) सर्वे (चिश्वंदणारंगणाई के) चैत्यवंद ननां स्थानक ते (चनवीसऽवारेदिके के ) चो
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देववंदन जाय अर्थसहित.
S
वीश छारें करीनें (सदस्सा के ) बे दजारनी ऊपर ( चन्सयरा के० ) चुम्मोतेर ( हुंति के० ) थाय ॥ ५ ॥ ( दारमादा के) ए द्वारनी गाथानं चार जाणवी ॥
चोवीश हारनां उत्तरभेदसदित यंत्रनी स्थापना. अंक मूलधारनां नाम. उत्तरभेदनी संख्या. सरवालो. १ नैषेधिकादिक दशत्रिकनुं द्वार ३० २ पांच निगम साचववानुं द्वार. ५ ३ देववदतां स्त्री पुरुषने नजा रहे बानी बे दिशाननुं द्वार. घन्य, मध्यमादित्रण श्रवग्र
दनुं द्वार.
३
५ त्रण प्रकारें वंदना करवी तेनुं द्वार. ३
६ प्रणिपात पंचांगें करवानुं द्वार.
१
७ नमस्कार करवानुं द्वार. G नबकार प्रमुख नवसूत्रानां व र्णोनुं द्वार. ए नवकार प्रमुख नव सूत्रानां पदसंख्यानुं छार.
१
३०
३५
१८१
३
४०
४३
କ୍ଷ
४५
१६४७ १६२
१८७३
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. १० नवकार प्रमुख नवसूत्रानी संप दानुं धार.
ए७ १९७० ११ नमोबुणादि पांच दंमक धार, ५ १एसए १२ देव वांदवाना बार अधिकारनुं धार.
१३ १एन् १३ चार वंदनीयर्नु हार. ४ १एए? १४ स्मरण करवा योग्यतुं हार. १ १२ १५ नामादि चार प्रकारे जिन- हार.४ १६ १६ चार यु कहेवानुं धार. ४ २०० १७ देव वांदवाना आठ निमित्तनुं चार. २००० १७ देव बांदवाना बार हेतुनुं धार. १२ २०० १ए कानस्सग्गनासोलागारनुंहार.१६ २०३६ ३०. कानस्सरगना नगर घर.
रए २०५५ १ कानस्सग्गना प्रमागर्नु हार. १ २०५६ २२ स्तवन केम करवू? तेनुं चार. १ २०५७ २३ सात वार चैत्यवंदन करवानुं हार.७ २०६४ श्व दश आशातना त्यागवानुं हार.१०. २०७४
हवे ए चोवीशे हारना उत्तर दनुं स्वरूप
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ए अनुक्रमें देखामतो प्रको प्रथम दश त्रिकोनुं हार कहेतो तो बे गाथायें करी दश त्रिकोना नाम कहे जे.
तिनि निसिही तिनिठ, पयाहिणा तिनि चेव य पणामा ॥ तिविहा पूया य तहा, अवन-तिय-नावणं चेव ॥ ६॥ ति दिसि-निरकण-विरई, पयनूमि-पमळणं च तिकुतो ॥ वन्नाइ-तियं मुद्दा, तियं च तिविहं च पणिहाणं ॥७॥
अर्थः-प्रथम देरासरे जातां (तिनिनिसिही के ) त्रणवार नैषिधिको कहेवी, बोजु देरासरे (तिनिन के ) त्रय वली (पयाहिणा के) प्र दक्षिणा देवी, त्रीजी (तिनि के) त्रण वार (चेवय के ) ए निर्धार वाचक शब्द डे (प णामा के) प्रणाम करीयें, चोथो (तिविहा के०) त्रण प्रकारनी अंगपूजादिक (पूया के) पूजा करवी, पांचमी (य के०) वली (तहा के) तथा प्रनुनी पिमस्थावस्थादिक [अवनति
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१७ देववंदन नाप्य अर्थसहित. यन्नावणं के ] अवस्थात्रयनुं नाव, जाणवु, (चेव के ) निश्चें ॥
ही चार दिशिमांथी मात्र नगवान् ने दि शियें बेठेला होय, तेज एक दिशिनी सामुं जोवं, अने शेष (तिदिसिनिरस्काविरई के ) त्रण दि शिनी सन्मुख नोवामुं विरमण करवू, सातमी (पयनूमिपमऊणं के) पग मूकवानी नूमिर्नु प्रमाऊन ते (च के) वली (तिस्कुत्तो के) प्रण वार कर, आग्मी (वनातियं के०) वर्णा दिकना आलंबन त्रण कदेशे (च के) वल्ली नवमी मुद्दतियं के ) त्रण मुश कदेशे, दशमी (तिविहं के ) त्रण प्रकारे (च के) वलि (पणिहाणं के०) प्रणिधान कदेशे, जे त्रण बो लनो समुदाय तेने त्रिक कदीयें, ए दश त्रिकनां नाम कां ॥७॥
हवे प्रथम नितिही त्रण कये कये स्थानकें करवी ? ते कहे . . घर जिणहर-जिण-पूया, वावारच्चायन
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ११ निसिही-तिगं ॥ अग्ग-हारे मजे, तश्या चिश्-वंदणा-समए ॥ ७॥
अर्थः-जे सावध व्यापारनो मन, वचन अने कायायें करी निषेध करवो, तेने निसिही कहीये, ते एक पोताना (घर के) घरनां बीजी (जि लहर के) जिनघर ते देरासरना, त्रीजी (नि लपूआ के) श्रीजिनेश्वरनी पूजानां जे ( वावार के) व्यापार एटले एणना जे व्यापार तेने (चायके ) त्यागवाथकी (निसिहोतियं के०) नै बधिकीत्रिक थाय तेमां प्रथम निसिहि ते पो ताना घर, हाट, परिवारादिक संबंधी जे सावद्य व्यापार ते सर्व निवर्ताववा माटे श्रीजिनमंदिरने (अग्गद्दारे के०) अग्रक्षारें कहे. एटले देरासरनां मूल वारणे दरवाजामा पेसतांज कहे, पण इहां श्रीजिनघरने पूंजवा समारवा संबंधि तथा पूजा संबंधि सर्व व्यापार आदरे, तथा बीजी निसिदी ते जिनघर संबंधं व्यापारी नवत्तेवा रूप देरा सरनी (मऊ के० ) मध्य गन्नारामां पेसतां क
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१५ देववंदन नाष्य अर्थसहित. है, तिहां देरासर पझ्या आखल्यानी चिंतानो तथा देरासरमां पंजवादिकनो त्याग करीने अन्य पूजादिकनो प्रारंन करे, एम सर्व प्रकारनी पूजा विधिसहित साचवी रह्या पी ( तश्या के ) त्रीजी निसिही जे जिनपूजा संबंधि व्यापारना त्याग रूप ले ते. जिनपूजा व्यापार त्याग तो (चिश्वंदणासमए के०) चैत्यवंदन करवाना अ वसरें कहे, इहां व्यपूजा व्यापार सर्व निवर्ता वीने कैवल्य नावपूजारूप चैत्यवंदन स्तवनादि कनो एकाग्र चित्ते करी पाठ करे, ए रीते त्रण निसिही साचवे. __अथवा मन, वचन अने कायायें करी घरसं बंधी व्यापार निषेधवारूप त्रण निसिही देरास रना अग्रवारमा कहेवी, अने तेज प्रमाणे मना दिक त्रणे योगें देरासर संबंधी व्यापार त्यागवा आश्रयी त्रण निसिही गन्नारामां कहेवी, तथा वली चैत्यवंदनादि कहेवाने अवसरे पण मन व चन कायायें कर। जिनपूजा व्यापार त्यागरूप त्रण निसिही कहेवी, ए रीतें दरेक वखतें मन,
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. १३ वचन अने कायाना योगें करी त्रण त्रण निसिहो कहेवी, अथवा दरेक वखतें एकज निसिही क हेवी. परंतु घर संबंधी देरा संबंधी अने जिनपू जा संबंधी व्यापार निषेध करीयें बैयें, एम सम जीने देरासरमांपेसतांजत्रणे निसिही कही देवी नहीं.ए तात्पर्य .ए प्रथम निसिहीत्रिक कहूंगा ___ हवे बीजुं प्रदक्षिणात्रिकनुं नाम प्रथम सामा न्ये उछी गाथामां कहेलुं , तेनो प्रगट अर्थ ने, माटें जूई वखाण्यु नश्री. तथापि चैत्यना दक्षिण नागथी त्रण प्रदक्षिणा देवी, एटले संसारना न धमण टालवा रूप नावनायें श्रीप्रतिमाजी म हाराजनी जमणी बाजुश्री अनुक्रमें ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी आराधना रूप त्रण फेरा फरवा. ए बीजुं प्रदक्षणात्रिक कह्यु..
हवे त्रीजुं प्रणामत्रिक कहे . अंजलि-बंधो अहो, णन अपंचंगन अतिपणामा ॥ सवत्र वा तिवारं, सिरा इ-नमणे पणाम-तियं ॥ ए॥
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१४ देववंदन नाष्य अर्थसहित.
अर्थः-श्रीजिन प्रतिमा देखी बे हाथ जोड़ी निल्ला लगामी प्रणाम करीये हे प्रथम (अं जलिबंधो के) अंजलिबंध प्रणाम कहीये, तथा कटिदेशथी नपरखं अर्धं शरीर तेने लगारेक न मामी प्रणाम करीये, अथवा कादि स्थानके रह्यां थकां कांक शिर नमामीये, तशा शिर क रादिकें करी नूपिका पादादिक, फरल ते एक अंगथी मामीने चार अंग पर्यंत नालामबुं ते वी जो (अहोसन के०)अर्दावनत प्रणाम कहीयें, तथा (अ के) वली बे जानु, के कर अने पां चमुं ननमांग ते मस्तक, ए पांच अंग नाही खमासमण अापीयें, तेत्रीजु (पंचंगन के ) पं चांग प्रणाम जाणवो. ए (तिपणामा के०) त्रण प्रणाम जाणवा.
(वा के) अथवा ( सबन के ) सर्वत्र प्र णाम करवासमये ( तिवारं के० ) त्रण वार (सि राश्नमणे के०) मस्तकादिक नमामवे करी एट से शिर, कर अंजली प्रमुखे करी जे त्रण वार नमन आवर्त करवं ते (पणामतियं के० ) प्रणा
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देववंदन नाप्य अर्थसहित. १५ मत्रिक जाणवू. ए जीजुं प्रणामत्रिक को गए।
हवे चोयुं पूजात्रिक कहे . अंगग्गलावजेया, पुप्फाहार थुहिं यतिगं ।। पंचोवयारा अठो, क्यार सबोव यारा वा ॥ १० ॥ . अर्थः-(अंगग्ग के ) अंगने अग्र एटले पहे ली अंगपूजा अने बीजी पागल ढोवारूप अग्रपू जा, तथा त्रीजी चैत्यवंदनरूप (नाव के)मा वपूजा ए त्रण (नेया के) नेदथकी अनुक्रमें ((पुप्फाहारथुइहिं के) पुष्पाहारस्तुतिनिः एट ले पहेली पुष्प केसरा दिके अने बीजी आहार फलादि टोकने तथा त्रीजी स्तुति करबे करीने (पयतिगं के) पूजा त्रिक प्राय छे. - तेमां प्रथम अंगपूजा ते श्रीवीतरागनी पूजा अवसरे मनःशुद्धि, वचनशुदि,कायशुहि, वस्त्रशुद्धि, नीतिनुं धन, पूजाना नपकरणनी शुहि, नूमिशु इ, ए सात वानां शुकरी धवल निर्मल सुपोत धोतीयां पुरुष पहेरे, अने जेनो आठपमो मुख
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१६ देववंदन नाष्य अर्थसहित. कोश पाय,एहवी एक सामीउत्तरासंगनी धरे, एवी रीतें पुरुषं पूजा अवसरें बे वस्त्र राखवां, अने स्त्रीने तो विशेष वस्त्रादिकनी शोना जोश्ये, त थापि हमणां संप्रदायें त्रण वस्त्र पहेरी पूजा करे, ए रीतें वस्त्र पहेरी आशातना टालतो थको प्रथम पूंजणी करी श्रीजिनबिंबने पूंजे, पूंजवाथी मांमी पर्वनेविषेत्रण, पांच, सात, कुसुमांजलि प्रक्षेप करे. न्हवरा, अंगलूहगां धरतो, विलेपन, नूषण, अंगीरचन, पुष्प चमावतो जिनहस्तमां नारिकेरादिक धूपाक्षेष, सुगंधवासदेपणादिक क रतो पूजा करे. ए सर्व अंगपूजा जाणवी.
बीजी अग्रपूजा; तेमां धूप, दीप, नैनद्यादि शब्द आहार ढोकन पुष्प प्रकर, गंश्रिम, वेढिम, पूरिम, संघातिमादि ने जल, लवणोत्तारण,आ रती, मंगलदीपक, अष्टमंगलन्नरण, ए सर्व वीजी अग्रपूजा जागवी.
त्रीजीनावाजामध्ये स्तुति, गीत, गान,ना टक, बत्र, चामर, विंजवादि तथा देवव्य बधा रवा प्रमुख सर्वनावपूजा जाणवी.ए पूजात्रिक
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देववंदन जाय अर्थसहित.
कयुं. अथवा करवा, कराववा अने अनुमोदवारूप ए पण त्रिविध पूजा जाणवी .
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अथवा एक विघ्नोपशामिनी, बीजी अभ्युदय साधनी, त्रीजी निवृत्तिदायिनी, ए पूजात्रिक जा एवं यकं ॥ विग्घोवसायिगेगा, अनुदयसादलि नवे बीया ॥ निघुइकरणी तज्ञ्या, फलयान जह नामेदिं ॥ १ ॥ इत्यावश्यक निर्युक्तिवचनात् ॥
( वा के० ) अथवा ( पंचोवयारा के० ) पं चोपचारा पूजा ते १ गंध; २ माल्य, ३ अधिवास, ४ धूप, ए दीप अथवा १ कुसुम, २ प्रकृत, ३ गंध, धं धूप, ए दीप ए पांच प्रकारें पण प्रथम अंगपूजा जाणवी.
बीजी ( होवयार के० ) अष्टोपचार एटले १ कुसुम २ कह ३ गंध ४ पईव ५ धूव ६ नैवे ७ जल फलेहि पुणो ॥ श्रविद कम्म महणी, अहुवयारा दवइ पूया ॥ १ ॥ इति आवश्यक नि युक्तिवचनं ए आठ प्रकारें पूजा जाणवी.
त्रीजी ( सद्योवयारा के ) सर्वोपचारा एटले सर्वोपचारपणे पूजा ते प्रणाम मात्रादिक सर्व
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१७ देववंदन नाष्य अर्थसहित. लोकोपचार विनय ते सर्वपूजा जाणवी. अथवा जेटली वस्तु मले तेणें करीने पूजा करवी, ते सर्वोपचारपूजा जागवी. तिहां १ न्हवण, २ वि लेपन, ३ देवदुष्यवस्त्र, तथा चक्कुयुगल, ४ वास पूजा, ५ फूलपगर, ६ फूलमाल, ७ वूटां फूल, चूर्णघनसारादि, तथा आंगी रचनादि, ए ध्वजा रोपण, १७ आन्नरण, ११ फूलघर, १२ फूलनो मेघ, १३ अष्टमंगल रचना, १४ धूप दीप भारती मंगल दीपादिक नैवेद्य ढोकन, १५ गीतगान,१६ नाटक, १७ वाजित्र. ए सत्तर प्रकार पूजा, तथा वली २१ प्रकारे पूजा, तेनां नाम कहे . १ स्त्र, २ विलेपन, ३ नूषण, ४ फल, ५ वास, ६ धूप,
दीप, फूल, ए तंबुल, १० पत्र, ११ पूगी, १२ नैवेद्य, १३ जल, १४ वस्त्र, १५ उत्र, १६ चा मर, १७ वाजिंत्र,१७ गीत, नृत्य,२० स्तुति,२१ देवशयकोझवृद्धि, एवं एकवीश नेद, नया एकशो आठ प्रकारादि ए सर्व बहुविध पूजा जाणवी.ए रोतें पंचोपचार,अष्टोपचार अने सर्वोपचार मली अपने पूजाजाणवी.ए चोथुपूजात्रिक कर्वाण
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. १॥ हवे पांचमुं, अवस्थात्रिक कहे :
जाविऊ अवतियं, पिंमत पयन रूव रहियत्तं ॥ बनमन केवलितं, सिछत्तं चेव तस्सबो ॥११॥
अर्थः-हे नव्यजीव ! तुं (जाविध के० ) नाव्य. श्रीनगवंतनी (अवनतियं के ) त्रण अवस्था प्रत्ये एटले त्र अवस्थानी नावना ना वियें, ते कहे . प्रथम (मिब के ) पिंमस्था वस्था नावीयें, बीजी (पय के० ) पदस्थ अव स्था नावोयें, त्रीजी (रूवरहियत्तं के ) रूपर हितत्वं एटले रूपरहित एवी रूपातीत अवस्था नावीयें, तिहां जे पिंमस्थावस्था ते ( उनमल के० ) बद्मस्थावस्थायें नावियें, तीर्थंकर पदनां पिंम जे शरीर तीर्थंकर नाम कर्मयोग्य , ते मिस्थावस्था के अने पदस्थावस्था ते ( केवलितं के) केवलज्ञान अवस्थायें नावीयें एटले केवल ज्ञान पाम्या पी प्रमुपदस्थ थया ले, तथा रूपा तीतावस्था ते (सिनं के) सित्वं एटले सि
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२० देववंदन नाष्य अर्थसहित. पणानी अवस्थायें नाववी, कारण के सिपणुं जे, ते रूपथकी अतीत मे, माटे सिहरूपपणुं नावतां रूपातीत नावना कहीये. ए (चेव के०) निश्चे (तस्सबो के ) ते पिंमस्थादिक त्रण अव स्थानो अर्थ जाणवो ॥११॥ ॥ हवे ए त्रणे अवस्था क्या क्या नाववी ?
तेनां गम कहे . सहवणञ्चगेहिं उनम, बवन्त्र पमिहार गेहिं केवलियं ॥ पलियं कुस्सग्गेहिय, जिणस्स नाविऊ सिद्धत्तं ।। १ ।।
अर्थः-(एडवणञ्चगोहिं के) स्नपनार्चकैः एट ले न्हवण, पखाल, अर्चादि पूजाना अवसरे, पूजा करनारा पूजक पुरुषोयें (जिएस्स के७) श्रीजिने श्वरनी (उनमा के०)द्मस्थावस्थाने नाववी, ते बद्मस्थावस्थाना त्रणनेद, एक जन्मावस्था, बीजी राज्यावस्था अनेत्रीजी श्रमणावस्था, तेमां प्रभुने न्हवण अादिक प्रदालन करतां जन्मा वस्था भाववी, अने मेरुपर्वतनी उपर जे जन्म
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. १ महोत्सव नाववो ते पण जन्मावस्थाज जाणवी.
तथा मालाधारादि, पुष्प, केशर, चंदन अने अलंकारादि चढावतां राज्यावस्था नाववी. बली भगवंतने अपगत शिरकेश, शोर्ष, श्मश्रु कूर्च रहित एवा मुख मस्तकादिक देखीने श्रमणाव स्थानी नावना नाववी. ए प्रथम उद्मस्थावस्था त्रण ने विवरीने कही.
तथा किंकली, कुसुमवृष्टि अने दिव्यध्वनि प्र मुख (पमिहारगेहिं के) पाठ महाप्रातिहार्य करीने एटले प्रातिहार्य युक्त भगवानने देखीने बीमी पदस्थावस्था एटले (केवलियं के) केव ली पणानी अवस्था नावीये. ___ तथा (पलियंक के० ) पर्यंकासने करी स हित एटले पलोंगी वालीने बेग एवा (नस्सग्गेहि के) कानस्सग्गीयाने आकारें (य के०) वली (जिणस्त के) जिनन बिंब देखवे करीने (सिइत्तं के.) सिइत्व एटले सिवाणानी अव स्था अर्थात् रूपातीतपणानी अवस्था प्रत्ये (ना विज के) नाववी. केम के ? केटलाएक तीर्थ
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२२ देववंदन नाष्य अर्थसहित. करो पर्यंकासने कानस्सग्ग मुशये मुक्ति गया ले माटे ज्योतिरूप अवगाहनानावबी.आ गाथामा नाविऊ ए क्रियापद सर्वत्र संगत करवू, ए पां चमु अवस्था त्रिक कर्वा ॥ १२ ॥ हवे बहुं त्रण दिशि जोवाथी निवर्नवार्नु
त्रिक कहे जे. नाहो तिरिआणं, तिदिसाण निरकणं चाहवा ॥पश्चिम दाहिण वामण, जिण मुह बन्न दिछि जुन ॥ १३ ॥ ___ अर्थः-श्रीजिनप्रतिमा जुहारतां प्रनु पर एकांत ध्यान राखवा निमित्तें एक (नमा के० ) ऊर्ध्वदिशि, बीजी (अहो के ) अधोदिशि अने त्रीजी (तिरिमाणं के) ती, दिशि, ते श्राप वलु ए (तिदिसाण के) त्रण दिशि- (निर स्कणं के) जोवु ( चश्ऊ के० ) गंम एटले वर्जन करवं. (अहवा के ) अथवा (पछिम के ) पाउली पूंनी दिशिये ( दाहिण के) ज मणी दिशियें तथा (वामण के)कावी दिशियें
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. २३ एटले जे दिशायें श्रीनगवंतनी प्रतिमा होय, ते दिशि टालीने शेष पूंठनी बाजु तथा जमणी बाजु अने माबी बाजु, ए त्रण दिशायें जोवानुं वर्जन करवू, मात्र ( जिसमुह के० ) श्री जिने श्वरना मुखनेविषे पोतानी (दिति के) दृष्टिने (नब के) न्यस्त एटले स्थापी राखेली होय. तेणे करी ( जुन के ) युक्त एटले सहित एवो थको वंदन करे. एटले जिनप्रतिमा पर पोता नां लोचन थापी एकाग्र मन करे, परंतु आहुं अवलुं अरहुं परहुं जूवे नहीं. ए बहुं त्रण दिशि निरखण वर्कवानुं त्रिक कहुं ॥१३॥ ___ हवे सातमुं पदभूमिप्रमार्जनत्रिक कहे ,ते आवी रीतें केः-श्रीजिनवंदनायें रियावहि पडिक्कमतां तथा चैत्यवंदन करतांजीवयत्नने अर्थे रूमे प्रकारे दृष्टिवझे जोश्ने पद स्पापवानी नूमि त्रण वार पूंजवी. तिहां गृहस्थ होय तो वस्त्रांचले करी पंजे, अने साधु होय तो रजोहरणे करी पूंजे. ए सातमुं त्रिक थयु.
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श्व देववंदन नाष्य अर्थसहित. हवे आठमुं आलंबनत्रिक अने नवमुं मुज्ञत्रि
कनुं स्वरूप कहे . वन्नतियं वन्नना, लंबणमालं तु प लिमाई ॥ जोग जिण मुत्तसुत्ती, मुद्दाजेएण मुद्दतियं ॥ १४ ॥
अर्थः-( वन्नतियं के ) वर्णत्रिकं कयुं ते कहे बे. (वनबालवणं के०) वार्थालंबनं एटले एक वर्णालंबन, बीजु अर्थालंबन, तिहां नमोबंगादिक सूत्र नगतां तेमां आवेला जे हलवा नारे अक्षर ते न्यूनाधिकरहितपणे यथास्थित बोलवा, त्या संपदा प्रमुखनुं बराबर चिंतन राखQ, ते प्रथम वर्णालंबन जाणवू, अने जे नमोबुणं प्रमुख सू त्रो नगतां तेना अर्थ हृदयमां नाववा, ते बीजुं अर्थालंबन जामवं, तथा (आलंबणं तु के०) आ लंबन ते वली शुं कहीयें (तोके) पमिमाई के) प्रतिमादि एटले जिनप्रतिमा तथा आदि शब्द थको नाव अरिहंतादिकनुं तथा स्थापनादिकनुं पण ग्रहण करवू, तेनुं जे स्वरूप आलंबन धार,
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. २५ ते त्रीजु प्रतिमालंबन जाणवू. ए पापमुं आलं बनत्रिक का. . . हवे नवमुं मुज्ञत्रिक कहे . एक (जोग के०) योगमुज्ञ, बीजी ( जिण के०) जिनमुश अने त्रीजी (मुत्तसुत्त के०) मुक्ताशुक्ति मुज्ञ, ए (मुद्दान्नेएण के०) योग मुशदिकना ने करी ने (मुद्दतियं के० ) मुशत्रिक जाणवू ॥ १५ ॥ हवे प्रथम योगमुझनुं स्वरूप कहे :
अन्नुमंतरिअंगुलि, कोसागारेहिं दोहिं हहिं ॥ पिट्टोवरि कुप्परि सं, ठिएहिं तह जोगमुद्दत्ति ॥ १५ ॥ ___ अर्थः-(अनुमंतरिअंगुलि के०) अन्योन्यांत स्तिांगुलि एटले बे हाथनी दशेअंगुलिने अन्योन्य ते मांहोमांहो अंतरित करी जिहां एवी अने (कोसागारोहिं के०) कमलनामोमाने आकारें जो मीने कीधा एवा (दोहिंहजेहिं के०) बे दाथे क रीने, ते बेहु हाथ केहवा? तो के (पिट्टोवरि के०) पेट नपरें (कुप्परि के) कोणी ते (संहिएहिं
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२६ देववंदन नाष्य अर्थसहित. के) संस्थित एटले रही ने जेनी एवा प्रकारे र हेवे करी (जोगमुद्दत्ति के ) योगमुश इति एटले योग मुश एम होय. ए पहेली योगमुशनुं स्व रूप कयुं ॥१५॥
हवे बीजी जिनमुशनुं लक्षण कहे जे.
चत्तार अंगुलाई, पुरन कणाइं जब पचिमन ॥ पायाणं नस्सग्गो, एसा पुण होइ जिणमुद्दा ॥ १६ ॥ ___ अर्थः-(जन के) यत्र एटले जिहां (पाया णं के) पगना जे (पुरन के) आगलना अंगु लिनी बाजु तरफना पहोचाने माहोमांहे ( चनारि अंगुलाई के ) चार आंगुलनो प्रांतरो राख्यो होय, अने पगना (पछिमन के) पाग्लनी पा नीनी बाजुना नागमां मांदोमांहे चार आंगुलथी कांक (ऊपाइं के० ) कसो आंतरोराख्यो होय. • ए रीतें पग राखीने (नस्सग्गो के०) कानस्सग्ग करीय (एसा के० ) एप्रकारे (पुण के ) वली (जिणमुद्दा के) जिनमुज्ञ ( होइ के०) होय ।।
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ७ हवे त्रीजी मुक्ताशुक्तिमुज्ञ कहे .
मुत्ता सुत्ती मुद्दा, जब समा दोवि ग निआ हबा ॥ ते पुण निलाडदेसे, लग्गा अन्ने अलग्ग त्ति ॥ १७ ॥
अर्थः-(जल के) जिहां (दोवि के०) बेहुए पण (हला के०) हाथ ते (समा के०) सरखा बरावर (गप्रिया के) गर्जितपणे राखी (ते के (ते बे हस्त ) पुण के०) वली निलामदेसे के ललाटना देश एटले ललाटनां मध्य नागने विषे (लग्गा के०) लगामया होय, वली (अन्ने के०)अन्य एटले बीजा केटलाएक आचार्यो कहे
के (अलग्गति के०) अलगामया होय एटले ल लाटदेशथी उर राख्या होय. इति एटले ए प्रकारे (मुत्तासुत्तीमुद्दा के) मुक्ताशुक्तिनामे मुज्ञ क हीये. एमां अंगुलिना बिइ विना जेम मोतीना जीपनो जोमो मलेलो होय, तेवा आकारें हाथ राखवा, ए मुशनु ए लक्षण ले ॥ १७ ॥
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२० देववंदन नाष्य अर्थसहित. हवे ए त्रण मुश माहेलो कर मुज्ञयें कर
क्रिया करवी. ते कहे . पंचंगो पणिवान, थयपाढो होइ जोग मुद्दाए ॥ वंदण जिणमुद्दाए, पणिहाणं मु त्तसुत्तीए ॥ १७ ॥
अर्थः-एक श्वामि खमासमणनो पाठ तेने (पंचंगो पणिवान के०) पंचांग प्रणिपात कही ये. बीजो (थयपाढो के ) स्तवपाठ ते श्रीजिने श्वरना गुणनी स्तुति जे स्तवनादिनो पाठ करवो ते (जोगमुद्दाए के) योगमुजायें करीने (होइ के०) होय, तथा (वंदण के) वांदणा देवां अने कानस्सग्ग जे अरिहंतचेश्याणं इत्यादि सर्व (जिणमुद्दाए के) जिनमुज्ञयें करीने श्राय, त था जावंति चेश्याइं. जावंत केवि साहु अने ज यवीयराय ए त्रणे (पगिहाणं के०) प्रणिधान सं झामां आवे.पण इहांते संप्रदायगत एकज जयवी यरायने कहीयें बैयें,ते(मुत्तसुत्तीए के)मुक्ताशुक्ति मुज्ञयें कहीयें ॥१॥ इहां श्रीसंघाचार नाष्यम
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देववंदन जाय अर्थसहित.
श
ध्ये मुक्ताशुक्ति मुझये स्त्रीने स्तनादिक अवयवो प्रगट देखाय तेम न श्रवं जोइयें, एवा देतु माटे स्त्रीने नंचा ललाटदेशें हाथ लगामवा कह्या नथी. ए नवसुं मुझत्रिक कां ॥
वेदशमा प्रणिधानत्रिक स्वरूप कहे बे. पणिहाणतिगं चेश्य, मुणिवंदण-पणा सरूवं वा ॥ सण-वय-काएगतं, सेस-तिय वो न पयमुत्ति ॥ १७ ॥ दारं ॥ १ ॥
·
अर्थः- (पणिहाल तिगं के० ) प्रशिधानत्रिक, ते कयुं ? ते कहे बे. तिहां जावंति चेइआई ए गाथा ( चेश्य के० ) चैत्यबांदवा रूप ते प्रथम प्रणिधान जाणवुं तथा जावंत केवि साहु ए गा था ( मुलिवंदा के ) मुनि वांदवा रूप, ते बी जुं प्रणिधान जाणवुं तथा जयवीयराय आ जव मखंका पर्यंत ए गाथा ( पचणासरूवं के० ) प्रार्थनास्वरूप ते त्रीजुं प्रणिधान जांगवुं. ( वा ho) अथवा एक (मरा के ) मननुं बीजुं ( वय के० ) वचननुं नेत्रीजुं ( काय के० ) कायानुं
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३० देववंदन नाष्य अर्थसहित. ( एग के ) एकत्व एटले एकाग्रपणुं ते पण प्रणिधानत्रिक कहीये. शहां शिष्य पूजे के चै त्यवंदनायें प्रणिधान आवे , अने वीजी शेष वंदना तो प्रणिधान विनाज थाय , तिहां ए बोल सचवाता नथी ते केम? तेने गुरु कहे , के तिहां मन, वचन अने कायानी एकाग्रता ले ए मुख्य प्रणिधान ले ए दशमुं प्रणिधान त्रिक कह्यु.
हवे (सेस के ) शेष रह्या जे (तिय के०) त्रिक एटले आहीं गाथायें करी जेन स्वरूप नह। वखाण्यु एवं बीजं अने सातमुं त्रिक, तेनो (अ बो के०) अर्थ ते (न के) वली (पयमुत्ति के) प्रकट , माटे तेनु स्वरूप मूल गाथामां लख्यु नथी, एम जामवं. तथापि बालावबोधकर्तायें ते त्रिकोना अनुक्रमें संक्षेप अर्थ ते ते स्थानके ल ख्या , एटले दशत्रिकनु ए प्रथम मूल हार थयु अने उत्तर बोल त्रीश श्रया ॥ १ ॥ हवे बोनुं पांच प्रकारना अनिगम, हार कहे .
सचित्त दव मुऊण, मचित्त मणुऊणं
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देववंदन जाय अर्थसहित.
३१
"
मणेगत्तं ॥ इग सामि उत्तरासं ग अंजलि सिरसि जिण दिने ॥ १० ॥
अर्थः- चैत्यादिकने विषे प्रवेश करवानो वि धि तेने अभिगम कहीयें. ते पांच प्रकारें बे. ति हां देहरे जातां (सचित्तदवं के० ) सचित्तव्य जे पोताना अंगे प्राश्रित कुसुमादिक, फलादिक दोय, तेनुं ( नऊणं के० ) बांगवुं, ते प्रथम अ निगम, तथा ( श्रचित्तं के० ) अचित्त पदार्थ जे व्यनाणादिक तथा आभरणादिक वस्त्रादिक व स्तु तेनुं (असुरां के० ) अब एटले पो तानी पालें राखवानी अनुज्ञा ते बीजो अभिग म. तथा ( मणेगत्तं के० ) मननुं एकाग्रपणुं क खुं, ते त्रीजो धनिगम तथा ( इगसामि के० ) एकपकुं वस्त्र बेहु बेमायें सहित होय तेनो ( छ तरासंग के० ) उत्तरासंग करवो, ते चोथो अनि गम. तथा ( जिा दिने के० ) श्रीजिनेश्वरने दूर थकी नजरें दीठे थके ( अंजलि के० ) बे दाथ जोमाने ( सिरसि के० ) मस्तकने विषे लगामवा
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३५ देववंदन नाष्य अर्थसहित. एटले अंजलिबइ प्रणाम करवो, ते पांचमो अ निगम जाणवो ॥ २० ॥
श्य पंचविहाजिगमो, अहवा मुच्चंति रायचिदाई ॥ खग्गं उतोवाणह, मनमं च मरे अ पंचमए ॥ २१॥ दारं ॥२॥
अर्थः-(इय के०) पर्वली गाथामांकह्या जे (पंचविहानिगमो के० ) पांच प्रकारे अनिगम ने देव तथा गुरु पासे आवतां साचववा (अह वा के ) अथवा वंदना करनार श्रावक जो पोतें राजादिक होय तो ते ए पांच अनिगम सावे, अने वली बीजां (रायचिह्नांई के० ) राजानां पांच चिह्न २ ते प्रत्ये (मुचंति के०) मूके एटले गंमे तेनां नाम कहे ,एक (खग्गं के०) खड्ग, बीजुं (उत्त के) उत्र, त्रीजु ( नवाणह के०) उपानह, एटले पगनी मोजमो, चोथो माथार्नु (मनऊ के ) मुकुट अने (पंचमए के ) पां चमुं ( चमरेप के ) चामर, ए पण पांच अ निगम जाणवा ॥१॥ एटले पांच अन्तिमम
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ३३ बीजुं हार पूर्ण प्रयुं ॥ नत्तर बोल पांत्रीश थया हवे बे दिशिनुं त्रीजुं द्वार, तथा त्र अवन
हनुं चोधू द्वार कहे रे ॥ वंदति जिणे दाहिण, दिसिध्यिा पूरि स वामदिसि नारी॥ दारं ॥३॥ नवकर जहन्नु सहि, करजित मग्गहो सेसो ॥ ॥३५॥ दारं ॥ ४ ॥ __ अर्थः-( जिणे के0 ) श्रीजिनने (दाहिण दिसिडिया के ) दक्षिणदिशिस्थिता नायकनी जमणी दिशायें रह्या थका (पुरिस के) पुरुषो (वंदंति के) वांदे एटले चैत्यवं दना करे, अने मूल नायकने (दामदिसि के) माबे पासें रही श्रकी (नारी के०) स्त्रीजनवांदे, एटले चैत्यवंदना करे. इहां चैत्यवंदना पूजाना अधिकार माटें प्रसंगश्री जमणी पासें दीपक थापवो, अने माबी पासें धूपादिक नागुं, फला दिक, जिन ागलें तथा हस्ते आपीयें. ए बे दि
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३४ देववंदन नाष्य अर्थसहित. शिनुं त्रीजुं चार अयु. अने उत्तर बोल साम त्रीश थया.
हवे त्रण अवग्रहनुं चोथु चार कहे . तिहां जगवंतथकी (नवकर के०) नव हाथ वेगला र हीने चैत्यवंदना करवी, ते प्रथम (जहन्नु के) जघन्य अवग्रह जाणवो, तथा नगवंतथकी (स किर के०) षष्ठिकर एटले शाठ हाथ वेगला र हीने चैत्यवंदना करवी, ते बीजो ( जि के) ज्येष्ठ एटले नत्कृष्ट अवग्रह जाणवो,अने (सेसो के) शेष जे नव हाथी नपर अने शाठ हाथनी मांदेली कोरें एटली वेगलाईयें रही चैत्यवंदना करवी, ते सर्व त्रीजुं (मधुग्ग हो के) मध्यम अवग्रह जाणवो. तथा केटलाएक आचार्य बार प्रकारना अवग्रह कहे डे के ॥ नकोस सहिपन्ना, चत्ता तीसा दसह पणदसगं ॥ दस नव ति 5ए गई, जिणुग्गहं बारस विनेयं ॥१॥ एटले ६०, एण, ४०, ३७, १८, १५, १०, ए, ३, २, १, ॥ ए बार अवग्रह श्रया एटले अर्दा हाथथो मामीने शाठ हाथ पर्यंत श्रीजिनगृहें तथा गृहचैत्यादिकें
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ३५ श्वासोडासादि पाशातना वर्जवा निमित्ने ए अव ग्रह जाणवां ॥ २२॥ ए चोधुं त्रण अवग्रहनु हार का, इहां सुधी सर्व मली नुत्तर बोल ४० श्रया ॥२॥ हवे त्रण प्रकारे चैत्यवंदना करवी, तेनुं
पांचमुंहार कहे . नमुक्कारेण जहन्ना, चिश्वंदण मद्य दम थु जुअला ॥ पण दंम थुश् चनक्कग, थ य पणिहाणेहिं नकोसा ॥२३॥
अर्थः-(नमुक्कारेण के ) एक नमस्कार श्लो कादिक रूप तथानमो अरिहंताणं कहीने अथवा हाथ जोमी मस्तक नमामवे करी अथवा नमो जिनाय कही नमवेकरी अथवा एक श्लोकादि केहेवे करी अथवा हमणां देहरे चैत्यवंदन कहिये 3यें, इत्यादि रूपे सर्व प्रथम (जहन्ना के) जघन्य (चिश्वंदण के ) चैत्यवंदन जाणवं. तथा (दम थजपलाके) दंमक युगल तेअरिहंत चेश्यागंनं युगल तथा स्तुतियुगल ते चार थुश् एटले एकनम
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३६ देववंदन नाष्य अर्थसहित. स्कार श्लोकादिरूप कही,शक्रस्तव कही,नना थइ, अरिहंत चेइयाणं कही कानस्सग्ग करी,थुइ कहेवी, ते बीजी (मद्य के०)मध्यम चैत्यवंदना जाणवी. तथा (पणदंम के ) पांच नमोवणा रूप पांच दमकें करी अने (शुश्चनक्कग के) स्तुतिचतुष्क एटले आठ थुइयें करीने, (थय के) स्तवनें क रीने तथा जावंति चेश्याई, जावंत केविसाहु अने जयवीयराय, ए त्रण (पणिहारोहिं के) प्रणि धाने करीने त्रोजी ( नकोसा के ) नत्कृष्टी चै त्यवंदना जाणवी ॥२३॥
अन्ने बिति गेणं, सकबएणं जहन्नं वं दणया॥ तदुग तिगेण मना, नकोसा चनाहि पंचहिं वा ॥२४॥ दारं ॥५॥
अर्थः-(अन्ने के० ) अन्य एटले बीजा वली केटला-एक आचार्य एम (बिंति के०) ब्रुवंति एटले कहे के (गेशं के) एकेन एटले एक (सकबएणं के०) शक्रस्तवें करीने देव वांदीयें ते (जहन्न के) जघन्य (वंदणया के.) चैत्य
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ३७ वंदना जाणवी. अने (तद्गतिगेण के) तद्धि कत्रिकेण एटले तेहीजबे तथा त्रण शक्रस्तवें करी (मद्या के०) मध्यम चैत्यवंदना जाणवी. तथा (चनहिं के) चार शकस्तवेंकरी (वा के०)अथवा [पंचहि के पांच शक्रस्तवें करीने प्रणिधान युक्त करीये ते ( नकोसा के) नत्कृष्ट चैत्यवंदना जा गवी, अनेन्नाष्यादिकने विषे स्तुती युगल कह्यांचे, ते त्रण थुइ स्तुतिरूप एक गशीय बैयें. अने चोथी थु शिक्षारूप समकेतदृष्टिनी सहायरूप जूदी गणी ते माटें स्तुति युगल कहे , तेनो विचार आव्यकवृत्तिथकी जाणवो ॥ श्च ॥ एटले त्रण ने चैत्यवंदनानुं पांचमुं हार कडं. सर्व मलो छ तर बोल तालीश थया ॥ हवे हुं प्रणिपातहार तथा सातमुंनमस्कार
हार कहे . पणिवान पंचंगो, दो जाण करगुत्त मंगं च ॥ दारं ॥ ६॥ सुमहब नमुकारा, ग जुग तिग जाव असय॥श्यादा।।
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३० देववंदन नाष्य अर्थसहित.
अर्थः-जिहां प्रकर्षे करी नक्ति बहुमानपूर्वक नमवू तेने (पणिवान के) प्रणिपात कहीये. ते (पंचंगो के) पांच अंग नूमियें लगामवा रूप जाणवो, लेनां नाम कहे (दोजाणू के) बे जानें, एटले बे ढींचण, अने (करग के) बे हाथ, (च के) वली पांचम (नत्तमंग के०) उत्तमांग ते मस्तक, ए पांच अंग जिहां खमास मग आपता नमिये लागे, ते पंचांग प्रणिपात कहीये. एणे करी “ चामि खमासमणो वं दिलं जावणियाए निसीहियाए मबएण वंदामि" ए पाठ कहे.ए डु प्रणिपात द्वार का. उत्तरबोल चुम्मालीश थया ॥
हवे सातमु नमस्कार द्वार कहे .(सु के) नला एवा (महब के) अत्यंत महोटा गहन अर्थ डे जेहना एटले नक्ति, ज्ञान, वैराग्य दशाना दीप क एवा (नमुक्कारा के) नमस्कार कहेवा ते (इंग के) एक तथा (उग के ) बे, तथा ( तिग के) त्रलथी मामीने (जावअध्सयं के) या वत् एकशो ने आठ पर्यंत कहे ॥ ए सातमुं न
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ३ए मस्कार हार कडं. उत्तर बोल पीस्तालीश श्रया
हवे देववंदनना अधिकारें जे नवकार प्रमुख नव सूत्रां आवे , तेमने एक वारनां नच्चयां हलवां तथा नारे मलीने सर्व गणी तेवारे १६ अक्षर थाय अने १०१ पद थाय तथा ए७ संपदा याय, ए अकर,पद तथा संपदा मलीत्रणे धार एकगं कहे . तेनी साथे संपदानां नाम त था अथे पण कदेशे. यद्यपि हामि खमासमखो तथा जे अईयासिहा ए गाथा तथा तस्स नत्तरी. अन्नब, इत्यादि अपर ग्रंथांतरें तो ए सूत्रमा संक लित नथी तथापि नाष्यमांदेला देववंदनाधिकारें बोल्या ने, अन्यथा जे पूर्वै नत्तरक्षार कयां, ते पूर्ण न याय, तेमाटें ते सर्व द्वार एकगं कहे .
अमसति अध्वीसा, नवनग्यसयंच उसय सग ननया ॥दो गुणतीस दुसा, सोल अमनग्यसय उवन्नसयं ॥२६॥
अर्थः-१ प्रथम “पंच मंगल महासुयस्कंध" एहवू नाम नवकारर्नु , तेनां अदर (अमसहि
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४० देववंदन नाष्य अर्थसहित. के ) अमदाड ते हवइ मंगलं एवो पाठ नसतां थाय, केम के श्रीमहानिशीथ सूत्रमध्ये प्रकटारें हव मंगलं एहवो पाठ ॥ यउक्तं ॥ पंच पया णं पण तिस, वलचूलाई वाम तित्तीसं ॥ एवं सम्मे समप्प३. फुफ मरकर महसहीए ॥ इति ॥१॥ ते माटें जो नमस्कारनो एक अक्षर नबो करे, तो चोशठ विधाने नमस्कार साधबो ते न्यून थाय, तेथी छाननी आशातनानो अतिचार लागे, एवं श्रीजवाहुस्वामीयें नमस्कारकल्प प्रकाश्यु , माटें हव मंगलं एवो पाठ कहेवो.
बीजुं "प्रणिपात" एवं नाम लामिखमा समगनुं बे, ते थोन्नसूत्रमा गुरुवंदनाधिकारें वां दणामां आवशे, पण इहां चैत्यवंदन माटें नेह्यु कडं . तेना अक्षर (अध्वीसा के)अठावीश जे.
३ त्रीजु “पमिकमणा सुयस्कंध" एवं नाम इरियाव हियानुं , ते सूत्रना चामि पमिकमनं इहांधी मामीने यावत् गमि कानस्सग्गं लगें अ कर (सयंच के०) एकशोने बली उपरें (नवन नय केए) नवाणुं .
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४१ ___५ चोथु "शक्रस्तव” एवं नाम नमोबुणंनुं बे. तेना अकर (उत्तयस गननया के ) बों ने सत्ता' जाणवा,
५ पांचमुं “चैत्यस्तव” एवं नाम अरिहंत चेइयाणं, जे. तेना अकर (दो गुणतीस के०) बशे ने उगणत्रीश .
६९ “ नामस्तव" एबुं नाम लोगस्सनुं बे, वर्तमान जिन चोवीशोना नामनुं गुणोत्की नरूप तेना अकर (उस के) बों ने शाउ . , ७ सातमुं “श्रुतस्तव” एवं नाम पुरकरव रदी- जे तेना प्रदर (उसोल केण) बशेने सोल ने. ____ पापमुं " सिहस्तव” एवं नाम सिक्षणं बुझणंले तेना अकर (अमननयसय के) ए कशो ने अहागुंडे. ___ए नवमुं “प्रणिधान त्रिक" एवं नाम जा वंति चेइयाई, जावंत केवि साहु अने सेवणा आ नवमखंमा पर्यंत जयवीयराय ए त्रणेनुं .तेना अक्षर (उवन्नसयं के०) एकशो ने बावन .१६
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'४२ देववंदन नाष्य अर्थसहित. इस नवकारखमासण,इरिअ सकता दंमेसु ॥ पणिहाणेसु अ अउरु, तवन्नसो लसय सीयाला ॥२७॥ ___ अर्थः-(अ के) ए पूर्व कह्या जे अकर ते अनुक्रमें अमशठ अकर (नवकार के०) नव कारने विषे जाणवा, अभावीश अक्षर (खमासण के) खमासमणने विषे जाणवा, तथा एकशो नवा' अक्षर (रिय के०) शरिया वहियाना गमि कानस्सग्गं लगें जाणवा. (१५००) अक्षर (सकल आश् दंमेसु के०) शक्रस्तवादिक पांच दमकने विषे अनुक्रमें जाणवा. तेमां नमुजुरांना सवे त्रिविहेणवंदामि लगें एड, तथा अरिहंतचे इयाणंना अप्पाणं वोसिरामि लगें शए, तथा लोगस्सना सवलोए लगें १६०, तथा पुस्करवरदी ना सुअस्सन्नगवन लगें १६, तथा सिहाग बु ज्ञाणंना वेआवञ्चगराणं, संतिगराणं, सम्मति समाहिगराणं लगें १ए, ए सर्व मली पांच दंग कना १२०० अदर थया. तथा १५२ अक्षर जा
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देववंदन जाय अर्थसहित.
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वंति चे आई, जावंत केवि साहु ने जयबीय राय सेवा प्रानव मखंमा लगें ए त्रण (पणि दासु के० ) प्रणीधानने विषे जालवा. ए रीतें ए नव सूत्रांना अक्षरो एकता करियें. त्यारे (अ डुरुत के ) श्रधिरुक्त एटले बीजी वार प्रण न चरखा एवा ( वन्ना के ) वर्ण एटले अक्षर ते सर्व मलो ( सोलसयसीयाला के० ) सोलों ने सुरु तालीश थाय ॥ २७ ॥
हवे पदसंख्या कहे बे.
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मवीस सो
नुव बत्तीस तित्तीसा, तिचत्त ल वीसपया || मंगल इरिया सक्क, वया इसु इगसीइ सयं ॥ २ए ॥
अर्थः- नवकारनां (नव के० ) नव पद बे, इ रियावहिनां (बत्तीस के० ) बत्रीश पद, नमोबु एनां (तित्तीसा के ) तेत्री पद, अरिहंतचेइ याांना (तिचत्त के० ) तालीश पद, लोगस्सनां ( श्रमवीस के० ) अधावीश पद, पुरकरवरदीनां ( सोल के० ) सोल पद, साबुदानां (वी
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४ देववंदन नाष्य अर्थसहित. सपया के) वीश पद, एम (मंगल के ) नव कार, (इरिया के) इरियावहि अने ( सक्कडया इसु के) शकस्तवादिक पांचे दंझक ए सात सूत्रांने विषे सर्व मली (गसीइसयं के०) ए कशो ने एझ्याशी पदनी संख्या जाणवी. अने प्रलिपातनां पद तो बांदणां नेलां गुरु वंदनमां कदेशे, तथा प्रणिधानत्रिकनी पद संपदा अनुक्र में बे, तेमाट न कह्यं “वारिज" इत्यादि गाथा नक्तिनी योजना , ते इहां गणी नही ॥२०॥
हवे संपदानी संख्या कहे . अनवध्य अहवी, स सोलसय वीस वीसामा ॥ कमसो मंगल इरिया, सक्क थयाईसु सगननई ॥ ए॥ __ अर्थः-प्रथम नवकारनी (अठ के) आठ संपदा, तथा इरियावहिनी (अ के) आठ सं पदा, तथा नमोबुसंनी (नव के०) नव संपदा, तथा अरिहंत चेश्याणंनी (अ के) आठ सं पदा, (य के०) वली खोगस्सनी (अध्वीस
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४५ के) अहावीश संपदा, तथा पुस्करवरदीनी (सोलस के० ) सोल संपदा, (य के ) वली सिहाणंबुहागनी (वीस के ) वीश संपदा जा गवी. ए लगारेक रहेवानुं स्थान तथा अर्थनो (बीसामा के०) वीलामो लेवानुं स्थान तेने सं पदा कहीये. ते (कमसो के० ) अनुक्रमें ( मंग ल के ) नवकारने विषे, (रिया के ) रिया वहिने विषे अने ( सकथयाईसु के0) शक्रस्तवा दिक पांच दमकने विष ए सर्व मली सात सूत्रां ने विषे सर्व संपदा (सगननई के०) सप्तनवती एटले सत्तागुं थाय ॥ ए॥ हवे नवकारना अक्षर तथा पद अने संपदा
विवरी देखामे . वणसहि नव पय, नवकारे अ संपया तब ॥ सग संपय पय तुला, सतरस्कर अहमी दुपया ॥३०॥ “ नवस्कर अ मी उपयही" इत्यन्ये
अर्थः-(नवकारे के०) नवकारने विषे (व
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देववंदन जाय अर्थसदित.
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सहस के० ) मठ वर्ण होय, तथा नमोअ रिहंताणं श्रादिक (पय के० ) पद ते (नव के० ) नव होय, श्रने ( संपया के० ) संपदा तो ( अठ्ठ ho ) आठ होय, ( तब के ) तिहां ते आठ सं पदामांदे प्रथमनी “ सवपावप्पणासलो " सुधी नी जे ( सगसंपय के० ) सात संपदा बे, ते तो ( पयतुल्ला के ) पढ़ने तुल्य जाणवि एटले जे टला पद तेटली संपदा पण जालवी. तथा (अ छमी के०) आठमी संपदा तो "मंगलाएंणं च सवेसिं पढमं दवइ मंगलं एबे पदने एकठां कहीयें माटे ए (डुपया के०) बे पढ़नी जाणवी, तथा अन्य केटला एक आचार्य एम कहे बे, के "पढमं हवइ मंगलं " ए ( नवरकरश्रमी के० ) नव अक्षरनी श्रम्मी संपदा तथा " एसोपंच नमुक्कारो, सवपावप्पला सणो" ए (डुपय के०) बे पदनी ने शोल अक्ष रनी ( बही के) बही संपदा जालवी ॥ ३० ॥ वे प्रणिपात खमासमणना अक्षर तथा पद अने संपदा विवरी देखामे बे. पशिवाय करावं ठावीसं तहाय
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देववंदन जाय अर्थसहित.
इरियाए || नव नन त्र् मरकर सयं, डुती स पय संपया ॥ ३१ ॥
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अर्थ :- ( पशिवाय के० ) प्रणिपात रुकने विषे ( अठ्ठावीसं के० ) अठ्ठावीश (अरकराई के०) अ दर बे, ( तहाय के० ) तथाच एटले तेमज वली ( इरियाए के० ) इरियावहिने विषे ( नवननश्रम रकरलयं के० ) नवनवति अक्षरशतं एटले नवा ये अधिक एकशो अक्षर जाणवा अर्थात् एकशो ने नवाणुं अक्षर जाणवा, तथा ( तीस के० ) वत्रीश (पय के० ) पद जावां अने (संपया के० ) संपदा ( श्रठ के ) आठ जाणवी ॥ ३१ ॥ 'ए आठ संपदाना पदनी संख्या तथा संपदाना यदि पद कहे बे.
दुग दुग इग चन इग पण, इगार बग इरिय संपयाइ पया ॥ इच्चा इरि गम पाणा, जे मे एगिंदि अनि तस्स ॥ ३२ ॥
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अर्थ:- पहेली संपदा ( डुग के० ) बे पदनी, बीजी संपदा पण ( डुग के ) बे पढ़नी त्रीजी
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देववंदन जाष्य अर्थसहित.
( इग के० ) एकपदनी, चोथी (चन के० ) चार पदनी, पांचमी ( इग के० ) एकपदनी, बडी (पा के० ) पांच पदनी, सातमी ( इगार के० ) अगी यार पदनी, आग्मी (बग के०) व पदनी जाणवी ॥
हवे ए (इरिय के० ) इरियावहीनी सर्व (सं पया के०) संपदानुना ( श्राइपया के० ) यादिपद एटले प्रथमना पद जे संपदाना छुरियां ते क े. तिहां प्रथम ( इच्छा के० ) इच्छामि ए पहेली संप दानुं पलुं पद, ( इरि के० ) इरियावहियाए ए बीजी संपदानु पहेलुं पद, ( गम के०) गमला गमणे ए त्रीजी संपदानुं पलुं पद, (पाणा के ) पाणक्कमले ए चोथी संपदानुं पलुं पद, ( जेमे के० ) जेमेजीवाविरादिया ए पांचमी संपा पलुं पद, (एगिंदि के० ) एगंदिया ए बही सं पदानुं पहेलुं पद, (अनि के० ) अहिया ए सा तमी संपदानुं पदे पद, (तस के०) तस्सनत्तरी कर लेणं एमी संपदानु पहेलुं पद जाणवु || ३ || दवे ए इरियावदिनी आठ संपदानां नाम कहे बे अवगमो निमित्तं, हे अरदेन संग हे
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४ पंच ॥ जोवविराहण पकि, कमण नेयनति नि चूलाए ॥३३॥
अर्थः-अन्युपगम एटले अंगीकार करवू ते आहीं पापना दयनुं जे आलोचना लक्षण कार्य तेनो अंगीकार करवो ते स्वरूप एटला माटे इ छामि पमिक्कमिन ए बे पदनी प्रश्रम (अनुवगमो के) अभ्युपगम संपदा जाणवी.
२ ते अंगीकार कृत वस्तुने उपजाववाना का रण रूप इरियावहियाए विराहणाए बे पदनीबी जी, (निमित्नं के) निमित संपदा जाणवी.
३ सामान्य प्रकारे प्रायश्चित्त नपजाववा रूप गमणागमणे ए एक पदनी त्रीजी (उह के० ) नघ एटले सामान्य हेतु संपदा जागवी. एजाक हिंसा नपजाववानो सामान्य हेतु गमनागमन . ___४ जीवहिंसाना विशेष हेतु रूप एटले विशे षपणे प्राण वीजादिक आक्रमण रूप ते पागक मणे, बीयकमणे, हरियक्षमणे, नसा ननिंग प गग दगमट्टीमकमा संताणा संकमणे, ए चार
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५० देववंदन नाष्य अर्थसहित. पदनी चोथी (इअरहेन के० ) इतरहेतु एटले वि शेष हेतु संपदा जाणवी. जे सामान्यश्री इतर ते विशेष होय; माटे विशेष हेतु एवं नाम जाणवू.
ए समस्त जीवना परिताप रूप जीवविरा धना संग्रह रूप ते जे मे जीवा विराहिया ए ए कपदनी (पंच के) पांचमी (संगहे के०) सं ग्रह संपदा.
६ एकेश्यिादिक पांच जीवने देखामवा रूप जीवन्नेद ५६३ प्रमुख कथन रूप एगिदिया, बेइं दिया, तेइंदिया, चनरिदिया, पंचिंदिया, ए पांच पदनी उठी (जीव के०) जीव संपदा जाणवी.
ते जीवादिक नेदने परितापना विराधना रूप ते अनिहयाथी मामीनें तस्स मिलामि उक्कम लगे अगीयार पदनी सातमी (विराहण के) विराधना संपदा जागवी.
प्रायश्चित्तविशोधनकरण रूप तेतस्सनत्तरी करणेणंथी मामीने गमि कानस्सग्गं लगें उपद नो आग्मी (पमिकमण के) प्रतिक्रमण संपदा.
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देववंदन जाय अर्थसहित.
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( जेयन के० ) ए जेदकी. ए मां प्रथमनी पांच संपदा ते इरियावहिनी मूल संपदा जाणवी, ने पालनी ( तिनि के ) त्रस संपदा ते रि यावहिनी (चूलाए के०) चूलिकारूप जाएावी ॥३३॥ हवे नरांनी प्रत्येक संपदाना पदनी संख्या तथा श्रादिपद कडे वे.
5 तिच पण पण पण 5, चल तिपय सक्कथय संपयाइपया ॥ नमु प्राग पुरिसो, लोग अजय धम्मऽप्प जिण सबं ॥ ३४ ॥
अर्थः- पहेली (5 के वे पदनी, बीजी (ति के० ) त्रण पदनी, त्रीजी (चन के० ) चार पदनी, चोथी (पण के० ) पांच पदनी, पांचमी ( पण के० ) पांच पदनी, बडी (परा के ) पांच पदनी, सातमी (50) बे पढ़नी, आठमी (चन के० ) चार पढ़नी ने नवमी (तिपय के० ) त्रण प दनी ए ( सक्कथय के० ) नमुने विषे संपदानां पद काां, ते सर्व मली तेत्रीश जाणवतं.
हवे नमुनी (संपया के०) संपदाना ( श्रा
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५५ देववंदन नाष्य अर्थसहित, इपया के) आदिना एटले पहेला धुरियांनां पद कहे . (नमु के०) नमुवणं ए पहेली संपदार्नु प्रथम पद जाणवू, (आइग के०) आगराणं ए बीजी संपदानुं प्रथम पद, (पुरिसो के ) पुरि सुत्तमाणं ए त्रोजी संपदानुं प्रथम पद, (लोग के०) लोगुत्तमाणं ए चोयी संपदानुं प्रथम पद, (अन्नय के० ) अन्नयदयागं ए पांचमी संपदार्नु प्रथम पद, (धम्म के०) धम्मदयाणं ए उठी सं पदानुं प्रथम पद, (अप्प के0) अप्पमिहयवरना पदसणधराणं ए सातमी संपदानुं प्रथम पद, (जिण के) जियाणं जावयाणं ए आठमी सं पदानुं प्रश्रम पद, (सब के ) सवन्नूणं सबदरि सिणं ए नवमी संपदानुं प्रथम पद. हवे ए शस्तवनी नव संपदानना नाम कहे . - योअब संपया नह, ईयरहेक वग त घेक ॥ सविसेसु वनग सरूव, हेन नियस मफलय मुके ॥ ३५॥ अर्थः-श्रीअरिहंत जगवंत ते विवेकी जनोयें
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ५३ स्तववा योग्य ने एटला माटे नमुत्रणं अरिहंताणं, नगवंताणं ए बे पदनी पहेली (थोअव संपया के) स्तोतव्य संपदा जागवी. पठी ते स्तववा योग्यतुं सामान्य हेतु कहेवा माटे आगराणंथी मांमीने सयंसंबुझाणं लगें त्रण पदनी बीजी (नह क)नघ एटले सामान्यहेतु संपदा जागवी. पठी ए बोजी संपदाना अर्थनेवि दीपावे तेमाटे सामान्यतया (इयरहेज के ) इतरहेत ते वि शेष हेतरूपनोजी संपदा जाणवी. पो आद्य संपदाना अर्थने विशेष दीपावे एटले सामान्य स्तधनानो नपयोग तेनुं कहे, ते दोथी (नवनग के०) नपयोग संपदा जाणवी. पठाए नपयोग संपदानाज अर्थ ने हेतु सद्भावें करी दीपावे ते पां चमी (तक के)तत् हेतु संपदा जाणवी,अथवा नपयोग हेतु संपदा जाणवी, पी एज उपयोग हेतु संपदाना अर्थ गुण दीपाववा निमित्तें अर्थ वि शेषे जणावे एटले कारण सहित स्तववा योग्यर्नु स्वरूप कहेवू ते ही ( सविसेसुक्नग के०) सवि शेष नपयोग हेतु संपदा जाणवी, पठी यथार्थ पो
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५४ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ताना स्वरूपनुं हेतु प्रकटार्थ देखावा रूप सातमी (सरूवदेन के) स्वरूप देतु संपदा जाणवी, तथा पोताने समान फलदायक प्रकटार्थ रूप एटले स्त वना करनारने आपतुल्य करे एवी परम फलदा यिनी एटले पोतानी समान परने फलनु करण ए टला माटे आठमी (नियसमफलय के०) निज समफलदनामे संपदा जाणवी, तथा मोद स्वरूप प्रकटार्थ रूप मोक्षपदनुं स्वरूप, एटला माटे नव मी (मुरके के) मोक संपदा जाणवी. जे माटे का ने के “ सवन्नाइं पढमो, बी, सिवमयल मा अालावो ॥ तश्न नभोजिणाणं जिय नयाएंग तनिदिठो ॥१॥ इत्यावश्यके ॥३५॥ हचे नमोबुणंना अकरादिकनी एकंदर सरवाले
____संख्या कहे . दो सगनऊआ वमा, नवसं पय तित्ती स सक्कथए ॥ चश्यथय संपय, तिचत्त पय वम उसयगुणतीसा ॥३६॥
अर्थः-(सक्कथए के) शकस्तव जे नमुचुणं
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देववंदन जाय अर्थसहित.
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विषे सर्व मलीने ( दोसगनऊया के० ) बने सत्ता (वा के ) वर्ण जाणवा ने ( नवसं पय के० ) नव संपदा जाणवी, तथा ( पर्यातिती स के ) पद तेत्रीस जाणवां.
हवे ( चेइयथय के० ) चैत्यस्तव एटले रि इंत चेश्याणने विषे सर्व मली (असंपय के० ) आठ संपदा जाणवी ने ( तिचत्तपय के ) तैंता लीश पद जाणवां, तथा ( वम के० ) वर्ष एटले कर ते ( सयगुणतीसा के० ) बरों ने नगल त्रीश जाणवा ॥ ३६ ॥
ये चैत्यस्तव जे अरिहंत चेश्याणं तेनी प्रत्येक संपदाना पदनुं मान तथा प्रत्येक संपदाना
श्रादिपद एटले धुरियां कहे बे.
5 ब सग नव तिय व चउ, बप्पय चिइ संपया पया पढमा || परिहं वंदण सिद्धा, अन्न सुहुम एव जा ताव ॥ ३७ ॥
अर्थ:- पहेली (डु के० ) वे पदनी, बीजी (व के० ) पदनी, त्रीजी ( सग के० ) सात पदनी,
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५६ देववंदन नाष्य अर्थसहित. चोखी (नव के ) नव पदनी, पांचमी (तिय के० ) त्रण पदनी, बही (उ के) उपदनी, सा तमी (चन के) चार पदनी, आठमी (उप्पय के) पदनी जाणवी. ____ हवे ए (चि के०) चैत्यस्तवनी प्रत्येक (सं पया के) संपदानां (पढमा के०) प्रथमना एटले आदिनां धुरीयांनां (पया के०) पद कहे .तिहां (अरिहं के०)अरिहंत चेश्याणं ए पहेली संपदानुं प्रथम पद (वंद के०) वंदगदत्तियाए ए बीजी संपदानुं प्रथम पद (सिवाए के)सिहाए ए त्रीजी संपदानुं प्रथम पद, (अन्न के अनबनससिएशं ए चोयी संपदानुं प्रथम पद, (सुहुम के०) सुहु महिं अंगसंचालेहिं ए पांचमी संपदानुं प्रथम पद, (एव के०) एवमाएहिं प्रागारोहिं ए हो संप दानुं प्रथम पद, ( जा के०) जाव अरिहंतारा ए सातमी संपदानुं प्रथम पद, (ताव के०) ता वकायं ए आठमी संपदानुं प्रथम पद ॥ ३७॥ - हवे ए चैत्यस्तवनी संपदाननां नाम कहे बे,
अवगमो निमित्तं, हेन ग बहु व
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देववंदन जाय अर्थसहित.
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यंत प्रागारा || प्रागंतुंग त्र्यागारा, नस्स ग्गावहि सरुव ॥ ३८ ॥
अर्थः-जे अंगीकार करवुं तेने अभ्युपगम क दीयें माटे इहां अरिहंत वांदवानी अंगीकाररूप प्रथम (अनुगमो के० ) अभ्युपगम संपदा जा एवी, तथा कानस्तग्ग कया निमित्तें कर करी यें ? ते बीजी (निमित्तं के० ) निमित्त संपदा जाणवी तथा श्रद्धादिक हेतु वधते वधते करी करियें, केम के श्रद्धादिक कारण विना निष्फल थाय माटें त्रीजी (हेन के० ) हेतु संपदा जाए वी: तथा धागार राख्या विना निरतिचारपणे कानस्लग्ग न थाय, एटला माटें ग्रागार राखवा नीली एवं इत्यादि नच्चासादिकने करवे करी चोथी ( इगवयंत के० ) एकवचनांत श्रागार संपदा जाणवी तथा " सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं" एटले सूक्ष्म नेत्रादिकफुरकबादि मात्र आदिकें करी पांचमी ( बहुवयंत आगारा के० ) बहुवचनांत आगार संपदा जाणवी. इहां आगारा पद बेहुने जोमनुं, तथा एक सहज बीजो अल्पबाहुल्य ए
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ԱՄ
देववंदन जाय अर्थसहित,
टले एवमाइएहिं एसे करी प्रमिस्पर्श, पंचेंजिय वेदन, चौरादिजय, सर्पादि, कदाचित् आवी मले तो इत्यादि आगार कह्यां, माटें बहु हेतु आगंतुक भावरूप अथवा अग्न्यादिक नुपघात रूप बडी ( श्रागंतुम आगारा के० ) प्रागंतुगागार संपदा जालवी. तथा जाव अरिहंताणं इत्यादिक कान रसग्गनो अवधि मर्यादा रूप जे संपदा, ते सात मी ( सरगावहि के० ) कायोत्सर्गावधि संपदा जावी, तथा कायोत्सर्गनुं यथावस्था रूप स्व रूप ते आग्मी ( सरूव के० ) स्वरूप संपदा जा rat. ए ( Bho) आठ संपदानां नाम कां ॥ हवे नामस्तव एटले लोगस्सादिकने विषे पद यदिकनी संख्यादिक कहे बे.
नामययाइसु संपय, पयसम मवीस सोल वीस कमा ॥ प्ररुत्त वस दो सव, डुसय सोलह ना सयं ॥ ३५ ॥
अर्थः- (नामययासु के० ) नामस्तवादिकने विषे एटले नामस्तव ते लोगस्स तथा आदिश
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. एए ब्दश्रकी पुरकरवरदी ते श्रुतस्तव जाणवू अने सि इस्तव ते सिहाणं बुक्षणं जाणवं. ए त्रण सूत्रने विषे ( पयसम के ) पद समान (संपय के) संपदा जाणवी. एटले जेटलां ए सूत्रोनां पद के, तेटलां विशामानां स्थानक जाणवां. तिहां लोग स्सलां पद (अमवीस के०) अठावोश अने सं पदा पण अठावीश जाणवी. अने पुरकरवरदीनां पद ( लोल के) सोल अने संपदा पण सोल जासवी. तथा सिक्षणं बुहागंना पद (वीस के०) वीश अने संपदा पण वीश जाणवी. ए (कमा केप) अनुक्रमें संपदा तथा पद कहेवां, तथा लो गस्सने विषे (अकुरुत्त के०) बीजी वार अणन वस्या एवा. ( दोसठ के ) बशे. ने शाठ (वम के) वर्ण एटले अक्षर जाणवा. तथा पुरस्करवर दीना (सुअस्स नगवन पर्यंत (उलयसोल के०) बों ने झोल अकर जाणवा, अने लिहाणं बुज्ञ णंना करेमि कानस्सग्गं पर्यंत (अननसयं के) एकशो ने अाणुं अकर जागवा ॥३॥
पणिहाण दुवन्नसयं, कमेण सग ति
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६० देववंदन नाष्य अर्थसहित. चन्चीस तितीसा ॥ गुणतीस अठवीसा, चनी सिगतीस बार गुरु वला ॥४॥ दारं ॥७॥ए॥१०॥
अधः-हवे जावंतिचेश्याइं तथा जावंत केवि साह अने सेवणा आनवमखमा लगे जयवीयराय ए त्रण (पगिहाण के) प्रणिधान सूत्र , तेने विषे (जन्नसयं के० ) एकझो ने बावन अक्षर जागवा. ___ हवे (कमेण के) अनुक्रमें संयोगीया गुरु एटले नारे अदर सर्व सूत्रांना कहे . तिहां प्र थम नवकारने विषे ना, ना, ब, हु, का, व, प्प, ए (सग के) सात प्रदर गुरु एटले नारे जाणवा.
तथा खमासमगने विषे हा, का, ब.ए (ति के)त्रण अदर गुरु जाणवा. तथा दरियावहिने विषे बा, काक, क, क. तिं. हि, क, ति, हि, हु, स्त, बा, क, स्स, न, छि, त,ल्ली, म्म, ग्घा, का, स्त, ग्गं, ए (चनवीस के) चोवीश प्रकर गुरु जागवा.
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ६१ तथा नमुबुगंने विषे बु, ब, हा, त, लि, न, जो, स्क, ग्ग, म्म, म्म, म्म, म्म, म्म, कही, प. दृ, ना, हा, ता, छ, नु, छ, के छा, ति: हि, ता. हा,
सं, दृ, चे, ए (तित्तीसा के०) तेत्रीश अदर गुरु जाणवा. केटलाएक बनमाणं पदना उकारने गुरु कहेता नश्री अने केटलाएक दृ छ, म्म, ए ऋणने गुरु गणीने तेत्रीश गुरु प्रकार करे. तिहां चूलिका नी गाथा गुरु नथो गणता. इत्यादिक बहु मतां तर , पण इहां तो संप्रदायागत एक टकार नारे गणीयें यें.
• तथा अरिहंत चश्या रूप चैत्यस्तवने विषे स्स, ग्गं, ति, ति, का, ति, म्मा, ति, ति, ग्ग, ति, हा, प्पे, ह, स्स, ग्ग, न, , , ग्गे, त, हा, 6, ग्गो, जि, स्स, ग्गो, का, प्पा, ए (गुरगतीस के०) गणत्रीश अदर गुरु .
तथा लोगस्सरुप नामस्तवने विषे स्स, को, म्म, , त्त, स्तं, प्प, प्प, फ, हां, ऊं, म्म, लिंब, ६,६, बत्ति,स्स, न, क्षा, ग्ग, न, म्म,च्चे. हा, हिब, ए (अध्वीसा के०)श्रगवीश अ कर गुरु जाणवा.
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६२ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ___तथा पुस्करबरदीरूप श्रुत स्तवने विषे स्क, ढे, म्मा, ई, स्स, स्स, स्स, फो, स्स, स्त, ला, रक, स्त, च्चि, स्त, म्म, स्त, न, दे, नाना स्ल, पू, चि, ड, लि, क, ञ्चा, म्स्रो, ह, मनु, न, दृ,स्स, ए (चनतीस के) चोत्रीश अदर गुरु जाणवा. ___ तथा लिहाण बुहागरूप सिह स्तवने विषे हा, बा, ग्ग, व, बा, को, का, स्स, ६, स्स, किं, रका, स्स, म्म, क, हिं, 6, ता. हवी, 5, 6, हा, हा विं, च, म्म, दि. ६. स्त, गं, ए (ग तीस के ) एकत्रीश अदर गुरु के.
तथा प्रणिधान त्रिकने विषे हे, वा, ब, के, ग्गा, ह, ६ि, ६, बा, ब, ब, ए (बार गुरुवामा के) बार गुरुवर्ण एटले नारे अकर जागवा॥ ___ एटले वर्ण संख्या, पद संख्या अने संपदा मली त्रण हार कह्यां, तेनी साथे पूर्वे कहेलां सात चार मेलवतां मूल दश हार कहेवाणां, अने न तर नेद १० श्रया. ए सूत्रांना अर्थ सर्व श्री आवश्यकनियुक्तिनी वृत्तिथी जाणजो. इहां घणो ग्रंथ वधे मोटे अर्थ लख्यो नथी ॥ ४० ॥
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ए श्रग्मो. नवमो अने दशमो मली त्रण द्वारना यंत्रनी स्थापना. सूत्रांनां नाम, पदसंख्या. संपदा सर्वाक्षर. गुरु लघु
सूत्र. नवकार.
Մ
६८
9
पंचमंगलसुत्र ० श्वामिखमासमण्प्रणिपातबोनसूत्र
२०
पक्किमणासूत्र ३२
इरियावहि. नमोतुणं. शक्रस्तव. अरिदंतचेश्याणं. चैत्यस्तवाध्ययन. ४३
३३
२०
१६
लोग्गस्स. नामस्तव.
पुरकरवरदीव. श्रुतस्तव. सिद्धाबुदाणं सिद्धस्तव.
Ե
२०
१६
२०
२०
जावं तिचेश्याइं प्रणिधानत्रिक अनुक्रम अनु०
जावंत के विसाहु. जयबीयराय.
सर्वमली सरवाले
१८१७
३ २५
२ २४ १७५
३३ २६४
२०७
२२
२६०
२१६
१४७८
२ २००
२८ २३२
२४ २८२
३१ १६७
१५२
१२ | १४०
१६४७ २०१ १४४६
देववंदन जाय अर्थसहित.
m
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६५ देववंदन नाष्य अर्थसहित.
रियावहिनीसंपदा.संपदानां पद.धुरियानां पद. १ अन्युपगमसंपदा. २ इबामि.
निमित्तसंपदा. २ इरियावहियाए. ३ नघसंपदा.
गमागमणे. ४ इतरहेतुसंपदा. ४ पाणक्रमणे. ५ संग्रहसंपदा. जेमेजीवाविराहिया. ६ जीवसंपदा. ५ एगिदिया. विराधनासंपदा. ११ अनिहया. पमिकमणसंपदा. ६ लस्स उत्तरि. चैत्यस्तवनीसंपदा. संपदानां धुरियांनां पद.
पदसंख्या . .. १ अन्युपगमसंपदा. अरिहंतचेइयाणं. शनिमित्तसंपदा. ६ वंदणवत्ताए. ३ हेतुसंपदा.
सिवाए. ५ एकवचनांतसंपदा. एअनबनससीएणं. ५ बहुवचनांतसंपदा. ३ सुहुमेहिंअंगसंचालेहिं ६ आगंतुगागारसंपदा. ६ एवमाइएहिंागारेहि कायोत्सर्गावधिसंपदा. ४ जावअरिहंताणं. स्वरूपसंपदा. ६ तावकायं.
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ६५ शक्रस्तवनी संपदा. संपदानां धुरियांनां पद.
पद. १ स्तोतव्य संपदा. २ नमोत्रुगं. २ नघसंपदा.
३ आश्गरागं. ३ इतरहेतुसंपदा. ४ पुरिसुत्नमाणं. ४ नपयोगसंपदा. ए लोगुत्तमाणं. ५ तहेतुसंपदा. ए अन्नयदया. ६ सविशेषोपयोगसंपदा. ५ धम्मदेसियाणं.
स्वरूपहेतुसंपदा. २ अप्पमिहयवरण निजसमफलदसंपदा. ४ सबन्नूणं० ए मोक्षसंपदा. ३ जिणाजावयाणं. हवे अगीयारमुं पांच दंमकनुं चार अने बारमुं पांच दंझकने विषे देव वांदवाना जे बार
अधिकार , तेनुं हार कहे . पणदंमा सकलय, चेश्य नाम सुम सिमन्वय इन्च ॥दार॥११॥ दो इग दो दो पंच य, अहिगारा बारस कमेण ॥४१॥
अर्थः-(पणदंमा के ) पांच दमकनां नाम
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६६ देववंदन नाष्य अर्थसहित. कहे . तेमां पहेलं नमोतुणंने (सकलय के) शक्रस्तव दमक कहिये. बीजुं अरिहंत चेइयाणंने (चेइस के ) चैत्यस्तव दंमक कहिये. त्रीजुलो ग्गस्सने (नाम के०) नामस्तव दमक कहिये.चो) पुरस्करवरदीने (सुम के) श्रुतस्तव दमक कहिये. पांचमुं सिहाणंबुःक्षणंने (सिःक्ष्चय के) सिइस्तव दंमक कहियें. ए पांच दमकना नामर्नु अगीयारमुं हार कां. सर्व मली नत्तर बोल १९७५ थया ॥ हवे (श्व के०) ए पांच दमकने विषे देव वांदवाना बार अधिकार , तेभर्नु बारमुंहार कहे .
तिहां प्रथम शकस्तव मध्ये (दो के)बे अ धिकार , तथा बीजा अरिहंतचेश्याणंरूप चैत्य स्तवमध्ये (इग के) एक अधिकार , तथा त्री जा नामस्तव एटले लोगस्सने विषे (दो के०) बे अधिकार , तथा चोथा श्रुतस्तव मध्ये (दोके०) बेअधिकार ब, पाचमा सास्तव मध्ये (पंचय के) पांच अधिकार . ए (कमेण के) अनु क्रमें कहेवा. सर्व मली चैत्यवंदनने विषे (बारस अहिगारा के०) बार अधिकारो॥१॥
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ६७ हवे ए बार अधिकारनां धुरियानां पद एटले
आद्यनां पद कहे . नमु जे अरिहं, लोग सब पुरस्क तम सिह जो देवा ॥ नधिं चत्ता वेश्रा, वच्चग
अहिगार पढम पया ॥४॥ __ अर्थः-(नमु के) नमोनुणं ए पहेला अधि कारनुं प्रथम पद जाणवू, (जेश्य के ) जेअ अ ईया सिह ए बीजा अधिकार, प्रश्रमपद जाणवू, तथा (अरिहं के०)अरिहंत चेश्याणं एत्रीजाअधि कारने प्रथम पद जाणवू, (लोग के) लोगस्स नऊोयगरे ए चोथा अधिकारनुं प्रथम पद जाणवू. (सव के०) सबलोए अरिहंत चेइयाणं ए पांचमा अधिकारनुं प्रथम पद जाणवू, (पुरक के०)पुरक रवरदीवके ए बहन अधिकारनुं प्रथम पद जाणवू, (तम के० ) तमतिमिर पमल विइंसणस्स ए सा तमा अधिकारनुं प्रथम पद जाणवू, (सिह के) सिक्षणं बुझाए आठमा अधिकारनं प्रथम पद जाणवू, (जोदेवा के० ) जो देवाणविदेवो ए नव
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६८ देववंदन नाष्य अर्थसहित. मा अधिकार, प्रथम पद जाणवू, (नधि के०) नचित सेलस्लिहरे ए दशमा अधिकारनुं प्रथम पद जाणवु (चत्ता के) चत्तारि अठ दस दोय, ए अगीयारमा अधिकार, प्रथम पद जाणवू, (वेत्रावञ्चग के) वेत्रावञ्चगराणं ए बारमा अ धिकार- प्रथम पद जाणवू, ए बार (अहिगार के) अधिकारोना (पढमपया के०) पहेलां पद एटले आदिनां पद धुरियां जाणवां ॥४॥ ए बार अधिकार मांदेला कया अधिकारें कोने
वांदवा ? ते कहे . पढम अहिगारे वंदे, नावजिणे बीय एन दवजिणे ॥गचेश्य उवण जिणे, तश्य च ब्दमि नामजिणे ॥४३॥
अर्थः-नमुबुणंथी मामीने जियत्नयाणं पर्यंत (पढमअहिगारे के) पहेला अधिकारने विषे जे तीर्थंकर थया, केवलझान पाम्या ने. एवा (नाव जिणे के) नावजिनने एटले नावतीर्थक रने (वंदे के ) हुं वांई , तथा जे अईआ सि
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ६॥ क्षा ए गायायें (बीयएन के) बीजो अधिकार बे, तेने विषे बली जे आगल थाशे एवा (दव जिणे के) व्यजिनने हुं वांउं . ए बे अधि कार नमुबणंना जाणवा. तथा (तश्य के) त्रीजा अधिकारें (इगचेइय ठवण जिणे के) एक चै त्यना स्थापनाजिनने हुं वांबुवं, एटले एक देरा सरमांहेली सर्व प्रतिमाउने वंदन करवू ए अरि हंत चेइयाणंने पाठे जाणवो. ए सूत्रांमां एकज अधिकार . तथा लोगस्त नोयगरे रूप (चन बमि के) चोथा अधिकारने विषे (नाम जिणे के) श्रीझषनादिक नाम जिनने हुं वांउंबुं॥३॥
तिहण उवण जिणे पुण, पंचमए वि हरमाण जिण उठे॥सत्तमए सुयनाणं अ मए सब सिख थुई ॥४४॥
अर्थः-(पुण के ) वली सचलोए अरिहंतचे इयारूप (पंचमए के०) पांचमा अधिकारने विषे स्वर्ग, मृत्यु अने पाताल रूप (तिहुअण के) त्रण नुबनने विषे जे शाश्वता अने अशा
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७० देववंदन नाष्य अर्थसहित. श्वता एवा (ग्वणजिणे के०) स्थापना जिन ने ते प्रत्ये हुं वांई.तथा पुरकरवरदीवमेनी पहेली गाथा रूप (बठे के) हा अधिकारने विषे अ ढी होपमध्ये श्रीसीमंधर स्वाम्यादि (विहरमाण जिण के) विचरता नाव जिनप्रत्ये बांधू. तथा तमतिमिरपाल इहांथी मामीने सुअस्स नगवन पर्यंत ( सत्तमए के) सातमा अधिका रने विषे (सुअनाणं के) श्रीश्रुतज्ञानप्रत्ये हुं वां. तथा सिक्षा बुझक्षणं ए गाथा रूप (अठ मए के०) आठमा अधिकारने विषे तीर्थ अती
दिक पन्नर नेदवाला एवा (सबसिथुई के०) सर्व सिइन। स्तुति जाणवी ॥४॥
तिबादिव वीरथुश्, नवमे दसमे य न ऊयंत थुई॥ अवायाश्गदिसि, सुदिछि सुर समरणा च रिमे ॥४५॥
अर्थः-तथा जो देवाणविदेवो अने इकोवि न मुक्कारो ए बे गाथा रूप (नवमे के०) नवमा अंधिकारने विषे आ वर्तमान (तिलाहिव के)
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. १ तीर्थना अधिपति गकुर जे श्री (वीर के) वीर नगवान् तेनी (शुश् के०) स्तुति जागवी. तथा नकिंतसेलसिहरे ए गाथा रूप ( दसमे के ) द शमा अधिकारने विषे (अके) वली (नऊयंत के) श्रीरैवतकाचल पर्वतने विषे श्रीनेमिनाथ नगवाननी (थुइ के) स्तुति जागवी. तथा "चत्तारि अठदस दोय वंदिया" ए गाथा रूप (गदिसि के) अगीयारमा अधिकारने विषे (अध्वाया के०) अष्टपादादिकने विषे श्रीनर तेश्वरें करावेली चोवीश जिन प्रतिमानी स्तुति जाएगवी. तथा वेयावञ्चगराणं ए गाथारूप (च रिमे के०) बेला बारमा अधिकारने विषे (सुदिति के) सम्यग्दृष्टि (सुर के ) देवताने (समरणा के) स्मरवारूप स्तुति जाणवी ॥५॥
आ ठेकाणें अगीयारमा अधिकारने विषे च तारि अठदस इत्यादि गाथामां घणा प्रकारे देव वांद्या डे ते मांहेला केटला एक इहां लखीयें बैयें. संन्नवादिक चारजिन दक्षिण दिशे, तथा सुपार्थादिक आठ जिन पश्चिम दिशे, तथा धर्मा
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७२ देववंदन नाष्य अर्थसहित. दि दशजिन नुत्तरदिशे, तथा श्रीषन्न अने अ जित ए बे जिन पूर्व दिशे. एवं चोवीश जिन वांद्या , तथा बीजे अर्थे प्रथमना चारने पाठ गुणा करीये तेवारें बत्रीश श्राय. अने वचला द शने बे गुणा करिये, त्यार वीश थाय. ए बे आंक मेलवीये तेवारें बावन थाय, ते बावन चैत्य, नं दीश्वरही रे, तेने वांद्या
तथा त्रीजे अर्थे (चित्त के) गंमया ने (अरि के०) वैरी जेणें एवा अब्दस एटले अ ढार अने वे पाग्ला मेलवीये त्यारे वीश तीर्थ कर थाय ते श्रीसमेतशिखरें सिहश्रया तेने वांद्या. अथवा विचरता जिन उत्कृष्ट कालें एक समयें जन्मथी वीश होय तेमने वांद्या.
तथा चोथे अर्थे अपने दशअढार थाय, तेनी साथै वोशनो चोथो नाग पांच थाय, ते मेल वीये, तेबारे त्रेवीश थया. ते एक श्रीनेमीश्वर विना त्रेवीश जिन श्रीशत्रुजये समवसस्या ठे, माटें तेने वांद्या.
पांचमे अर्थे दशने आठ गुणा करीयें, तेवारें
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देववंदन जाय अर्थसहित.
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एंशी थाय, तेने बमणा करतां एकशो ने साठ थाय, ते उत्कृष्टकालें पांच महा विदेहें विचरे, तेने वांधा.
श्रा ने दश मली अढार थाय, तेने चार गुणा करतां बहोंतेर थाय. ए त्रैकालि क त्रण चोवीशी भरतादिक क्षेत्रनी वांदी.
सात अर्थे चारने आठ युक्त करीयें, तेवारें बार थाय तेने दश गुणा करीयें, तेवारें एकशो ने वीश थाय, तेने बमणा करतां बों ने चा लीश थाय ते जरतादिक दश क्षेत्रनी दश चो वीशी वांदी.
श्रामे अर्थे मूल चार बे, तथा वली आठ ने आठ गुणा करतां चोशठ थाय, तथा दशने दश गुणा करतां एकशो थाय. तेनी साथै पा बला बे मेलवतां १७० जिन थाय. ते नत्कृष्ट कालें विचरता जिनने वांद्या.
नवमे
अनुत्तर, ग्रैवेयक, विमानवासी
ज्योतिषी ए चार स्थानक ऊर्ध्वलोकं बेति हांनां चैत्य तथा श्राव व्यंतरनिकाय, दश जव
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७ देववंदन नाष्य अर्थसहित. नपति, ए अधोलोकनां चैत्य तथा मनुष्यलोक मां तो शाश्वती अने अशाश्वती प्रतिमा ए त्रण लोकनां चैत्य वांद्यां. एवी रोते ए गाथा मध्ये सर्व तीर्थवंदना लक्षण अर्थ घणा बे, ते सर्व व सुदेव हिंग प्रमुख ग्रंथोथी जो लेवा. अहीयां विस्तार घणो थाय माटे लख्या नथ ॥ ५ ॥
नव अहिगारा इह ललि, अविचरा वित्तिा अणुसारा ॥ तिमि सुयपरंपर या, बीयन दसमो गारसमो ॥४६॥ ___ अर्थः-(इह के) ए बार अधिकारमांनी पहेलो, त्रीजो, चोथो, पांचमो, उठो, सातमो, आठमो, नवमो, अने बारमो, ए (नव अहिगा रा के०) नव अधिकार ते (ललिअविवरा के०) ललितविस्तरा नामें नाष्यनी (वित्तिा के) वृत्ति आदिकना (अणुसारा के ) अनुसारश्रकी जासवा. अने (बीयन के ) बीजो अधिकार, जेअ अईआ सिक्षा तथा ( दसमो के) दशमो अधिकार नङितसेल ए गाथोक्त तथा (गार
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उप
देववंदन जाय अर्थसहित. समो के० ) श्रगीयारमो अधिकार चत्तारि ० दस ए गायोक्त एटले जे आई, नद्यंत अने चचारि, ए ( तिमि के० ) त्रण अधिकार, ते (सु यपरंपरा के ) श्रुतनी परंपराथी एटले जेम सिद्धांतनुं व्याख्यान बे, तेम तथा गीतार्थ संप्र दायश्री जाणवा ॥ ४६ ॥
व्यावस्सय चुलीए, जं जणियं सेसया जहिचाए ॥ तेां नद्यंताइवि, प्रहिगारा सु यमया चैव ॥ ४७ ॥
अर्थः- ( जें के० ) जेम ( श्रावस्तयचुपीए ho) श्रावश्यक सूनी चूने विषे तथा प्रति क्रमण चूर्तीमध्ये (मणियं के० ) कांबे. जे चिंतादिक (सेसया के० ) शेष अधिकार ते ( fear ho ) यथेच्छायें जालवा. (तेलं के० ) ते कारण माटें ए (नयंताइवि के ) तसे
सिहरे इत्यादिक गाथायें पण जे ( अहिगारा ho) अधिकारी ते सर्व ( सुयमया के ) श्रु तमय जावा. ( चेव के० ) चकार पादपूर्णार्थ बेने एव शब्द निश्चयवाचक बे ॥ ४७ ॥
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७६. देववंदन नाष्य अर्थसहित.
बीन सुयन्वयाइ, अन्न वनिन तहिं चेव ॥ सक्कयंते पढिन, दवा रिहवसरि प यम् ॥ ४ ॥
अर्थः-अने “जे अईयासिभ जे नविस्त ति" इत्यादि गायायें जे इय्य जिन वंदन रूप (बीन के०) बीजो अधिकार ते पण (सुयनया
के ) श्रुतस्तवादि एटले श्रुतस्तवनी आदिमां आवेली पुरकरवरदी नामनी गायाने विषेले ते (अवन के०) अर्थथकी तो (तहिं के) ते श्रु तस्तव मांहेज (चेव के) निश्चं श्रीआवश्यक चूने विषे ( वनिन के०) वर्णितो एटले वर्ण व्यो ने. जेम के नकोसेणं सत्तरिएणं जिणयर सयं जहन्न एणं वीसं तिबयराए, एताय एगका लेणं नवंति अईआ अणागया अयंता ते तित्य रा नमसंति ॥ ए पाठ .अहीं कोई शंका करे, के त्यां भले तेम नणो, परंतु आंदी लखेला पाठे करीने शुं ? तो त्यां कहे , के ( सकन यते के ) शकस्तवना अंतने विषे जे (पढिन के)
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ७७ पठितः एटले कह्यो ने अर्थात् पूर्वाचार्योयें शक्र स्तवना अंतमा स्थापन करेलो , ते ( दत्वारि हवसरि के०) झय अरिहंत वांदवाना अवसरें एटले नाव अरिहंत वंदनानंतर घ्य अरिहंत वंदनानु अनुक्रमें प्राप्तपणं, माटें ए आद्य अ धिकारमा पण नवमी संपदाने विषे कांइक न पवाथको तेनुं विस्तारार्थपणुं ने तेम (पयमत्रो के ) प्रगटार्थो एटले प्रगटार्थ जागवो माटे ए पण श्रुतमय जणवो. या प्रकारे नियुक्ति अने चू गीनां वचन ते प्रमाणज , जे माटें कां ॥७॥ अंसढाइन्नण वऊं, गीअब अवारिअंति मऊग॥ आयरणा विहु आण, त्ति वय णन सु बहु मन्नंति ॥४॥
अर्थः-जे आचारणा (अणवऊं के०) अनवद्य होय एटले पापरहित होय, अने वली ते (गीपत्र अवारिअं के) गीतार्थे अवारित होय एटले बीजा कोइ गीतार्थ पुरुषं तेने वारी नहीं होय (इति के) एवा (मद्यबा के) मध्यस्थ राग शेष
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७० देववंदन नाष्य अर्थसहित. रहित (असढाइनण के ) अशठ पंमित, गी तार्थ पुरुषो तेणे जे आचस्यो होय तो तेवा गी तार्थनी करेली जे (आयरणावि के) आचारणा ते पण (हु के) निश्चे श्रीनगवंतनी (आण के ) आझाज कहीयें (इति वयणन के) एवं वचन , ते माटे (सु के) सुष्टु एटले जला अथवा सुविहित अशठ गीतार्थनी करेली पाच रणाने पण (बहुमन्नति के ) गीतार्थ जन घj माने ॥४॥ ___ ए बार अधिकारनुं बारमुंहार का, यहां सुधी उत्तर बोल १एन श्रया ॥ हवे चार वांदवा योग्य, तेरमुंआदे देइने बीजां
पण हार कहे . चन वंदणिऊ जिण मुणि, सुय सिधा॥ दारं (॥१३॥) इह सुराइ सरणिका ॥दारं ॥१४॥ चनह जिणा नाम ठवण, दव नाव जिण एणं ॥५॥
अर्थः-(चनवंदणिऊ के) चार वंदनीयक
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ए एटले चार वांदवा योग्य कद्या, ते कया कया? तेनां नाम कहे . एक (जिण के) जिन तीर्थ कर अरिहंत, बीजा (मुणि के) मुनिराज साधु, त्रोजो ( सुय के) श्रुत सिहांत प्रवचन अने चो श्रा (सिक्षा के) सिह नगवान् जे मोद प्राप्त थया ते जागवा. ए चार वंदनीकनुं तेरमुंहार कद्यु. नत्तर बोल १ थया ॥ १३ ॥
हवे एक स्मरवा योग्यतुं चौदमुं चार कहे . (इह के) ए श्रीजिनशासनमांहे सम्यग्दृष्टि अ धिष्ठायिक (सुरा के०) देवताप्रमुख (सरलिजा केण्) स्मरणीय बे एटले स्मरवा योग्य जागवा. ए स्मरवा योग्यतुं चौदमुं क्षार कपु. नत्तर बोल १एएश्यया ॥१४॥ हवे चार प्रकारना जिननें पन्नरमुं द्वार कहे जे.
(चनहजिणा के) चार प्रकारना जिन कह्या ले ते कहे . एक (नाम के०) नामजि न, बोजा (ग्वण के) स्थापना जिन, त्रीजा (दव के०) यजिन, चोथा (नाव के ) ना
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60 देववंदन नाष्य अर्थसहित. वजिन ए चार ( जिगन्नेएण के ) जिनना दें करीने चार जिन जागवा ॥ ५॥ हवे ए चार प्रकारना जिनन स्वरूप चार
निदेपे कहे . नामजिणा जिणनामा ग्वणजिणा पु ण जिणंद पडिमान ॥ दव जिणा जिण जीवा, नावजिणा समवसरणग ॥ १॥ दारं ॥ १५ ॥ ___ अर्थः-प्रश्रम (जिणनामा के0 ) श्रीझपन्ना दिक जिननां जे नाम तेमने ते ते नामें बोला वीये वैये तने (नामजिणा के० ) नाम थकी जिन कहीये, (पुण के) वली बीजा (जिणंद पमिमान के०) श्रीजिनेंनी जे शाश्वती अशा श्वती प्रतिमान तथा पगलांडे ते सर्वने (ठ वणजिणा के०) स्थापना जिन कहीये, त्रीजा अणे तीर्थकर नाम कर्म बांध्यु ले एवा श्रीकृष्ण, श्रेणिकादिक ए सर्व तथा जे तेज नवमां तीर्थकर पदवी पामशे पण दीदा लश्ने ज्यां सुधी केवल
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ? ज्ञान नश्री पाम्या त्यांसुधी तेपण ( जिगजीवा के) जिनना जीव कहेवाय, तेने ( दवजिणा के) च्यथकी जिन कहिये. चोथा जे केवल ज्ञान पामीने (समवसरणना के०) श्रीसमवस रणने विषे स्थित थया, बेग थका धर्मोपदेश आपे तेने (नाव जिणा के) भावथकी जिन जागवा ॥ ५१॥ ( दारं के) ए चार प्रकारें जि नना नाम, पन्नरमुं हार कj. उत्तर बोल १एए थया ॥
हवे चार थोयोनु शोलमुं द्वार कहे जे.
अहिगय जिण पढमथई, बीया सवा ण तश्य नाणस्स ॥ वेयावच्च गराणन, न वनगढ़ चन थुई॥५॥ दारं ॥१६॥ __ अर्थः-जेनी आगल देव वांदीयें एवी जे नामे मूलनायकनी प्रतिमा होय एटले प्रस्तुत अंगीक यो जे चोवीश जिन मांहेलो को श्रीशषनादि क एक जिन तेने (अहिगयजिस के०) अधिकृत जिन कहीये तेनी (पढमथुई के० ) प्रथम स्तुति
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५ देववंदन नाष्य अग्रसहित. ते एक जिननोज जाणवी. तथा (बीया के०) बीजी स्तुति तो (सवाण के0) सर्व तीर्थंकरोनी साधारण नक्तिरूप जाणवी. तथा ( तश्य के०) त्रीजी स्तुति ते (नागस्त के०)शाननी एटले श्रुत सिांत प्रवचननी जाणवी. तथा श्रीजिन शासनना रखवाला (वेयावञ्चगराण के) वैया वृत्त्यना करनार एवा सभ्यग्दृष्टि देवताननी (तु के) वली (नवनगढ़ के० ) नपयोग मनःस्म रणने अर्थ ( चनवाई के ) चोथी स्तुति जाण वी ॥ ५॥ ए. चार शुश्र्नु शोलमुं हार कडं ॥ नुत्तर बोल श्रया ॥
हवे आठ निमित्तनुं सत्तरमुं हार कहे जे.
पाव खवणब इरिआई,वंदणवत्तिा व निमित्ता ॥ पवयण सुर सरणब, नस्स ग्गो श्अ निमित्तठं ॥ ५३॥ दारं ॥१७॥
अर्थः-गमनागमनथी नपना जे (पाव के)पाप ते (खवणन के) खपाववाने अर्थे (इरिआई के) इरियावहिः प्रथम परिक्कमवी ते प्रथम निमित्त
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ७३ जाणवं. तथा श्रीतीर्थकरने (वंदणवनिप्राश्के) बंदणवत्तियादि (उ के ) ( निमित्ता के) निमित्त कानस्सग्ग करवो, जेम के प्रथम वंदणवत्ति
आए एटले श्रीजिनराजने वांदवायी जे लान्न थाय, ते कानस्लग्गमां मुजने लान पान. बी जो पूअणवत्तियाए एटले केशर चंदनादिक धूप प्रमुखें परमेश्वरने पजवाथी जे लान्न थाय, से मुजने कामस्सग्गमां लान्न थान. त्रीजो सकार वनिआए एटले सत्कार ते श्रीजिनेश्वरने आन्नर णादि चढाववाश्री जे लान थाय, ते मुजने कान स्सग्गमा लान थान. चोथो सम्मागवत्तिाए एटले सन्मान ते श्रीजिनना स्तवनगुण कहेवाथीं जे लान घाय, ते मुकने कानस्सग्गमा लान थान, पांचमो बोझिलान वत्तियाए एटले आगले नवे समकेतनो लान थाय, ते निमित्तें कानस्स. ग्ग करूं. हुं निरुवसर एटले निरुपसर्ग ते ज न्म. जरा मरणादि नपसर्ग ट्रालवा निमितें कानस्सग्ग करूं. ए निमित्त अने एक प्रथम कह्यु एवं तात या. तथा बाग्मुं (पवयणसुर
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७४ देववंदन नाष्य अर्थसहित. के०) प्रवचनना अधिष्ठायक सुर एटले देवता तेने (सरगडं के) स्मरवाने अर्थ (नस्सग्गो के०) एक नवकारनो कानस्सग्ग चैत्यवंदनने विषे करवो (अ के ) ए (निमित्त के०) निमित्त आठ जाणवां, ते देववंदनने विषे होय. ए आठ निमित्तनुं सत्तरमुंहार पूर्ण थयु. नुत्तर बोल २००७ थया ॥ ५३॥
हवे बार हेतुर्नु अढारमुंहार कहे . चन तस्स उत्तरीकरण, पमुह सहा आय पण हेन ॥वेया वच्चगरताई, तिन्नि
अ हेन बारसगं ॥५४॥ दारं ॥१०॥ .. अर्थः-तिहां प्रथम देव वांदतां पाप टले ने (तस्स के) ते पाप टालवाना ( उत्तरीकरण के० ) नत्तरीकरण (पमुह के) प्रमुख (चन के) चार , ते कहे . एक तस्सनत्तरीकरणे णं एटले पापने आलोववे करीने अर्थात् पापकर्म निर्घातन करवे करी, बीजो पायबित्तकरणेणं ए टले अग्निहया पदधी नपन्यु जे प्रायश्चित्त ते लेवे
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ५ करी, त्रीजो विसोहिकरणेणं एटले राग शेषनुं टालवू अतिचार टालवानी विशुदि करवे करी, चोथो विसल्ली करणेणं एटले माया मात्सर्यादि वर्जवे कर। मन वचन कायानी निःशल्यत्व त्रि काल अतीत अनागत वर्तमानने विषे अरिहंता दिक षट्पद साथै पापकर्म टालवे कानस्सग्गर्नु फल आपे ए चार नत्तरीकरणादि निमित्त कयां तथा (साझाा के०) श्रादिक (य के०) वली (पणदेन के)पांच हेतुले तेनां नाम कहे बे, सहाए, मेहाए, धिईए, धारणाए, अणुप्पेहाए एटले एक श्रा, बीजी मेधा एटले बुदि, त्रीजी धृति एटले चित्तस्वस्थता, चोथी धारणा ते यथा किंचित् शिक्षा ग्रहणता पांचमी अनुपेक्षा ते तदे काग्रता, ए सर्व पांचे वानां वधते थके पांचहेतु जाणवा तथा (वेयावञ्चगरताई के०) वेयावञ्चक रत्वादिक वेआवञ्चगराणं संतिगराणं, सम्मति समाहिगराणं ए ( तिनि के) त्रण हेतु करे, ते कहे . एक वैयावञ्चकर सम्यग्दृष्टि देव, बीजो संतिगराणं एटले सम्यकदृष्टिने रोगादिकनी शांति
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०६ देववंदन नाष्य अर्थसहित. करवे करीने, त्रीजो समाहिगराणं एटले सम्यक् दृष्टिने समाधि उपजाववे करीने ए त्रण हेतुयें देव संन्नारवा एटले चार उत्तरीकरण तथा पांच श्रमादिक अनेत्रण वैयावचकर (इअके०)ए (बारसगं के०)झादशकं एटले बार (हेन के०) हेतु चैत्यवंदनने विषे जागवा एटले बार हे तुर्नु अढारमुंहार पूरु थयु अने उत्तर बोल २०३० थया ॥५॥ हवे शोल आगार, नगणीशमुं हार कहे .
अन्नबया बारस, आगारा एवमाझ्या चनरो॥अगणि पणिंदि बिंदण, बोही खो जा मकोय ॥५॥ दारं ॥१॥ । अर्थः-(अनन्याश बारस आगारा के) अ
बयादि बार आगार एटले अन्नबनससिएपंथी मांझीने सुहुमेहिं दिठिसंचालहिं पर्यंत बार श्रा गार जाणवां. तेनां नाम कहे . पहेलो चो श्वास लेवे, बीजुं नीचो श्वास लेवे, त्रीजुखांसी घस प्रावे, चोदु नीक आवे, पांचमुं बगासुं
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. आवे, बहुं नमकार ते ऊर्ध्ववात आवे, सातमुं अधोवात आवे, आठमुं नमरि आवे, नवमुंव मन पित्त मूळ आवे, दशभु सूक्ष्म अंगस्फुरक पथी, अगीयारमुं खेलसिंघाण नामक मेल सं चारथी, बारमुं दृष्टि प्रमुख संचारथी कानस्स ग्ग न नांगे.
तथा (एवमाश्या चनरो के) एवमादिक चार आगार कहे एक (अगणि के०) अमिनो नपश्व नपने थके तिहाथी पूंजतो अलगो जाय अथवा दीवा प्रमुखनी नजेई यातां तथा अग्निनो स्पर्श श्रतो होय तेवारे कानस्सग्गमांहे कपमाश्री शरीर ढांके,अथवा पूंजतोअलगोज रहे, बीजूं (पणिं दिबिंदण के ) पंचेंशियलिंदन पंचेंडियन बेदन यतुं होय अथवा मूषकादिक पंचेंद्रिय जीव, ते स्थापनाचार्य अने पोतानी वचमां जाता होय, तेवारें पूंजतो अलगो जइ रहे, तो कानस्सग्ग नंग न थाय. त्रीजुं (बोहोखोना के ) बोधि होनादि ते जिहां राजा अथवा चोरादिक मनु ध्य तेना परानवें करी धर्मनी कोनणा पाय माटें
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GG देववंदन जाण्य अर्थसहित. कानस्सग्गमाहे तिहांथी अलगो जइ रहे तो का नस्सग्ग नंग न थाय, चोथु (मकोय के) मक्क ते साप प्रमुखना झंकना नयें करी अथवा साप प्रमुख पासें आवतो होय तो तेनालयथी अलगू जवू पसे, तेथी कानस्सग्गनंग न थाय, ए शोल आगारनुं नगणीशमुंहार थयु. उत्तर बोल २०३६ श्रया ॥५॥ हवे कानस्सग्गना नगणीश दोष त्यागवा, तेनां
___नामनुं वीशमुं हार कहे . घोमग लय खंलाई, मालु ही निअल सबरि खलिण वहू॥ लंबुत्तर थण संज, जमुहंगुलि वायस कवि ॥५६॥
अर्थः-प्रथम घोमानी पेठे एक पग उँचो राखे, वांको पग राखे, ते (घोमग के०) घोटक दोष, बीजो जेम वायराथी वेलमी कंपे तेम शरीरने धूणावे, ते (लय के०) लता दोष, त्रीजो यांना प्रमुखने नठिंगे रहे, ते (खंन्नाई के)स्तंन्नादि दोष, चोथो मेमा नपरने माले माथु लगावी रहे
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ते (माल के ) माल दोष, पांचमो गामानी क धिनी तेरे अंगुग तथा पानी मेलवी पग राखे ते (नही के ) नधि दोष, हो नेनलमा पग नाख्यानी परें पग मोकला राखे, ते (नियल के०) निगम दोष, सातमो नागी निजमीनी पेरें गुह्यस्थानके हाथ राखे ते (सबरि के) श बरि दोष, आठमो घोमाना चोकमानी पेरें हाथ रजोहरणे राखे, ते (खलिण के०) खलिण दोष, नवमुं नवपरिणीत वहूनी पेरें माधुं नीचुं राखे ते (वहू के०) वधूदोष, दशमो नालिनी नपरें अने ढींचणश्री नीचे जानु नपरें लांबुं वस्त्र राखे ते (लंबुत्तर के) लंबुत्तर दोष, ए दोष यति आश्रयी जाणवो. केमके इंटीथी चार अंगुल नी चें अने ढींचणथी चार अंगुल नपर यतिने चोल पट पहेरवो कह्यो . अगीयारमुं मांस मसाना नये अथवा अज्ञानथी लङाथी स्त्रीनी पेरें हैयुं ढांकी राखे, हृदय आजादे, ते (श्रम के) स्त नदोष, बारमो शीतादिकने नये साधवीनी रें बेहु खंना ढांकी राखे एटले समग्र शरीर आबादी
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ए देववंदन नाष्य अर्थसहित. राखे ते (संजर के)संयतिदोष, तेरमोघालावो गणवाने अर्धे संख्या करवाने अंगुली तथा पाप पना चाला करे, ते (नमुहंगुली के ) नमुई गुली दोष, चनदमो वायसनी पेरें आंखना मोला फेरवे, ते (वायस के) वायस दोष, पंदरमोप हेरेलां वस्त्र ते यूका तथा प्रस्वेदें करी मलिन थ चाना नयने लीधे कोग्नी पर खुगहुं गोपवी राखे ते (कविठे के) कपिल दोष ॥ ५६ ॥
सिरकंप मूत्र वारुणि, पेहत्ति चइऊ दोस नस्सग्गे ॥ लंबुत्तर थण संजइ, न दोस समणीण सवहु समीणं ॥५॥दार। ____ अर्थः-शोलमो यहावेशितनी परें माधुं धू णावे, ते (सिरकंप के) शिरःकंपदोष, सत्तरमो मुंगानी पेरें हू हू करे, ते (मूत्र के ) मूकदोष, अढारमो आलावो गणतो श्रको मदिरानी परें ब मबझाट करे, ते (वारुणि के०) मदिरा दोष, न गणीशमो वानरनी पेरें अरहुं परहुं जोव, नष्ठ पुट चलावे, ते (पेद के) प्रेष्य दोष (ति
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. १ केण्) ए प्रकारे ए नगणीश दोष ते (नस्सग्गे के) कानस्सग्गने विषे जाणवा. तेने (चइऊ के०) गंमे. ए नगणीश दोषमां केटलाएकन मूह अने अंगुली बे जूदा दोष करे , तेवारें वीश थाय, तथा एक (लंबुत्तर के) लंबुनर, बीजो (था के०) स्तन अनेत्रीजो (संजश के०) संयति ए त्रण (दोस के०) दोष ते (समणोण के) श्रमणीने (न के) न होय, केम के एनुं वस्त्रावृत शरीर होय, पण एटलुं विशेष जे सा ध्वी प्रतिक्रमणादि क्रिया करते मस्तक उघाउँ राखे एटले शोल दोष साधवीने लागे, अने ए त्रण दोषने (बहु के) वधू दोषे करी (स के)स हित करिये तेवारें लंबुत्तरादि चार दोष घाय. ते (समीणं के) श्राविकाने न होय, शेष पंदर दोष श्राविकाने लागे ए सर्व दोष टालीने कान स्सग्ग करवो एटले कानस्सग्गना दोषनुं वीशमुं हार यु. नत्तर बोल २०५५ थया ॥ ५७ ॥
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एर देववंदन नाष्य अर्थसहित.
हवे कानस्सग्गना प्रमाण- एकवीमुंहार ___ तथा स्तवन- बावीशमुं द्वार कहे .
इरि नस्सग्ग पमाणं, पणवीसुस्सास अ सेसेसु ॥ दारं ॥१॥ गंजीर महुर सहं, महबजुतं हवइ थुत्तं ॥ ५० ॥ ॥ दारं ॥२२॥
अर्थः-(इरिनस्सग्ग के) रियावहिना कान स्सग्गनुं (पमाणं के ) प्रमाण (पणवीसुस्सास केण्) पश्चीश श्वासोबासनुं जाणवू.एटले संप्रदायें "चंदेसु निम्म लयरा” पर्यंत यावत् पच्चीश पदनुं कानस्सग्ग कराय ने, अने (सेसेसु के) शेष का नस्सग्ग जे देव वांदता स्तुति कानस्सग्ग ते (अ6 के) आठश्वासोवास प्रमाण जाणवो. केम के संप्रदायें एक नवकारनी संपदा आठ माटें. ए कानस्सग्ग प्रमाण- एकवीशमुंहार अयु. नुत्तर बोल ५६ थया. - हवे श्रीवीतरागर्नु स्तवन कहेवा प्रकारे कहे
? तेनुं बावीशमुं हार कहे जे. (गंजीर के)
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ए३ मेघनी पेरें गंभीर अने (महुरसई के० ) मधुर शब्द ले जिहां अने वली (महउजुत्तं के०) महा अर्थयुक्त नक्ति, ज्ञान, वैराग्य अने आत्मानंदादि दशायुक्त एवं श्रीवीतरागर्नु (श्रुत्तं के) स्तुत एटले स्तवन (हवइ के० ) होय. ए स्तवन नण वानुं बावीशमुं हार श्रयु. नन्तर बोल २०५७ श्रया ॥ ५ ॥ हवे चैत्यवंदन एक दिवसमां केटलीवार करवू?
तेनुं त्रेवीशमुं द्वार कहे . पमिकमणे चेश्य जिमण, चरिम पनि कमण सुअण पमिबोहे ॥ चिश्वंदण इस जइणो, सत्तन वेला अहोरत्ते ॥ एए॥ __ अर्थः-एक (पमिक्कमणे के) प्रनातने पनि कमणे पञ्चस्काण करतां देव वांदवाने विषे विशा ललोचन कही चैत्यवंदन करे, बीजुं (चेश्य के) चैत्यगृहमां नगवंत आगले चैत्यवंदन करे, त्रीजुं (जिमण के०) जमती वखत पञ्चरकाण पारे, तेवारें चैत्यवंदन करे, चोथु (चरिम के)
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ए४ देववंदन नाष्य अर्थसहित. बे हेलो जमीने नव्या पी एटले आहार करी रह्या पी दिवसचरिम पञ्चरकाप करतां चैत्यवं दन करे, पांच, ( पक्किमण के) संध्याने प मिक्कमणे नमोस्तु वईमानादि चैत्यवंदन करे,
(सुअण के ) सूती वखते शयन संथारा पोरिसी नणावतां चैत्यवंदन करे, सातमु (प मिबोहे के) पाउली रात्र जाग्या पठी कुसुमि एस सुमिराकानस्सग्ग कस्या पी किरियानी वेलायें चैत्यवंदन करे, (इअ के०) ए कडा जे (सत्तनवेला के०) सात वखतना (चिश्वंदण के०) चैत्यवंदन करवां, ते (अहोरत्ते के०) एक अहोरात्रमध्ये ( जाणो के०) यतिने होय ॥णा हवे श्रावकने एक अहोरात्रमा केटलां चैत्य
वंदन दोय ? ते कहे . - पमिक्क मिन गिहिणोवि हु, सगवेला पंचवेल इअरस्स ॥ आसु ति संकासु
अ, होइ ति वेला जहन्नेणं ॥ ६०॥ .. अर्थः-एक प्रनाते. अने बीजो. सांके ए बे
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देववंदन भाष्य अर्थसहित. एप वार (पमिकमिन के) पमिक्कमणुं करता एवा (गिहिमोवि के० ) गृहस्थने पण (हु के) नि 0 यतिनी पेरें (सगवेला के) सात वार चै त्यवंदन थाय. तथा जे एक वार पमिकमां क रता होय एवा गहस्थने (पंचवेल के० ) पांच वार चैत्यवंदन श्राय, तेमां एक पोरिति सांजल तां, एक क्रिया करतां अने त्रणवार देव वांदता मली पांच थाय. अने तेथी (इअरस्त के ) तर एटले जे पमिक्कमणुं नथी करता एवा गृह स्थने तो प्रनात, सांऊ अने मध्यान्हे ए (तिसं कासुप्र के)त्रण संध्याय (पूयासु के०)पू जाने विषे (जहन्नेणं के०) ए जघन्यथी पण गृहस्थने माटें (तिवेला के) त्रसवार चैत्यवंद ना (होश के) होय. ए सात प्रकारना चैत्यवं दननुं त्रेवीश, झार पूर्ण थयु. नुत्तर बोल २०६५ थया ॥६॥
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ए६ देववंदन जाप्य अर्थसहित. हवे ए पूर्वोक्त सर्व बोल जो आशातनानो परि हार करे, तो सफल थाय, माटें चोवीशमुं
दश अाशातनानुं हार कहे . तंबोल पाण नोयण, वाणह मेहुन्न सुअण निध्वणं ॥ मुत्तुच्चारं जूअं, वले जिणनाह जगई ए॥ ६१॥
अर्थः-प्रथम अाशातना शब्दनो अर्थ करे जे. जे ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनो आय एटले लान तेनी शातना एटले खंमना करवी, तेने आशातना कहीये ते जिनघरमां न करवी ते प्राज्ञातना जघन्यथी दश प्रकारें , तेनां नाम कहे . प्रथम (तंबोल के० ) तांबूल ते सोपारी, नागरवल्लीना पान अने पंचसुगंधा दिकन खाएँ, बीजी (पाण के०) पाणी पीवु, त्रीजी (नो यण के) नोजन करवू, चोथी (नवाणह के०) उपानह एटले मोजमी पगरखादिक पहेरवां, पांचमी (मेहुन्न के) मैथुन ते कामचेष्टा कर वी, ही (सुअस के०) सुq ते शयन करवू,
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देववंदन जाय अर्थसहित.
एउ
सातमी ( निध्वणं के० ) थुंकवुं, श्लेष्म नाखवु श्रावमी ( मुत्त के० ) मात्रा एटले लघु नीति करवी, नवमी ( उच्चारं के० ) नञ्चार ते वमीनी तिनुं करवुं, दशमी ( जूयं के०) जूवटे रमवुं, ए दश श्राशातना ते (जिलनाद के० ) जिन नाथ एटले जगवानना देरासरनी (जगईए के० ) जगतीने विषे एटले देरासरनी कोटमीमांदे पेस तां ए दशवानां (व के०) वर्जवां ए जघन्यथी दश प्राशातना महोटी बे, तेनां नाम कह्यां ॥ ६१ ॥
वे नत्कृष्टथी चोराशी आशातना त्यजवी जोइयें तेनां नाम इहां प्रसंगें लखीयें बैयें. १ खे
श्लेष्म, २ द्यूतादिक्रीमा, ३ कलद, ४ धनुर्वेदा दिक कला, ५ कोगला नाखवा, ६ तांबूल पूगी फल पत्रादि लक्षण, ७ तांबूल खावाना कूचा, तथा नकार नाखवो, गालो देवी, विरुद्ध बोल वुं, एए लघुनोति वमनीति करवी, दातनिर्गमना दि पवित्र करणादि, १० शरीर धोवन, ११ केश समारवा, १२ नख समारवा, १३ रुधिरादि नाख वा, १४ शेकेला धान्य प्रमुख खावां, १५ त्वचाचा
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ए७ देववंदन नाष्य अर्थसहित. गदिक नाखवां, १६ औषधादिके करी पित्त वमन करे, १७ वमन करे, १८ दंतधावनादि करे, १ए वीसामण करावे, २० बकरी, गज, अने अश्वादि कनं दमन बंधन करे, १ दांत, २२ आंख, २३ नख, श्व गमस्थल, २५ नासिका, २६ कान, २७ मस्तकादिक, ते सर्वनो मेल गमे, २० सूवे, श्य मंत्र नूतादि ग्रह तथा राजादि कार्यना आलोच विचार करे, ३० वृक्ष पुरुषनो समुदाय तिहां श्रा वी मले, ३१ नामां लेखां करे, ३२ धनना नाग प्रमुख मांहोमांहे बहेंचे, ३३ पोतानुं यत्नमार करी तिहां थापे, ३४ पग नपर पग चमाचीने बेसे, ३५ गणां थापे, ३६ वस्त्र सुकवे, ३७ दाल ढंढणोयादिक नगवे, ३० पापम शालेवां करे, ३५ वमोआदि देश कचर चीनमी प्रमुख सर्व शाक जाति नगवे, ४० राजादिकना नयथी देरासर म ध्ये नासीने बुपी रहे, ४१ शोकादिकें रुदन आनंद करे, स्त्री, नक्त, राज्य, देशादिकनी विकया करे, ४३ शर, बाण, तथा बीजा पण अधिकरण शस्त्र घडे, ४४ गाय, बलद, प्रमुख श्रापे, ए टाढ़ें
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. ए॥ पीमयो अनि सेवे. ४६ अनादिकन रांधवू करे, ४७ नाणादिक पारखे, अविधिये निसिही कहा विना प्रवेश करे, धए उत्र, ५० नपानह, ५१ शस्त्र, ५२ चामर न मूके. एटले ए चार वा नां साथें लश् प्रवेश करे, ५३ मननी एकाग्रता न करे, ५४ अन्न्यंग एटले शरीरे तैलादिक चो पमे, ५५ सचित्त पुष्पफलादिक न मूके, ५६ अ जीव वस्तु जे हार मुशदिक वस्त्रादिक ते बाहेर मूकी कुशोनावंत थ देरासरमा प्रवेश करे, ५७ नगवंत दीठे अंजलि न जोमे, ए एक शाटक नत्तरासंग न करे एए मुकुट मस्तकें धरे, ६० मौली पाघमी नपर वस्त्र बोकानी घोस पेच प्र मुख न गेमे, ६१ कुसुमना सेहरा, गेगां प्रमुख माथाथी न मूके, ६५ होम पामे, ६३ गेमीदमे रमत करे, ६५ प्राहुणादिकने जुहार करे, ६५ नाम चेष्टा, गाल; काख पूंठ वजावे, ६६ रेकार तुकारादि तिरस्कारनां वचन बोले, ६७ लेवा देवा
आश्रयी धरणुं मामे, ६ रणसंग्राम करे, ६ए वाल बूटा होय ते समा करे, जूश्रा करे, माधु
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१०० दवचंदन भाष्य अर्थसंहित. खणे, ७० पलांजी पग बांधे, १ चांखमीये चमे,
पग पसारी बेसे. ७३ पुमपुमी देवरावे, ७४ पगनो मेल जाटके, ७५ वस्त्रादिक जाटके, ७६ माकर यूकादिक वीणे, तथा तेने त्यांज नाखे, ७७ मैथुनक्रीमा करे, 3 जमण करे, ए व्या पार क्रय विक्रय करे, न वैधुकरे, ०१ शय्या स मारे, २ गुह्य लिंगादिक उघामे, तथा समारे, ०३ बाहुयु करे तथा कुकमादिकना युद्ध करावे,
५ वर्षाकालादिकने विषे प्रणालीथी पाणी सं ग्रहे अंघोल स्नान करे, तथा पाणी पीवाना ना जन मूके, ए नत्कृष्टथी चोराशी आशातना जिन नुवनमां वर्जवी.
हवे मध्यम बहेंतालीश आशातना वर्जवी तेनां नाम कहे . १ मूत्र, २ पुरीष, ३ पाणी, ४ नपानह, ५ शयन, ६ अशन, ७ स्त्रीप्रसंग, G तंबोल, ए धुंकवु, १० जूवटुं रमवू, ११ जूवटादि कनुं जोवं, १२ पलांठी वालवी, १३ पग पसार वा, १५ परस्पर विवाद, १५ परिहास, १६ मत्त र, १७ सिंहासन परिनोग, १८ केश शरीर.वि
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देववंदन नाष्य अर्थसहित.. ११ नूषा, १ए उत्र, २० खज, १ मुकुट, २२ चाम रनु राखवू, २३ धरणुं करवू, २४ हास्यादि वि लास परिदास, २५ विटसाथे प्रसंग करवो, २६ मुखकोश न करवो, २७ मलिन शरीर राखे, २० मलिन वस्त्र पहेरे, २ए अविधियें पूजा करे, ३० मनन एकाग्रपणं न करे, ३१ सचित्त जय बा हिर न मूकी आवे, ३२ उत्तरासंग न करे, ३३ अंजलि न करे, ३४ अनिष्ट, ३५ हीन, कुसुमादि पूजोपकरण राखे, ३६ अनादर करे, ३७ जिनेश्व रना प्रत्यनीकने वारे नही, ३० चैत्यव्य खाय, ३ए चैत्यश्व्यनी नपेक्षा करे, ४० बती सामथ्र्यै पूजावंदनादिकें मंदता करे, ४१ देवव्यादि न क्षक साथें व्यापार मित्राइ सगाई करे, ५२ तेहवा वमेरानी मुख्यता करे, तथा तेनीआशायें प्रवर्ने, ए बहेंतालीश मध्यम आशातना वर्जवी. एटले ए चोवीशमुं आशातनानुं हार थयुं ॥ उत्तर बोल २०७४ पूर्ण श्रया ॥
हवे देव वांदवानो विधि कहे . शरि नमुक्कार नमुखुण, अरिहंत थुई लोग
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१५२ देववंदन नाष्य अर्थसहित. सब थुइ पुरक ॥ थुश सिधा वेआ थुश, न मुब जावंति थय जयवी ॥६॥
अर्थः-प्रथम (इरि के) इरियावहि संपूर्ण पमिक्कमि पठी चैत्यवंदननो आदेश मागी (नमु कार के) नमस्कार कही परी (नमुत्रुण के०) नमुबुणं कहे. पी नन्नो थइ (अरिहंत के) अरिहंत चेश्याणं कही कानस्सग्ग करी एक ती थकरनी (शुई के०) स्तुति कहे. पनी (लोग के ) लोगस्स कहीये पग (सबथु के) स व्वलोए अरिहंत चेश्याणं कही कानस्सग्ग करी सर्व तीर्थंकरनी बीजो स्तुति कहिये, पनी (पुरक के) पुरस्करवरदी कही कानस्सग्ग करी श्री सि
तनी त्रीजी (थुश् के) स्तुति कहेवी पी (सिक्ष के०) सिक्षणं बुझाएं (वेत्रा के) वे यावञ्चगराणं इत्यादिक कही कानस्सग्ग करी अ धिष्ठायिक देवोनी चोथी (युश् के) स्तुति कही पनी नीचें बेसीने (नमुबु के०) नमुचुणं संपूर्ण कहीने (जावंति के) जावंति चेआई जावंत केवि साहु कही नमोर्हत् सिशचार्योपाध्यायसर्व
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देववंदन जाय अर्थसहित.
१०३
साधुभ्यः कही ( यय के० ) स्तवन कहीने, सं पूर्ण ( जयवी के० ) जयवीयराय कहीयें. ए देव वांदवानो विधि को ॥ ६२ ॥
ear को प्राणी एटला बोल तथा एवो विधि न जाणतो होय तो पण या कहेला आठ बोल तेमां होय तेने भक्तिवंत कहीयें. जे माटे संबोध प्रकरणमध्यें कह्युं बे ॥ जत्ति बहुमा गोवा, संजला आसायलाइ परिहारो ॥ परि लीय संगवऊण, सइ सामने तन कुराणं ॥ १ ॥ विहिजुंजण मस्त वण, मवही वायाण विहिप सेहो | सिद्धा इय श्रमगुण, जुत्तो संपुस विहिजुत्तो ॥ २ ॥
ए बे गाथानो जावार्थ कहे बे. एक जक्ति ते अंतरंग राग, बीजुं बहुमान ते बाह्य लोकोपचार विनयादि गुण. त्री जो वर्णवाद यशोवादनुं बोलवं. चोथो प्रशातनादिकनो परिहार, पांचमो तेमना प्रत्यनीकनी साथै संग वर्जवो. बठ्ठो बती सामर्थ्ये विघ्ननुं टालवं. सातमो आगलाने विधिमां जोड़ वुं श्राम्मो अवर्णवाद न सांजलवापूर्वक अवि
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देववंदन जाप्य अर्थसहित.
घिनो निषेध करवो अने विधिनो प्रतिसेवन करवो, एवा आठ गुणा विशु प्रयुक्त ते सर्वोपाधि विशुद्ध संपूर्ण विधि युक्त कहीये ॥ २ ॥
सवोवादि विसुद्धं, एवं जो बंदए सया देवे ॥ देविंदविंद महित्र्यं, परमपयं पावर बहुसो ॥ ६३ ॥
अर्थः- एम (सद्दोवाहि विसु के० ) सर्वो पाधि विशुद्ध जेम होय ( एवं के० ) एम एटले सर्व श्री जिनधर्म संबंधिनी चिंता तेणे करी नि दोष प्रकारें शुद्ध श्रायें करी ( जो के ) जे नव्य प्राणी ( देवे के० ) श्रीदेवाधिदेवने ( सया के० ) सदा सर्वदा (वंदए के० ) वांदे ते जव्य प्राणी जवजयरूप पद जिहां नथी एवो ( परम पर्य के० ) परमपद एटले मोक्षरूप पद ते प्रत्यें ( लहुसो के० ) शीघ्र उतावलो ( पावइ के० ) पामे. ते परम पद कहेवुं बे ? तो के (देविंद के० ) देवना इंड तेमना (विंद के० ) समूह एटले इं ोने समूहें जेने ( महियं के० ) प्रतिं एटले.
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देववंदन नाष्य अर्थसहित. १५ पूज्यु एवं जे. एमां ग्रंथकर्ता श्रीदेवेंसूरिये पो तानुं नाम पण सूचब्युं ले ए श्रीचैत्यवंदनन्ना प्यतुं वार्तिक संकेपथी का, अने विस्तारथी तो श्रीआवश्यकनियुक्ति तथा प्रवचनसारोझारनी वृत्त्यादिकथी जाणवू. इति श्रेयः॥ इति श्री देव वंदनन्नाष्यं वालावबोधसहितं संपूर्णम् ॥६३ ॥
हवे ए श्रीदेवाधिदेवने विधि वांदवाना फल ना कहेवावाला ते श्रीगुरु ने माटे तेमने पण नक्ति विनयें करी विधि पूर्वक वंदना करवा थकी सकल आगमनां रहस्य पामीयें. ए श्रीगुरुनें वां दवानां पण घण फल आगममांहे कयां ॥ यउक्तं ॥ वंदणएणं नंते जीवे किं जाइ, गोयमा वंदगएणं जीवे नीयागोयं खवेश, नवागायं णिबं धइः साहग्गंचवं अपमिलेहियं आणाफलं निवि ते दाहिण नावच जणय इति ॥ तेणे प्रसंगें याव्यो जे गुरुवंदनाधिकार ते इवे कहे ..
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अथ बालावबोध सहित श्रीगुरुवंदन भाष्य प्रारंभः
गुरुवंदण मह तिविहं, तं फिट्टा बोल बारसावतं, सिर नमणाइसु पढमं, पुस ख मासमण मुगि बीअं॥१॥
अर्थः-(अह के) अथ शब्द ते मंगलादिकारें ने तथा प्रथम प्रारंनने कारणे अथ शब्दें करी चैत्यवंदन नाष्य कह्या पठी हवे गुरुवंदन नाष्य कहीये 3यें. (तं के)ते (गुरुवंदणं के) गुरु वंदन (तिविहं के ) त्रण प्रकारे ने तेमां पहेलु (फिट्टा के) फेटा वंदन, बोजु (गेन के) थोनवंदन, त्रीनुं (वारसावत्तं के) हादशावर्त वंदन, तिहां (सिरनमणाइसु के) मस्तक न मामवादिकने विषे आदि शब्द यकी अंजलिकरण ते हाथ जोमवादिक जाणवा. ते (पढमं केए)
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गुरुवंदन जाप्य अर्थसहित. १०७ पहेलुं फेटा वंदन जाणवू. तथा (पुस्मखमास मणऽगि के० ) पूर्व पंचांग बे खमासमणा देवे करीने एटले बे हाथ, बे गोठण अने एक मस्तक ए पांच अंग नमाववा रूप ते (बीयं के) बोनुं थोनवंदन जाणवू ॥१॥
इहां शिष्य पूजे जे के थोनवंदने तथा हाद शावर्त वंदने प्रथम एक वार वांदीने फरी बीजी वार शे हेतुयें वांदीयें बैयें ? त्यां प्राचार्य उत्त र आपे .
जह दून रायाणं, नमिदं कऊं निवेश नं पहा॥ वीस जिनवि वंदिन, गन्नए मेव इन्च उगं ॥२॥
अर्थः-(जहदून के) जेम दूत पुरुष ने ते (रायाणं के ) राजाने. (नमिनं के) नमिने (कऊनिवेनं के) कार्य निवेदन करे वली (प हा के) पागे राजायें (वीलझिनवि के०)वि संज्यों थको पण (वंदित्र के०) वांदीने (गड के) जाय (एमेव के०) एनी पेरें (श्व के)
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१०७ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित.
हां गुरुवंदनने विषे पण वंदन- (उगं के) धिक जाणवू ॥२॥ अने हादशावर्त वंदने तो बेहु वांदणे मलीने आवश्यक आवर्तादि बोल नीपने , ते माटे बेहु वांदणानी जोमीये एकज वंदन कहेवाय ॥ दवे वांदणां देवानुं कारण शुं ? ते कहे .
आयरस्सन मूलं, विण सो गुणवत अपमिवत्ती॥ सा य विहि वंदणात, वि ही श्मो बारसावत्ते ॥३॥
अर्थः-जे माटे श्रीसर्वप्रणीत जे (आयर स्स के ) आचार तेनो (न के) बली (मूलं के) मूल जे , ते (विन के) विनय डे (सो के) ते विनय केवी रीते होय ? ते कहे
. (गुणवन के) गुणवंत गुरुनी (अ के०) वली (पमिवत्ती के०) प्रतिपत्ति एटले सेवा क रवी जाणवी (साके) ते नक्ति (च के) वली (विहिवंदणान के) विधियें करीने वांद वाषकि थाय ते (विही के०) विधि (श्मो केए)
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गुरुवंदन प्राप्य अर्थसहित.
२०१७
प्रा. प्रागल. ( बारसावत्ते के० ) द्वादशावर्त्त चंदनने विषे कदेशे ॥ ३ ॥
दवे ए त्रीजुं द्वादशावर्त्त वंदन केम होय ? ते कड़े बे. तइयं तु बंदण डुगे, तब मिहो प्राइम सयल संघे ॥ बीयं तु दंसणीय, पि आणं च तश्यं तु ॥ ४॥
अर्थ : - ( तज्ञ्यं के० ) त्रीजुं द्वादशावर्त्त वंदन ते ( तु के० ) वली ( बंदणडुगे के०) बे वांदलां देवे करीने होय, एटले बे वांदणां देवे करी थाय, इहां बंद शब्द वंदनवाचक जाणवो. (तनु के०) ते पूर्वोक्त त्रण वांदणांमां ( श्रइमं के० ) आदिम एटले पहेलुं फेटावंदन जे बे, ते साधु, साध्वी, श्रावक ने श्राधिकारूप चतुर्विध ( सयलसंघे के० ) समस्तश्रीसंघें मली (मिहो के० ) मिथो एटले मांहोमां परस्पर तेवा तेवा अवसरने विषे करवुं होय त्यारें थाय, अने (बीयं के० ) बीजुं जे योजवंदन बे, ते (तु के० ) निवें वली सुसाधु
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११० गुरुवंदन नाष्य.अर्थसहित. एवा (दसणीण के ) दर्शनीयनेज अर्थे होय, एटले एक गछगत, बीजो अनुयोगी, त्रीजो अ नियतवासी, चोथो गुरुसेवी, पांचमो आयुक्त जे संयममार्गमां सावधान एवा गुणवंत यतिने ए वांदणुं देवाय, तथा (य के) चकारथी, तथा विधिविशिष्ट कार्यने विषे लिंगमात्रधारी पण जो सम्यक्त्वदर्शनवंत होय, तो ते पण बोनवंदने वंद नीय होय. तथा (तइयें कं० ) त्रोणु हादशावर्त वंदन जे जे ते (तु के) वली आचार्य, नपाध्याय, गुणवंत गीतार्थादिक एवा (पयठिाणं के) पदप्रतिष्ठित जे होय तेमने (च के) निश्चे होय. हवे ए वांदणांनां पांच नाम , ते कहे जे.
वंदण चिइ किइ कम्मं, पूआकम्म च विणयकम्मं च ॥ कायवं कस्स व के, ण वावि काहेव कश् स्कुत्तो ॥५॥ ___ अर्थः-एक (वंदम के० ) वंदन कर्म ते अ निवादन स्तुतिरूप, अविन तकाय करवी, ते शरीर मस्तकादिके अवनत तथा कर्मथकी नला
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १११ कर्म बंधाय एटला माटें बीजु (चिश् के) चि तिकर्म, त्रीजु (किश्कम्मं के०) कृतिकर्म वांद गं. (च के ) वली नलां मन, वचन अने का यानी चेष्टानुं जे कर्म करवू, ते माटें चोथु (पू आकम्मं के०) पूजाकर्म कहिये, तथा विनयर्नु करवू ते माटें पांच, (विणयकम्मं के) विन यकर्म कहीये, ए पांच प्रकारे वंदन (च के ) वली (कायचं के) करएटले पांच प्रकारें वांदणां देवां ते (कस्स के) केने अर्थे देवां? (व के) वली (केशवावि के) केहने वादणां देकां? अपि शब्द निश्चयार्थमांडे. (काहेव के) केवारें वांदणां देवां ? (कश्कुत्तो के ) केटली वार वांदणां प्रापीयें ? ॥ ५ ॥ ___ कश्नणयं कसिरं, कहि व आव स्सएहिं परिसुद्धं ॥ कइदोस विप्पमुक्कं, कि कम्मं कीस किरईवा ॥ ६॥
अर्थः-वांदणाने विषे (कश्नणयं के ) के टला अवनत करवा, (कश्सिरं के) केटलीवार
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११२ गुरुवंदन जाप्य अर्थसहित.
मस्तक नमारुवुं, ( करदि के० ) केटला (व के० ) वली (श्रावस्तएहिं के० ) श्रावश्यकें क रीने (परि के० ) परिशुद्ध को तथा ( क दोस विमुक्कं के० ) केटला दोषें करी विप्रमुक्त एटले रहित थके ( कीस के० ) शामा ( किरई के० ) करी ( किइकम्मं के० ) कृतिकर्म वांदणां दीजें ? वा शब्द पुनर्वाचक बे ॥ ६ ॥ ए पांच गाथा आवश्यक निर्युक्तिमां क
मी
दी बे ते इहां कही ॥
दवे ऋण गाथायें करी वंदनानां बावीश हार कहे बे.
मूलदार गाहा ॥ पण नाम पणाहरणा, प्रजुग्गपण जुग्गपण चनप्रदाया || चन दाय पण निसेहा, चना सिह कारण या ॥ ७ ॥ प्रवस्सय मुहांतय, तापेह पलिस दोस बत्तीसा ॥ ब गुण गुरु ठवण
डुग्गह, उबवी सस्कर गुरु पणीसा ॥ ८ ॥
पय प्रवन्न ग्ठाणा, व गुरु वयणा प्रा
4
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ११३ सायण तित्तीसं ॥ विहि वीसदारेहिं, चनसया बाणनाणा ॥५॥
अर्थः-(मूलदारगाहा के०) मूलधारनी गा थान जाणवी. पहेलुं वांदणांनां (पणनाम के) पांच नाम कहेशे, बीजुं वांदणांनां (पणाहरणा के) पांच आहरण एटले वांदणांनां पांच नदा हरण दृष्टांत झय अने नावथी कहेशे; त्रीजु वांदणां देवाने (अजुग्गपण के०) अयोग्य एवा पांच पासबादिक कहेशे, चोथु वांदणां देवाने (जुग्गपण के) योग्य एवा आचर्यादिक पांच कदेशे, पांचसु जेनी पासें वांदणां न देवरावीयें एवा (चनअदाया के० ) चार जण वांदणांना प्रदाता कदेशे, हुं जेनी पासें वांदणां देवरावी यें एवा (चनदाय के०) चार वांदगांना दातार कहेशे, सातमु (पण निसेहा के ) पांच स्थान के वांदणानो निषेध करवो एटले वांदणां न देवां ते कहेशे, आठमुं (चनअशिसेह के) चार स्था नकें वांदणानो अनिषेध करवो एटले चार स्था नकें वांदणां देवां ते कदेशे, नवमुं वांदणां देवा
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११५: गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. नां (अकारणया के) आठ कारण कहेशे॥७॥ ___ दशमुं वांदणाने विष (आवस्सय के०) आ वश्यक साचववां, अग्यारमुं (मुदणंतय के ) मुखनंतक एटले मुहपतिनी पमिलेहणा करवी, बारमुं (तणुपेह के) शरीरनी पमिलेरणा क रवी, ए त्रणे वानां (पणिस के) पच्चीश पच्चीश करवां ते कहेशे, पणिस शब्द सर्वने जोमवो.तेर मुं वांदणां देतां (दोसबनीसा के०) बत्रीश दोष टालवा ते कहेशे, चौदमुं वांदणां देतां (उ गुण के) ब गुण नपजे ते कदेशे, पनरमुं वां द देवामां साक्षात् गुरु न होय तेवारें सन्नाव अने प्रसन्नाव रूप (गुरुठवण केण) गुरुनी स्था पना करवी ते कहेशे, शोलमुं वांदगां देतां (5 ग्गह के० ) बे अवग्रह साचववा, ते कदेशे, स तरमुं. वांदगाना सूत्रने विषे (कुश्वीसकर के०) बशें ने बोश अक्षर , तेम (गुरुपणीसा के) गुरु छाकर पजोश ते कहेशे ॥ ७ ॥
अडारमुं वांदणानां सूत्रांने विषे (पयअमान के) पद अभवन ले ते कदेशे, नगगीशमुं वां
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ११५ दणां देतां शिष्यने प्रश्न पूबवालक्षण वीशामानां (गणा के) उ स्थानक ठे ते कदेशे, वी शमुं वांदणां देतां प्रभोत्तररूप.(गुरुवयणा के) उ गुरुनां वचन , ते कदेशे, एकवीशमुं वांदणां देतां गुरुनी (पासायणतित्तीसं के) तेत्रीश आशातना न करवी तेनां नाम कदेशे, बावीशमुं वांदणाने विषे (विहि के० ) बे प्रकारनो विधि कदेशे. एम वांदगाना (बीसदारहि के०) बा वीशहारें करीने सर्व मल। (चनसयाबाणनाणा के०) चारशेने बाएंणं स्थानक थाय ॥ए ... अंकः मूलधारनां नाम. उत्तर नेद. शरवालो. १ वंदननाम. ५ ५ २ दृष्टांत. ३ वांदवाने अयोग्य.
१५ वांदवाने योग्य. ५ वांदगांना अदाता. ६ वांदणांना दाता. ७ निषेधनां स्थानक, ५
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११६ गुरुवंदन नाष्य अर्थप्तहित. G अनिषेधनां स्थानक. ४ ३७ ए वांदणांना कारण. ४५ १० श्रावश्यक. २५ ७० ११ मुहपत्ति पहिलेहण. २५ एप १२ शरीर पमिलेहण. २५ १२० १३ वांदणांना दोष. ३३ १५२ १४ वांदणांना गुण. ६ १५७ १५ गुरु स्थापना. १ १५ १६ अवग्रह. २ १६१ १७ अकरनी संख्या. २२६ , १७ पदनी संख्या. ५७ १ए स्थानक.
६ ४५१ २० वादणांमां गुरुवचन. ६
ՑԱՏ १ गुरुनी आशातना. ३३ २२ विधि.
२ एश
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ११७ हवे पूर्वोक्त बावीश धारमा पहेलुं पांच
नामनुं हार कहे . पमिदार गाहा ॥ वंदणयं चिश्कम्म, किश्कम्मं विणयकम्म पुकम्मं ॥ गुरु वंदण पण नामा, दवे जावे उहोहेण ॥ ॥ १० ॥ दारं ॥१॥
अर्थः-(पमिदारगाहा के प्रतिहारनी गा था कहे . प्रथम (वंदणयं के.) वंदनकर्म ते अन्निवादन स्तुति रूप जाणवं. बीजुं ( चिश्क म्मं के).चितिकर्म ते रजोहरणादि उपकरण विधि सहितपणे कुशलकर्मनुं करवं जाणवू. त्रीजें (किकम्मं के०) कृतिकर्म ते शरीर म स्तकादिकें अवनमन करवू. चोथु (पुकम्म के० ) पूजाकर्म ते प्रशस्त मन, वचन अने काय चेष्टा रूप जाणवू. पांचमुं ( विणयकम्म के ) विनयकर्म ते पूर्वोक्त चार प्रकारे विशेष नद्यम पणुं जाणवु. ए (गुरुवंदण के०) गुरु वांदणांनां (पणनामा के) पांच नाम ते वंदनानां पर्याय
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११७ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. जाणवा. ए ( दवेनावे के ) एक व्यश्रकी वां दणां अने बीजां नावथकी वांदणां एम (ह के) बे प्रकारें (नहेण के०) नघेन एटले सा मान्यप्रकारे जागवां ॥१०॥
हवे पांच दृष्टांतोनुं बीजें हार कहे .
सीयलय कुए वीर, कन्ह सेवग 5 पालए संबे ॥ पंचे ए दिर्हता, किइकम्मे दव नावेहिं ॥ ११ दारं ॥३॥
अर्थः-प्रथम वंदन कर्मनपर व्यवंदन अने नाववंदन आश्रयी (सीयलय के) शीतलाचा र्यनो दृष्टांत, बीजा चितिकर्म नपर (कुमुए के) कुखकाचार्यनो दृष्टांत जाणवो. त्रीजा कृतिकर्म नपर (वीरकन्द के ) वीरा शालवी नो अने कृष्ण महाराजनो दृष्टांत जाणवो. चो श्रा पूजाकर्म नपर (सेवग 5 के) राजाना बे सेवकोनो दृष्टांत जाणवो. पांचमा विनयकर्म न पर (पालए संबे के) श्रीकृष्णमहाराजना पुत्र पालक अने साम्बनो दृष्टांत जावो (ए के०)
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ११ए ए (पंचे के ) पांच (दिता के ) दृष्टांत ते ( किश्कम्मे के०) इतिकर्म एटले वांदणाने विषे ( दवन्नावहिं के ) च्यन्नावें करीने जाणदा ॥ ११ ॥ हवे ए पांचे दृष्टांतोनी कथा कहे ,
हठिणानर नयरना वजसिंह राजानी सौ नाग्यमंजरी राणीने शीतलनामा पुत्र हतो, अने शंगारमंजरी नामे पुत्री हती. ते कंचनपुर नगरे विक्रमसेन राजाने परगावी, अनुक्रमें शी तलपुत्र राजा थयो, तेणें धर्मघोषसूरि पासेंथी दीक्षा लीधी, पगरी विज्ञातसिखंत गीतार्थ थइ, प्राचार्यपद पाम्या. हवे तेनी नगिनीने चार पुत्र सकलकलामां निपुण थया जागी तेमनी माता निरंतर पोताना पुत्र आगल नाश्नी प्रशंसा करे अने कहे के धन्य कुनपुण्य पृथिवीमाहे एक त मारो मातुल , के जेणे राजन्नार गंमी दीक्षा लीधी ? एवी प्रशंसा सांजली ते चारे पुत्र संवेग पणुं पाम्या. पनी स्थविरपासें दीका लइ बहु श्रुत श्रइ गुरुने पूरी पोताना मामा शीतलाचा येने एक पुरे आव्या सांजली तेने वांदवाने अर्थे
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१० गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. गया. तिहां जातां विकाल वेलायें गाम बाहेर एक देवलमा रह्या. मांहे पेसतां एक श्रावकने जणाव्यु के अमारा मातुलने कहेजो जे नाणेज साधु आव्या . हवे ते चारे नाणेजने रातें शु नध्यानथी केवलज्ञान उपज्यु. प्रत्नाते तेमनुं श्र नागमन जाणी मातुल आग्या, तेहने अनादर करता जाणी कषाय दमकमां आवते दंझक थापी हरि यापत्रिका प्रतिक्रमी झ्यथा वंदन की , ते वारे ते बोल्या अहो क्यवंदने कषाय दमक व धते वांद्या, परंतु नाववंदने कषायोपशांतियें वां दो, ते सांजली मामोजी बोल्या तमें केम जा एयु ? तेवारे नाणेज बोख्या के अमें अप्रतिपा ती झाने करी जाण्युं. ते सांजली मामोजी म नमा विचारवा लाग्या के अहो में केवलीनी आशातना करी, एम विचारी कषायस्थानकथी निवर्त्या अने ते चारे केवलीने वांदवा लाग्या, अनुक्रमें चोथा केवलीने वांदतां मामाने पण के वलज्ञान पर्नु. ए शीतलाचार्य ने प्रथम व्यवं दन पीनाववंदनकर्म थयु. ए प्रथम नदाहरण।
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ११ __ हवे बीजा चितिकर्म नपर कुल्लकनो दृष्टांत कहे जे. जेम एक कुल्लक नला लकणवालाने, आचार्य अंत समयें पोताने पदें स्थाप्पो, गीतार्थ साधु पासें नये, ते पण विशेषथी नक्ति साच वे. एकदा समय मोहनीय कर्मना नदयथा नग्न परिणामी थयो; पठी साधु निदायें गये अके बाहेर नूमिने विषे निकल्यो पनी एक वनने विषे एक दिशे जातां थकां, तिलक, अशोक चंपकादि विविधवृक्ष तिहां दता तेम उतां एक शमी एटले खीजमीनो वृक्ष तेनु कोश्क पूजन करतो हतो ते देखी पूजक प्रत्ये पूग्यु, के तमे ए कंटकवृदने केम पूजो गे? तेणे कां के अमारा वझिलोयें पूर्वं ए वृक्षने पूज्यु ले माटे अमे पण पूजीये वैये. ते वचन सांजलीने क्षुल्लके विचारयु जे आशमी एटले जांखरांना वृक्ष सरिखो हुं बु; तेने नत्तम वृक्ष समान गुणवंत लोक पूजे .अने महारामां श्रमणपणुं नथी; मात्र रजोहरणादि चितिकर्मगु णे करी मुझने पूजे , एम विचारी, पागे आवी, साधुनी पासे पालोयणा लई, नजमाल थयो.
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गुरुवंदन नाय प्रर्थसहित.
एम ने पूर्वे व्य चितिकर्म दतुं, पठी जावचि तिर्म नृत्पन्न थयुं. ए बीजुं नदाहरण जारावं.
हवे त्रीजा कृतिकर्म नपर वीरा शालवी अने श्रीमनुं नदाहरण कहे बे. श्रीनेमिनाथ भगवा न् द्वारिकाये समोसवा तेवारे श्रीकृभे सर्व सा धुनने छादशावर्त वांदो वांद्या, एने जात्रकृतिकर्म कहीये, अने श्रीकृभने रुरुं मनववाने श्रर्थे वीरा शालवीये पण वांद्या एने य कृतिकर्म कहीये. एना संबंधनो विस्तार यावश्यकवृत्तिथी जाणवो. ए त्रीजुं उदाहरण जाणवुं.
हवे चोथा पूजाकर्म नपर वे सेवकनो दृष्टांत कहे बे. जेम एक राजाना वे सेवक दत्ता ते गा मनी सीमा निमित्ते विवाद करता राजपंथे जातां दता, मार्गमां साधु देखीने प्रशस्त मन, वचन अने कायायें करी एके कह्युं के " साधौ दृष्टे ध्रुवा सिद्धिः " एटले साधु दिवे बते निश्वयें कार्यसिद्धि श्राय, एमां संशय नथी, एम कही एकाग्र चित्ते साधुने वांद्या. अने बीजे सेवके नलटी दांती रूपें व्यवहार मात्रै तेने श्रवनमन करयुं, पी
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १५३ राजक्षरें गये थके पहेला सेवकनो जय अयो, अने बीजानो पराजय श्रयो एम एकने ब्यथ। पूजाकर्म अने बीजाने नावथ पूजाकर्म थy; ए चोयुं नदाहरण.
हवे पांचमा विनयकर्मने विषे पालक अन्न व्य अने सांबनो दृष्टांत कहे . श्रीनेमिनाथन गवान् हारिका नगरीयें समोसस्या, तेवारें श्री कृष्ण बोल्या के जे श्रीनेमीश्वर लगवानने स र्वथी पहेलु जई वंदन करशे, तेने महारो पट्ट तुरंगम विशेष आपीश, ते सांजली तुरंगमने लो ने. प्रथम रात्रि उतां पण पालकें आवीने वांद्या, ते व्यथकी वंदन जाणवू. अने त्यां सांब कुमारें नावथकी वांद्या , ते नाववंदन जाणq. ए पां चमुं नदाहरण कडं. ए पांच दृष्टांतनुं बीजं द्वार थयु, उत्तर बोल दश थया ॥ ११ ॥ हवे पासबादिक पांच अवंदनीयर्नु त्रीजु
हार कहे . पासबो नस्सन्नो, कुसील संसत्तन
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१५४ गुरुवंदन नाष्य अग्रसहित. अहाउँदो ॥ उग गति गणेग विहा, अवंदणिका जिण मयंमि ॥१॥दारं॥३॥ ___ अर्यः-जे ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी पालें रहे ते प्रथम (पासबो के) पासबो जाणवो तथा जे साधु सामाचारीने विषे प्रमाद करे ते बीजो (नस्सनो के) नस्सन्नो जाणवो. तथा जे ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी विराधना करे ते त्रीजो (कुसोल के० ) कुशीलीयो जाणवो. तथा जे वैरागी मले तो तेनी साधे पोते पण वै रागी जेवो बनी बेसे अने जो अनाचारी मले तो तेन सायं पोते पण अनाचारी बनी बेसे, ते चोथो ( संसत्तन के0 ) संसक्त जाणवो तथा जे श्रीतीर्थकरनी आझा विना पोतानी बायें प्रव लें, पोतानी इलायें प्ररूपणा करे, ते पांचमो (अहाउँदो के० ) यथावंदो जावो. ए पोताने ग्दे प्रवर्ने माटे एने दो कहीये. तिहां एक दे शथी बीजो सर्वथी मली (3ग के) वेनेद पासवाना, तथा एक देशथी बीजो सर्वथी मली (3ग के० ) बे नेद नस्सन्नांना, तथा ज्ञानकु
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १२५ शोल, दर्शनकुशील अने चारित्रकुशील मली (ति के० ) त्रण नेद कुशीलीयाना, तथा सं क्लिष्ट चित्त अने असं क्लिष्ट चित्त मली (5ग के०) बे नेद संसक्तना, तथा (अणेगविहा के०) अ नेक प्रकार, बंदाना जाणवा, एटले यथाबंदा अ नेक नेदना थाय ने ए पासबादिक पांच जे कद्या ते (जिशमयंमि के ) श्रीजिनमतने विषे (अ वंदगिजा के० ) अवंदनीय जाण वा ॥ १२ ॥
हवे ए पांचे- कांश्क विशेष स्वरूप लखी व्ये. तिहां मिथ्यात्वादिक बंध हेतुरूप पास तेने विषे जे रहे, तेने पासबो कहीये. अथवा ज्ञाना दिकने पोतानी पासें करी मिथ्यात्वादिक पास मां रहे एटले ज्ञानादिकने पासे राखे पण सेवे नही, अश्रवा पासनी पेरें पोतार्नु पासुं मलिन रा खे ते पासबो कहीये. तेना बे नेद -एक देश पासबो अने बीजो सर्वपासबो. तेमां जे कारण विना शय्यांतर पिंक, अन्याहृत एटले साहामो
आएयो पिंझ, राज्यपिम, नित्यापि अने अग्रपिं मादिक नुंजे. तथा गाम, देश, कुल श्रावकनी
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गुरुवंदन जाप्य अर्थसहित.
ममता मांगे, जेम के " या महारा वासित ना व्या वे " ते कुलादिकनी निश्राये विचरे, तथा गुर्वादिकने जे विशेष जक्तियोग्य रहस्यनूत था पना कुल बे, ते कुलमांडे निष्कारणे प्रवेश करे, तथा " नित्यप्रत्ये तमने एटलुं देइशुं तमे नित्य यावजो " एवी रीतनी जे निमंत्रणा करे तेनी पासें ते पिंम लोये तेने नित्य पिंग कहीये. तथा जाजनमांहेश्री वापस्या विना नंदन नक्तादिकनी शिखा नुपरितन जाग लक्षण लोये, तेने श्रग्रपिं म कहिये. केटला एक एम कड़े वे के कारण विना प्रधान सरस आहार लीये तेने अग्रपिंग कहिये. तथा बšतालीश दोष आदारना न राखे, वारं वार आहार लीये तथा जमणवार, विवाह अने प्राहुणामां शिखंमि जोतो फरे, आहारनी लालचें मुखें कहे. तिहां निमित्त दोष न होय, सूजतो होय ते माटे. तथा सूर्य प्रथमता नगताथी मां म जमे, मांगलीये आहार न करे, सन्निधि रा खे, पोतानी निश्रायें प्रोषधादिक अलगु गृहस्थने घरे मूकावे, द्रव्यादिक सहित विचरे, तथा ज्ञान
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १२७ च्यादिक मिषे करी स्वनिश्रायें ज्ञानादि नंमार नां नाम लेई, पुस्तकादि संग्रहे, यादि सहित विचरे, मुखे कहे अमे निपँथ बैये पूर्व साधु स मान गर्व राखे. इत्यादिक अनेक प्रकारे साधु ल कणथी विपरीत होय ते देश पासबो जाणवो. __तथा जे सर्वश्रा ज्ञान, दर्शन अने चारित्रथी अलगो रहे, केवल लिंगधारी, वेषविमबक, गृह स्थाचार धारी होय, ते सर्वथी पासबो जाणवो.
बीजो जे क्रियामार्गने विषे शिथिलता करे, अश्रवा खेद पामे तेने नस्सन्नो कही; तेना बे नेदले. एक देशग्री अबसन्नो अने बीजो सर्वथी अवसनो. तिहां जे आवश्यक, प्रतिक्रमण, देववं दनादि, सजाय ते पठन पाठनादि, पमिलेहण, मुखवस्त्रिका, वस्त्रपात्रादि, निदा ते गोचरी का लादि. ध्यान त धमेध्यानादि,सुजताथ ते तपान यम अन्निग्रहादि, आगमन ते बाहेरथी नपाश्रय मां प्रवेशलकग, निसिहिया ते पग पूंजवादि, नि गमन ते प्रयोजन विना नपाश्रयथी बाहेर निकल वा लक्षण, स्थान ते कायोत्सर्गादि, निषोदन ते
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गुरुवंदन जाय अर्थसहित. बेस, तु ते त्वग्वर्तन एटले शयन इत्या दिक, दशविध चक्रवाल साधु समाचारी, तथा नुघ पद विभाग सामाचारो प्रमुख विधि संयुक्त न करे, अथवा नबी अधिकी करे अथवा कषाय दंक सहित करे, अथवा राजवेनी पेरे करे जय मानीने करे, तथा गुर्वादिकना वचन सांग ली मलो थरने वचन खंमन करे, आक्रोश करे, इत्यादिकलकले करी देश अवसन्नो जावो.
अने सर्वथकी अवसन्नो तो चोमासा विना शेषकालें पाट, बाजोव, निष्कारण संथारे, सेवे, स्थापनापिंग जमे. संथारो पायरयो राखे, प्रानृ तिकादि दोष जमे. इत्यादिक लक्षणें सर्व अ वसन्नो जावो.
त्रीजो जेनुं कुत्सित, निंदनीय मावुं शील ए टले प्रचार होय, तेने कुशील कहीयें. तेनात्रण भेद बे. ज्ञानकुशील, दर्शनकुशील अने चारित्र कुशील, तिहां ज्ञानकुशील ते अकाल, अविनय, अबहुमान, गुरुनिन्दवता. योग उपधान दीन सू त्र, अर्थ अने तडुनय होन, इत्यादिक आशातना
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १५ युक्त थको ज्ञान भणे तथा आजीविकाहेते पठन पाठन संन्नलाव, लखवू, लखाव,, नंमार क राववा, नंदी समारचनादि स्वार्थना नपदेश देवा, तथा आजीविका हेते धर्मकथा कहे, नणे, घर घर धर्म संनलाववा जाय, पोताना श्रवाने देते स्त्रीबालकादिकने नणावे, अनेरा ज्ञानना नंमा र नलवे ज्ञानने नलवे, लखवां लखाववां, क्रयवि क्रय पुस्तकादिकोनो करे, करावे, इत्यादिक ल दणें ज्ञानकुशील जाणवो.
बीजो दर्शनकुशील ते शंका कांदा विचि कित्सा व्यापन, दर्शननिन्हव, अहाबंदा, कुशी लिया वेषविमंबनादिक साथे परिचय करे, एटले तेनी साथ आलाप संलाप पठनादिक करे, ते दर्शनकुशील जाणवो. ___त्रीजो चारित्रकुशील ते ज्योतिष, निमित्त, अक्षरकर्म, यंत्र, मंत्र, भूत कर्म, बलिपिम, नके णी, दानादि, सोनाग्य दौग्यिकारी, जमी, मृती, विद्यारोहणादिक, पादलेप, आंख अंजन, चूर्ण, स्वप्नविद्या, चिपुटीदान प्रमुख, अतीत अ
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१३० गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. नागत वर्तमान निमित्तकथन, पोतानी जाति कुल विज्ञानादिक स्वार्थकार्य प्रकाश करे, नख, केश. शरीर, शोभा करे, वस्त्र पात्र दंगादिक बह मूल्यवाला सुंदर सुकोमलनी वांग करे, शिष्या दिक परिग्रहनी विशेष तीव्रता धरे, निष्कारण अपवाद पद सदूषण मार्ग प्रकाशे, तथा सेवे, त्यादिक लक्षणे चारित्रकुशील जाणवो. __चोथी संसक्त, ते पासना अथवा संविज्ञादि क जन जेवानी साथें मले त्यां तेवो थई प्रव, अथवा मलोत्तर गुण दोष सर्व एकग प्रवर्तीवे, जेम गायनी आगल सुंमलो मूक्यो होय तेमां सरस, नीरस, कपाशिया, खोल, घृत, मुग्धादि क एकहुँ होय तो ते सर्वने एकगंज खाई जाय पण तेनुं विवेचन न करे. तेम ए पण गुण अने दोष सर्वने एकग प्रवर्चावी देखामे तेने सं सक्तो कहीये, ते एक संक्लिष्टचित संसक्तो अने बीजो असंक्लिष्ट चित्तसंसको एवा बेन्नेदें जाणवो.
तिहां जे प्राणातिपातादिक पांच आश्रवनो सेवनार, शहिगारव, रसगारव अने शातागारव
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १३१ ए त्रण गारवें करी सहित, स्त्रीगृहादिक सेवनने विषे प्रसक्त, अपध्यानशील, परगुणमत्सरी, ३ त्यादि गुण युक्त ते संक्लिष्ट चित्तसंसक्तो जाणवो. तथा पोताना आत्माने जेवारे जेवो प्रसंग मले ते वारे तेवो थाय एटले प्रियधर्मी साधु मले ते वारे साधुना आचार पाले अने अप्रियधर्मी पा सबो मले तेवारे तेवो थाय लिंबना पाणीनी पेरे तप थर जाय ते असंक्लिष्ट चित्तसंसक्तो जाणवो. इति ॥ ___ पांचमो यथाबंदो ते यथा रुधिये प्रवर्ने, य था तथा लवे, नत्सूत्र नाषे, पोताना स्वार्थना उपदेश आपे, स्वमति विकल्पित करे, परजाति ने विषे प्रवर्ते, पारकी तांत करे, नपकारी धर्मा चार्यादिकनी हेलना करे, आचार्य नपाध्यायना अवर्णवाद बोले. जेनाथी ज्ञानादिक पामे तवा बहुश्रुतनी निंदा करे. गारव प्रतिबंधि होय. कारण विना विगय खाय, इत्यादिक अनेक भेदे यथाबंदो जाणवो. ए पांचेनां विशेष लक्षण श्रीप्रवचनसारोक्षरवृत्ति तथा आवश्यकवृत्ति
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१३५ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. तथा नपदेशमालावृत्ति प्रमुख ग्रंथोथी जाणवा. ए पांचने अवंदनीय जाणवा. एमने वांदवाथी कर्मनिर्जरा न श्राय, केवल क्लेश अने कर्मबंध नपजे तथापि ए कहेला लक्षणवालो जो ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना सहाय कारणे सेव्यो होय तो वंदनीय जाणवो. जे माटे श्रीआगममांहे का के पासबादिक चारित्रना असंनवी होय पण दर्शनना असंन्नवी न होय ते कारणे ते सेव्य जाणवो पण इहां तो चारीत्रीयो वंदनीय कह्यो ले ते अधिकार माटे चारित्रवंत ते बंद्य ने अन्यथा जो अचारित्रीयाने वंद्य कहीये तो जे टला तेना प्रमादनां स्थानक ते सर्व अनुमोद नीय श्राय तेथी तेने वांदतो थको प्रवचन बाधा कारी थाय. ए रीते वांदणां देवाने पासबादिक पांच अयोग्य तेमनुं त्रीजु चार कॉ. नत्तर बोल पन्नर श्रया ॥१॥ हवे पांच बांदवाने योग्य तेमनुं चोथु क्षार कहे डे.
आयरिश्र नवनाए, पवत्ति थेरे तहेव
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १३३ रायणिए ॥ किश् कम्मनिऊरठा, कायव मिमेसि पंचन्हें ॥ १३ ॥ दारं ॥४॥ -- अर्थः-पहेला ज्ञानादिक पांच आचारे करी युक्त ते (आयरिय के०) श्रीआचार्य कहीये, वीं जा (नवनाए के) श्रीनपाध्यायजी, जीजा जे तप संयमने विषे प्रवावे, गबनी चिंता करे ते (पवत्ति के०) प्रवर्तक कहीये, चोथा जे चारि वथी पमता होय तेने प्रतिबोध आपीने पाग ठेकाणे आणे तेने (थेरे के ) थिविर कहीये (तहेव के) तथैव एटले तेमज वली पांचमा गबने अर्थ क्षेत्र जोवा माटे विहार करे. सूत्र अ र्थना जाण तेने ( रायणिए के) रत्नाधिक गणा धिप कहीये, (इमेसिपंचन्हं के) ए कह्या जे
आचार्यादिक पांच जण तेने ( किश्कम्म के ) कृतिकर्म एटले वादणानुं कर्म (काय के) क रखं एटले वांदणां देवां ते केवल (निकरडा के) कर्मनिऊराने अर्थे जाणवू ॥ १३ ॥ ए आ चार्यादिक पांचनु कांक विशेष स्वरूप नीचे लखीये चैये.
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१३४ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित.
आचार्य ते सूत्र अने अर्थ उन्नयना वेत्ता, प्र शस्त समस्त लक्षणे लक्षित, प्रतिरूपादि गुण युक्त शरीर होय, जाति कुल गांनीर्य धैर्यादि अ नेक गुणमणियुक्त, आठ प्रकारनी गणिसंपदायें करी युक्त, पंचाचार पालक, पलाववाने समर्थ. उत्रीश बत्रीशी गुणें करी बिराजमान, आर्य पु रुषे सेववा योग्य, गबमूलस्तंननूत गडचिंतार हित अर्थनाषी, एटले जेमां गडचिंता न नपजे एवा अर्थ नाषे एवा गुणयुक्त ते आचार्य जाणवा. ___ तथा नपाध्याय ते जेनी पासें अगीयार अंग, बार नपांग, चरणसित्तिरी, करणसित्तिरी जणीयें, आचार्यने युवराज समान, ज्ञान, दर्शन अने चा रित्ररूप रत्नत्रयी युक्त, सूत्र अर्थना जाण, आ चार्यने हितचिंतक, ते नपाध्याय.
तथा प्रवर्तक ते यथोचित प्रशस्त योग जे तप संयम तेने विष साधुसमुदायने प्रवावे, गबने योगक्षेम करवानी योग्यतानी संजालना करनार जाणवा.
तथा थिविर ते ज्ञानादिकगुणोने विषे सी
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १३५ दाता साधुने इहलोक तथा परलोकना अपाय ह ष्टांत देखामी संयममार्गमां स्थिर करे, ते स्थविर त्रण प्रकारें , एक शावर्षना ते वयःस्थविर, बीजा वीश वरसदीक्षा पर्याय जेने थया होय ते पर्यायस्थविर, त्रीजा जे निशीथादिक छेदग्रंथना रहस्य जाणे, जघन्यथी समवायांगादिश्रुत जाणे, ते श्रुत स्थविर पण इहांतो जेने प्राचार्यादिके स्थविर कीधा होय ते स्थविर जाणवा.
तथा रत्नाधिक ते गबने कार्य शिष्य उपधि प्रमुख लालने अर्थे विहारक रणशील सूत्रार्थ वेत्ती एनुं गणावबेदक एवं पण नाम कहीये एवा गुणवंत ते पर्यायें ज्येष्ठ अथवा लघु होय तो पण तेने रत्नाधिक कहीये. एटले पांच वंदनिकनुं चो धुं चार थयु. नत्तर बोल वीश श्रया ॥ हवे चार जण पासे वांदणां न देवरावां तेनुं पांचमुं हार तथा चार जण पासे प्रायः वांदणां देवरा ववां, तेनुं हार, ए वे हार साये कहे . माय पित्र जिठ नाया, अनमावि
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११६ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. तहेव सब रायणिए ॥ किश्कम्म न का रिझा, चनसमणाई कुणं ति पुणो ॥१४॥ दारं ॥५॥६॥ __ अर्थः-एक (माय के पोतानी माता, बीजो (पिअ के०) पोतानो पिता, त्रीजो (जिन्नाया के ) पोतानो ज्येष्ठ नाइ एटले मोहोटो नाइ, चोथो (अनमावि के) वयादिके लघु होय ए टले वय प्रमुखें तो यद्यपि पोताथी न्हानो होय तो पण (तदेव के)तेमज एत्रणेनी परें ते ( सवरायणिए के) सर्व रत्नाधिक एटले. स घला पर्यायें करी ज्येष्ट होय ज्ञान, दर्शन अने चारित्रं करी अधिक होय ए चारनी पासें प्रायः (किइकम्म के) वांदणां देवराववानुं (न का रिजा के०) न करावे. ए विधि साधुने जाणवो, अने गृहस्थ पासे तो वंदन देवरावे. ए पांचमुं हार थयु. उत्तर बोल चोवीश श्रया ॥
तथा ( चनसमणाई के०) चार श्रमणादिक एटले साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविका ए
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १३७ चार जण ते कृतिकर्मने (पुणो के) वली (कुणं ति के ) करे एटले ए चार जन वांदणां आपे. ए बहुं वांदणां देवा योग्य चार जण तेनुं हार श्रयु. नत्तर बोल अठावीश श्रया ॥ १५ ॥ हवे पांच स्थानकें वांदणां न देवां, तेनुं
सातमुंहार कहे . विरिकत्त पराहुत्ते, पमत्ते मा कयाइ वं दिका ॥आहारं नीहारं, कुणमाणे कान कामे अ॥ १५ ॥ दारं ॥ ७॥
अर्थः-एक ( विरिकत्त के) विक्षिप्त गुरुथके एटले जेवारें धर्मकथा करवामां व्यग्रचित्त होय, बीजो कार्यादिकें करीने (पराहुत्ते के) पराङ् मुख होय एटले संमुख बेग न होय पण नप रांठा बेग होय, त्रीजुं (पमने के०) प्रमादी श्र का होय एटले क्रोधादिकें अथवा संथारवादिकें प्रमाद सेवता होय, निशलु श्रका होय, चोथु (श्राहारं के) आहार पांचमु (नोहारं के) नीहार एटले लघुनीति अथवा वमीनीति प्रत्ये
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१३० गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. (कुणमाणे के) करता होय, अथवा (कान के) करवानी (कामे के०) कामना एटले वां बना करता होय (अ के) वली करवा जता होय एटले स्थानके ( कयाइ के) केवारे पण गुरुने (मा वंदिता के०) वांदवा नही. आहीं माशब्द निषेधवाचक २ ॥ १५ ॥ ए सातमुंहार थयुं. उ तर बोल तेत्रीश श्रया ॥३३॥ हवे चार स्थानके वांदणां देवां, तेनुं
आग्मुं हार कहे . पसंते आसण अ, नवसंते नवति ए॥ अणुनवि तु मेहावी, किइकम्म पन ऊई ॥१६॥ दारं ॥ ७॥ ___ अर्थः-एक (पसंते के ) प्रशांतचित्त व्या देपरहित गुरु होय, बीजुं (आसणजे के) श्रा सनस्थ एटले पोताने आसने बेग होय, (अ के०) वली त्रीजुं (नवसंते के) नपशांतचित्त एटले क्रोधादिके रहित होय, चोथु (नवहिए के ) नप स्थित होय एटले बंदेश इत्यादिक कहेवाने संमुख
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १३ए नजमाल थया होय, एवा गुरु आदिकने वांदणां देवानी (अणुनवि के) अनुज्ञा मागीने (तु के ) वली वांदणां देवाना विधिना जाण एवा (मेहावी के०) मेधावी एटले पंमितजनो ते (किश्कम्मं के) कृतिकर्म एटले वांदणां देवा प्रत्ये (पनऊ के०) प्रयुंजे एटले नद्यम करे ॥ १६ ॥ ए आठमुंहार थयु. नत्तर बोल साम त्रीश श्रया ॥ हबे आठ कारणे वांदणां देवां, तेनुं नवमुं
हार कहे . पमिकम्मणे सजाए, कानस्सग्गे वरा ह पाहुणए ॥ आलोयणसंवरणे, उत्तम हे य वंदणयं ॥ १७ ॥ दारं ॥ ५ ॥ __ अर्थः-एक (पमिकमणे के) पतिक्रमणने विषे सामान्य प्रकारे वांदणां देवाय, बीजा (स साए के) स्वाध्यायवाचनादि लक्षण तथा स
आय पढाववाने विष विधिवांदणां देवाय, त्रीजा (कानस्सग्गे के०) पच्चरकाण करवाना कायोत्स
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गुरुवंदन जाप्य श्रर्थसहित.
र्गने विषै एटले आचाम्लादि योगादि पारले प रिमितविगय विसमणी विगयपरिनोगनी श्र झा रूपें वांदणां देवाय, चोथा ( श्रवराह के०) श्र पराध एटले गुरुनो विनय नलंघवा रूप पोतानो अपराध खमावतां वांदणां देवाय, पांचमा ( पा हुए के० ) प्राहुणो महोटो यति यावे तेवारें तेमने वांदणां देवाय एटले मदोटाना समागमने वांदणां देवाय बठ्ठा गुरुनी पासें ( आलोयण के० ) आलोचना लेवाने अर्थे एटले प्रलोचना विहारादि समाचारी पद जिन्न हुंते थके वांदणां देवाय, सातमा पच्चरकाण करतां अथवा मालख मणादिक विशेष तपरूप ( संवरले के० ) संवर ने विषे वांदणां देवाय आठमा उत्तम के० ) न तमार्थे एटले अंतसमये अनशन करवाने विषे संलेषणाने विषे ( य के ) वली वांदणां देवाय, अथवा वांदबुं थाय. ए व कारणे ( वंदाय के) वांदणां देवाय, तेनुं नवसुं द्वार ययुं. नत्तर बोल पिस्तालीश श्रया ॥ १७ ॥
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १५१ हवे अवश्य साचववा माटे आवश्यक कहीयें, ते वांदणां देतां पच्चीश आवश्यक सच
वाय, तेनुं दशमुंहार कहे . दोवणय महाजाय, आवत्ता बार चन सिरतिगुत्तं ॥ उपवेसिग निकमणं, पण वीसावसय किइकम्मे ॥ १७॥ __ अर्थः-( दोवणयं के ) बे अवनत वांदणाने विषे जाणवां एटले बे वार नपरितन शरीर नाग नमामवो तिहां एक तो जेवारें " इछामि खमा समगो वंदिलं जावणिकाए निसाहिआए" एम कहीने नमे तेबारें देनी अणुजाणह एटले आज्ञा मागतो शरीरनो नपरितन नाग नमामे त्यारे गुरु देण कहे. ए एक अवनत प्रयुं, एम वीजीवार वांदणां देतां बीजं अवनत थाय. ए बे अवनत रूप बे आवश्यक श्रयां.
तथा (अहाजाय के) एक यथाजात एटले जे रूपें दीक्षानो जन्म श्रयो हतो अर्थात् रजोहर प, मुहपत्ति चोलपट्टमात्रपणे श्रमण थयो हतो
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१४२ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. तेटलाज नेला थई दान जोमे अथवा योनिथी बालक निकलते जेम रचितकर संपुट होय तेम करसंपुट कस्या हाथ जोमेलाने ललाटे लगाते यथाजात कहीय एम बे अवनत अने त्रीजु यथा जात मलीत्रण आवश्यक श्रयां.
हबे शरीरना व्यापार रूप (बार के) बार (आवत्ता के०) आवर्त सूत्रानिधान गर्जित का यव्यापार विशेष जाणवां. तेमां प्रथम वांदणे उ आवर्त थाय, ते आवी रीतेः-प्रथम त्रण पावर्त तो "अहो” “कायं ” "काय” ए बेबे अ करें नीपजे एटले पोताना हाथनां तलां बे नंधा' गुरु चरणे लगामे तथा नत्तान हाथे पोतानो ल लाटदेश फरसे अने “१ अहो । कायं ३ काय संफासं" कहेतो मस्तक नमामे तेवार पनी "खमणिकोथी मामीने वश्कतो" पर्यंत यावत् कर संपुटे कहीने वलीत्रण आवर्ज त्रण त्रण अक्षरना कहे तेमां एक अदर गुरुचरणे हाथ लगामतां कहे, बीजो अकर उत्तान हाथे वचाले विशामा रूप कहे अने त्रीजो अकर ललाटदेशे
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गुरुवंदन जाय अर्थसहित.
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दाथ लगातां कड़े, जेम " जत्ता ने वसि " " ऊं च ने " एवा त्रण प्रावर्त्तं त्रण त्रण करना कहेतो खामेमि खमासमलो कही बीजी वार मस्तक नमामे. ए रीतें ए प्रथम वां द वर्त्तयां तेम वली बीजे वांदले पण एज रीते व आवर्त्त थाय, बे वार मली बार श्र वर्च रूप बार आवश्यक थाय. सर्व मली पंदर थयां. तथा (चन सिर के ) चतुः शिरः एटले चार वार शिर नमामधुं तिदी पहेले वांदणे बे वार मस्तक नमाम ने बीजे वांदले पण बे वार म स्तक नमामवुं मली चार वार शिर नमन थाय. एवं नगलीश आवश्यक थयां.
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ज
तथा ( तिगुत्तं के० ) त्रण गुप्ति ते मन, व चन ने काया एत्रणने अन्यव्यापारथी गोपवी राखे ए ने व्यथी तथा नावथी प्रयत्नायें न प्रवर्त्तावे, एवं बावीश आवश्यक थयां.
तथा (पवेस के ) प्रवेश एटले बे वार श्रावश्यकें वे वार गुरुनी श्राज्ञा मागी अवग्रह मां प्रवेश करवा रूप बे आवश्यक अने ( इग
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गुरुवंदन जाप्य श्रर्थसहित.
निस्कमणं के० ) एक बार अवग्रहथी बाहेर नि कले एटले पहेले वांदणे आज्ञा मागी निसी हि कतो पग पुंजतो थको एकवार श्रवग्रह मांदे प्रवेश करे ने पी ग्रावस्सियाए कहेतो पाबल पूंजतो एकवार पहेले वांदणे अवग्रहथी बाहेर निकले, ने बीजा वांदणामां प्रवेश करे पण फ री पावो बाहेर निकले नही माटे बे वार पेसवुं ने एकवार निकलवु मली त्रण आवश्यक थयां ते पूर्वोक्त बावीश साधें मेलवतां ( पणवीसा के० ) पच्चीश ( श्रावसय के० ) आवश्यक ते ( किश्कम्मे के० ) कृतिकर्म एटले वांदणांने विषे थाय ॥ १८ ॥
किइ कम्मंपि कुणंतो, न होइ कि इकम्म निकरा जागी ॥ पणवी सामन्नय रं, साहु ठाणं विराहंतो ॥१॥ दारं ॥ १० ॥
अर्थः- हवे ए ( पणवीसां के० ) पच्चीश श्र वश्यक जे बे, तेमां (अन्नयरं के० ) अनेरुं एक पण ( द्वा के) स्थानक प्रत्यें ( विराहंतों के०)
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गुरुवंदन जाष्य अर्थसहित.
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बिराघतो एदो जे (साहु के० ) साधु तेमज साध वी श्रावक, श्राविका होय, ते (किश्कम्मं पिकु तो के० ) कृतिकर्म करतो बतो पण एटले वांदri देतो तो पण ( किइकम्म के० ) कृति कर्म थकी जे कर्मपरिशाटनरूप ( निरा के० ) निरा थाय तेनो ( जागी के० ) संविभागी (न होइ के० ) न था एटले ते वांदलांनुं जे निर्जरा रूप फल, ते न पामे ॥ १७ ॥ ए दशमं द्वार थयुं उत्तर बोल सित्तेर थया ॥
यंत्र स्थापना.
अवनैत यथाजात आवर्त्त. शिरो गुप्ति प्रवेश. निकल. नमधुं मुद्रा.
नमन.
२
१. १२
४
२
दवे मुहपत्तिनी पच्चीश पहिलेदणानुं प्रगीयारमुं द्वार कहे बे.
दिधि परिलेह एगा, व नढपप्फोम तिगति अंतरिया ॥ प्रस्कोम पमऊण या, नवनव मुहपत्ति पणवीसा ॥ ५० ॥
ܘܕ
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१४६ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ____ अर्थः-प्रथम मुहपत्तिने पहेले पासे सूत्र अने बीजे पासें अर्थ तेनुं तत्त्व, सम्यक् प्रकारे हृदयने विषे धरु एमचिंतवीने मुहपत्ति नखेली तेना बेहु पासां सर्वत्र दृष्टियें करी जोवां ते (दि हिपमिलेह के) दृष्टि पमिलेहणा (एगा के) एक जागवी. तेवार पगी (के) (नड़प प्फोम के) नंचा पखोमा करवा एटले मुहप तिने फेरवी बे हाथें साहीने एकेका हाथें नचा ववा रूप त्रण त्रण नंचा पखोमा करवा तिहां माबे हाथे करतां सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमो हनीय अने मिथ्यात्वमोहनीय एत्ररा मोहनीय परिहरु एम चिंतवीय तथा जमणे हाथे करतां कामराग, स्नेहसंग अने दृष्टिराग, ए त्रण राग परिहलं. एम चिंतवीये एउ खंखेरवा रूप प मिलेहणा थर तेनी साथे प्रथमनी एक दृष्टि पमिलेहणा मेलवीये तेवारे सात श्राय.
तेवार परी (तिग के० ) त्रण (अस्कोम के) अकोमा अने (ति के ) त्रय (पमऊ गया के ) प्रमाऊना एटले पूंजq ते अनुक्रमे
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १५७ एक बीजा केमे त्रसवार (अंतरिआ के ) एके कने अंतरे करवा एटले मुहपत्तिये एक पम वा लो मुहपत्तिना त्रण वधूटक करी जमणा हाथ नी अंगुलीना आंतरानी वचमां नरावीने त्रण अस्कोमा पसली नरीये त्रणवार मुहपत्ति उंची राखी मावा हायना तलाने अण लागते खंखेरी ये पण हाथने तले लगामीये नहीं पीत्रण प्र माऊना पशलीमांहेथी घसी काहामोये एम ए केकने आंतरे त्रण वार त्रण त्रण अस्कोमा कर वा अने त्रण वार त्रण प्रमाऊना करवी. एवी शीते त्रग वार करतां (नव के० ) नव अखोमा खंखेरवा रूप धाय. अने (नव के०) नव परको मा प्रमार्जना एटले पूजवा रूप धाय मली अ ढार पमिलेहता थाय तेनी सारे पूर्वोक्त सात मेलवीये, तेवारे सर्व मली (मुहपत्ति के ) मु हपत्तिनो पमिलेहणा (पणवीसा के०) पनीश थाय ॥ २० ॥ हवे अढार पमिलेहणा करतां ए केका त्रिके शुं शुं मनमां चिंतविये ? ते कहे .
पहेला त्रण अकोमामां सुदेव, तुगुरु अने
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१५७ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. सुधर्म, ए त्रण तत्त्व प्रादरूं, परी त्रण प्रमार्ज नामां कुदेव, कुगुरु अने कुधर्म, ए त्रण परिहरु, बीजात्रण अकोमामां ज्ञान, दर्शन अने चारित्र, एत्रण आदरं, पठी त्रण प्रमाऊनामां ज्ञानवि राधना, दर्शनविराधना अने चारित्रविराधना, ए त्रण परिहरूं, त्रीजा त्रण अकोमामा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति ए त्रण गुप्ति आदरं, पत्रण प्रमार्जनामां मनोदंग, वचनदंग अने कायदंझ, ए त्रण दंग परिहरूं, एवी रीते मनमा चितव, ए क्रिया करवानी मुहपत्ति एक वेत ने चार अंगुल आत्म प्रमाणनी जोइयें अने रजो हरण तथा चरवलो बत्री अंगुलनो जोश्ये ते मां चोवीश अंगुलनी दांमी अने आठ अंगुलनी दशी जोयें अथवा न्यूनाधिक करी होय तो पण सरवाले बत्रीश अंगुल जोश्य, ए पञ्चीश पमिलेरणा स्त्री पुरुष बेहुयें करवी, ए अमीयारमुं घार थयु, अने उत्तर बोल पञ्चागुं थया ।
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १५ हवे शरीरनी पञ्चीश पहिलेदणानुं बारमुं हर
कहे . पयाहिणेण तिमतिअवामेअर बाहु सीस मुह हियए॥ अंसुमाहो पिठे, चन उप्पय देह पणवीसा ॥१॥
अर्थः-(पयादिरोण के०) प्रदक्षिणायें एटले प्रदक्षिणावर्ते करी एक (वाम के० ) माबे (बाहु के०) बाहुयें अने वीजुं (इअर के) इतर ते जमणे बाहुयें तथा त्रीजु (सीस के०) मस्तके, चोथु (मुह के०) मुखे अने पांचU (हियए के.) हीयाने विषे ए पांच गमे (सितित्र के) त्रण त्रण वार पमिलेहणा करवी एटले मुहपत्तिने वधूटकनी परे प्रहण करने वामनु जादिक पांच स्थानके फेरववी तेवारे पन्नर पहिलेहण थाय, अने (अंसुमाहो के०) अं सुम एटले बे खंनानी उपर अने ते बे खं जानी अहो एटले नीचे काखमां (पिके) पिठ एटले वांसानी बाजुयें (चन के०) चार पहिलेहण करवी एटले बे खंना उपर अने वे
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१५० गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. काखने विषे. एमज (उप्पय के) उ पमिलेहण बे पगनी नपर करवी तेमांत्रण वाम पगे अने त्रण दक्षिण पगे करतांउ थाय, एवी रीतें सर्व मली (देह के) शरीरनी पमिलेहणा (पणवी सा के०) पच्चीश थाय ॥१॥
इहां यद्यपि श्रीआवश्यकवृत्ति तथा प्रवचन सारोक्षारादिकें पमिलेहणानो विशेष विचार कह्यो नथी तो पण इहां परंपराथी संप्रदाय समाचा रोयें स्त्रीशरीर वस्त्रे आवृत होय माटें एनेश रीरनो पमिलेहणा पच्चीशमांथीत्रण मस्तकनी, त्रण हृदयनी अने बे पासाना खंनानी चार,एवं दश पमिलेहणा न होय शेष पनर होय तथा वली साध्वीने तो नघामे माथे क्रिया करवानो व्यवहार ने माटें तेने मस्तकनीत्रण पमिलेहणा होय शेष सात न होय बाकी अढार पमिले हणा होय.
ए पमिलेहणा जे, ते यद्यपि जीवरकानी कारणनत नव्य जीवनं ने एम तीर्थंकरनी आ ज्ञा तो पण मनरूप मांकमाने नियंत्रबा सारु
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १५१ बोल धारीये ते यद्यपि आवश्यकवृत्ति तथा प्रत्र चनसारोक्षारादि ग्रंथे का नथी तोपण अल्पम तिने मन स्थिर राखवा माटें “सुत्त तत्तदिह" इत्यादि पांच गाथार्नु कुलक का बे, ते इहां वां दणामां अधिकार नथी तोपण ते पांच गायानो अर्थ लखीये 3यें. , . - जमणा फेरश्री मुहपत्तिने वधूटकनी पेरें ग्र हण करीने पमिलेहण करीये ते कहे . माबा हाथनी नुजायें त्रण वार पुंजिये त्यां हास्य, र ति अने अरति, ए त्रण परिहलं. एम चिंतवीये. जमणा हाथन नुजायें त्रण वार पुंजीये त्यां जय, शोक अने गंडा, एत्रण परिहरू, एम चिंतवीये. मस्तक त्रण वार पुंजीयें तेमां कृष्ण, नील अने कापोत ए त्रण माठी लेश्या गंमें, एम चिंतवियें. मुखनी त्रण पमिलेहण करीयें त्यां शहिगारव, रसगारव अने शातागारव, ए त्रण परिहरु, एम चिंतवीये. हृदयनी त्रण पनि लेहणा करीये त्यां मायाशल्य, नियाणाशल्य अने मिथ्यात्वशल्य ए त्रण शल्य बांहुं, एम चिंतवी
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१५२ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ये. मावा खंना अने जमणा खंनानी नीचे तु पर बे पासानी पडिलेहणा चार करीये त्यां को घ, मान, माया अने लोन ए चार कषायने गं एम चीतवीये. माबे जमणे पगे अनुक्रमे त्रण पमिलेहणा करीये, तिहां अनुक्रमे पृथ्वोकाय, अपकाय, तेनकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय अने त्रसकाय, एक काय जीवोनी रक्षा करूं, एम चीतवीये ॥
तथा वली पहिलेहणना अधिकार माटे वस्त्र, पात्र, पाट, बाजोठ, पायावाला पाटला, पाटली, स्थापनाना मबा, ढांकणां, अनेनाजन प्रमुखनी पच्चीश पमिलेहण तथा कणदोरा, मामा अने कांमीनी दश पमिलेहण तथा थापनानी तेर, पा यानी तेर इत्यादिक सर्व परंपरागते जागवी॥
आवस्सएसु जह जह, कुण पयत्तं अहीण मरित्तं ॥ तिविह करणोवनत्तो, तह तह से निऊरा होई ॥२॥
अर्थः-ए (आवस्सएसु के० ) आवश्यकने
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गुरुवंदन जाप्य श्रर्थसहितं.
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विषे तथा मुहपत्ति अने शरीरनी परिसेदलाने विषे ( जदजद के० ) जेम जेम उजमाल चिन थको ( पयत्तं के० ) प्रयत्न एटले उद्यमप्रत्यें (अ ही के० ) हीन नदि परंतु जेम को वे तेमज करे, पण तेथकी नो करे नही तेमज (अइरित्तं ho) अतिरिक्त ते तेथकी जूदो एटले जेम हीन न करे, तेम अधिक पस न करे एवी रीते जली बुद्धिये सहित थको (तिविहकरण के० ) त्रिविध करण ते मन, वचन अने काया, ए त्रण करणे करी ( नवनत्तो के० ) उपयुक्त थको एटले शुरू उपयोगी थयो को एकाग्रचित्त बतो (कुराइ के०) करे ( तहत के० ) तेम तेम ( से के० ) ते न यम करनार पुरुषने ( निरादोई के० ) विशेषे कर्मोनी निर्जरा थाय श्रने जो प्रविधिये प्रतिले खनादिक करे तो ते बकायनो विराधक कह्यो बे एटले पहिलेहलानुं बारमुं द्वार थयुं. उत्तर बोल एकशो वीश थया ॥ २२ ॥
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{Ամ
गुरुवंदन जाप्य अर्थसहित.
हवे चार गाथाये करी बत्रीश दोष त्यागवानुं तेरमुं द्वार कहे .
दोसा प्रियहि, पविध प रिपिंमिमं च ढोलगई | अंकुस कन्चन रिंगि, मनुवत्तं माप ॥ २३ ॥ वेश्य बद्ध जयंतं, जय गारव मित्त कारणा तिनं || पडिणीय रु० तमि, सह हिलिम विपलिय चित्रप्रयं ॥ २४ ॥ दिवम दिवं सिं गं, कर तम्मण अघिणा लिधं ॥ कणं उत्तर चूलिप, मूत्र्यं ढहर चुमलि च ॥ २५ ॥ बत्तीस दास परिसुधं, किइ कम्मं जो पनंजई गुरूणं ॥ सो पावइ नि वाणं, प्रचिरेण विमाणवासं वा ॥ २६ ॥ ॥ दारं ॥ १३ ॥
अर्थः- जे अनादार पणे संघांत थको वांदे, ते पहेलो ( अलामिय के० ) अनाहत ( दोस के० ) दोष तथा जे जात्यादिके करी धीगे थ
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १५५ को स्तब्धपणुं राखतो वांदे, अथवा च्य नावा दिक चननंगीये करी स्तब्ध थको वांदे ते बोजो (थदिन के) स्तब्ध दोष. तथा जे वांदणांपा पतो नामुतनी परे तुरत नासे, अथवा वांदणां देतो अरहो परदो फरे ते त्रीजो (अपविके) अपविक दोष, तथा जे घणा साध प्रत्ये एकज वांदणे वांदे अथवा आवर्त्त, व्यंजन, अने आलाप ए सर्व एका करे, ते चोयो (परिपिमियं के) परिपिंमित दोष. (च के) वली जे तीमनी पेरे नबलतो एटले नपमी नपमा विसंष्टुल वांदे, ते पांचमो ( ढोलगई के) ढोलगति दोष. तथा जे अंकुशनी पेरे रजोहरणने बे हाथे ग्रहीने वांदे ते हो ( अंकुस के) अंकुश दोष. तथा जे कारबानीपेरे रिंगतो रिंगतो वांदे, ते सातमो (कबनरिंगिय के) कवनरिंगित दोष. तथा जे नन्नो थवेसीने जलमांदेला माग्लानी परे एकने वांदोने नतावलो उपी फरी बीजाने वांदे, अथवा पाठ प्रबन्न करे अथवा रेचकावत अनुलो म प्रतिलोम वांदे, ते आठमो (मधुबत्तं के)
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गुरुवंदन जाप्य अर्थसदित.
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मत्स्योदर्त दोष तथा कोइ साधु पोताथी एकादे गुणें दोन दोय ते दोषने मनमां चिंतवतो ईर्ष्या सहित थको वांदे, ते नवमो ( मलपठ्ठे के० ) मनःप्रष्ट दोष जाणवो ॥ २३ ॥
तथा जे बे ढींचरानी उपर तथा देवे हाथ राखीने अथवा बे दाय विचाले बे ढींचा राखी ने अथवा बे दाथनी वचमां एक ढींचल राखीने अथवा खोले हाथ मूकीने वांदे, ते दशमो ( वेश्य as ho ) वेदिकाबद्ध दोष जाणवो. तथा ए कां इक अमने जजशे एटले विद्यामंत्रादिक शीख वशे इत्यादिक लालचनी बुद्धिये वांदे, अथवान दी वांदीश तो रीश करशे एवं जालीने वांदे, ते भगीयारमो ( जयंतं के० ) नजंत दोष जाणवो. तथा एमने नदी वांदोश तो मुजने गछादिकषी बाहिर काढी मूको, अथवा शापादिक आक्रोश करो, इत्यादिक जयें करी वांदे, ते बारमा (न य के० ) जयदोष जाणवो. तथा जो हुं नली ते वांदीश तो सर्व एम जालशे जे ए सामाचा मां कुशल बे, माह्यो बे, विधिप्रवीण बे, एवी
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गुरुचंदन नाष्य अर्थसहित. १५७ रोते जाणपणाना गारवे करी वांदे, ते तेरमो (गा रव के) गारव दोष जाणवो. तथा एमनी सा थे महारे पूर्व मित्राइ , एवं जाणी मित्रादिक नी अनुवृत्तिये वांदे, ते चौदमो (मित्न के० ) मित्रदोष जाणवो. तया जे ज्ञानदर्शनादिक का रण विना बीजा अन्य कारण जे वस्त्रादिक पदा दिक मुऊने देशे, एम नद्देशीने जे वांदे, ते पन्न रमो (कारणा के० ) कारण दोष जाणवो. तथा जे चोरनी पेरे गनो रह्यो थको वांदे एटले पर श्री पोताना प्रात्माने गनो राखे, रखे को मु ऊने उलखी लेशे तो माहारी लघुता थशे. एवी रोते पोताने पावतो वांदे, ते शोलमो (तिनं के०) स्तैन्यदोष जाणवो. तथा आहारादिकनी वेलाये प्रत्यनीकपणे अनवसरे वांदे, ते सत्तरमो (पमिणीय के०) प्रत्यनीक दोष जाणको. तथा क्रोधे धमधम्यो थको वंदना करे, अथवा क्रोधां तप्रत्ये वांदे, ते अढारमो (रुठ के० ) रुष्टदोष जाणवो. तथा जे घणोये वार बांद्या, तो पण प्रसन्न थता नश्री तेम कोपमां पण अता नश्री
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१५७ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. काष्ठनी पेरे देखाय , एम तर्जना करतो वांदे, अथवा तर्जनी अंगुलियादिके तर्जना देतो थको वांदे, एटले कहे के एने रूषेयी शुं? अने तुठेथी पण शुं ? एम तर्जतो थको वांदे, ते नगणीश मो (तक्रिय के) तर्हित दोष जाणवो. तथा जे मायादिक कपटें करी वांदे, अथवा ग्लानादि क व्यपदेश करी सम्यक प्रकारे न वांदे, ते वी शमो (सह के ) शठ दोष जाणवो. तथा हे गणि! हे वाचक! तमने वांदवायो शुं फल थाय? एवी रीते जात्यादिकनी हेलना करतो "श्रको वांदे, ते एकवीशमो (हिलिय के ) हिबित दोष जाणवो. तथा अहाँ वांदगां देने वचमां वली देशकथादिक विकथान करतो करतो अनि याने वांदे, ते बावीशमो ( विपलियचिअयं के) विपलितचित्तकं एटले विपलितचित्त दोष जागवा ॥ २४॥
जे मुंगो रही गनो मानो बेसे तेने कोइ बीजो जागी जाय जे आ गनो बेसी रह्यो तो वांदे तथा कोई अपरनुं वचमां अंतर बते न
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १५, वांदे, एम दीई अगदी करे, एटले कोइये दी कुं, कोश्ये न दो एम लाजतो थको अंधारामां वांदणां आये, ते त्रेवोशमो ( दिठमदि के०) दृष्टादृष्ट दोष जाणवो. तथा जे पोताना मस्तक ने एक देशे करी एटले मस्तकनु एक पासुं गुरुने पगे लगामे तथा मुशहीन पणे धर्मोपकरणादिक विपरीत पणे राखतो तो वांदे, ते चोवीशमो (सिंग के ) शंग दोष जाणवो. तया जे राजा दिकना कर वेपनी परे जाणीने वांदे, पण कर्म निर्धाराने अर्थे वांदे नही, ते पञ्चीशमो (कर के ) करदोष जाणवो, तथा जे गुरुने वांदणां दीधां विना बुटको नी, केवारे एथी वुटशुं ? एम चिंतवतो वांदे, ते उबीशमो (तम्मोपण के०) तन्मोचन दोष जावो. तथा सत्तावीशमा आ श्लिष्टाना लिष्टदोषनी चननंगी थाय ते आवी रीते के, हाथे करी रजोहरण अने मस्तक फर से ए प्रथम नांगो ते शुः६ जागवो, तथा रजोह रणने हाय लगामे पण मस्तके हाथ न लगामे, ए बीजो नांगो, तथा मस्तके हाथ लगामे पण
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१६० गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. रजोहरणे हाथ न लगामे ते त्रीजो नांगो, तथा रजोहरण अने मस्तक बेहुने हाय फरसे नही एटले लगामे नहीं, आश्लेो नही, ते चोथो नंग जाणवो. ए चार नांगामा प्रथम नांगो शुक्ष अने पाउला त्रण नांगा अशुइ दोषावतार जा
वा. ए त्रण नांगे कर वंदन करे ते सत्तावीश मो (अणिमालिके०) आश्लिटानालिट दोष जाणवो. तथा जे आवश्यकादिकें पाठ आलावा असंपूर्ण कहेतोयको वांदे, ते अावीशमो (क ए के) ऊस दोष जाणवो. तथा जे वांदणे वां दोने पो महाटे शब्दे करी 'मबएग वंदामि' एम कहे, ते गणत्रीशमो (नत्तरचलिम के०) उत्तरचूलिका दोष जाणवो. तथा जे पालाप श्रा वादिकने मूकनी परे अगउचरतो वांदे, ते त्र) शमो (मूअं के ) मूकदोष जाणवो. तथा जे पालावाने अत्यंत महोटे स्वरें नचार करतो वां दे, ते एकत्रीशमो (ढहर के०) ढहर दोष जाण वो. तथा जे अंबुसमानी पेरे रजोहरण हमे य हण करी रजोदरणने जमामतो थको वांदणां
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १६१ प्रापे, ते (च के०) वली बत्रीशमो (चुमलियं के०) चुमलिक दोष नारायो ॥ २५ ॥ ____ ए पूर्वोक्त (बत्तीसदोस के) बत्रीश दोष तेणे करीने रहित थको (परिसुई के ) परिशु ६ निर्दोषपसे ( किश्कम्मं के) कृतिकर्म ज वांदणां तेने (गुरूणं के) गुरुना चरण प्रत्ये (जो के०) जे नव्य प्राणी (पज के०) प्र युंजे, एटले आपे ले (सो के०) ते प्राणी (अ चिरेण के०) श्रोमा कालमां (निवारणं के) नि र्वाण एटले कर्मरूपदावानलनो उपशम जे मोक्ष ते प्रत्ये (पावर के) पाये (वा के) अथवा (विमाणवासं के०) वैमानिक देवपणाना वास प्रत्ये पामे ॥ २६ ॥ एटले ए तेरमुं बत्रीश दोष नुं हार पूरू थयुं, उत्तर बोल १५२ श्रया ॥ हवे वांदणां देतां ड गुण नपजे, तेनुं
चौदमुं झार कहे . इह उच्च गुणा विणन, वयारमाणाइ जंग गुरुआ ॥ तिबयराणय आणा, सु
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१६२ गुरुवंदन जाय अर्थसहित. धम्माराहणा किरिया ॥२७॥ दारं॥१४॥ अर्थ :- ( इह के ) ए वांदणाने विषे (उच्च ho) बवली (गुणा के ) गुण उपजे ते कहे वे. तेमां एक तो ( विनवयारं के० ) विनयो पचार करवो ते गुण उपजे एटले जे विशेष कर सर्वकर्मनो नाश करे तेने विनय कहीयें. तेहिज उपचार एटले प्रराघवानो प्रकार जाणवो. बीजो ( माणाइजंग के० ) पोताना अभिमानादिकनो जंग थाय एटले पोताना माननुं गालबुं थाय. त्री जो ( गुरुप्रा के० ) गुरु जे पूज्यजन तेमनी पूजा सेवा जक्तिनुं साचवकुं थाय. चोथो सम्मस्त कल्याणं मूल रूप एवी ( तियरालय के० ) श्रीतीर्थंकर देवनी ( आला के० ) आज्ञा तेनुं आराधन याय एटले आज्ञानुं पालबुं श्राय केमके जगवंते विनय मूल धर्म को बे, तथा पांचमो ( सुययम्मारादणा के० ) श्रुतधर्मनी आराधना थाय, केमके श्रुतज्ञान जे गुरु पासेंथी जणवं ते पण वंदन पूर्वक जण कह्युं वे तथा बढो गुण तो परंपरायें एथी ( अकिरिया के० ) क्रियारूप
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गुरुवंदन जाप्य अर्थसहित.
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फल एटले सिद्धपणुं पामीयें एव गुण वांदणां देवाथी नपजे, तेनुं चौदमुं द्वार पूर्ण थयुं, उत्तर बोल १५८ यया ॥ २७ ॥
हवे त्रण गाथायें करी गुरुस्थापनानुं पन्नरमुं हार कहे बे.
तब
गुरुगुणजुत्तं तु गुरुं ठाविका प्रहव स्काई ॥ हवा नाणाइति, व वि सरकं गुरुप्रजावे ॥ २८ ॥ प्रस्के व रामए वा, कठे पुत्रे चित्तकम् ॥ सप्नावमसलावं, गुरुठवणा इत्तराव कहा ॥ २५ ॥ गुरुविरहंमी ठेवणा, गुरुवएसोव दं सचं च ॥ जि विरहंमी जिबिंब, से वणा मंतणं सहलं ॥३॥दारं ॥ १२८ ॥
अर्थ :- (गुरु के०) महोटा विशेष प्रतिरूपादि त्रीश ( गुणजुत्तं के० ) गुरों करी युक्त एवा (तु के० ) निश्वें (गुरुं के० ) गुरुने (गविका के०) स्थापन करीने तेनी आागल प्रतिक्रमणादि क्रिया
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१६४ गुरुवंदन जाय अर्थसहित.
करीयें (अदवा के० ) अथवा (सरकं के०) साक्षात् पूर्वोक्त गुरायुक्त एवा ( गुरु नावे के० ) गुरुनो प्रभाव बते ( तब के० ) तत्र एटले ते गुरुने स्था नर्के (रकाई के० ) अक्षादिक स्थापीने तेनी श्रागल क्रिया करीयें ते अक्षादिक स्थापनाचार्य न होय तो ( नाणाइतियं के० ) ज्ञानादिक त्रल एटले एक ज्ञान, बीजुं दर्शन, त्रीजुं चारित्र, ए
ना नपकरण जे पोथी नोकरवाली प्रमुख बे तेने (विक के० ) स्थापीने तेनी आगल क्रिया करीयें. परंतु गुरुने विषे गुरुबुद्धि प्राणीने तेनी आागल क्रिया करवी नहीं. केमकं श्रागममां प्रगु रुने विषे जे गुरुबुद्धि प्राणवी तेने अत्यंत आकरुं लोकोत्तर मिथ्यात्व कां रे ॥ २८ ॥
दवे प्रज्ञादिक जे क्या ते कहे बे. एक (अरके के० ) अक्ष ते चंदन प्रसिद्ध मालानी स्थापना जालवी, तेना जावे (वरामए के०) वराटके एटले त्रण लींटीना कोमानी स्थापना करवी, (वा के० ) श्रथवा (कठे के०) काष्ट मांगा मांगी प्रमुख चंदना दिकनी पाटी आदिकनी स्थापना करवी, (पुचे के०)
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गुरुवंदन जाष्य अर्थसहित.
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पुस्तकनी स्थापना करवी, ( के० ) वली तेना जावें ( चित्तकम्मे के० ) चित्रकर्म ते गुरुनी मूर्तिनां चित्राम श्रालेख, अथवा गुरुनी काष्ठनी प्रतिमा ए पाठ श्री अनुयोगद्वार सूत्रधी लखीयें ढैयें, " से किंतं वशाला जसं वा श्ररके वा वरामए वा ककम्मे वा पोडकम्मे वा लेपकम्मे दा चित्तकम्मे वा गंधिकम्मे वा वैदिकम्मे वा पू रिकम्मे वा संघातिकम्मे वा एगे लेगे वा सनान वा असमान वा ग्वणा वविति ॥ एवी रीतें गुरुनी स्थापना करवी. ते बे प्रकारें जारावी ते क े. (प्रावमप्रावं के० ) एक सनावस्था पना ने बीजी प्रसन्नाव स्थापना तिदां गुरुनी मूर्ति तथा प्रतिमादिकनी आकार सहित जे स्था पना से सनाव स्थापना जालवी, अने श्राकार विभा अादिकनी जे स्थापना करवी ते सद्भाव स्थापना जाणवी, वली (गुरुवणा के० ) गुरुनी स्थापना ते एक ( इत्तर के० ) इत्वर ने बीजी ( यावकदा के० ) यावत् कथिका तेमां इत्वर ते थोमा काल लगें स्थापना रहे, जेम नोकरवाली
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१६६ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. अने पुस्तकादिकनी जे स्थापना , ते स्थापना क्रिया करवाने वखते थापे.जे, माटें ज्यां सुधी ते क्रिया करीयें, तिहां सुधी ते स्थापना रहे, जो दृष्टि तिहांनी तिहां राखीयें, तो रहे, नही तो वली फरी बीजी स्थापना स्थापवी पमे, ते त्वर कालनी स्थापना जाणवी. अने बीजी यावत्क थिक स्थापना ते घणा काल पर्यंत रहे, ते प्रति मादिक तथा अदादिकनी बे प्रकारनी स्थापना करीयें बैयें. ए स्थापनानी आशातना पण गुर्वादि कनी पेरें टालवी ॥ श्ए॥ ___ हवे स्थापना शा कारण मात्रै स्थापवी? ते कहे जे. जेवारें सादात् गुणवंत (गुरुविरहमि के ) गुरुनो विरह एटले अन्नाव होय, तेवारें (गुरुवदेसोवदंसण के) गुरूपदेशोपदर्शनने अर्थे एटले गुरुनो उपदेश देखामवाने माटें (ग्व णा के) स्थापना स्थापवी जोइयें (च के) इहां नावार्थ ए जे, स्थापनानी आगल क्रिया करतां ते एवं जाणे जे गुरुज मुझने आदेश प्रापे जे, ते महारे बाकारि कही प्रमाण करवू. केम
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १६७ के ? गुरुना अन्नावे जे धर्मानुष्ठान करवू, ते शून्य नाव गणाय, हवे दृष्टांत कहे जे. जेम (जिणवि रहमी के०) दमणां श्रीजिनेश्वरनो विरह बता (जिणबिंब के ) श्रीतीर्थकरना बिंब एटले प्रति मानी (सेवण के ) सेवन करीने (आमंतणं के) आमंत्रण करवं. जे हे नगवंत! तमे मुज ने संसार समुश्थकी तारो, मोद आपो इत्यादि क जे कहे, ते (सहलं के ) सकल श्राय डे ए दृष्टांते इहां पण श्रीगुरुना विरहें गुरुनी स्थाप ना पण सफल होय . ए गुरु स्थापनाना एकज बोलनुं पन्नरमुं चार थयु. नुत्तर बोल १५ थया ॥ ३० ॥ हवे बे प्रकारना अवग्रह- शोलमुं हार कहे . __चनदिसि गुरुग्गहो इह, अछुत तेरस करे सपरपरके ॥ अणणुनायस्ससया, न कप्पए तव पविसेन ॥३१॥ दारं ॥१६॥
अर्थः-(इह के ) ए श्रीजिनशासनमांहे (गुरुग्गहो के ) गुरुथकी अवग्रह (चनदिसि
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१० गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. के०) चारे दिशाने विषे (सपरपके के) स्व अने परपद आश्रयी अनुक्रमे केटलो केटलो होय ? ते कहे . तिहां एक (अछुट के)सा मा त्रण अने बीजो (सेरस के) तेर (करे के) हाथ, जाणवू. तेमां स्वपक्ष ते पोतामां साधु साधुमां अने बीजा श्रावक जाणवा. तथा परपद ते साधु अने साध्वी तथा श्राविका जा पवी. तेमा साधु साथुने तथा श्रावकने माहोमां हे सामा त्रण हाथ वेगलो अवग्रह होय अने गु
दिकथी साध्वी तथा श्राविकाने तेर हाथ वेग लो अवग्रह होय. तेमज साध्वी तथा श्राविकाने माहोमांहे सामा त्रण हायनो अवग्रह होय (त
के) तेटला अवग्रहमांहे (अणगुन्नायस्त के) गुरुनी अनुज्ञा लोधा विना (सया के) सदा निरंतर (पविसेनं के) प्रवेश करवाने वला (नकप्पए के० ) न कल्पे. एबे अवग्रहनु झोलसुधार थयु. नुत्तर बोल १६१ यया ॥१॥
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१६ए
गुरुवंदन जाय अर्थसहित. दवे वांदांना सूत्रांना ही संख्यानुं सत्तरमुं द्वार तथा पदनी संख्या अढारमुं द्वार कहे बे.
पण तिग बारस डुग तिग, पनरो ढं ठाण पर इगुणतीसं ॥ गुण तीस सेस घ्याव, स्सयाई सब पय प्रवन्ना ॥ ३२ ॥ ॥ दारं ॥ १७ ॥ १८ ॥
अर्थः- प्रथम बंदनक सूत्रमा अक्षर ( २२६) बे. तेमां लघु अक्षर (२०१) बे, धने गुरु श्र कर. तो इच्छामि मांगीने वोसिरामि पर्यंत प शीश े ते लखेबे, वा काग्ग को प्प कं ता ऊं क्व क्व तो नहा कक्क क्क व व हो व म्मा क्क रस कप्पा. ए पचीश अक्षर गुरु जाणवा एटले सत्तरमुं वंदनक सूत्रना अक्षरोनुं द्वार ययुं. उत्तर बोल ( ३८७ ) थया.
हवे प्रढारमुं वंदनक सूत्रना पदनी संख्यानुं द्वार गाथाना अर्थी कहे बे. तिहां 'विजयंतं पदं ' एटले विनक्ति जेना अंतमां होय तेने पद कहीयें
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१७० गुरुवंदन जाप्य श्रर्थसहित.
ते इहां वंदनक सूत्रना व स्थानक मध्ये सर्व म ली अठ्ठावन पदनी संख्या बे, तिहां प्रथम स्था नकमां वामि, खमासमणो, वंदिनं, जावलिका ए, निसीहियाए, ए (पण के० ) पांच पद जालवां
तथा बीजा स्थानकमां प्रगुजाराद, मे, मि नग्गहं, ए ( तिग के० ) त्रण पद जाणवां, तथा त्रीजा स्थानक मध्ये निसीहि, अहो, कायं, काय संफासं, खमणिको, ने, किलामो, अप्पकिलंता एणं, बहुसोनेरा, ने, दिवसो, वकतो. ए ( बारस ho) बार पढ़ जावां, तथा चोथा स्थानकमां जत्ता, ने, ए ( डुग के० ) बे पद जाणवां, तथा पांचमा स्थानकमां जवणिऊं, च, ने, ए ( तिग के० ) त्रण पद जाणवां, तथा वा स्थानकमां खामेमि, खमासमणो, देवखियं, वइक्कमं, ए (च नरो के० ) चार पढ़ जाएगवां, एम (बाल के० ) स्थानकने विषे ( पय गुणतीसं के० ) नंग त्रीश पद जाणवां.
तथा (सेस के० ) शेष रह्यां जे (गुलतीस के० ) नगरात्रीश पद त ( आवस्सियाई के० )
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १७१ आवस्सिाएश्री मांझीने वोसिरामि पर्यंत थाय, तेवारें (सब के ) सर्वे मलीने (पय के ) पद (अमवन्ना के ) अठावन्न थाय दे. हवे ए पाउला नगणत्रीश पद कही देखामे . आवस्सियाए प क्किडमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिलाए मगडकमाए व यजुकमाए कायमुक्कमाए कोहाए माणाए मायाए लोनाए सबकालियाए सबमिबोवयाराए सवध म्माश्कमणाए पासायणाए जो मे अइयारो कन तस्स खमासमणो पमिकमामि निंदामि गरिहा मि,अप्पाणं वोसिरामि. ए नगणत्रीश पद थयां. आ ठेकाणे केटलाएक जंकिंचिमिछाए ए एक पद माने ले तथा केटलाएक आवस्लियाए ए अनि ष्ठित पद डे माटे नथी गणता. तेमाटे बहुश्रुत कहे ते प्रमाण जाणवू. ए अठावन पदनु अढारमुं चार . नत्तर बोल भए श्रया ॥३॥ हवे वांदणांना दायकना स्थानकनुं नगणोशमुं
चार कहे . श्वाय अणुनवणा, अवाबाहं च ज
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१७३
गुरुवंदन जाय अर्थसहित. त जवणाय ॥ प्रवराह खामणावि य, वेदा दायरस बाणा ॥ ३३ ॥ दारं ॥ १८॥
अर्थः- ( इवाय के० ) इवामि खमासमणो चंदिनं जावलिकाए निसी दिए लगें पांच प दनुं प्रथम स्थानक जाणवुं, तथा ( प्रणुन्नवसा के० ) असुजालह मे मिनग्गई ए त्रण पदनुं बी जुं स्थानक, तथा ( श्रवाबाहं च के० ) अब्याबाध एटले निराबाध पशुं पूब्वा श्रर्थे निसीहिथी मां मीनें दिवसो व तो पर्यंत बार पदोनुं त्रीजुं स्थानक जाणवुं, तथा ( जत्त के० ) जत्ता ने ए बे पदोनुं चोथुं स्थानक, तथा ( जवलाय के० ) जवलिऊं च ने ए त्रण पदनुं पांचमुं स्थानक, तथा (अवरादखामलाविय के० ) अपराधनुं ख माववुं एटले वामेमि खमासमणो देवसियं वइ कमं ए चार पदोनुं बहुं स्थानक जारावं. श्रपिच एटले वली ए ( दणदायस्स के० ) वांदणानो जे देवावालो तेनां ( बहाणा के० ) व स्थानक जालवां ॥३३॥ ए व स्थानकनुं नगलीशमुं हार थयुं । उत्तर बोल ४५१ मया.
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गुरुवंदन जाय अर्थसहित. हवे स्थानकमां गुरु वचन होय तेनुं वीशमुं हार कहे बे.
बंदेणुकाणामि, तहत्ति तुषंपि वटए एवं | हम विखामेमि तुमं, वयशाई वं दहस्स ॥ ३४ ॥
अर्थः-जिहां इवामि खमासमणो वंदिनं जा वणिजाए निसी हिलाए एटलो पाठ शिष्य कदे, तेवारें गुरु जो वांदणां देवरावे तो ( देश के० ) दे ए पाठक, अने वांदणां न देवरावे तो " तिविदेश " एवो पाठ कहे, ए प्रथम गुरुवचन जाणवुं, तथा 'प्रजाह मे मिनग्गई' ए पाठ शिष्य कहे, तेवारें गुरु कहे ( प्राणामि के० ) प्रज्ञा प्रपुं कुं: ए बीजुं गुरुवचन जाणवुं, तथा निसीहि इत्यादिक जेवारें शिष्य कहे, तेवारें गुरु कदे ( तहत के० ) तथेति ए त्रीजुं गुरुवचन जा वुं, तथा जेवारें जत्ता ने इत्यादि शिष्य कहे, तेवारें गुरु कहे ( टुविट्टए के० ) तुमने कानें पण वर्ते बे ? ए चोथुं गुरुवचन जाणवुं, तथा जे
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१७४ गुरुवंदन जाप्य अर्थसहित.
वारें जब लिऊं च ने शिष्य कहे तेवारे गुरु कहे ( एवं के० ) एमज, तुं पूबे बे तेमज . ए पांचमुं गुरुवचन जाणवुं तथा जेबारें खामेमि खमास मणो शिष्य कहे, ते वारे गुरु कहे ( अहम विखा मे मितुम के० ) हुं पण खमावुं बुं तुम प्रत्यें ए बहुं गुरुवचन जाणवुं. ए ब ( वयलाई के० ) व चन ते ( वंदा के ) वांदणां देवा योग्य (आरि दस्त के० ) आचार्यादिकनां जालवां, एटले वी शमुंब गुरुना प्रतिवचननुं द्वार पूर्ण अयुं. उत्तर बोल ४५७ थया ॥ ३४ ॥
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हवे त्रण गाथायें करी तेत्रीश श्राशातनानुं एकवीशमं द्वार कहेबे. तिहां प्रथम आशातना शब्दनो अर्थ करे बे. जिहां ज्ञान, दर्शन अने चा रित्र तेनो ( आय के ) लान थाय ते लानने ( शानता के० ) पावुं नाश करवो तेने आशात ना कहियें ते इहां शिष्यादिक जो अविनयथी प्र वर्त्तता होय, गुरु यादिकनी प्राशातना करे, ते तेत्री प्रकारे बे तेनां नाम गाथाना श्र र्थी कहे .
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१७५
गुरुवंदन जाय अर्थसहित. पुरन परकासने, गंता चिष्ण निसी अणायम || आलोयण परिसुणणे, पु वालवणे आलोए ॥ ३५ ॥ तह नव दंस निमंतण, खधा यय तहा अपमि सुणे ॥ खवत्तिय त गए, किं तुम त काय नो सुमणे ॥ ३६ ॥ नो सरसि क हचित्ता, परिसंचित्ता प्रणु हवा कहे || संथार पायघण, विठुच्च समासणे या वि ॥ ३७ ॥ दारं ॥ ५१ ॥
अर्थ :- प्रथम गुरूने ( पुरन के० ) ग्रागल चालतां शिष्यने विनयभंगादिक लागे माटे ए कारणें आशातना श्राय परंतु जो मार्गादिकनी विषमता होय अथवा गुरुने मार्ग देखावा माटे जो गुरुथी आगल चालवु परे तो ते अकारणमां गाय नही. वीजी ( परक के० ) गुरुने परुखे बेहु पासे गमन करे गुरुन) बराबर चाले तो प्रा शातना थाय, त्रीजी ( श्रासन्नेगंता के० ) एमज
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१७६ गुरुवंदन नाष्य अर्थप्तहित. गुरुने आसन्ने एटले अमकतो गंता एटले चाले पळवामे ढूकमो चाले तो श्वास, गंक, श्लेष्म, न ध्रसादि दोष रूप आशातना शाय, एम ए त्रण आशातना जेटले नूमिन्नागे गुरुनी साये चालतां थकां थाय, तेटलेज नूमिन्नागें गुरुनी पासे (चि 5ण के०) नन्ना रहेवाधको पण पूर्वोक्त त्रस श्रा शातना थाय. एम त्रण स्थानके गुरुनी पासे (निसिपमा के०) बेसता थकां पण पूर्वोक्त त्रण आशातना थाय. एवं नव श्रइ.दशमी (आयमणे के०)आचमने एटले गुरुनी साथे नञ्चार नूमिये गयां थकां शिष्य जो प्राचार्यथकी पहेला आच मन लीये अथवा गुरुनी पहेलां चलु करे अथवा हावाणी लीये तो आशातना थाप.अगीयारमी नचारादिक बहिर्दिशी गुर्वादिक साथे पाव्या प जी गमनागमणाथी जो गुरुथकी प्रथम (आलो यण के) पालोये, तो आशातना थाय, बारनी गुर्वादिक वमेरा तथा रत्नाधिक जे होय ते रात्रिये बोलावे जे कोण सूतो बे ? कोण जागे ? एम वचन सानलतो जागतो. थको पण. (अप
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १७७ मिसुणणे के० ) अश सांजलतानी पेरें पागे प्रत्यु तर नहीं आपे तो आशातना थाय, तेरमी गुरु आदिकने आलाववा बोलाववा योग्य एवा कोई श्रावकादिक आव्या होय अथवा आवेला जे तेने आवऊवा माटे गुरु बोलाव्यानी (पुवालवणेय के०) पूर्वेज पोते बोलावे तो आशातना थाय, (अ के०) वली चौदमी अशन पान खादिम स्वा दिम ए चारे आहार रूप जे निदा आणी होय ते प्रथम को बीजा शिष्यादिक आगल आलोईने परी गुरु आगले (आलोए के) आलोचे तो
आशातना थाय ॥३५॥ ___पनरमी (तह के) तेमज वली प्रशनादिक चार जे लाव्या होय ते प्रश्रम बीजा यतिने देखा मीने पर गुरुने (नवदंस के) देखामे तो आ शातना थाय, शोलमो तेमज अशनादिक चार लाव्या होय तेनी प्रथम वीजा यतिने निमंत्रणा करे के पानात पाणी लेशो? पी गुरुने (नि मंतण के) निमंत्रणा करे तो आशातना थाय. सत्तरमी अशनादिक चार सूरि प्रमुख साधे नि
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१७७ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. कायें आणीने पनी गुर्वादिकने पूज्या विना जेनी साये पोतानुं मन माने तेने मधुर जाणीने (खाइ के) खवरावे तो पाशातना लागे, अढारमी गु
दिक तथा रत्नाधिक साथे जमतो श्रको (आ यण के०) अशनादिक स्निग्ध सरस होय ते पोतेंज वावरे, ते आशातना जागवी. यउक्तं द शाश्रुतस्कंधसूत्रे ॥ सदेअसणं वा राइणिएसेहिं मुंजमाणे तब सेहे खई खई मायं मायं नसहूं नसटुं मणुमं ममं मणामं मणामं निई निई सुरकं लुखं आहारित्ता हवइ आसायणा लेहस्स ता॥ (तहा के ) तेमज नगणीशमी गुरु जे वारें साद करे तेवारें (अपमिसुणणे के०) अप्र तिश्रवणे एटले अणसांन्नलतानी पेरें गुरुने पागे जुबाब आपे नही, ते आशातना जागवी. ए आ शातना पूर्वे कही , परंतु ते रात्रिसंबंधी शयन करवा पीनी जागवी, अने आ ते दिवससंबंधि धिगइपणे तथा अनान्नोग पणे जाणवी. वीशमी रत्नाधिक तथा गुर्वादिक जेदारें साद करे, तेवारें तेने (खइत्ति के) खर एटले अत्यंत कर्कश
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १७ महोटे स्वरे करी पमुत्तर घणा वाले, कहे के परे नाइ खाधो रे ना खाधो ! केम के मुकता नथी. इत्यादिक कग्नि वचन बोले, अथवा आ क्रोश गाढस्वरादिक गुरुने करावे. ते आशातना जाणवी, वली एकवीशमी गुर्वादिके बोलाव्यो श्रको (तबगए के० ) त्यांधीज एटले पोताने ठे काणे बेगे श्रकोज नत्तर आपे, परंतु गुरुनी स मी आवीने जबाप न आपे तो आशातना था य. बावीशमी वल। गुर्वादिकें बोलाव्यो थको क हे के (किं के) शुं ते ? (तुम के) तमें कहो. कोण कदेवरावे ? शुं कहो गे? इत्या दिक विनयहीन वचन बोले, ते आशातना जा गवी,तश्रावीशमीवली गुर्वा दिकें बोलाव्योषको कहे के तूंज का नथी करतो? एवी रीतें पोता ना पूज्यने एक वचनांत बोलावे अथवा कहे के तमे कोण थका मुऊने प्रेरणा करो गे? इत्या दिक वचन कहे, ते आशातना जाणवी. चोवी शमी गर्वादिक तथा रत्नाधिक शिष्यने कहे के तमें समर्थ हो, पर्यायें लघु गे, माटे वृनुं तथा
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१०० गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ग्लाननु वैयावञ्च करो तेवारे ते पागे जबाप प्रापे के जो तमेंज लान्न जाणो गे, तो तमे पोते केम नथी करता? तथा तमारो बीजो पण शिष्यादि कनो बहु परिवार ते शुं लाननो अर्थी नथी? तो तेमनी पासे करावो. तेवारें बली गुर्वादिक तेने कहे के हे शिष्य ! तमे आलसु न थान. ते वारें वली गुरुने कहे के तमे ते शुं अमनेज दीग ने ? एवी रीतनां वचम बोलीने गुरुनी (तऊय के०)सर्जना करे ते आशातना जाणवी. पच्ची समी गुर्वादिक धर्मकथा कहेता होय तेवार शि ष्य उमणो थाय परंतु (नोसुमणे के) सुमनो न थाय, गुर्वादिकना गुणनी प्रशंसा करे नही अने कहे के तमे गृहस्थने विशेष प्रकारे समजा वो लो, कहो छो, ते रोते अमने समजावता नश्री अथवा गुर्वादिक तथा रत्नाधिकनो जे रागी होय तेने देखीने उमणो थाय ते आशातना जाणवी ॥ ३६॥
बबीशमी जेवारें गुरु कथा करता होय ते वारे कहे के तमने ए अर्थ ( नोसरसि के)
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ११ नथी सांजरतो? आ अमुकनो अर्थ एम न होय. एवी रीतें कहतां आशातना लागे. सत्तावीशमी गुर्वादिक कथा करता होय तेनी वचमा पोतानुं माहापण जणाववाने अर्थ सत्य लोकने कहे के ए कथा हुँ तमने पठी समजावीश एम कही (कह बित्ता के ) कथानो छेद करे, ते आशात ना जाणवी, अहावीशमी गुरु कथा कहेता होय अने तेने सन्य लोक हर्षवंत हृदयथी सान्नलतां होय ते सय जनोने देखतां उतां गरुने कहे के एवमी शी कथा कहोगे? हमणां निदानो अवसर ने, नोजनवेला पोरिसि वेला , एम कही ( परिसंनित्ता के) पर्षदानो नंग करे तो आशातना थाय, गणत्रीशमी गुर्वादिक धर्मक था कहो रह्या पगी पर्षदा (अणुध्विाइ के) अपनठे थके तेज कयाने पोतार्नु माहापण जणा ववाने हेतुयें जे गुरुये अर्थ कह्यो होय तेहिज अर्थ वली विशेषयी विस्तार चर्ची देखामीने (कहे के) कहे तो आशातना याय, त्रीशमी (संथा रपायघट्टण के) गुरुनी शय्या तथा संथाराने
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१२ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. पोताना पादादिकें करी संघटे तेने खमावे नही तो आशातना थाय, इहां शय्या ते सर्वांग प्रमाण जाणवी, अने संथारो ते अढी हाय प्रमाण जाण वो, अथवा शय्या ते कर्णादिवस्त्रमय जाणवी, अने संधारो ते दर्नादिक तृणमय जाणवो. एक त्रीशमी गुरुनी शय्या संथारो तथा बेसणादिकने विषे (चिक के) तिष्ठेत् एटले बेसे, अथवा प्रा लोटे असभ्य शरीरने अवयवे करी फरसे, तो आशातना थाय, बत्रीशमी गुरुथी (नच के) मुंचे आसने वेले, अथवा अधिक बेसणे बेसे तथा गुरु जेवां वस्त्र पहेरे, तेथकी अधिक मूल्यवालां वस्त्रादिकनो परिनोग करे, तो आशातना थाय, तेत्रीशमी (समासणेयावि के) गुरुने समान आसने बेसे, अथवा गुरुना जेवां वस्त्रादि होय, ते वांज समान वस्त्रादिकनो परिनोग करे तो पा शातना थाय ने. इहां अपिशब्द निश्चयवाचक , तथा गुरुने आगल अने पाउल तथा बे बाजुयें वे सवादिकनी आशातना तो पूर्वे कहेली . ए ते श्रीश आझातना टालतो अको शिष्य विनयी क
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १७३ हेवाय, ते शिष्य वांदणां देवा देवराववाने योग्य जाणवो, ए प्रवचनपात्र थाय ॥३७॥ए तेत्रीश आशातना- एकवीशमुंहार संपूर्ण थयु. सर्व बोल (ध ) थया ॥ ___ हवे बे विधिनुं बावीशमुंहार कहे . एटले पमिकमणुं करवानी सामग्रीना अन्नावें तथा बे प्रतिक्रमण करणादि पर्याप्तिने अन्नावे प्रनातें अ ने संध्याये वांदणां बे देवां. ते बेहु विधिनो अनु क्रम जाणवो, ते कहे .
रिया कुसुमिणुस्सग्गो, चिइवंदण पुत्ति वंदणालोयं ॥ वंदण खामण वंदण, संवर चन बोल 5 सजान ॥३०॥
अर्थः-तिहां प्रथम प्रजातनो वंदनक विधि कहे . इहां पहेली १ (इरिया के ) इरियाप थिको प्रतिक्रमीने, पछी २ (कुसुमिणुस्सग्गो के) कुसुमिण सुमिण नमाविणी निमित्ते चार लोग्गस्सनो कानस्सग्ग करे, ते वार पी ३ आदेश प्रागीने, (चिइवंदण के) चैत्यवंदन
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१४ गुरुवंदन जाष्य अर्थसहित. करे, पने आदेश मागीने, (पुत्ति के ) मु हपत्ति पमिलेहे, पठी (वंदण के०) वांदणां बे आपे, तेवार पठी ६ (आलोयं के) राइयं आ लोए, तेवार पठी ७ (वंदण के)बे वांदणां आपे. पी. (खामण के०) अनुन्निमि अप्रिं तर राश्न खामवं, पी ए (वंदण के) बे वार वांदणां आपे, पठी १० (संवर के) पञ्च काण करे, पी ११.(चनबोन के) चार ख मासमण पूर्वक नगवन आचार्यादिक चारने यो न. वंदन करे, पी १२ (दुसङान के०) सद्या यसंदिसाई, सद्याय करुं, ए बे खमासमणे बे आदेश मागी सनाय संदिसानं सनाय करे. ए प्रत्नातवंदनकविधि जाणवो ॥ ३० ॥
हवे संध्यावंदनकविधि अथवा लघुप्रतिक्रम
गविधि कदे . इरिया चिश्वंदण पु, ति वंदणं चरि मवंदणालोयं ॥ वंदण खामण चन्डो,
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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. १५ न दिवसुस्सग्गो उसनान ॥ ३५ ॥ ॥दारं ॥२०॥ ___ अर्थः-प्रथम ? ( इरिया के) इरियावहि पमिकमीने पठी आदेश मागी २ (विश्वंदण के) चैत्यवंदन करे, तेवार पठी ३ (पुत्ति के) मुहपत्ति पमिलेदे, पीप (वंदणं के०) बेवां दणां दीये, ते देने पीए (चरिम के ) दि वसचरिम पञ्चरकाण करे, पी ६ (वंदण के०) बे वांदणां देइने ७ (आलोयं के ) देवतियं आ लोए. पी (वंदण के) बे वांदणां देइने, ए.(खामण के०) देवसियं खाम करे, पगे १० (चनबोन के) चार खमासमणां देइ न गवानादिक चारने वांदी पी आदेश मागीने ११ (दिवसुस्सग्गो के ) देवसियपायचित्तविसो हराई चार लोगस्सनो कानस्सग्ग करी आदेश मागीने १२ ( उसनान के ) बेखमासमणे स शाय करे, एटले एक खमासमणे सद्याय संदि सानं, बीजे खमासमणे सद्याय करूं. इति सं ध्यावंदनकविधिः समाप्तः ए बावीशमुं हार प्रा
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१६ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित, नातिकवंदन तथा संध्यावंदन मली बे विधियें करी बे प्रकारचें कह्यु. उत्तर नेद ए अया॥३॥
एवं किश्कम्मविहि, झुंजता चरण करण मानत्ता ॥ साहू खवंति कम्मं, अ णेगनवसंचियमणंतं ॥४०॥
अर्थः-(एयं के ) ए पूर्वे कही आव्या जे बोल, तेणे करी (किश्कम्म के) कृतिकर्म जे वांदणां, तेनो जे (विहिं के०) विधि जे व्यव हार ते प्रत्ये (मुंजंता के०) प्रयुंजतां थकां (च रणकरणं के) चरणसित्तरी अने करणसित्तरी तेना गुसें करी (आवत्ता के ) आयुक्त एटले सहित एवा (साह के०) जे साधु निग्रंथ चारि त्रीया ते (अणेगन्नवसंचियं के) अनेक नव नां संचित एटले कोटि जन्मनां नपार्जन करेला भने जेनो (असंतं के) पुरंत विपाक ले एटले अनंता काल पर्यंत नोगवाय एवां अव्दपणे रहे मारां जे कर्म अथवा अनंत कालनां नपार्जन करेला एवां जे (कम्मं के) कर्म ने ते कर्मो
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गुरुवंदन जाप्य श्रर्थसहित.
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प्रत्यें तुरत शीघ्रपणे ( खवंति के० ) पवी नि राकरण करे बे, अर्थात् कय पमाने वे ॥ ४० ॥
अप्पम जवबोहचं, नासियं विवरि यं च जमिह मए ॥ तं सोहंतु गीयता, प्र निनिवेसि मन्चरिणो ॥ ४१ ॥ इति गुरु वंदनकजाप्यं समाप्तम् ॥
अर्थः- वांदणांनो विचार ते ( अप्पम ho) अपने मति जेहनी एवा जे (जब के० ) व्यप्राणी मना (बोरं के० ) बोध ज्ञानने अ ( जासियं के० ) नांख्यो परंतु आवश्यक बृहद्वृत्त्यादिक ग्रंथने विषे एनो अत्यंत विस्तार बे त्यांथी विशेष जोवुं, इहां संपथी कह्यो ठे. मांदे जे अनाजोगे ( विवरिअं के० ) विपरीत पणे ( च के० ) वली (जं के० ) जे ( इह के० ) ए नामां (मए के ) महाराथी कदेवाएं होय ( तं के० ) तेने वली (जिनिवेसि के०) कदाग्रही एटले ग्वादरहित एवा श्रने ( अ मरिलो के ) मत्सरपलाना परिणामें रहित,
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१० गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. गुणना रागी एवा जे (गीयबा के) गीतार्थ एटले गीतना अर्थ तेना जाण अर्थात् सूत्रार्थना जाण तथा निश्चय व्यवहारने विषे कुशल होय ते (सोहंतु के०) शोधजो, अर्थात् शुरू करजो. ए भएर बोलें करी श्रीगुरुने वांदणां देवानो वि धि कह्यो ॥ आंही "बामि खमासमणो वंदि 5 जावणिकाए निसीहिआए" इत्यादिक गुरु वंदन सूत्र जो पण ग्रंथकारें मूल पाठमां गाथा रूपें कह्यं नथी, तो पण प्रसंगी तेनो अर्थ ल खवो जोश्ये, परंतु आ प्रतिक्रमणने विषे प्रथम सुगुरु वांदणांमां ते अर्थ सविस्तर लखा गये लो होवाथी आ ठेकाणे लख्यो नथी. इति श्री गुरुवंदनक नाष्य अर्थ सहित संपूर्ण ॥ १ ॥
हवे एवा गुणवंत गुरुप्रत्ये वांदणां देने ते मना मुखथी यथाशक्तिये पञ्चकाण लेवु, केम के 'ज्ञानस्य फलं विरतिः' एवं वचन . वली आमम मध्ये कां ले के, “ पञ्चस्काणेणं नंते जी वे किं जणय पञ्चरकारोण य पासव दाराशनिलं नंति" तेमाटे पञ्चरकाल करवानो महोटो लान
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. १०ए ने. ते पञ्चरकाण शुं ? अने ते केटला प्रकारनां पञ्चरकाणो ने ? इत्यादिक जाणवा माटे त्रीजुं पच्चरकाण नाष्य कहे .
अथ
तृतीयपच्चख्खाणभाष्यप्रारंभः
तिहां प्रथम पच्चरकाणनां नवक्षार एक गाथाये
करी कहे . .दस पच्चरकाण चन विहि, आहार 5 वीसगार अकुरुत्ता ॥ दस विगई तिस विगई, गय उहनंगा उ सुधि फलं ॥१॥
अर्थः-प्रथम ( दसपञ्चरकाण के) पञ्चस्का पना दश नेद , तेनुं हार कहेशे. बीजुं पञ्चरका ण करवाने विष पाठ विशेषरूप (चनविहि के०) चार प्रकारनो विधि ने तेनुं हार कहेशे. त्रीमुं चार प्रकारना (आहार के) आहारना स्वरूपy घार कहेशे, चोथु पञ्चरकाणमां (अकुरुत्ता के०)
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१एर पञ्चरकाण नाष्य अर्थात हित. अहिरुक्त एटले बीजी वारनां अण नवस्यां अर्या तू एकवार कयां तेनां ते फरी जुदां जुदा पजरका णमां आवे, ते न लेवां एवा (वीसगार के) बावीश आगारनुं क्षर कहेशे, पांचU ( दस विग ई के०) दश विकृति एटले दश विगयनी संख्या नुं हार कहेशे, हुं (तिसविगगय के) त्रीश विकृतिगत एटले उ मूल विगयना त्रीश निवीया ता थाय तेनी संख्या- हार कहेशे, सातमुं एक मूल गुण पञ्चरकाण तथा बोजु नत्तरगुण पञ्चरका ण एम (हनंगा के) बे प्रकारना नांगा प चरकाणना थाय, तेनुं हार कहेशे. आग्मुं पञ्च कानी (उ सुधि के) शुहिनुं स्वरूप नि श्वेथी, कहे तेनुं हार कहेशे. नवमुं पञ्चरकाण कस्यायी इहलोक तथा परलोक मली बे ठेकासे ( फलं के०) फल थाय तेनुं हार कहेशे॥१॥ ए मूल नवज्ञारनां नाम कह्यां. एनां उत्तरहार आंही विवस्यां नथी, पण ग्रंथांतरे नेवू कह्यां , अने अहीं पण शरवालो आपता नेवू पाय ठे, ते आगल विस्तारे कहेशे.
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पञ्चरकाल प्राप्य अर्थसहित.
sri प्रथम पच्चरका शब्दनो अर्थ करे बे. तिहां एक प्रति, बीजुं आ, अने त्रीजुं आख्यान, एत्रण पद मलीने प्रत्याख्यान शब्द थयो छे. ते मां अविरतिपणानां स्वरूपप्रत्ये प्रति एटले प्रतिकूलपणे करी श्र एटले आगार मर्या दाकरणस्वरूपे करी श्राख्यान एटले कहेवुं कथन करवुं ते बे जेने विषे, तेने प्रत्याख्यान कहीये.
अथवा प्रति एटले आत्मस्वरूप प्रत्ये एटले निव्यापीने करण एटले करवुं एटले नाशंसारूप गुण आत्माने उपजे एम करे तेनुं जे प्राख्यान एटले कथनरूप ते बे जेने विषे तेने प्रत्याख्यान कहीयें.
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अथवा ( प्रति के० ) परलोके ( आ के० ) क्रिया योगार्थे शुभाशुभ फल कथनरूप जेने विषे बे तेने प्रत्याख्यान कहीयें. एम घणां व्याख्यान वे.
ते प्रत्याख्यान एक मूलगुणरूप अने बीजुं उत्तरगुणरूप एवा बे दें बे. तेमां मूलगुणनुं प चरकाल यतिने पंचमहाव्रत्तादि रूप वे अने न
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पञ्चस्काण प्राप्य अर्थसहित. तरगुण प्रत्याख्यान तो यतिने पिंकविशुश्यादिक वे तथा श्रावकने मूल गुण तो पांच अणुव्रता दिकनुं बे ने उत्तर गुण ते शिक्षाव्रतादिकनुं बे. तथा सामान्य प्रकारें जे अविरतिपलानुं प्रतिप द ते सर्व पञ्चरकाल कहीयें.
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वे प्रतिदिन उपयोगीपणा माटे उत्तरगुण प्रत्याख्यान दश प्रकारें होय, ते या ग्रंथना प्रथम हारना नेद रूपे कहे बे. प्रणाय मशक्कतं, कोमीसहियं नि यंटि गारं ॥ सागार निरवसेसं, परि माणकमं सके अद्धा ॥ १ ॥
अर्थः- प्रथम जे कारण विशेषे आगलश्री करे पण ते दिवसे न करी शके ते ( लागयं के ) अनागत पञ्चरकाण ते पर्युषणादिक पर्व श्राव्या नी पदेलांज एवं विचारे जे गुरु, ग्लान, शिष्य
तपस्वी प्रमुखनुं वैयावच्च महारे करवुं प मशे, तेवारे व्याकुलताने लीधे महाराथी अष्ट स्यादिक तपश्चर्या थर शकशे नही, तो मने ला
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पञ्चख्खाल नाष्य अर्थसहित.
१३
मनी दानि यो माटे ते पर्व श्राव्यानी पहेलां ज गुरुपासे पच्चरका लइने तप करे ते अनागत नावी पच्चरकाण.
बीजं ( इक्कं के० ) प्रतिक्रांत पञ्चरकाण ते पूर्वोक्त रीते पर्युषणादिक पर्व अतिक्रम्या पी तेहिज कार्यादिकने हेतुये जे पाबलथी श्रष्टम्या दिक तप गुरुपासे पच्चरका लइने करे, तेने अ तिक्रांत अतीत पच्चरकाल कहीये.
श्रीजुं ( कोमीसहियं के० ) को टिसहित पञ्च कारण ते प्रजातें उपवास प्रमुख व्रत करीने व ली बीजा दिवसना प्रभात समये पण ते हिज उपवासादिकनुं पञ्चरकाल करे, एम बधादिकनी पण कोटि एटले संधि मेलवे एटले बधादि एक पच्चरका पूर्ण थयानी वखतें बीजुं पञ्चरकाल पच्चरके. एवा कोटिक्रमें जे तप करकुं, ते कोटि सहित तप अथवा नीवी, एकाशनादिकने विषे पच्चरकाल पाया पलां आंबिलादिक करवुं ते, एटले एकनों ने बीजा पच्चरकालनी यादि ते कोटिस दित पच्चरकाल जालवुं.
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१एव पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. ___ चोथु ( नियंटि के) नियंत्रित तप ते पुष्ट नीरोगी तथा ग्लानपणे होय तो पण एवं चिंतवे जे अमुक दिवसें महारे अमुक 8 अध्मादिक तप करवू. पठी गमे तेवू कारण नपजे तो पण ते निर्धारेला दिवसें ते तप अवश्य करे, पण मूके नही. एम नियतकालें ते पञ्चख्खाण चौदपूर्वी दशपूर्वी, जिनकल्पीने विषे प्रथम वज शषनना राच संहननने विषे हतुं. हमणां व्युबिन श्रयुं . शिविर पण ते वेलायें ते तप करता हता, परंतु हमणां ते पच्चरकाण नश्री. ए नियंत्रित पञ्च काण जाणवू.
पांचU (अणगारं के) अनागार तप ते “अन्नवणानोगेणं" तथा " सहसागारेणं" ए बेआगार तो सर्वत्र होयज , परंतु महत्तरागा रादिक आगार जे पञ्चरकाणने विषे न होय, ते आगार रहित पञ्चरकाण कहीये. ए पण पहेला संघयणनी साथै व्युच्छेद अयुं.
उहुँ (सागार के.) आगार सहित ते मह तरागारादि आगारसहित पञ्चरकाण करवू, ते
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित.. १ए। आगार सहित पच्चरकाण जाणवू. ___ सातमु (निरवसेसं के) निरवशेष तप ते समस्त अशनादिक चार आहार वस्तु अने अना हार वस्तु प्रमुख सर्वनुं पञ्चरकाण करीयें, चन विहार प्रमुख करीयें अनशन करिये ते निरवशेष पच्चख्खाण जारावं.
आठमुं (परिमाणक के०) परिमाणकृत तप पच्चख्खाण ते दातीनी संख्या करे तथा क वलनो संख्या करे तथा घरनी संख्या करे, एट ले दातीनुं परिमाण तेमज कोलीयान परिमाण तथा घरनुं परिमाण जे निकादिकें करवू, अथ वा मम अमद प्रमुख श्यादिके जे निदानो प रित्याग ते सर्व परिमाणकृत पचरूखाण जाणवू. ___ नवमुं ( सके के०) सांकेतिक पचरूखाण ते इहां (केत के) गृह तेणें करी जे सहित वर्ने तेने गृहस्थ कहीये, ते संबंधी प्रायः ए पचरूखा ण गहस्त्रने होय अथवा (संकेत के०) चिन्ह जे अंगुष्ठादिक तेणे कर। होय ते संकेत कहेवा य एटले कोइएक श्रावक पोरिसी आदिक पच्च
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१९९६ पञ्चरकाल जाप्य अर्थसहित.
ख्खाण करीने बाहरे कोइ कामें अथवा क्षेत्रादि के गयो होय तिहां पोरिसीनो काल पूर्ण प्रयो अथवा घरमांज बेगे बे अने पोरिसीनो काल पूर्ण थयो बे, परंतु जोजन सामग्री तैयार थ नथी ते वखत विचार करे जे एटलो काल वच मां महारो अपच खाणपणे रहेशे, ते श्रावकने योग्य नथी. एम चिंतवी एक अंगुठ सहियं पच ख्खामि एटले जिहां सुधी मुठीमां अंगुगे राखुं त्यांसुधी महारे पच्चख्खालनी सीमा बे. एमज बीजुं मुझसहियं पचरुखामि एटले मुठी बांधी राखुं तिदां सुधी त्रिजुं गंठसदियं पचरुखामि एटले गांठ बांधी राखुं तिहां सुधी. बोधुं घरस दियं पचख्खामि पांचमुं प्रस्वेदसदियं ते ज्यां सुधी अंगना परसेवाना बिंडु निकले, त्यां सुधी. बहुं नस्लाससदियं पञ्चख्खामि सातमुं थिबुक सहियं पचख्खामि एटले स्तिबुक ते ज्यां सुधी पाणीना विंदूया जाजनादिकें तथा करादिक सू के तिहां पर्यंत जाणवुं. आठमुं जोइरकसहियं पचख्खामि एटले ज्योतिष्क जे दीवा प्रमुखनी
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. १ए ज्योति रहे तिहां सुधी संकेत करे. ए आठ प्र कारें नवमुं सांकेतिक पचख्खाग कहेवाय ने जे माटें कडं ले के ॥ अंगुठ मुठी गंठी, घर सेन नस्सास थिबुक जो रूखो ॥ पचख्खाग विचा ले. किच्च मणन्निग्गहे सुचियं ॥ १ ॥ तथा को पोरिसी आदि पचख्खाण न करे अने केवल अ निग्रहज करे तो गांठ प्रमुख न गेमे त्यां लगें पचरूखाण तेने थाय, तेथी ए पचरूखाण जेम बीजा पचरूखाणोनी वचमां थाय ने, तेम अ निग्रहने विषे पण थाय . तथा साधुने पण कोक स्थानकें ज्यां सुधी मंझल्यादिके गुर्वादिक न आव्या होय त्यां लगे अथवा सागारिकादिकनुं कांइ कारण होय, तेवारें पण ए अन्निग्रह संकेत पचरुखाण पाय.
दशमु (अक्षा के ) अक्ष ते काल महर्त पौ रुष्यादिक प्रमाणने पण नपचारथी जाणी लेवो. ते काल पचरूखाण जाणवू ॥२॥
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१७ पञ्चकाण नाष्यअर्थसहित. हवे ए दश पचख्खाण कयां, तेमां बेहलु अश पचरूखाण कद्यु, तेना दश नेद ले, ते
एक गाथायें करी कहे . नवकार सहिअ पोरिसि, पुरिममे गासणेगठाणे अ॥आयंबिल अन्नत्त, चरिमे अ अजिग्गहे विगई ॥३॥दार॥१॥
अर्थः-प्रथम (नवकारसहिन के) नवका रसहित एटले नवकार कहीने पारीये ते बे घमी प्रमाण नोकारसी पञ्चख्खाण कहीयें. बीजं प दोर दिवससुधी पञ्चरकाण ते (पोरिसि केस) पोरिसि कहीये, एमां साम्पोरिती साई एटले दोढ पहोर, पञ्चख्खाग पण जाणवू. त्रीजुं (पु रिमा के०) पुरिमाई, ते बे पहोर प्रमागर्नु पञ्च ख्खाण, चोथु (एगासण के) एकाशन, प चख्खाण (अके) अने पांचमुं ( एगगणे के) एकलगां . ए त्रणेनुं बे पहोर प्रमाण प भख्खाण जागवं. हुं जिहां एक हाथ विना बी जुं अंग हाले नही ते (आयंबिल के) आयंबि
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. १ ल पञ्चख्खाण. सातमुं (अन्नत्तठे के ) अन्नक्ता ये एटले उपवास, पच्चरूखाण. आग्मुं (चरिमे अके) दिवसचरिम अश्नवा नवचरिमादिरूप जागवं. नवमुं (अन्निग्गहे के०)अन्निग्रह पञ्च स्काण ते अमुक वस्तु तेवारेज खानं जेवारे अमुक करूं ? इत्यादिक अन्निग्रह करे ते. तथा दशमुं (विगई के) विगई निविगइनुं पञ्चरकाण जा णवं. ए दशे पञ्चरकाणोने कालनी मुख्यता मा टे अक्ष पचरकाण कहीयें ॥३॥
इहां शिष्य पूछे ले के पोरिसी प्रमुखने काल पञ्चरकाण कयुं ते खरं पण नोकारसीनुं कालमा न न कह्यं माटे नोकारसी जे , ते अन्निग्रह पचरकाण कहेवाय पण कालपच्चरकाण श्रइ शके नहीं? - त्यां गुरु नत्तर कहे . नवकारसहियं एमां सहित शब्द आव्यो माटे सहित शब्दे कालप्रमा ण जाणवं, अने अल्प आगार ले माटे अल्प काल जावो.
तेवारे शिष्य पूछे ले के पोरिसी तो एक प्रहर
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श् पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. काल प्रमाण माटे ए नवकारसीने विषे मुहूर्त ध्यादिक काल केम न लीधो ? केम के मुहूर्त यादिक काल पण पोरिसीथी अल्प माटे बेघ मीनुज मान शा वास्ते लीधुं ? __ गुरु उत्तर कहे , के हे शिष्य ! ते कडं ते सत्य ,परंतु सर्वश्री स्तोक काल अज्ञपच्चस्काण नो एक मुहूर्त्तज , मुहूर्तज्ञ अक्षा इति वचनात् तेमाटे एy एक मुहूर्नज कालमान जाणवू.
दवे ए नवकारसी पच्चरकाण, सूर्योदय पहेला ज करवू अने नमस्कारे करी पारवं, अन्यथा नंग लागे, नोकारसी कस्या पगी पागल पोरिसीया दिक थाय, परंतु ते विना न थाय अने यद्यपि नो कारसी विना पोरिसीयादिक करे तो काल संकेत रूप जाणवो. तथा वली वृक्ष संप्रदाये एम कहे ने जे नोकारसी पच्चरकाण जे , ते रात्रे चउवि दारादिक पच्चखाणनातारण रूप ने एटले शिक्षा रूप ने. इत्यादिक घणो विचार ले ते प्रवचनसारो झारग्रंथनी वृत्तिथी जाणवो. अहींयां विशेषे करी लख्यो नथी.
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. २०१ हवे पुरुष प्रमाण गया जेहने विषे थाय ते पोरिसी जाणवी "आसाढमाले ऽपया" इत्या दिक पाठ श्रीनत्तराध्ययनादि सूत्रथी जाणवो. ____ए रीते नोकारसी, पोरिसी, दिननु पूर्वाई ते पुरिमा, एकासण, एकलगणुं, प्राय बिल, नपवास, दिवसचरिम, अनिग्रह अने विगइ एवं दश पच्चरकाणना नामर्नु ए प्रथमहार यु. उत्तर नेद दश श्रया ॥ ३ ॥ हवे बीजे झारें पञ्चरकाण करवानो पाठरुप
_ विधि चार प्रकारे कहे .
नग्गए सूरे अनमो, पोरिसि पञ्चक नग्गए सूरे॥ सूरे नग्गए पुरिमं, अन्नत्त पच्चरकात्ति ॥४॥
अर्थः-प्रथम नवकारसीनुं पच्चरकाण नञ्चरीयें तेवारे (नग्गए सूरे के ) नग्गए सूरे (अ के) वली (नमो के०) नमुकार सहि पञ्चकाइच नविपि आहारं असणं पाणं खाश्मं साइमं अ बवणानोगेणं सहस्सागारेणं वोसिरई ए नच्चार
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७५ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित, करवानो प्रथम विधि जाणवो. . बीजो (पोरिसी के) पोरिसीनुं (पञ्चक के) पञ्चरकाण नचरीये, तेवारे (नग्गए सूरे के०) नग्गए सूरे पोरिसियं पञ्च रका, नग्गए सूरे चनविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साश्म अनबगालोगेणं सहस्सागारेणं एनच्चार करवानो बीजो विधि जाणवो. . __त्रीजो पूरिमाईर्नु पञ्चरकाण उञ्चरीये तेवारे (सूरेनग्गएपरिमं के०) सूरे नग्गए पुरिमv प चरकाश् चविहंपि आहारं ए नचार करवानो त्रीजो विधि. ___ चोथो अन्नक्तार्थ एटले नपवासनु पचरकाप्स नचरीये तेवारे (अन्नतळं पचरुखाइ के) अन्न त पचरूखाइ तिविपि आहारं चनविहंपिआ हारं( इति के) एम नच्चार करीये, ए चोथो विधि जावो.
अहींयां पुरिमाई ते दिवसर्नु पूर्वाई समजवू एटले नोकारसी आदि पचरूखाण जो पूर्वे सूर्यो दयथी न करयुं होय तो पण पुरिम थाय, एम
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. २०३ उपवासादिक पण पाय. तथा सूर्योदयश्री मांझी ने यावत् आगला दिवसनो सूर्योदय थाय, त्यां सुधी अन्नक्तार्थ एटले नपवासन पचख्खाण कहे वाय . एम जगाववाने तथा रात्रिनो चनवि हार कस्यो होय अने बीजे दिवसे एक नपवासनुं पचरूखाण करे, तेहने चोथन्नत्तनुं पचरूखाण थाय. तथा रात्रिय चनविहार, पच्चरुखाण न करचं होय अने बीजे दिने उपवास करे, तेने अन्नत्तनुं पचरुखाण कहीये, पण चोथन्नत्तनुं प च्चख्खाग न कहीये. अने नन्नयकोटि एकासणा दिके तो चोथन्नत्तनुं पच्चख्खाण होयज.इत्यादिक जगाववा माटे चारे विधि देखाम्या ॥॥ हवे बीजा पण चार विधि , ते देखामे .
जण गुरु सीसो पुण, पच्चरका मित्ति एव वो सिरई ॥ नवनगिल पमाणं, न पमा णं वंजणबलणा ॥५॥ ___ अर्थः-प्रथम (गुरु के ) गुरु जे पच्चख्खा पनो करावनार होय, ते पच्चख्खाइ एम (नसर
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२०४ पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. के०) नणे, एटले कहे; ए प्रथम विधि जाणवो. (पुण के०) वली (सीसो के०) शिष्य जे प च्चख्खापनो करनार होय ते (पच्चख्खामि के) पच्चख्खामि (इति के०) एम कहे. ए बीजो विधि जावो. अने (एव के०) एम संपूर्ण पच्चख्खाणे गुरु ( वोसिरई के) वो सिरई कहे. ए त्रीजो विधि जाणवो अने शिष्य जेपच्चरूखाणनो करनार होय ते वोसिरामि कहे, ए चोयो विधि जावो. ए चार विधि कह्या.
(श्व के) इहां पच्चख्खाणने विषे करतां तथा करावतां श्रका पोताना मननो जे (नवग के० ) नपयोग एटले मननी धारणा ने तेज (प माणं के०) प्रमाण ने एटले मनमांहे जे पच्च रूखाग धारयुं होय तेज प्रमाण . परंतु (वंजण के) अक्षर तेनी (बलणा के ) उलना ने एट ले स्खलना जे. अर्थात् अनानोगने लीधे धारेला तिविहार पञ्च काणथी बीजो को चनविहार प चख्खागनोज पाठ नचरीये, ते वंजण उलना जा गवी ते (न पमाणं के ) प्रमाण नथी ॥५॥
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. २०५ हवे तेहीज नच्चारनो विशेष विधि कहे . पढमे ठाणे तेरस, बीए तिन्निन तिगाइ तर अंमि।पाणस्स चमि, देसवगासाइ पंचमए ॥६॥ ___ अर्थः-इवे एनां पांच स्थानक ने तेमां (प ढमेगणे के०) प्रथम स्थानकने विषे कालपञ्च ख्खाणरूप नोकारसी प्रमुख (तेरस के०) तेर पञ्चरुखाण जाणवां, तेनां नाम आगली गाथायें कहेशे, तथा (बीए के) बीजा स्थानकने विषे विगइ, नीवी अने आयंबिल ए (तिनिन के०) ऋण पञ्चख्खाण जाणवां. तथा (तइमि के०) त्रीजा स्थानकने विषे (तिगार के) त्रिकादिक एटले एकासण, बीयासण ने एकलगणादिक, ए त्रण पच्चख्खाण जाणवां, तथा (चनमि के) चोथा स्थानकने विषे (पाणस्स के) पाणस्स ले वेण वा अलेवेण वा इत्यादि अचित्त पाणीनां आगार जाणवां, तथा (पंचमए के) पांचमा स्थानकने तिषे (देसवगासा के०) देशावकाशि कादि पच्चरुखारा करवा जागवां ॥६॥
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२६ पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. ए पांचस्थानक मां हेला प्रथमादि स्थानकना
पृथक् पृथक् नेद कहे . . नमु पोरिसीसमा, पुरिमवम् अंगुष्ठ माइ अम तेर ॥ निवि विगइ अंबिल ति य, तिय उगासण एगठाणाई ॥७॥
अर्थः-प्रथम स्थानकें तेर नेदनां नाम कहे ३. एक (नमु के) नमुक्कारसी, बीजुं (पोरिसी के) पोरिति, त्रीजो (समा के ) साईपोरि सि ते दोढ पहोर पर्यंत, चोथो (पुरिम के) पुरिममृते बे पहोर, पांचमो (अव के) अवम् ते त्रण पहोरनुं पच्चरकाण.ए पांचनी साथे पूर्वोक्त (अंगुष्मा के०) अंगुष्ट सहितादिक (अम के) आठ नेद मेलवीये तेवारे (तेर के) तेर नेद थाय. तथा बीजा स्थानके एक (निवि के.) निवी, बीजो (विगइ के) विगइ अने त्रीजो (अंबिल के) आयंबिल ए (तिय के) त्रण पच्चरकाण जाणवां, तथा जीजा स्थानकने विषे एक (5 के ) बेआसगुं, बीजुं (इगासण के)
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. श् एकासगुं अने त्रीजुं (एगगणाई के०) एकल गणादिक ए (तिय के) त्रण पच्चरकाण जाणवां.. हवे वली प्रकारांतरें उपवासादिक विधियें
उपवासने दिवसें पांच स्थानक केवी __रीतें करवां ? ते कहे .
पढमंमि चनबाई, तेरस बीयंमि तइय पाणस्स ॥ देसवगासं तुरिए, चरिमे जह संनवं नेयं ॥७॥
अर्थः-(पटमंमि के ) पहेले स्थानकें (चन बाई के०) चोयादिक एटले एक नपवासथी मां मोने चोथ छ इत्यादि यावत् चोत्रोश नक्त प यंत पच्चरकाण करवां, तथा (बीयंमि के) बीजा स्थानकने विषे नोकारसी पोरिसी, सामोरिसी, पुरिमट्ट, अव अने गंठसहियं, मुख्ताहियं, अंगु
सहियं, घरसहियं, प्रस्वेदसहियं, श्वासोचासस हियं, जलविंऽसहियं, दीपसहियं, ए (तेरस के) तेर पच्च रकाण मां हेलु हरकोपच्चरकाण करवं, तथा (तश्य के) त्रीजा स्थानकने विषे (पा
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२०७ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. गस्त के) पाणीना उ आगारर्नु पच्चरकाण क र तथा (तुरिए के) चोथा स्थानकने विषे (देसवगासं के) देसावगासिक, पच्चख्खाण कर तथा पांचमा स्थानकने विषे (चरिमे के०) हेमानुं पच्चख्खाण जे दिवसचरिमं एटले रात्रिनुं विहार, तिविहार, चनविहार पाणहार प्रमुखनु पच्चख्खाण ते (जहसंनवं के० ) यथासंन्नवे जे पोताने करवानी चा होय ते यथाशक्तियें करवू तथा नवचरिमादि जे, ते पण यथासंनवेंक र. एम (नेयं के ) जाणवू. ए पांच मां हेर्नु जे कोइ करवं ते पच्चख्खाण कहीयें ॥७॥ वली ए पच्चख्खाण करवाना पाउनोज
विशेष कहे . तह मद्य पञ्चकाणे, सु न पिहु सूरु ग्गया वो सिरई। करण विहीन न जन्न इ, जहावसीयाई बिअरूंदे ॥ ए॥ ___ अर्थः-(तह के ) तथा ए पद विशेष देखा मवावाची ने (मद्यपञ्चख्खाणेसु के) मध्यनांबे
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पचरकाण नाष्य अर्थसहित. ए स्थानक जे बिगर, नीवी अने आयंबिलनुं तथा एकासम, बियासण अने एकलठाणानुं ए बेनांग पञ्चरकालोने विषे पृथम् पृथग पञ्चरकाणे (सूरुग्ग या के०) सूरे नग्गए विगश्न पत्रकार इत्या दिक पाठ (नपिहु के०) वारंवार न कहेवो, ए टले प्रथम जे पञ्चरकाण मांमे, तिहां सूरे नग्गए कहेवो, परंतु पञ्चरकाण पञ्चरकाण प्रत्ये न कहेवो, तेमज (वोसिरई के०) वोसिर तथा वोसिरा मि ए पाठ पण अंतने विषे एक वार कहीये, पण वारं चार न कहीयें ए (करण विदीन के) करवानो विधि एटले पूर्वाचार्य परंपरायें एमज कहेता पाव्या ले करवानो एहज विधि . माटे महोटा पुरुष पण (ननन के) नथीनणता. (जहा के०) जेम (श्रावसीयाई के) आव स्सियाए ए पाठ (विपदे के०) बोजा वांदणा ने विषे कहेता नथी, ए पण पूर्वाचार्यनी परंपरा ने तेम इहां पण जाणी लेबु । ए॥
तह तिविह पञ्चकाणे, ननंति अ पाणग च आगारा ॥ ऽविहाहारे अचि
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१० पञ्चरकाण नाप्य अर्थसहित. त, नोश्णो तहय फासु जले ॥ १० ॥
अर्थः-(तद के) तेमज वली (तिविहप चख्खाणे के) त्रिविहारना पञ्चख्खाणने विधे तथा एकासणादि पञ्चरकाणे प्रासुक निर्जीव जल पान संबंधि (पाणग के) पानक एटले पाणी ना ( आगारा के) उ प्रागार (नमंतिम के)नणे कहे . तेनां नाम कहे . पास स्सलेवेण वा, अलेवेग वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससिजेग वा, अलिबेण वा. ए आगारनां नाम जाणवां, तथा (विहादारे के) द्विविधा हार पञ्चरकासने विषे (अचित्तनोगो के) अचित्तन्नोजी होय सचित्तनोज्य परिहारे तेने तथा (तहय के) तेमज जे एकासणा बिया सणाविना (फासुजले के) फासु पाणी लेतो होय एवा सचित्त परिहारीने पण प्रचस्काराने विषे पाणीना आगार कहेवा. ए प्रथम विकल्प. । तथा अचित्तन्नोजी होय अने फासु निर्जीव पाणी पीतो न होय तेने पापस्सना आगार न कहेवा. ए बीजो विकल्प. तथा जे सचिननोजी
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ११ होय पण फासु पाणी पीये तो तेने पाणस्स ना आगार उ कहेवा. ए त्रीजो विकल्प तथा सचित्तानोजी अने फासु पाणी पीतो नथी तो तेने पापस्सना उ आगार न कहेवा. तथा सचित्तन्नोज ने अने केवलखादिम, अशन अने स्वादिम रूप त्रण आहारना पच्चरकाणने नद्देशे रात्रिप्रमुखें तिविहार करे , तिहां पण पाण स्सना आगार न कहेवा. ए चोथो विकल्प. ए चार विकल्प आगारना कह्या, अहीं तथा शब्द श्री विशेष जाणवू ॥ १० ॥ 'श्तुच्चिय खवणं बिल, निवियाइसु फा सुयं चि य जलं तु॥सड़ा वि पियंति तहा, पच्चरकंति य तिहाहारं ॥ ११॥ ___ अर्यः-(इत्तुञ्चिय के) एटलाज मात्रै अचि जानोजी होय तेने (स्ववण के) पण एटले नपवासने विषे (अंबिल के) आयंबिलने विषे, तथा (निवियाइसु के) निवि आदिक एटले निवि एकासणादिक तिथिदार पञ्चकारा तमा
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१२ पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. आदिशब्दश्री सचित्त परिदारने विषे (चिय के) निश्चयश्रकी (फासुयं के) फासुक थ चित्त (जलं के०) जल ते (तु के०) जेम यति फासुक निर्जीव पाणी पीये (तहा के०) तेनी पेरं (समावि के) श्रावक पण फासुक पाणी (पियंति के०) पीये तेने पण एहिज आगार कहीये, परंतु ते (य के) वली (तिहादार के०) तिविहार पञ्चरकाण (पचरकंति के०) प चख्खे तेवारेज होय पण उविदारें नहोय. सचि तन्नोजीने पण उपवास, आयंबिल, निविद् प चरूखाण तिविहारें होय ते नष्ण पाणी पीये अने एकासणादि पञ्चख्खागनो नियम नथी. एमां तो ऽविहार, तिविहार, चनविहार ययासन होय ॥ ११ ॥ ___ चनहाहारं तु नमो, रतिंपि मुणीण सेस तिह चनहा ॥ निसि पोरिसि पुरिमे गा, सणा समाण उतिचनहा ॥१५॥३॥
अर्थः-(ममो के.) नोकारसीनु पचकाण
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पञ्चरका जाष्य अर्थसदित.
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तथा ( रतिंपि के० ) रात्रिनुं पंचरुखाल पण (मु सीएल के० ) मुनिने, यतिने ( तु के० ) वली नि यमा ( चन्दादारं के० ) चनविहारज होय श्रने ( सेस के० ) शेष पोरिसी आदिक पचरुखाण ते मुनिने ( तदचनदा के० ) तिविहारा तथा चन विहारा यथासंज्ञवे होय. दवे भावक आश्रयी कड़े बे. ( निसि के० ) रात्रिनुं पञ्चखाण, (पो रिसि के०) पोरिसीनुं पच्चख्खाण, (पुरिम के० ) पुरिमनुं पच्चख्खा अने (एगासलाइ के० ) ए कासलादिक पचरुखाएा जे बे, ते (समृाण के० ) श्रावकने अर्थे (5 ति चनहा के० ) डुविहार, ति विंदार अने चनविहार, ए त्रण प्रकार यथायोग्यें होय, तिहां नवकारसी अने पोरसी तो श्रावकने चनविहार पचख्खा रोज दोय, अने शेष पूरिमा दि पच्चरुखाण तथा रात्रितुं दिवस चरिमादि पच्च स्काण ते डुविहार तिविहार अने चन विहारे यथा योग्यें दोय, परंतु ग्रंथांतरें एटलो विशेष वे जे एकासलादि तिविहार पच्चख्खालीने रात्रे पाणदार होय अने विहार पञ्चस्काणे एकासादिकने विषे
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शव पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. रात्रे चनविहार होय तथा केटलेएक स्थानके श्रावकने पण पोरिसी तिविहारें बोली . अने विहार पचरूखाणे रात्रे तिविहार होय परंतु ते कारणिक जाणवू, व्यवहारे समजवू नही. त्यादि बीजी विशेष वात ग्रंथांतरथी जाणबी, एटले चार विधिनुं बीजुं हार पूर्ण थयु. उत्तर बोल चौद थया ॥१२॥२॥ हवे चार प्रकारना आहारनुं त्रीजुं हार कहे जे. ___ खुहपसम खमेगागी, आहारिव एइ. देइ वा सायं ॥ खुहिन वि खिवइ कुठे,जं पंकुवम तमाहारो ॥१३॥
अर्थः-प्रश्रम सामान्य प्रकारे श्राहारनुं लक्ष ण कहे . जे (खुहपसम के) कुधाने नपश माववाने अर्थे (खम के ) समर्थ होय एवो जे (एगागी केए.) एकाकी व्य होय तथा वली (आहारिव के) आहारने विषे पण (एइ के) एति एटले आवे एवा लवण हिंग्वादिक ने पा हारमा हे (सायं के) स्वाद प्रत्ये (देश केण)
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. १५ आपे ते, (वा के) वली (जं के.) जे (पंकु वम के.) पंकोपम एटले कादबनी पेरें असार होय कादवनी नपमा धारण करे एवं कादव स रखं व्य होय परंतु ( खुहिनवि के ) कुधि तोपि एटले कुधित थको पण (कुठे के) को गमां नदरमा (खिव के) विपति एटले केपवे डे तो (तं केए) ते सर्व (आहारो के) श्रा हार जावो ॥१३॥ . . हवे ए आहारना मूल चार नेद ने,
ते कहे . असणे मुग्गोयण स, तु मंझपयखऊ रब्ब कंदाई ॥ पाणे कंजिय जव कयर, कक्कोमोदग सुराजलं ॥ १४ ॥
अर्थः-तिहां एक (असणे के०) अशन ते, आ शु एटले शीघ्र जे कुधाने उपशमावी नाखे तेने अशन कहीयें, तेने विषे (मुग्ग के०) मगादि सर्व कगेल जाति जाणवी. तथा (नयण के०) नंदन. ते चावल जात प्रमुख सर्व नदन जाति
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११६ पञ्चरकाल नाष्यअर्थसहित. जाणवी. तथा ( सत्तु के) साथुन (मंग के) मांमा, रोटली, पक्कान, रोटला पूमा प्रमुख. (प य के ) दूध, दही, घृत, तेल. माखण विगयादि प्रमुख (खऊ के) खाजलां पकान खीर सुकु मारिका लापसी दहीथरां प्रमुख पकान. (रब्ब के) राबमी घेस प्रमुख (कंदाई के) कंदा दिक ते सूरणकंदादिक जाणवां. तथा तेमज,तुल सी नागरवल्यादि पत्र विना सर्व जातिनां फल फूल पत्र सर्वकंद सर्व वनस्पतिविकार शाकादि कूलरी चूरिम पर्पिटिकादि सर्व वस्तुनी जाति प्रशनमां हे आवे, तथा लवण, हिंग, सूया, अज मो, वरीयाली, धाणादिके तल्या एक वेसण पण प्रशनमा आवे,इत्यादिसर्व प्रशनजाति समजवी.
हवे बीजो (पाणे के) पानने विषे तिहां जेने पीजीये ते पाणी कहीयें तेमां अपकाय ते बदी, तलाव, इह, समुश् इत्यादि पाणीना प्राश्र य संबंधि सर्व स्थलोनुं पाणी जाणवं. तथा (कं जिय के०) कांजीनुं पाणी गसनी पाउ, तमा (जव के०) यवतुं धोयस, (कयर के) केरनु
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पञ्चरकाल नाष्य अर्थसदित. घोयण, श्रमलादिकनुं धोया, शक्षनुं धोयल, तथा ( कक्कमोद के ) काकमी प्रमुख सर्व फ लनां धोयानुं नदक एटले पाली, तथा ( सुरा इजलं के० ) सुरादि जल ते मदिरादिकनां पाली जाणवां, ए श्रनयमां जले बे. एमां आदिश दथी शकादिकना आसव, नालिकेरादिकनां पा गी, इक्षुरस, सौवीर, तक ते बाश इत्यादि सर्व पदार्थ पाणीने विषे कल्पे वे, तथापि इक्कुरस, त क्र ते बास अने मदिरादि तथा नालिकेरादिकनां जलने सांप्रत जितव्यवहारे अशनमां गणीये वैयें ॥ १४ ॥
खाइमे नत्तोस फलाइ, साइमे सुंठि जीर जमाई ॥ महुगुम तंबोलाई, त्र्य पाहारे मोय निंबाई ॥ १५ ॥ दारं ॥ ३ ॥
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अर्थः- हवे त्रीजो खादिम प्रादार कहे वे. ( ख के० ) आकाश एटले मुखनुं विवर कदिये. तेने परवाने लगारेक मूख मात्र जांजे, पण म नादिकनी पेरं तृप्ति न करे, परंतु कांइएक अश
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१७ पञ्चका प्राव्य अर्थसहित. नसमान पाय ते खादिम वस्तु कहीये. ते (खा श्मे के ) खादिमने विषे तिहां प्रथम (नतो स के)अक्तोष एटले शेकेलां धान्य चणा प्र मुख तथा अखोग सुखाशिका सर्व जाणवा, तथा प्रांबा केलां प्रमुख सर्व (फलाइ के) फ सादिक जाणवां, तथा फलजातिनी सुखमी मेवा सर्व कयरी पाकादिकनी जातियो, गंदपाकादि क, शक्ष, चारोली प्रमुख मेवा जातिनुं सर्व प कान खांक शाकरादि तेना विकार जे खां का तली प्रमुख ते. सर्व खादिमने विषे लीधा कप्पे. परंतु जीतव्यवहारे प्रसिह पणे अशन मध्ये वे पकृत्य उत्तम झयमां गण्या . परंपरायें इत्या दिक सर्व खादिम " जत्तासं दंताई, खजुर ना लिकेर आई दरकाई ॥ कक्कम अंबग फणसाइ, बहुविहं खाश्मेनेयं ॥१॥ इत्यादिक विचार सर्व प्रवचनसारोझार ग्रंथथी जाणवो ॥ए त्रीजो खादिम आहार कह्यो॥
हवे चोथो (साश्मे के ) स्वादिमने विषे शुं करपे ? ते कहे . तिहां प्रथम ते जे प्रास्ता
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. १५ दे करी लश्ये अथवा आहारादिक जे कीधां दोय ते सर्व तेना स्वादमां विनाश पामे, लयलीन थाय ते स्वादिम कहीये तेमां (सुंडिके) सूं उ, (जीर के) जीरुं, (अजमाई के ) अज मादिक, आदि शब्दश्रकी पीपर, मरिच, हरमे, बेहेमां, आमलां, मरी, पीपलीमूल, पीपर, अज मोद, आजो, काजो, काथो, कुलिंजर, कसेलो, कयसेलियो, मोथ, जेठीमध, पुष्करमूल,एलची, वाबची, चिणिकबाब, कर्पूर, तज, तमालपत्र, नागकेसर, केशर, जायफल, लविंग, हिंगुलाष्ट क, हिंगुत्रेवीसो, संचल, सैंधव, यवखार, खयर सार, कोठवली, गोली सर्व जातिनी अशनादि मां न चले तेवी जाणवी, सर्व जातिनां दातण, तुलसी पत्र, श्रीपत्र, खार, सया, मेथी, गोमू त्रादिकना कीधा अनमेलादिकनी गोलीयो, चि त्रो, पिंमार्थ, कोइएक तो पिंमार्थने खजुर कहे डे. परंतु ग्रंथांतरें एने जे सूरणादि कंदनां खार चूंदां करे ने, तेने कहे ले. कर्पूर, कचूरो, त्रिगम, पंच पटोल, बिमलवण, इत्यादिक अनेक जाति
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२० पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. ना स्वादिम पाहार जाखवा. ____ तथा (महु के० ) मधु एटले मध अने (गुम् के) गोल, खांझ, साकर तथा (तंबोलाई के०) तंबोलादिक ते विविध जातिनो तंबोल नागरवे लीनां पान तथा सोपारी प्रमुख ए पण स्वा दिम जाणवा. __ हवे अजादार वस्तु कहे .अने पूर्व कहेला चारे आहारमाहेला कोइ पण आहारभां न श्रा वे, परंतु चनविहार नपवासे तथा रात्रिने चल विहारे वावरी कल्पे, ते अणादार वस्तु जाणवी. तेनां नाम कहे .
(अणादारे ने ) अनाहारने विषे कल्पे ते वस्तु कहे . ( मोय के०) लघु नीति जापावी, अने (निंबाई के) निंबादिक ते निबनो शली पानमा प्रमुख पांचे अंग ए सर्व अनाहार वस्तु जाणवी, आदि शब्दश्रकी त्रिफला कर , करि यातुं, गलो, नाहि, धमासो, केरमामूल, बोरग सि मूल, बावलगलि, कंधेर मूल, चित्रो, खयर सार; सूखम, मलयागरु, अगरु, चीझ, अंबर;
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पक्षस्काण नाष्य अर्थसहित. १ कस्तूरी, राख, चूनो, रोहिणी वज, दखिज्ञ, पा तली, आसगंधी, कुंदरु, चोपचीनी, रिंगणी, अ फिलादिक सर्वजातिनां विष, साजीखार, चूनो, जाको, नपलेट, गूगल, अतिविष, बूंयाम, एली न, चूगीफख सूरोखार, टंकणखार, गोमूत्र आदें देइने सर्व जातिनां अनिष्ट मूत्र, चोल, मंजीठ, कणयरमूल, कुंभार, थोहर, अर्कादिक पंचकूल, खारो, फटकमी, चिमेक इत्यादिक वस्तु सर्व श्र निष्ट स्वादवान् , अने श्छा विना जे चीज मु खमां प्रदेप करीये ते सर्व प्रणाहार जाणवी. ए नपवासमां पण लेवी सूजे, अने आयंबिल मध्ये पाणहार पञ्चरकाल कस्या पठी सूजे ए प्राहारनुं त्रीजुं चार श्रयु, उत्तर नेद अढार थया ॥१५॥ हवे नवकारसी प्रमुखना आगारनी संख्या
चोथु चार कहे . दो नवकार उ पोरिसि, सग पुरिममे गासणे अ॥ सत्तेगगण अंबिल, अ 5 पण चनबिउ पाणे ॥ १६ ॥ ...
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श्श्श् पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित.
अर्थः-जे मूलगुण उत्तरगुण रूप पजस्काण राखवाने अर्थं वामी रूप होय ते आमार जाण वा. तिहां अपवाद पदें श्य, क्षेत्र, काल अने जावादिकें विचारतां मलगुण पञ्चरुखाणने विषे अन्नबाणादिक चार आगार जागवा. अने नुत्तर गुण पञ्चरकाणने विषे यथोक्त रीते आगल कहेशे ते प्रमाणे सर्वत्र आगर जाणवा.ते सर्व मली ए कवार नवस्या थका बावीश आगार वाय. यद्यपि अनबनससिएणादिक शोल आगार कानस्सग्गना
तथा समकितना रायान्निनगणादिक उ आगार , तेमज एक चोलपट्टागारेणं , एवं सर्व मलो (४५) आगार. थाय , परंतु अहींयां तो दश पचरूखाणने विषे बावीश आगारनुज काम
, माटे ते कहे . ___ (नवकार के०) नोकारसीना पच्चरकाणने वि पे (दो के ) बे आगार जाणवा. (पोरिसि के) पोरिसीना पच्चख्खापने विषे ( के) आगार, तेम साईपोरिसिना पच्चख्खाणे पण आगार, (पुरिममे के०) पुरिमाईना पच्चरुखाणने विष
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पच्चख्खाल नाष्य प्रर्थसहित.
२२३ ( सम के ) सात ग्रागार, ( इगासले के० ) ए कासलाना पचख्खाराने विषे ( ० के० ) श्राव आमार, ( एगाल के० ) एकलठाणाना पच्चरका सने विषे ( सत्त के० ) सात प्रागार, ( अंबिल श्र के० ) श्रयंबिलना पचरुखाराने विषे श्राव: आगार जाणवा. (चन हि के० ) चोथन एटले उपवासना पच्चरकाणने विषे ( पण के० ) पांच आगार, ( प्याले के० ) पापस्सना पचरुखाने विषे ( ब के० ) ब आगार जाणवा ॥ १६ ॥ चन चरिमे चननिग्ग हि, पण पावर णे नव निवीए ॥ प्रागारुरिकत्त विवेग, मुत्तु व विगइ नियम ॥ १७ ॥ दव
अर्थ : - ( चरिमे के० ) दिवसचरिमना पच्च खाणने विषे (चन के० ) चार आगार जाए वा, (अभिग्गदि के० ) श्रनिग्रहना पञ्चख्खा ने विषे (चन के ) चार श्रागार जाणवा. ( पावरले के० ) प्रावरण एटले वस्त्र मूकवाना पञ्चख्खाराने विषे ( पा के० ) पांच आगार
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२४ पञ्चकाण जाष्य अर्थसहित. जाणवा, (नवह निबीए के०) निवीना पचरूखा सने विषे नव आगार पण होय अने पाठ प्रा गार पण होय, तिहां जे पिंम अने व्य रूप बेहु 'विगइनु पचख्खाण करे तेदने नब आगार जा पवा, अने जे एकली (दवविगइ के०) यदि गइमात्रनो (नियमि के०) नियम करे तेने (न ख्खित्त विवेग केए) नख्खिनविवेगेणं ए (आगार के०)श्रागार तेने (मुत्तु के०) मूकीने बाकीना (अ के०) आळ आगार होय ॥ १७ ॥ तेना यंत्रनी स्थापना पागल करी जे. हवे प्रत्येक भागार संबंधी आगारोनां नामें
कही देखा . अन्न सह 5 नमुक्कारे, अन्न सह पञ्च दिसय साहु सब ॥ पोरिसि सड़पोरि सि, पुरिमड सत्त समहत्तरा ॥ १० ॥ हवे प्रत्येक पञ्चलखाण संबंधी प्रागारोनां
नाम कही देखामे . अर्थः-( नमुक्कारे के०) नवकारसिना पञ्च
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. १२५ काणने विषे एक (अन्न के०) अन्नवणानोगेणं, चीजो (सह के) सहस्लागारेणं ए (.के) बे आगार जाणवा. तथा एक (अन्न के0) अन्न वणानोगेणं, बीजो (सह के०) सहस्सागारेणं, त्रीजो (पच के०)पचन्नकालेणं, चोथो (दिसय के) दिसामोहेणं, पांचमो (साहु के) साहुव यणेशं, को (सव के) सबसमाहिवत्तियागारे गं ए ( के) आगार ते (पोरिसि के०) पोरिसीना पचरूखागने विषे जागवा, तेमज (सम्पोरिसी के ) साईपोरिसीना पच्चख्खा गने विषे पण एहिज उ आगार जाणवा. तमा वली एज पोरिसीना आगारने एक (महत्त रा के) महत्तरागारेणं ए आगारे करी (स के०) सहित करीयेंतेवारे (सत्त के ) सात श्रागार थाय. ते (पुरिमा के०) पुरिमा तथा अनमूना पच्चख्खागने विषे जागवा ॥ १० ॥ हवे एकासणा तथा एकलगणाना आगार कहे .
अन्न सहस्सागारिय, आनंटण गुरू अ पारि मह सब ॥ एग विधासणि अ
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श्श्६ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित.
न, सग गठाणे अनट विणा ॥१॥ ___ अर्थः-एक (अन्न के) अन्नबणानोगेणं, बीजो (सहस्सा के) सहस्सागारेणं, त्रीजो (सागारिय के ) सागारियागारेणं, चोथो (आ नंटण के) आनदृणपसारेणं, पांचमो (गुरुप के०) गुरुअनुगणेणं, हो (पारि के० ) पारिता वणियागारेणं, सातमो (मह के) महत्तरामा रेणं, आठमो, (सब के ) सब समाहिवत्तिया गारेणं, ए (अन्न के) आठ आगार ते (एग बिआसणि के०) एकासण अने बियासणना पच्च ख्खागने विषे जाणवा. तथा एज आठमांयी ए क (अनटविणा के) आनणपसारेणं ए आगार विना शेष एकासणाने विषे जे कद्या ने तेज (स ग के०) सात श्रागार ते (इगठाणे के ) एकल ठाणाना पच्चरस्काराने विषे होय ॥ १७ ॥ जिहां जमणा हाथे जमे, मात्र कोलीया लेवानेज हाथ फेरवे, परंतु अंगोपांगने तो खरज खणवादिकने कामे पण हलावे नही ते एकलगणुं जाणवू १५
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. २७ हवे विगइ, नीवि तथा आयंबिलना
आगार कहे . अन्न सह लेवा गिह, नस्कित पमुच पारि मह सवे॥ विगइ निविगए नव, प मुच्च विणु अंबिले अ॥२०॥
अर्थः-एक (अन्न के) अन्नवणानोगेणं, बीजो (सह के) सहस्सागारेणं, त्रीजो (लेवा के०) लेवालेवेणं, चोयो (गिह के ) गिहन सं सणं, पांचमो (नरिकत्त के) नस्कित्तविवेगेणं, उभे (पमुच्च के) पमुन्नमस्किएणं, सातमो (पा रिके) पारिठावणियागारेणं, आठमो (मह के.) महत्तरागारेणं नवमो (सवे के) सवस माहिवत्तियागारेणं, ए (नव के) नव आगार ते (विगइ के) विगइ तथा (निविगए के) निविगइ मली बे पञ्चरकाणने विषे जासवा, त था ए नवमा हेथी एक (पमुच्चविणु के) पमु चमस्किएणं ए आगार विना शेष (अ के) पाठ आगार जे विग अने नीविना कह्या तेज
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२० पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. (अंबिले के ) आयंबिलना पञ्चरुखाणने विषे जाणवा. जिहां आम्ल एटले खाटो चोथो रस तेहथी निवर्तवं ते आयंबिल कहीयें, तेना त्रण प्रकार , एक नदन, बीजो कुटमाष, त्रीजो सा थुआदिक एत्रण नेदे . अथवा (आचाम्ल के) नसामणनी पेरें जिहां अन्नादिक नीरस थइ नि कले तेने आयंबिल कहीयें ॥२०॥
हवे नपवासना आगार कहे .
अन्न सह पारि मह सब, पंच खवणे उपाणि लेवाई॥ चन चरिमंगुवाइ, नि ग्गहि अन्न सह मह सच्चे ॥२१॥ .
अर्थः-एक (अन्न के) अन्नपानोगणं, वी जो (सह के०) सहस्लागारेणं, त्रीजो (पारि के) पारिठावणियागारे, चोथो (मह के) महत्तरागारेणं, पांचमो (सब के) लबसमाहि वत्तियागारेणं, ए (पंच के) कांच आगार (ख वणे के ) उपवासना पच्चस्काराने दिले जाणवा. तथा एमां अचित्त पाणी पीये माटे (पाणि के.) पाणस्सना पच्चरकाणले विषे लेवेशवा अलेवेण
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. शण वा, अछेण वा बहुलेवेण वा, ससिलेण वा, असि
वा, ए (लेवाईके)लेपादिक (के) आगार जाणवा, तथा एक (अन्न के०) अन्नबाणानोगेणं, बीजो (सह के) सहस्सागारेणं, त्रीजो (मह के) महत्चरागारेणं, चोथो (सवे के०) सब स माहिवत्तियागारेणं ए (चन के०) चार आगार ते (चरिम के) दिवस चरिमना पञ्चरकाणने विषे तथा (अंगुठा निग्गहि के ) अंगुष्ठमुष्ठि सहियादिक अस्निग्रहना पच्चरूखागने विषे जा गवा ॥२१॥ पचरकापना आयारोनी संख्याना यंत्रनी स्थापना. अंक पच्चख्खाणनामसंख्या. आगारोनां नाम. २ नोकारसी. २ अन्न ॥ सह ॥ २/ पारिसी. ६ अन्न०॥ सह०॥ पच्छन्न ॥ दिसामो०॥
साहसव्व ३, साइपोरिसी.६ अन्न०॥ सह०॥ पच्छन्न०॥ दिसामो०॥
साहु०सव्व० ४ पुरिमढ. ७ अन्न सह०पच्छ० दिसा०साहु० सव्व०
महत्त० ॥ ५ अवहू. ७ अन्न सह०पच्छ दिसा साहु० सव्व०
महत्त०॥
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२३० पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित. ६/ एकासगुं. ८ अन्नसह. सागा आउ० गुरु० पारिक
महसव्व० ७ बियासणुं. ८ अन्नसह सागा आउ० गुरु० पारि०
मह०सच० एकलठाणुं. ७ अन्न सह. सागारि०गुरु० पारि०मह०
सव्व० ९ नीबी. ९) अन्न सहस्सा लेवागिहत्य उरिखत्त०
पडुच्च० १० विगइ. ९) पारि०महत्तसव्व० ११ आयंबिल.८ अन्न सह लेवा० गिह उरिव० पारि
___ महसव्व० १२ उपवास. अन्नसहरू पारि०मह० सम्ब०चोलपट्टा
गार यतिने. १३ पाणहार.६ लेवे० अले० अच्छे०बहससित्थे० असित्थे. १४अभिग्रह संकेत ४ अन्न० सह० मह० सव्व० १५ दिवसचरिमं.४ " " " " १६/ भवचरिमं. ४ " " " " १७देसावगासिक.४ " " " ." १८ समकितना. ६ राया गणा बलादेवा गुरुनि वित्ति . इहां नरिकत्तविवेगेणं ए जे आगार , ते आ गार पिंमविग आश्रयी, ते पिंम विगय जणा ववा माटे विगयना नेद कही देखा जे. परंतु विगयना नेदो कहेवा- हार तो आगल आवशे हाल अहीयां तो मात्र पिंम विगय उलखाववाने
गार निस्कन विवेगमावला देवा
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ३१ निमित्तेज कहे .
उछ महु मद्य तिलं, चनरो दव विगइ चनर पिंमदवा ॥ घय गुल दहियं निसियं, मकण पकन्न दो पिंमा ॥३॥
अर्थः-एक (5६ के) उग्ध, बीजो (महु के) मधु त्रीजो (मद्य के) मद्य एटले मदि रा अने चोथो (तिलं के०)तैल ए (चउरो के०) चार ( दवविगइ के०)व्य विगय ने ए चार ते ढीलं विगय होय रस रूप होय, माटे एने रसवि गय कहीये, अने एक (घय के) घृत, बीजो (गु लके) गोल,त्रीजो ( दहियं के) दधि एटले दही अने चोयो (पिसियं के०)पिशित ते मांस ए (चनर के०) चार विगय जेते (पिंदवा के) पिंमध्यरूप रसरूप जाणवा. ए चार पिंक होय एनुं व्य को वेला य होय, तथा को वेला पिंक रूप थीणो पिंम होय. तथा एक (म ख्खण के०) माखण, बीजो (पक्कन के०)प क्वान्न ए (दो के ) बे कमाविगय जाणवां. ते स्वन्नावें करीने (पिंमा के) पिंम रूप होय क
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पच्चरकाण जाप्य अर्थसहित.
विन होय, माटे एने पिंकविगय कहीये. ए दस विगय कां. इहां बखित्तविवेगेां ए आगार जे ते पिंविगयनो वे ते जणाववा माटे श्रा गाथा कही || १२ ||
हवे केलां एक पच्चरकाण मांहोमांदे प्रागार तथा पाठ उच्चार विशेष करी सरखा बे. एटले तेना आगार पण मांहो मांहे सरखा बे ने पाठ पण सरखो वे, ते कहे बे.
"
पोरिसि समवहूं, उज्जत्त निविग पोरसाइ समा ॥ अंगुठ मुठि गंठी, सचि त दवाई निग्ग हि ॥ २३ ॥
अर्थः- ( पोरसाइसमा के० ) पोरिसि आदें देने पच्चखाण जे बे, ते सरखां जाणवां, ए टले एक पोरिसि ने बीजी ( पोरिसिस के० ) खाई पोरिसि ए बे सरखां जालवां एटले पोरि सीने साई पोरिसीना पच्चख्खापना पाठनो न चार तथा आगार पण सरखा बे. तेमज पुरि मड़ ने ( अवरूं केप ) अवमृनुं पच्चख्खारा पा
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पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित.. ३३ सरखं जाणवू, तथा एकासगुं अने (उन्नत्त के०) हिनक्त एटले बीआसणानुं पच्चरकाम अने आ गार पण सरखा जाणवा, तथा विग ने ( नि विगइ के०) नीविर्नु पचरुखाण अने आगार
जागवा. तथा (अंगु के० ) अंग ठसहियं, (मुहि के०) मुहिसहियं, (गंगी के०) गंठिसहियं, (सचित्तदवाइं के०) सचित्त व्या दिक, पचरूखाण एटले सचित्त च्यादिक एट ले सचित्त च्यादिकना पचरूखाण जे देसावगा सिक तेमज दिवसचरिमादिनां पञ्चरकाश ए सर्व (निग्गहियं के०) अन्निग्रह पञ्चरकाण कहेवा य,तेना पण माहोमांहे पाठ तथा आगार सरखा जाणवा. परंतु कालप्रमाणादिकें तथा स्थानके तो फेरफार होयज ॥ २३ ॥
हवे ए सर्व आगारोना अर्थ कहे जे. विस्सरण मणालोगो, सहसागारोसय मुहपवेसो ॥ पहनकाल मेहाई, दिसि वि वजासु दिसिमोहो ॥२४॥
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२३५ पञ्चरकाण नाष्यअर्थसहित. __अर्थः-जे (विस्तरणं के० ) विस्मरण पक्ष जाय ते (अगालोगो के० ) अनाजोगयी थाय, एटले पञ्चरकाणनो नुपयोग अनान्नोग थकी वी सरी जाय, तेवारें अजाणपणे कांश मुखमां प्र केप करे तो तेथी पञ्चरका नंग न थाय. ए प्र थम प्रणान्नोगे श्रागार कह्यो, एनी साथे अन्न शब्द जोमीये तेवारे अनवणानोगेणं एवं नाम थाय, माटे तेनुं कारण समजवाने नीचे अर्थ ल खीये बैये, अनवणालोगेणं एटले अन्यत्र अने अनानोगात् तिहां अन्यत्र एटले जे आगार कह्यां होय ते श्रागार वर्जीने वीजा सर्वत्र स्थानके प चस्काण पालवानी यत्ना राखवी. अन्नब ए पद सर्वे आगारें जोमवं, एम जाणवू तथा अनानो गात् एटले वोसरवाथकी अर्थात् पचरकाणनो न पयोग बीसरते अजाणतां कांश मुखमां प्रक्षेप कराइ जाय, पी पचरकाण साजरी आवे, तेवारे तरत मुखथकी त्याग करे, तेथी पचरकाण नंग प्राय नहीं, अथवा अजाणे मुखयकी हेठे नत रघु पी कालांतरे अथवा तुरत स्मरणमां आवे
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ३५ तोपण पच्चरकाणनो नंग थाय नही परंतु शुरु व्यवहार , तेथी फरी निःशंक न थाय ते माटे यथायोग्य प्रायश्चित्त लेवं. ए वात सर्व आगारोने विषे जाणवी. माटे आहीं पीगिकारूपे लखी.
बीजो (सहसागारो के०) सहसात्कार ते (सयमुह के०) पोतानी मेले भावी मुखमांदे (पवेसो के ) प्रवेश करे ते जाणवू. एटले प चरकाण की, जे तेनो नपयोग तो वीसलोनथी, पण कार्य करवाना प्रवर्तनयोग लक्षण सहसा कारें स्वन्नावेज पोताना मुखमां कांइ प्रवेश पर जाय. जेम दधि मथतां यकां गंटो नमीने मुख मा पमी जाय, अथवा अनादिकनो कण मुखमा पमी जाय, तथा चनविहार नपवास होय, अने वर्षाकालमा मेघनो गंटो मुखमां पमी जाय, तो पञ्चरुखाण नांगे नहीं. - त्रीजो (पचन्नकाल के०) प्रचन्नकाल ते का लनी प्रबनता जाणवी. जेम (मेहा के) मे घादि एटले मेघना वादले करीने ढंका गयेला सूर्यनी खबर न पमे, तथा आदिशब्दयकी दिग्
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२३६ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. दाद, ग्रहादिक, रजोवृष्टि, पर्वत प्रमुख सर्व जा णी लेवू. तिहां पर्वत अने वादला प्रमुखे अंत रिद, सूर्य देखाय नहीं, अथवा रज नमवे करी न देखाय,तेवारे पोरिसीयादिकना कालनी खबर न परतां अपूर्ण थयलीने संपूर्ण श्रयेली जाणीने, जमवा बेसी जाय तो पचरूखाण नंग न थाय. परंतु जागवामां आवे तो पनी अझै जम्यो थ को होय तो पण एमज बेशी रहे, अने पोरिसी आदि पूर्ण थाय, पडी जमे तो नंग न थाय, प रंतु हजी पूर्ण थ नश्री, एवं जागवामां आवे तो पण अटके नहीं, अने जमे तो पञ्चख्खाण नंग थइ जाय ॥
चोथो (दिसिमोहो के) दिसामोहेणं ते (दि सिविवासु के० ) दिशिना विपर्यासपणाथकी जेवारे दिङ्मूढ य जाय, तेवारे पूर्वने पश्चिम करी जाणे अने पश्चिमने पूर्व करी जाणे एम खबर न पम्वाथी अपूर्ण पञ्चख्खाणे पण पूर्ण काल यो जागीने जमे तो पचरुखाणनंग नहीं, अने दिमोह मटी गया पठी जेवारे जाणवामां
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पञ्चरकाल जाष्य अर्थसहित.
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थावे तेवारे पूर्वनी पेठे श्र जम्यो थको होय तो पण पचखाण पूर्ण थाय तिहां सुधी एमज बेश रहे, अने काल पूरो थया पढी जमे ||२४|| साहुवयण नग्घामा, पोरिसि तपु सु तया समाहित्ति | संघाइ कऊ महत्तर, | गह बंदा सागारी ॥ २५ ॥
अर्थः- पांचमुं (नग्धामापोरिसि के० ) नग्धाम पोरिसी एवो ( साहुवयल के० ) साधुनुं वचन एटले बहुपमिसा पोरिसि एवं सांजलीने जो अपूर्ण पचखाणे जमे तो पण पोरिसी जंग न थाय, पठी कोकना कहेवा उपरथी जाणवामां श्रावे के इजी लगा पोरिसीनो काल पूर्ण थयो नथी, तेवारे पूर्वोक्त रीते मुक्त रहे, अने पोरि सीनो काल पूर्ण थापी जमे ए साहुवय सं नामे श्रागार जाणवो.
a ( त के० ) शरीर तेनुं (सुत्रया के० ) स्वस्थता जे निराबाध पणुं तेने ( समाहि के० ) समाधि ( इति के०) एम कहीये, एटला माटे ए
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२० पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. सबसमाहिवत्तियागारेणं कहेवाय, इहां तीब्रशला दिक रोग नपने थके, आर्च रौनी सर्वथा निरा शे जे शरीरनी स्वस्थता ते सर्व समाधि कहोये. तत्प्रत्ययिक जे कारण ते सर्वसमाधिवर्तिताकार कहीये. ते समाधिने निमित्ते जे औषध पथ्या दिकनी प्रवृत्तिने विषे अपूर्ण प्रत्याख्याने जमतां पण पचरूखाण नंग थाय नहीं. ___ सातमु (संघाश्कऊ के) संघादिकनुं को कार्य नपने के कमेरानी आझा पाले, तेने (म हत्तर के) महत्तरागार कहीये. ते आवी रीते के जे पचरुखाण की, मे, तेनी अनुपालनाथकी पण जो निर्धारानी अपेक्षाये विचारीये तो महो टुं निर्जरा लान हेतु कार्य , अने अन्य पुरुषां तरे ते कार्य असाध्य , बीजा कोइ पुरुषथी थाय तेम नथी,एवं कोइ संघर्नु तथा आदि शब्द श्रकी चैत्य ग्लानादिकना कार्य प्रयोजन , तेहिज आगार ते महत्तरागार कहीये. तिहां अपूर्ण काले जमतां पचख्खाणनंग न थाय.
आठमुं (गिहब के०) गृहस्पनी नजर पड़े,
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. २३५ तश्रा (बंदा के० ) सर्पबंदिवानादिकनी नजर पमे, तेने (सागारी के० ) सागारिआगारेणं क दिये.तिहां आगार एटले घर तेणे करीसहित बे, जे तेने सागारि कहीयें तेनी नजरें देखतां साधुने आहार करवो कल्पे नहीं. केम के एश्रकी प्रव चनोपघातादिक बहु दोषनो संनव थाय, माटे साधुने जमतो थकां जो सागारी प्रावी पमे, अ ने ते जो चल होय, एटले तरत जवावालो होय तो क्षणेक बेसी रहे, अने तेने स्थिर रहेतो जाणे तो स्वाध्यायादिकना नंगपातकना नयथकी अ न्यत्र जश्ने तेहिज आसने जमे तो पच्चख्खाण नंग न थाय. ए जेम गृहस्थने सागारी कहीये तेमज जेहनी दृष्टे देखतां अन्न खाइये ते पचे नहीं, तेने पण सागारिक कहोये तथा नपलक्षणे आदि शव्दथकी सर्प, अग्नि, प्रदीप, नरेली, पा गीनी रेल आवे, तथा गृहपातादिक एटले घर पमतुं होय, ए आगार पण लेवा. इत्यादिक नप श्वोना कारणे अन्यस्थानके जर जमतां पण प च्चरूखाण नंग न पाय ॥॥
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श्व पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित.
आनंटण मंगाणं, गुरु पाहुण साहु गुरुअनुषणं ॥ परिठावण विहि गाहए, जश्ण पावरण कमिपट्टो ॥२६॥
अर्थः-नवमो (अंगाणं के) पग प्रमुख अंग तेनुं (आनंटण के०) आकुंचन एटले संकोच, तथा पसारवू ते अणखमते करवू पमे, एटला माटे एने आनदृणपसारेणं आगार कहीये, तेथी जमतां थकां कांइक पोतानां आसनादिक चला पमान, थाय तो पच्चरका नंग न थाय. ___दशमो (गुरु के०) पोताना दीकागुरु आवे अथवा कोई महोटो ( पाहुणसाहु के० ) प्राहुणो साधु आवे थके जमतां नम्वु पमे तो (गुरुप नुगणं के०) गुरुअनुषणेणं आगार थाय, एटले ते आवेला आचार्यादिक गुरुनां विनयादिक कर वा माटे अन्युचानादिक साचववा सारु नवु पमे, फरी तेमज बेसीने जमे तो पञ्चरुखाण नंग न पाय॥
अगियारमो (परिगवण के०) जे अन्न परम
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पच्चरुखाण नाष्य अर्थसहित. २१ वातुं होय ते (विहिगहिए के) विधिये ग्रहण करेलुं होय ते उपवासादिक पञ्चरकाणमां पण लेवु पो तेने पारिठावणियागारेणं कहीयें, एटले जे विधिये करी निर्दोषपणे ग्रहण करयु, अने विधिये वहेंची प्राप्यु होय, परी अन्य साधुयें विधिये नुक्त कखा थकी कांइक आहार नगस्यो ते पारिष्ठापन योग्य थयु, परंतु ते अधिक श्रादा रने परग्वतां दोष नपजे , एवं जाणीने तेह, अन्न तथा विगयादिकने गुरुनी आज्ञाये आहार तां पञ्चरका नंग न थाय, तिहां एटलं विशेष जे चनविहार उपवासमांदे पाणी, पारिछावणि यांगारेणं थाय, तथा तिविदार नपवासना पञ्च स्काणमां अन्नादिकनुं पारिद्यावणियागारेणं थाय, परंतु विगयादिक, पारिघावणियागारेणं न थाय, अने बीजा सर्व पञ्चस्कागोने विषे थाय, ए श्रा गार यतिने दोय परंतु पाठ संलग्न माटे गृह स्थने पण पाठमां कहेवाय . ___ बारमो (जश्ण के) यतिने अर्थै आगार जासवो ते यतिने अर्थे (पावरण के०) प्रावरण
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श्वर पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ना पनकाणे (कमिपट्टो के) चोलपट्ट तेदनो आगार जागवो, एटले वस्त्र मूकी नग्न थइ बेगे होय अने गृहस्थ आवे एटले लजाने माटे नगीने चोलपट्ट पहेरे, तेने चोलपट्टागारेणं कहीये एथी पञ्चख्खाशनंग न थाय. ए आगार पण यतिने होय ॥ २६ ॥
खरमिय लुहिम मोवा, इ लेव संसठ मुच मंमाई ॥ न कित्त पिंम विगई, एं म स्कियं अंगुलीहिं मणा ॥२७॥ .. अर्थः-तेरमो, प्रश्रम (खरमिय के) खर मयो होय अने पठी तेने (लूहिश के) लुंगी नांख्यो होय एटले खरमयो ते लेप अने लूंग्यु ते अलेप एवो (मोवा के) मोयो चाटुवो प्र मुख होय ते (लेव के ) लेवालेवेण आगार जाणवो, एटले नोजन- नाजन अथवा चाटुवा प्रमुख होय ते अकल्पनीय एवा विमय अने शाक प्रमुख अनादिके खरमया होय, पनी ते कमी प्रमुखने लूंगीने अलेप कीधां होय,तो पण काइक
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पञ्चरका भाष्य अर्थसहित.
२४-३
विगयादिक अवयवना सनावे सहित बे; तेवा ना जने करी श्रायंबिलादिक पच्चरकाल वालाने ज मतां तां पञ्चख्खाण अंग थाय नही.
चौदमो गिवसणं एटले नक्तदायक गृ हस्थसंबंध विगयादिके वघारादिके ( संसठ के० ) संसृष्ट एटले मिश्र कीधुं एवं ( कुच्च के० ) शा कादिक केरंवादिक तथा ( मंगाई के० ) मांमादि क ते लगारेक हा गोल प्रमुखे चोपस्या कीधा होय, तेने गृहस्थसंसृष्ट कहीये, ते निविदा पञ्चरका ऐ लेवा कल्पे तथा आयंबिलमां पण किंचिन्मा त्र तैलादिके स्निग्ध दाथे लगामेला एवा मंग कादिक होय ते पण यतिने लेतां पञ्चरकाण जंग न थाय.
पन्नारमो ( पिंक विगई के० ) पिंमरूप विगयनुं (नरिकत्त के० ) दिप्त एटले पाहुं लेबुं एटला माटे एने निधिवेगेलं नामे श्रा गार कहीये. एटले ए नाव जे मांझा प्रमुख अन्न तथा पूषिकादिक ऊपर गोल प्रमुख तथा माखणादिक मूक्यां होय, ते फरी पाला तेना
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५४ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. नपरथी उपामी पण लीधा होय एटले ए गोल माखणादिक जे पिंक विगय ने ते एवां , के जे पदार्थ उपर राखेला होय, तेने फरी जेवारे तेना उपरथी पागं नाहरी लड़ये तेवारे ते निःशेषपणे एटले बधां पाबां लेवाश् शकाय नही, कांक पण रोटला प्रमुखने लागेलां थकांज रही जाय माटे जेना नपरथी पिंमविगइ अलगी करी लीधी होय एवा रोटला प्रमुखने विगश्ना पञ्चरकाण वालो, जो गृहस्थना घरथी वहोरीने गंजे, तो पञ्चरकाप्यनंग न थाय.
शोलमो (मस्कियं के) मसख्यु (अंगुली हिं के०) अंगुलीयें करीने (मणा के) लमा रेक एटले ए नाव जे अंगुलियें घृतादिक चोप मी ते अंगुलीयें चोपमीने मांमा प्रमुख करे तेने पमुच्चमस्किएणं कहीये. ते सर्वथा रूक्ष एवा मंग कादिक होय तेने लगारेक स्नेहवंत सुकुमारता नपजाववाने अर्थे लहुचूर प्रमुख अंगुलीयें करी प्रदित कीg होय ते नीवि पञ्चस्काणमां लेतां प बरकाण नंग न थाय, परंतु घृतादिकनी धारायें
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. श्धए करी प्रक्षित करे, तो लेवू कल्पे नहीं. ए शोल आगार अशन आश्री कह्या ॥२७॥ हवे पाणस्सना ब आगारनो अर्थ कहे .
लेवामं आयमाई, अर सोवीरमच मुसिजलं ॥ धोरण बहुल ससिखं, न स्सेश्म इअर सिबविणा ॥२॥दारं॥॥ ____ अर्थः-प्रथम ( लेवामं के) लेपकत पाणी ते कोने कहीयें ? के (आयमाई के) आचा म्लादि सामण आदिशब्द थकी आंबली तथा शदनुं पाणी पण जागवंएटला माटे ए आगा रंगें नाम लेवेणवा कहीये.
बोजो (इअर के) इतर एटले पूर्वोक्त लेप थकी नसटुं अलेपकृत पाणी लेवू, ते माटे ए श्रा गारनं नाम अलेवेण वा जाणवं. ते (लोवीर के) सौवीर कांजी धोयण आदिशब्दथी गमूल जरवाणी प्रमुख जागवू.
त्रीजो (अ के०) अ ते निर्मल पाणी (नसिराजलं के० ) ऊष्ण पाणी एटले त्रिको
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२४६ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित.
कालित कृष्ण जल अथवा बीजुं पण निर्मल पाणी नितरयुं फलादिकनुं धोयल जाणवुं एटला माटे वा नाम कहीये.
चोथो (घोण के० ) चोखा प्रमुखना धो या प्रमुखनुं पाणी तेने ( बहुल के० ) बहुलेप कहीये एटला माटे एनुं बहुलेवेणवा एवं नाम बे. ए तंडुलधावनादिक गंकुल पाणी जाणवुं.
पांच मो (ससि के० ) सीथ सहित पाणी ते ( नस्सेइम के० ) श्राटाथी खरमया हाथनुं धोय एटले नत्सेदिम एवं पिष्टजलनुं नाम बे एटला माटे ससिबेलवा एवं ए आगारनुं नाम बे.
पूर्वोक्त पांचमा ससिल वा ए श्र गारथी ( इअर के० ) इतर ते श्राटावाला दाथनुं धोयतेने वस्त्रादिके करी गब्युं होय, तेथी ते ( सिविया के० ) सोय विनानुं जाणवुं, एटले अन्नादिक घाटाना दाणाना स्वाद विनानुं थाय, एटला माटे तेनुं नाम असित्रेण वा कहेवाय. ए बगार पाणीना कह्या. तेनी साधे पूर्वे करेला शोल प्रागार मेलवीये, तेवारे सर्व मली बावीश
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पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित. श्व आगारोनी संख्या थाय ॥२७॥
अहीयां प्रत्येक आगारे वा शब्द मूकेलो के ते एक एकथी बीजा बीजामा विशेष देखामवा ने माटे , एटले लेपथी अलेप विशेष, अलेपथी अब विशेष, अञ्चथी बहुलेप विशेष, बहुलेपथी ससित विशेष, ससितथी असित विशेष जाणवो, परंतु लेपादिकनुं पाणी लीये, तो पण नपवासा दिकनो नंग थाय नही. इति नावः ॥ ए प्रकारे अपुनरुक्त एटले फरी न नचरीये एवा बावीश आगारोना अर्थ- व्याख्यान लेशथी देखाम. ए आगारोना अर्थ- चोथु हार पूर्ण प्रयु. उत्तर बोल चालीश थया॥ दवे दश विगइना स्वरूप, पांचमुं हार कहे ले.
पण चन चन चन विह, उन रक उचाइ विगइ गवीसं ॥ ति दुति च नविह अनका,चन महुमाई विग बार॥
अर्थः-जे इंडियादिकने पुष्ट करे, मन, वचन अने कायाना योगने अप्रशस्त विकार उपजावे,
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श्व पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. ते विगइ कहीये, ते विगइ दश नेदे ले. तेमांथी चार विग तो साधु अने श्रावकबेहुने अन्नदयज .एटले नक्षण करवा योग्य नथी, अने उ नक्ष्य विगइ साधु अने श्रावक बेहुने लक्ष्य करवा यो ग्य . माटे एने लक्ष्य विगइ कहीये,तेना उत्तर नेदे बार थाय ते कहे .
प्रथम अध विगइ (पण के) पांच नेदे , बीजी दधि वियर (चन के) चार न्नेदेने, त्री जी घृतविगइ (चन के) चार नेदे , चोथी तेल विगइ (चन के) चार नेदे , पांचमी गोळविगइ (5के) बेनेदे, ही पक्वान्न विगइ (उविह के) विविध एटले बेनेद , ए (डाइ के) उग्धादिक (उ के०) (नरक के) लक्षण करवा योग्य (विग के०) विगइ , तेना सर्व मली नत्तरन्नेद (इगवीसं के) एकवीश थाय डे.
हवे चार अन्नक्ष्य विगाना नत्तर नेद कहे. प्रथम मधु विग (ति के)त्रण देने, बीजी भदिरा विग (5 के) बेनेदे , त्रीजी मांस विगइ (ति के०) त्रण नेदे , चोथी माखणवि
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पञ्चरकाण जाप्य अर्थसहित.
२४७ गइ (चनविद के० ) चार भेदे बे. ए ( महुमाई ho ) मधु आदिक (चन के० ) चार ( अमरका ho) अजय ( विगइ के० ) विगइ बे, तेना सर्व मली उत्तर भेद ( बार के० ) बार थाय ते सर्व ना मपूर्वक बागल कदेशे ॥ २७ ॥
हवे प्रथम व
विगइना एकवीश
नेद व्यक्त करी कहे बे. खीर घय दहि प्रतिनं, गुरु पक्कनं बरक विगईन ॥ गो महिसी नंटि य एलगाण पण ६ मह चनरो ॥ ३० ॥
अर्थः- प्रथम व जक्ष्य विगयनां नाम कहे बे. एक ( खीर के ) दुध, बीजो ( घय के० ) घृत, त्री जो (दहि के० ) दधि, ( के० ) वली चोथो ( तिनं के० ) तैल, पांचमो ( गुरु के ) गोल, उठो ( पक्कान्नं के० ) पक्वान्न, ए (ब के० ) (कविगन के प ) नक्ष्यविगय जाणवा. एटले ए व विग जे बे, ते साधु तथा श्रावकने नक्षण करवा योग्य बे, माटे एने जक्ष्य विगय
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२५०
पञ्चस्काण जाप्य अर्थसहित .
कह्या, हवे ए बनय विगयना उत्तर भेदनां नाम कहे बे.
तिदां प्रथम दूधविगयनुं नाम कह्युं बे, माटे दूधना उत्तर भेद कही देखा बे. एक ( गो के ) गायनुं दूध, बीजं ( महिसी के० ) बनुं दूध, त्रीजुं ( नंटि के० ) नंटमीनुं दूध, चोथुं ( श्रय के० ) प्रजा एटले बालीनुं दूध, पांचमं ( एलगारा के० ) एरुका ते गामरीनुं दूध ए ( पण के० ) पांच जातिनां (दुइ के० ) दूध ते सर्व विगई जालवां, अने शेष मनुष्यली तथा बीजा पशुयादिकनां जे खीर थाय बे ते विग इमां गणाय नही. (अद के० ) अथ एटले हवे ( चनरो के० ) चार जातिनुं घृत तथा चार जा तिनुं दहीं कदे दे ॥ ३० ॥
घय दहिया ट्टि विणा, तिल सरि सव प्रयसि लह तिल्ल चक्र ॥ दवगुरु पिंमगुमा दो, पकनं तिन घय तलियं ॥ ३१ ॥ दारं ॥ ५ ॥
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. २५१ अर्थः-प्रथम (घय के ) घृत जाणवू, बीजी (ददिया के) दधि जाणवू, ए बे विगश्ना एक (नहिविणा के) चंटमीना दूध विना बाकी चार चार नेद जाणवा. केम के नंटमीनुं दूध जमाय नहीं, भाटे ते विना बाकी चार, एक गा यना दही, घी, बीजु नेषना दहींनुं घी, त्रीजुं गलीना दहींनुं घी, अने चोथु गामरना दहीघी, ए चार नेद घृतना जाणवा, तथा दहींना पण एज चार नेद. एक गायना दूधनुं दहीं, बी जुं नेंषना दूधनुं दही, त्रीजुं गलोना दूधनुं दही अने चोयूं गाझरना दूधनुं दही, ए चार दहींना नंद विगइरूप जागवा.
हवे तेल विगयना चार नेद कहे . एक (तिल के) तिलन तेल, बीजं (सरिसव के) सरशवनुं तेल, त्रीजुं (अयसि के) अलसीनुं नेल अने चोथु (लट्ट के ) काबरी कसुंबा धा न्य खसखसना दाणानुं तेल, ए (तिल्ल के) तेल विगश्ना (चक के) चार नेद विगश्या ता रूप जाणवा, अने बीजा एरंमीयानां फूला,
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श्५५ पञ्चरकाणं नाष्यअर्थसहित दिमोल, मधुकफल, नालियेर, खदिर, शिंशपा दिक यावत् लादापाकादिक सर्व जातिनां तेल ते नीवियातां जाणवां.
हवे गोल विगश्नाबे नेद कहे . एक (द वगुम के० ) व्यगोल ते ढीलो राबमीयो रसरूप गोल जाणवो, बीजो (पिंगुमा के) पिंम रूप गोल ते कागे विविध जातिनो गोल जाणवो. ए (दो के) बे प्रकारना गोल जाणवा.
हवे (पकनं के) पक्कान विगश्ना बे नेद कहे , तेमां एक तो पूर्व जे चार जातिनां तेल कह्यांबे, तेमा तल्युं होय तेने (तिल्लतलिय के ) तेलमा तलेलं पक्कान कहीये, बीजु पूर्वे जे चार जातिनां घृत कयां, तेमां तब्यु दोष तेने (घयतलियं के०) घृतमां तलेलं पक्कान क हीये. तलियं शब्द बे स्थानके जोमवो. ए रीते दूधना पांच, धृतना चार, दहींना चार, तेलनां चार, गोलना बे अने पक्कानना बे, मली एकवी श नेद जदय विगयना कह्या. ए विगयना ना मनुं पांचमुंहार पूर्ण प्रयु.नत्तर बोल पञ्चास अया।
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. २५३ हवे ए नक्ष्य विगयना निवीयाता त्रीश कराय
ने तेना नेदोर्नु नहुं हार कहे डे. पयसाडि खीर पेया, वलेहि उधि उछ विगगया ॥ दरक बहु अप्प तंजल तचुनाबल सहिअ उछे ॥३२॥
अर्थः-प्रथम दूधना पांच निवियाता पाय ते कहे . एक (दरक के०) शख अने टोपरादिक नाखीने दूध रांध्यु होय तेने ( पयसामि के०) पय सामी कहीये, बीजं (बहुतंकुल के०) घणा चोखा नांखीने दध रांध्यं होय तेने (खीर के) खीर कहीये, त्राणु (अप्पतंडल के) अल्पतंऽ ल एटले थोडा चोखा नांखीने दूध रांध्यु होय तेने (पेया के०)पेया कहिये, चोथु ( तचुन्न के ) ते चोखाना चूर्णे करी सहित एटले ते चो खानो आटो लोक नाषाये फूकरपुं कहे , ते नांखीने, दूध पचाव्युं होय, रांध्युं होय तेने (अ वलेहि के) अवलेहिका कहिये, पांचमुं (अंबि लसहिअउ के०) खाटो रस करी आब कांजी
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२५० पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. प्रमुख खटाशे सहित उध ऊष्ण करे, अथवा ए लोक नाषाये दूधमा खटाश होय, तेमाटे एने फे दरी कहे , अथवा त्रश दिवस प्रसूत गोकुग्ध ब लही बलहटां ते (कुट्टी के ) सुट्टी कहीये, ए पांच (5६ के०) पुग्धना (विगगया के) विकृतिगता एटले निवियाता जाणवा, नेदांतरे, एना पण बीजा नेदो थाय ठे ॥३॥ हवे घृतविगइ तथा दहीविगइना पांच पांच
निवियाता कहे . निजण वीसंदण, पक्कोसहि तरिय किट्टि पकघयं ॥ दहिए करंब सिहरिणित, सलवण दहि घोल घोलवमा ॥ ३३॥
अर्थः-एक पक्वान्न तल्या पठी उतरयुं जे बलेखें घृत तेने (निप्रंजण के) निजण एटले निर्नजन घृत, पक्काननुं तलण घृत कहीये, बीजुं दहींनी तरी अने धान्यनी कणक बेहु एकग मेलवीने नीपजाव्युं जे व्य विषेश ते कुल्लरी इति नाषा सपादलक देश प्रसिह ते (वीसंदण के) विसंदन
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. श्यप एटले विस्पंदन कहीये, त्रीजुं (पक्कोसहितरिय के) पक्योषधितरित एटले औषधिने घृत साथे पचावीये तेनी नपर जे घृतनी तरिका वले , एवं कूरिया सरिखं घृत पचीने श्राय, ते घीनी नपरली तरी कहीये, चोथु घृतनो मेल नतरे तेने (किहि के) घृतनो मेल ते कीटुं कहीये, पां चमुं (पक्कघयं के) पाकुं घृत ते औषधिये प चावेलु घृत जाणवू, खयर आमलादिक ब्राह्मी प्र मुख औषधिये करी पचाव्युं होय ते जाणवू एना नेदांतर घणा पाय.
, हवे दहींना पांच निवियाता कहे जे. प्रथम (दहिए के) दहींने विषे नदन एटले कूर एक तुं मेलवीने कीg ते दधि सीधोरो इत्यादि लोक नाबाये कहे , तेने (करंब के) करंबो कही ये, बीजुं खांक नांखीने हाथथी मथन करेलुं ६ ही तथा खांमयुक्त बांधेलु दहीं तेने (सिहरिणी के) शिखरिणी कहीये, त्रीजुं खूणना कण नां खीने मथेनुं वस्त्रे अागल्युं जे दही, ते (सलव पददि के ) लवणसहित दधि कहीये, चोथु लु
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२५६ पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. गमाथी गणेखें मथेचं दहीं तेने (घोल केए) घो लेटु दही कहीये, पांचमुं दहींना घोलयुक्त वटक करवां कांजीवमां, दहीवमां तथा दहीं गणीने तपावे, पठी माहे वहां नांखे, तेने (घोलवमा के) घोलवमां कहीये, शहां विवेकीने एटलुं वि शेष के जिहां विदलयुक्त करवु पर्छ, तिहां दही तथा गस जे वमामांहे नांखवी होय तेने ऊप्स करी नांखीये तेवारे श्रावकने नक्षण करवा योग्य थाय, अन्यथा घोलवमां बावीश अन्नदयमा म शाय ते नकण करवा योग्य नश्री. अकल्पनीय जागवां ॥३३॥ हवे तेल तथा गोल विगइना पांच पांच
निवीयाता कहे . तिलकुट्टी निप्नंजण, पक्कतिल पक्कुस हितरिय तिल्ल मली। सक्कर गुलवाणय पा, य खंम अधकढिय श्कुरसो ॥३४॥ ___ अर्थः-प्रथम (तिलकुट्टी के०) तिल तथा गोल कूटीने खांमीने एकवां करिये, ते तिलवट
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पञ्चस्काण जाय अर्थसदित.
२५७ कहीये, बीजुं तब्या पक्वान्नथी उतरेलुं दाजेलुं बलेलुं तेल एटले पक्वान्ननुं तला जाणवुं, प्रथ वा केरी प्रमुखादिकना सरसीयादिक तेल ते ( निजण के० ) निजण एटले निर्भजन जा रावं, त्रीजुं सर्व औषधवाला तेल एटले लाक्षा दिक व्यथी पकावेलां तेलने ( पक्कतिल के ) औषधपक्व तेल कहिये, चोयुं तेलमांहे नाराय यादिक षधी पचाव्या पबी औषध उपर तरी वले ते ( पक्कुसहितरिय के० ) पक्वौषधिथी त रित तेल एटले पक्वौषधिश्री वलेली तरि कहीये. पांचमुं (तिलमल्ली के० ) तेलनी मली एटले तेलनो मेल कीटी जागवी. ए पांच नीवियाता तेलना जावा. एना पण नेदांतरे घणा नेदो थाय.
वे गोळना नीवियाता कहे बे. एक (सक्कर के ) साकर मिश्री, बीजो ( गुलवालय के०) गोलवाली तथा रांधेलुं गलमाणुं प्रखात्री जे कराय बे ते देश प्रसिद्ध बे, बीजो ( पाय के०) गोलनी पांति ते पा कगुरु जेणे करी खाजादिक लेपीये बैये एने मा लवादिक देशने विषे काकबपांति एम जाषाये
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२७ पञ्चरकाण नाष्यअर्थसहित. कहे, चोयो (खंग के) खांमनी सर्वजाति, पांचमो (अधकढिय इकुरसो के ) अ: काढे लो क्षु एटले सेलकी तेनो रस, ए पांच नीवि याता गोलना जाणवा. एना पण नेदांतर घणा थाय ३ ॥३॥ हवे कमाविगइना पांच नीवियाता कहे जे.
पूरित्र तव पूआ बिय, पूत्र तन्नेहतु रिय घाणाई॥ गुलहाणी जल लप्पसि, य पंचमो पूत्तिकय पून ॥ ३५॥ ___ अर्थः-(पूरितवपूआ के ) पूस्यो एटले ढां क्यो सर्व तावमो ने जेणे एवा पूडला नपर (वि अपय के)बीजोपुमलो तली काढीये, ते बीजो पूमलो नीवीयातो जाणवो, एटले घृतादिके पूरित एवो जे तवो तेने विषे एक पूपें करी पूस्यो सम स्त तवो तेहमां एक वार तली, वली तेहिज पूपि कादिक पर्पटकादिके अपूरित स्नेह एवा तवामां बीजी वार तथा त्रीजी वार केपवीने तली काढीये जे पक्वान ते निवीयातुं जाणवं.
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पञ्चरस्काण नाष्य अर्थसहित. पण बीजं (तन्नेह के ) तेथी अन्य एटले त्रण घाण तलो काढ्या पठी नपरांत बीजूंघत केपव्यु नथी एवं जे तवामांहढं मूलगुं घृत तेहि त्रण घा
नांतलमांहे तल्या जे अने (तुरियघाणा के०) चोथा घाणवा आदिक ते सर्व बीजुं नीवीयातुं जा गवं, तया त्रीजु (गुलहाणी के०) गोलधाणी क रवी, ते त्रीजुं निवीयातुं जाणवू.
चोथु सुकुमारिकादिक काढ्या पली एटले पक्वान्न तली काढया पी नड़त जे घृतादिक ए टले वधेनुं जे घृतादिक तेणे करी खरमेलो जे तको तेने विषे पाणी साये रांधी एवी जे लापसी गहूंनुं नरण गोलनुं पाणी घृतादिके नेलीने सी जव , एने मरुदेशे प्रसिद्धपणे लापसी तथा ल हगटु कहे जे ते (जललप्पसिब के ) जललाप सी निवीयातुं जाणवू. एटले तावमीनी चीगट टालवा सारु मांहे लोट नांखी पाणी साथे लाप सो करीये ते जाणवी. (पंचमो के ) पांचमुं (पुत्तिकयपून के० ) पोतकृत धमलो ते घृत तेले खरमेला एवा स्नेहदिग्ध तवाने वीषे गुमादिकर्नु
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२६० पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. पोतुं आपी गल्या पुमाकरे ,एटले पक्वान्न तल्या परी खरमया तावमा मांहे गोळादिक, पोतुं देने पुमलो साजवीये ते निवीयातुं जाणवु ॥ एउ जद विगयना त्रीश निवीयाता कद्या.
जिहां घी अने तेलमां पाणीनो नाग आवे ते नीवियाता तल्या चणादि सर्व जाणवा, अने जे कमाश्मांहेथी घी तथा तेल नपर फरी वले नही, चिलमिलाट न पाय एवं तळेलु होय, ते पण विगयातुं नही कहेवाय, इत्यादिक परंपरा गत लेवानो विचार बहु प्रकारे , ते गछसमाचा रोगत प्रसंगथी योगादिकमांदे कल्पाकल्प विन्नागे लखीये बैये.
लहचूई, पूपिकादि, पोतकृतपूपक, वेममी, तदिनकृत करंब, घोल, फूल, वघारित पूरण, व घारिका, पटीरमी, मश्रित अगलित तक्रादिक, ‘कस्मिन्नपि योगे' कोइ पण योगने विषे न कल्पे अनेरी योग विना निवीमां कल्पे.
लदिगढे, ठोगरा, वघारिक वां, घारवमां, साज्यपक्व खीचमी, सेवतिका, वघारित चणका
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पच्चरूखाण नाष्य अर्थसहित. २६१ दिक, उत्तराध्ययन योगने विषे आचारांग मध्यगत सप्तसप्तकाध्ययनने विषे चमरोद्देशक अनुज्ञा या वत् नगवतीयोगने विषे न कल्पे, बीजा सर्व योगमध्ये कल्पे.
अने पढोगरी, फंकरां, नकलधुं, वाशी करं ब, तिलवटी, कुल्लर, निवीयातां, विगइ, गांठीया ना घारा, दलिया, गुंदविना मगीयादि, औषधा दि, मोदक, पेटक, खंमा, सितावर, सोलां, वासी, गुमपाक, गुंदपाक, वगर तल्यां कांकरियां, अनु त्कालित इक्षुरस,दिनत्रयावधि प्रसूत गोदुग्ध, ब लहट्टी, अंगाराथी उतारी प्राज्यादि मिश्रित खी चमी तथा सेवश्का पाउला दिवसनी पचावेली, तिलवटी, पर्पटकादि,गुमादिके मिश्रित न करेली तिलवटी, इत्यादिक नीवीयातां श्रीआवश्यक, द शवैकालिक,नत्तराध्ययनादिसर्व योगने विषेप्रायः कल्पे. एवो विचार प्रसंगथी जाणवा माटे ल ख्यो रे ॥३५॥
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१६५ पञ्चरकाश नाष्य अर्थसहित. हवे गिहत्वतंसडेणं ए आगारकी नीवीनां पञ्च काणमांहे जे नीवियातां साधुने कल्पे, ते संसृष्ट व्य कहीये, ते संसृष्ट व्य
जाणवाने कहे . उछ दही चउरंगुल, दव गुम घय तिल एग भत्तुवरि ॥ पिंगुल मकणाणं, अदा मलयं य संसठं॥३६॥
अर्थः-(उच के) उग्ध अने (दही के०) दधि मांहे कूर प्रमुख नाखीये एटले दूध दही मिश्रि त कुरादिक होय, ते जो ध तथा दहीं कुरथी (चनरंगुल के) चार अंगुल नपर चमे तेने सं सृष्ट च्य कहीये, ते नीवियातुं नीवीमां कल्पे एटले नात रोटी नपर दूध, दही, चार अंगुल प्र माण चुं चमथु होय,तो नीचोप्रमुख मांहे साधुने कट अने चार अंगुलथो अधिक पांच आदिक अंगुलना प्रारंनयी जेवारे नंचुं चमे, तेवारे ते विगइ जाणवू. माटे ते न कल्पे.
अने (दवगुरु के ) व्यगोल एटले ढीलो
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पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित. २६३ नरम गोळ अने (घय के० ) घृत (तिल्ल के.) तेल एत्रणे ज्यां सुधी (नत्तुवरि के० ) नक्त जे नात अथवा रोटी ते नपरे (एग के०) एक अंगुल प्रमाण नंचां चढयां होय त्यां सुधी संसृष्ट
व्य कहेवाय, एटले नीवियातुं कहवाय, ते लेवं कल्पे अने बीजा अंगुलथी प्रारंन्नीनेनंचा चमता देखाय, तेवारे विकृत व्य एटले विगयव्य जा गवां, ते लेवां कटपे नहीं.
(पिंगुल के० ) पिंगोल एटले काग गोल साथे (मकणाणं के० ) मसब्युं जे चूरमुं प्रमु ख तेमांहे (अदामलयं के०) आम्लिक एटले शण पीलूना महोर ते समान नहाना कणीया ना जेवा प्रमाणवाला एवा गोलना बहु खंग रहे, तो पण तेने (च के० ) वली (संस के० )सं सृष्ट व्य कहिये. ते नीवीयातामांहे लेवा कल्पे परंतु एथी महोटा खंम गोलना रहे तो ते विक तिमत जाणवा, ते कटपे नहीं ॥३६॥
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श्वध पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. दवे वली एहिज नीवियातानुं स्वरूप दर्शाववा
कांश्क विशेष कहे . दवहयविगइ विगइ, गयं पुणो तेण तं हयं दत्वं ॥ नरिए तत्तमिय, नक्कि दवं इमं चन्ने ॥३७॥
अर्थः-(दव के.) च्य जे कलम शाली चो खा प्रमुख तेणे (हय के०) हणी निर्वीर्य करी एवी जे कीरादिक (विग के०) विगइ तथा कणिकादिके दणी एवी जे घृतादिक विग तेने ( विगइगयं के०) विकृतिगत एटले नीवियातुं कहीये. (तेण के०) ते कारण माटे (पुणो के०) वली ते तंजुलादिके हण्यु एवं जे विकृतिगत (तं के०) तेने (हयं दवं के० ) हत व्य कहीये. तथा सूखमी तावमामांहेश्री (नहरिए के) न इत्या पठी एटले सूखमी काहामी लीधा परी नगरयुं जे घृत (तत् के०) ते टाहाकुंथया पनी तेमां लोट नांखीने हलाविये (तम्मिय के.) ते घृत तावको हेगे नतास्वा पठी (नक्किन्दवं के.)
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. १६५ नत्कृष्ट व्य कहेवाय एटले विगय जाणQ (इमं चन्ने के०) एम अनेरा आचार्य कहे . इति गाथार्थः ॥ ३७॥
इहां नावार्थ ए ले जे अन्न प्रमुख व्ये विग इना पुजल हण्या, तेवारे विगयनो स्वाद फरी गयो, तेथी ते नीवीयातुं कहेवाय. परंतु विग तथा निवृत्तिक न कहेवाय, एटला माटे ते नी वीना पञ्चस्काण वालाने लेवी कल्पे. ___ अने सुकुमारिकादिक सुखमीने तावमामां हेथी काढया पठी नगरयुं जे घृतादिक तेने विषे चूला नपर बते अग्निसंयोगथी तपे थके तेमांहे देपव्युं जे कणिकादिक दल प्रमुख तेने नत्कृष्ट व्य कहीये, ते विकृतिगत जाणवू. ते केम के ? चूरिम पूर्वे कमाह विग थईनन कणिका कीधी ते कृष्ण घृत गोल परस्परे ऽव्य हत श्रश्ने पठी ते कणिका केप करी मोदक बांध्या एवं जे चूर मादिक ते विकृतिगत जाणवू, पण विगय सम जवी नहि, एनुं नाम नत्कृष्ट व्य जाणवू. एम केटलाएक आचार्य कहे . नामांतरे गीतार्थानि
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२६६ पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. प्राये तो एम के जो चुल्हाना मायाथी नतस्या परी शीत थया केमे जे कणिकादिक क्षेपवीये, ते तथाविध पाकालावधी विकृतिगत कहीये, अ न्यथा परिपक्व विशेष थये द्रव्यगत कहीये, पण विगइ तथा निर्विकृतिक न कहीये. एवं व्याख्या न प्रवचनसारोझारवृत्तिना अनिप्रायथी लख्यु , पल तिहां एम कडं , जे सुधियें नली परें वि चारवू, जे माटे निर्विकृतिक अनेक नेदे . ते व हुश्रुतनी आचरणा परंपरायी जाणवां ॥३७॥ हवे केटलीएक वस्तुनां नाम नत्तम इव्य कह्यांडे,
ते देखामे . तिल सकुलि वरसोलाई, रायणंबाई दखवाणाई ॥ मोली तिल्लाश्या,सरसुत्तम दव लेवकमा ॥३॥
अर्थः-(तिल के) तेलथी नीपनी एवी (स कुलि के) तिल सांकली तथा खारेक, टोपरां, सिंगोमा प्रमुख नाहोलाना हारमा तेने (वरसो लाई के) वरसोलां कहीये, अने आदिशब्दकी
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. २६७ साकर खांमना विकार साकरीया पापम, नालि केर, खांम, कातली, पाक, सर्व मेवा प्रमुख, रा जदना आदिक, तथा (रायण के) रायण (अं बाइ के) आंबादिक एटले आम्रादिक फल सर्व अचित्त कह्यांपाकादिके नीपजाव्यांमधुकादिकनां, नालिकेरादिकनां (दरकवाणाई के०) दाखवाणी प्रमुख, नालेरवाणी प्रमुख (मोलीतिलाईया के०) मोली,तेल, आदि शब्दथकी नालिकेर, सरशव,प्रमु खनुं तेल, एरंमं प्रमुखनुं तेल जाणवू.अरकोमादिक मेवा हलवा प्रमुख ए सर्व (सरसुत्तमदव के) सरस नत्तम य कहीये तथा एने (लेवकमा के) लेपकृत पण कहीये. ए नीवीमां कल्पनीय जागवां ॥३७॥ हवे ए सर्व पदार्थ कारणे लेवां कल्पे, पण सहज पणे रसगृध्रताये लेवां कल्पे नहीं, ते कहे .
विगगया संसा, उत्तमदवाइ निधि गश्यंमि ॥ कारणजायं मुत्तुं, कप्पति न जुत्तुं जं वुत्तं ॥३ ॥ अर्थः-एक (विगगया के० ) विकृतिगता
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पञ्चरकाल प्राप्य अर्थसहित.
एटले दूध प्रमुख विगरथी उत्पन्न थया जे नीवी याता जे संख्याये त्रीश पूर्वे कह्या वे ते, बीजा ( संसठ्ठा के ० ) संसृष्टव्य जे करंबादिक, मग दल, पाम पिंमादिक, त्रीजा (उत्तम दवाइ के० ) उत्तम झयादिक ते तिलसांकली, साकर, मेवादिक सरसोत्तम झय जे पूर्वे कही आव्या ते एत्रण प्रकारनी वस्तु ते ( निधिगइयं मि के ० ) नीवीना पच्चरकाणने विषे कोइ ( कारणजायं के ० ) कारणजातं एटले पुष्टालंचन विशेष प्रयो जनरूप वातादिक कारण ( मुत्तुं के० ) मूकीने, साथैने ( जुत्तुं के० ) जोगववुं लेवुं ( न के० ) नहीं ( कप्पंति के ० ) कल्पे. जेने जावजीव सुधी ब विगयनां पञ्चरकाण होय, किं वा तथाविध वि शेष तपे नजमाल होय, किंवा वैयावच्च करवाने नजमाल होय, ज्ञानादिकनो नद्यमी होय, तेवारे शरीरे ग्लानादिक निमित्ते औषधादिक कारणे ले वां कल्पे, अन्यथा कारणविना लेवां कल्पे नही. (जं के०) जेमाटे (वुत्तं के०) कांबे, ते आागली गाथाये कहे . ॥ ३९ ॥
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. २६ए विगई विगजीन, विगगयं जो अनुंजए साहू ॥ विगई विगइ सहावा, विगई विगई बला नेइं॥४०॥
अर्थः-(विगई के०) दूध प्रमुख जे बिगइ ठे ते प्रत्ये अने (विगगयं के०) विकृति गत जे कीरादिक त्रिविध व्य नीवीयाता कह्या ते प्रत्ये (विगइ के० ) विगति एटले विरुध्धगति ते नरक, तिर्यंच, कुदेव, कुमाणसत्व रूप जे माठी गतियो तेनाथकी (जीन के०)नीती राखतो एटले बीहोतो अथवा संयम ते गति अने तेनो प्र तिपकी जे असंयम ते विगति जागवी.तेवी विरु गतिथकी बीहितो एवो (जो के०) जे (अ के) वली (साहू के० ) साधु ते (खंजए के) लुंजे एटले खाय ते साधुने (विगई के) विग ते (विग के) विगति जे नरकादिकनी विरुः गति तेने विषे (बला के०) बलात्कारे एटले ते साधु जो पण मुर्गतिमां जवाने नथी वांगतो तो पण बलात्कारे तेने मावी गति प्रत्ये (नेई के)
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७० पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. पहोंचामे. ते (विगई के) विगइ केदेवी ने ? तो के (विगइसहावा के०.) विकृति स्वन्नाव, एटले विकार नपजाववानो ने स्वन्नाव जेने एवीजे. केम के ए विकृत ते अवश्य शब्दादिक कामनोग ने वधारे एवी . माटे कारण विना विगयादिक न लेवां, अने श्रावकने पण निवी प्रमुखने पञ्चरकाणे को महोटा कारण विना तथा विशेष तप विना नीवियाता लेबा कल्पे नहि, एनो विस्तार श्रीमा वश्यकनियुक्तिनी वृत्तिथी तथा प्रवचनसारोशर नीवृत्तित्रादिक ग्रंथथी जाणवो. आंही संकेप मात्र लख्यो रे ॥ ४ ॥ हवे चार अन्नदय विगय ,तेना नत्तरनेद कहे .
कुत्तिय मच्चिय नामर,महु तिहा कह पिठ मद्य उहा ॥ जलथल खग मंस तिहा, घय व मस्कण चन अजका ॥४१॥ दारं ॥६॥ ___ अर्थः-तिहां प्रश्रम मधु विगयना नेद कहे
. एक (कुत्तिय के०) कुत्तां बगतरां जंगल मध्ये श्राय . तथा वर्षाकाले विशेष थाय ,
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पचरकाण नाष्य अर्धसहित. २७१ तेहर्नु मघ, वीजुं (मबिय के) माखी- मध, अने त्रीगँ (नामर के) नमरातुं मध एवं (तिहा के०) त्रण प्रकार, (महु के) मधु एटले मध जागवू, तथा एक (क के०) काष्ठ ते धानको प्रमुख कारथी महुमादिकथी नीपन्यु मद्य, बीजु (पिके) पिष्ट ते ज्वारप्रमुखना आटादिकथी नीपनी मदिरा ए (मद्य के०) मद्य एटले मदिरा ते (उहा के)बे प्रकारनी जाणवी. हवे मांसना नेद कहे . एक (जल के ) जलचर जीव जे मत्स्यादिक ते.बीजुं (श्रल के) थलचर जीव जे हिपदचतुष्पदादिक तेर्नु, त्रीजुं (खग के )खेचर जीव जे पदीयादिक तेनुं, ए (तिहा के) त्रिधा एटले त्रण प्रकारचें (मंस के) मांस जागवू, तथा (घयत्व के) घृतवत् एटले जेम घृत, गायनेष गामरी अने गली ए चार प्रकारे कडं तेम (मरकण के० ) माखण पण ए हज चार प्रकार, जाणवू, पण एटलुं विशेष ले जे माखण , ते सर्व (चनअन्नरका के०) चारे प्रकार, अन्नदयज ले. अने घृत जे , ते चारे
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२७५ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. प्रकारनुं नक्ष्य विगयमां का ने, जेमाटे बोज थइ खटासे चलित रसपणुं पामीये एवी एक म दिरा, बीजुं सथी बाहेर नीकल्युं एवं माखण, त्रीजुं जीवित शरीरथी अलगुं थयुं एवं मांस, रुधिर तेपण एमज जाणवू, तथा चो) मधुपु माथी उपन्युं मधु, ए चारे पदार्थोने विषे अंतर मुहर्तमध्ये असंख्याता बे इंडिय जीव नपजे, तेमा मांसपेशी मध्ये तो पक्क तथा अपक्व तथा अग्नि नपरे पच्यमान एवो थको पण तेमांहे अ संख्य बेंश्यि तथा पंचेंश्यि तथा निगोद जीव अनंता पण पोते पोतानी मेले उपजता कह्या बे, तेमाटे ए चार विगय जे , ते सर्वथा अन्न क्ष्य वर्जनीय कही . ए त्रीश निविगनुं हुं हार पूर्ण प्रयु. उत्तर बोल ० थया ४१ हवे पञ्चरकाणना बे नांगानुं सातमुं
हार कहे . पञ्चरकाणना बेदे , एक मूलगुणरुप अने बीजुं उत्तर गुणरुप तिहां साधुने मूलगुण ते पांच महाव्रत अने उत्तरगुण ते पिंमविशुद्धया
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पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित. ज्य दिक जाणवां, तथा श्रावकने मूलगुण ते पांच अणुव्रत अने उत्तरगुण ते त्रण गुणवत अने चार शिक्षाबत जागवां, तिहां सर्व पञ्बरकाणादिक तेहना नांगा जे रीते श्राय, ते रीते कहे .
तेमां सर्व नुत्तरगुण पञ्चरकाण अनागतादिक दश प्रकारे पूर्व कयां, अने देशोत्तर गुण पञ्च स्काण सात प्रकारे-ते त्रण गुणव्रत अने चार शिकावत मली थाय, तथा वली एक इत्वर अने बीजुं यावत्कथिक, एबे नेदे उत्तरगुण प्रत्या ख्यान तेमां साधुने इत्वरगुण पञ्चरकाण ते कां इक अनिग्रहादिक जागवां, अने सावत्कधिक है. पिमविशुःक्ष्यादिक तथा अनियंत्रितादिक जे अन्न कादिके पण अन्नम होय-नंग न थाय, ते सर्व यावत्कथिक जाणवां, अने श्रावकने तो इत्वर ते चार शिकावतादिक डे. अने यावत्कथिक त्रए। गुणवतादिक . ते श्रावक बेनेदे, एक अवि रति सम्यग्दृष्टि ते केवल सम्यग्दर्शन युक्त कृष्ण श्रेणिकादिकनी परे जाणवा. अने बीजा विरति सम्यग्दृष्टि ते वली बेनेदे एक सानिग्रही अ
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४ पञ्चकाण नाष्यअर्थसहित. ने बीजा निरनिग्रही.
ते वली विनज्यमान थका आठ नेद थाय, ते केवी रीते? तो के एक ऽविध त्रिविध, बी जो विविध विविध, त्रीजो विविध एकविध, चोथो एकविध त्रिविध, पांचमो एकविध विविध, बगे एकविध एकविध, ए उ नांगा पांच व्रत आश्रयी थाय, अने कोइएक नत्तरगुणमांहेलु को इएक व्रत लीये, ते सातमो नांगो जागवो, अने आठमो नांगो को नियम मात्र नज लीये ते जाणवो. ए रीते पुर्वोक्त पांच अणुव्र तादिकने तेने नांगे गुणीये तेवारे त्रीश नंग थाय, तेनी साये एक उत्तरगुणनो नांगो मे लवीये, तेवारे एकत्रीश भांगा थाय, तेनी साये वली को नियम मात्र व्रत न लीये, तेनो एक नांगो मेलवीये तेवारे बत्रीश नेदे श्रावक सम्य गदर्शनी शंका कांदादि रहित अमूढदृष्टिपणे जागवा. इत्यादिक नेदनी वक्तव्यता बहुबे, पण इहां मुख्यताये गणपञ्चास नांगा थाय, ते लांगा गाथाना अर्थे कहे .
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ७५ मण वयण काय मणवय, मणतणु वय तणु ।तजोगि सग सत्त॥कर कारणुम तिजुय, तिकालि सीयाल नंगसयं ॥४॥ ___ अर्थः-एक प्राणातिपातादिकने (मण के) मने करी न करूं, बीजो (वयण के) वचने करी न करूं, त्रीजो (काय के) कायाये करी न करूं, चोथो (मणवय के० ) मन अने वचने करी न करूं. पांचमो (मणतणु के) मन अने कायाये करी न करूं, हो (वयतणु के०) वच न अने कायाये करी न करूं, सातमो (तिजो गि के) मन, वचन अने काया, ए त्रणे योगे करी न करूं, ए एक संयोगो (सग के० ) सा तनांगा थया.
ते सात नांगा ( कर के) करवा. आश्रयी जाणवा. तेमज ( सत्त के०) सात भांगा (कार के) कराववा आश्रयी जाणवा, अने सात नांगा (अणुम के ) अनुमति प्रापवाना एटले अनु मोदन देवाना पण जागवा.
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२७६ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित.
ते आवी रीते केः-प्राणातिपातादिकने एक मने करी न करावं, बीजो वचने करी न करा बुं, त्रीजो कायाये करी न करावं, चोयो मन अने वचने करी न करावं, पांचमो मन अने कायाये करी न करावं, बठो वचन अने कायाये करी न करावं, सातमो मन, वचन अने कायाये करी न करावं. ए सात कराववाना नांगा कह्या. हवे सात अनुमोदवाना कहे . एक प्राणातिपा तादिकने मने करीन अनुमाउँ, बीजो वचने करी न अनुमोई. त्रीजो कायाये करी न अनु मोई, चोथो मन अने वचने करी न अनुमो, पांचमो मन अने कायाये करी न अनुमोड, हो वचन अने कायाये करी न अनुमो, सातमो मन, वचन अने कायाये कर। न अनुमो, ए सात नांगा अनुमोदन देवाआश्री कया, एम सात करवाना, सात कराववाना अने सात अनु मोदवाना मली एकवीश नांगा थया..,
हवे (उति जुआ के०) कि त्रिक योग स हित सात सात नांगा करीये, ते आवी रीते के
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पञ्चस्काय नाष्य अर्थसहित. १७७ एक प्राणातिपातादिकने मने करी न करूं, न क रावं. बीजो वचने करी न करूं, न करावं, त्रीजो कायायें करी न करूँ न करावं. चोथो मन अने वचने करी न करूं, न करावं, पांचमो मन प्रने का याये करी न करूं, न करावं, ठंडो वचन अने का याये करी न करूं, न करावं, सातमो मन, बचन अने काया, ए त्र करी न करूं, न करावं, ए करवा कराववा श्री सात भेद कद्या. तथा एक प्राणातिपातादिकने मने करी न करूं, न अनुमोडुं, बीजो वचने करी न करूं, न अनुमो डुं, त्रीजो कायाये करी न करूं, न अनुमो, यो थो मन अने वचने करी न करूं न अनुमो, पां चमो मन अने कायाये करी न करूं न अनुमोई, asो वचन अने कायाये करी न करूं, न अनुमो डुं, सातमो मन वचन अने काया, ए त्रणे करी न करूं, न अनुमोडुं, ए सात जंग, न करवा, तथा न अनुमोदवा श्री कला तथा एक मा लातिपातादिकने मने करी न करावु, न अनुमो डुं, बीजो वचने करी न करावु, न अनुमो, त्री
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२७७ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. जो कायाये करी न करावं, न अनुमो, चोयो मने करी वचने करी न करावं, न अनुमोई, पां चमो मने करी कायाये करी न कराएँ, न अनु मो, उठो वचने करी कायाये करी न करावं, न अनुमोई, सातमो मन, वचन अने कायाये करी न करावं, न अनुमोई, ए न कराववा न अनुमोदवा आश्री सात नंग कहा. एम सात न करवा न कराववा आश्री अने सात न करवा न अनुमोदवा आश्री तथा सात न कराववा न अ नुमोदवा आश्री. एवं सर्व मली किसंयोगे एक वीश जंग थया. तेनी साथे पूर्वोक्त एक संयोग ना एकाश मेलवता, बहतालाशनांगा थया: . हवे त्रिक संयोगे सात नंग थाय, ते कहे डे. एक प्राणातिपातादिकने मने करी न करूं, न करावं अने न अनुमोई, बीजो वचने करीन करूं, न करावु अने न अनुमोई, त्रीजो कायाये करी न करूं, न करावं अने न अनुमोई, चोयो मन अने वचने करी न करूं, न करावं अने न अनुमोई, पांचमो मन, अने कायाये करी न क
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पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित.
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रुं, न करावं, अने न अनुमो, बढो वचन अने कायाये करी न करूं, न करावं अने न अनुमोडु. सातमो मन, वचन अने कायाये करी न करूं, न करावं अन अनुमोडुं, ए त्रिकसंयोगी सात जांगा था. ते पूर्वोक्त वर्हेतालीश साधे मेलवतां सर्व मली नगणपचास जांगारूप ते अणुव्रत, गु व्रत ने श्रनिग्रहादिकना ज्ञेद नपजे, तेने ( तिकालि के० ) त्रण काल ते प्रतीत, अनागत अने वर्तमान, एत्रण काले करी गुणीये, तेवारे ( सीयालजंगलयं के० ) एकशोने सुरुतालीश ( १४७ ) मांगा थाय. माटे जे एटला नांगा जाणे, ते पञ्चरकाणनो कुशल कहीये. यदुक्तं ॥ सीयालं जंगलयं, जस्स विसुछिए होइ नवलई ॥ सो खलु पच्चरकाले, कुशलो सेसा अकुसलाय ॥ १ ॥ इति ॥ एना विशेषे जांगा षमूजंगीना श्रावकना व्रत संबंधी थाय ते कहे बे. गाथा ॥ तेरसकोमी सयाई, चुलसीइं जुयाई बारसय लरका | सत्तासी सदस्सा, दोय सया तह पुर प्रदिया ॥ १ ॥ तेरशे कोमाकोमी, चोरासी को
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श पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. मी, बारलाख सत्यासी हजार बशे में वे पाय. एमज नवनंगीना नवाणुं हजार नवशे ने नवाणु कोमी, नपर नवाणुं लाख, नवाणुं हजार, नवझें ने नवाणुं एटला नांगा थाय. एए ए ए एU एए ए एए एमज एकवीस नंगी तथा नगण पञ्चास नंगीना विशेष नांगा याय, ते सर्व आ घश्यकबृहपत्तिथी, तथा दीपिकाश्री तथा प्रवच नसारोबारवृत्तिथी, तथा श्रावकवतन्नंगप्रकरण तिथी.तथा देवकूलिकाथकी जागवा. ते पचरका रानो कुशल होय, तेणे विचारवा.
हवे ए पञ्चरकाणनुज स्वरूप कहे ले. ___ एयं च नत्तकाले, सयं च मण वयण ताहि पालणियं ॥ जाणगजाणग पासि, त्ति जंग चनगे तिसुअणुणा ॥ ४३ ॥ ॥ दारं ॥ ७॥
अर्थः-(एयं च के) ए पूर्वोक्त वली (उस काले के) नक्तकाल जे पोरिसीयादिक काल
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पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित. १ प्रमाण रूप ते ( सयं च के) पोतानी मेळे जे वीरीते बोल्यु होय-यथोक्तरूपे जे नंगादिके ली, होय, ते नंगादिके (मणवयणतणूहि के) मन, वचन अने कायाये करी (पालगियं के) पा लवा योग्य ते (जागजाग पासि के) जाण अजाण्या पासे करे (इत्ति के) एम (नंगचनगे के)नंगचतुष्के एटले चार नांगाने विषे करे; तेमां (तिसुअणुमा के) पहेला त्रण नांगाने विषे अनुझा एटले आज्ञा ले एटले ए पञ्चरकाणने क रवा कराववा रूप चननंगी थाय ते कहे .एक पञ्चकाणनो करनार शिष्य पण जाण होय, अने बीजो पञ्चरकाण करावनार गुरु पण जाण होय, ए प्रथम नंग शुइ जाणवो. बीजो पञ्चरका एग करावनार गुरु जाग होय अने पञ्चरकाण क रनार शिष्य अजाण होय, ए बीजो नांगो पण शुभ जाणवो.त्रीजो पञ्चरकाण करनार शिष्य जाण होय अने पञ्चकाणनो करावनार गुरु श्र जाण होय. ए बीजो नांगो पण शह जाणवो. चोथो पञ्चरकाण करनार शिष्य अने पञ्चरकाण क
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श्श् पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. रावनार गुरु, ए बेहु अजाण होय, ते चोथो नांगो अशुभ जाणवो. ए रीते चार नांगामांथो त्रण नांगे पञ्चरकाण करवानी आज्ञा , अने चोया नांगाने विषे आज्ञा नथी॥ ए मूलगुण, नत्तरगु रारूप पञ्चरकागनु सातमुं हार थयु. नुत्तर नेद व्याशी थया ॥३॥ ___ हवे पूर्वोक्त नंगादिके विचारीने पण जेम संयमयाग हीन थाय नही, ते रीते पचरूखाण की, अकुं पण उ प्रकारनी शुध्येि करी सफल थाय, माटे पञ्चरुखानी उ विशुधिनुं आठमुं हार कहे .
फासिय पालिय सोहिय, तिरिय कि हिय आराहिय उ सुद्धं ॥ पञ्चस्काणं फा सिय, विहिणोचिय कालि जं पत्तं ॥४॥
अर्थः-एक (फासिय के०) फासित एटले पञ्चख्खाण फरश्यु, बाजु (पालिय के.) पा लित एटले पञ्चख्खाण पाल्युं, त्रीगँ (सोहिय के) शोनित एटले पञ्चख्खाण शोनाव्यु, चोथु
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पञ्चरूखाण नाष्य अर्थसहित. २३ (तिरिय के) तीर्ण एटले पञ्चख्खाण तीरथु, पांचमुं (किहिय के) कीर्तित एटले पच्च ख्खाण कीत्यु, हुं (आराहिय के०) आराधि त एटले पच्चख्खाग आराध्यु ए (उसुई के०) उ प्रकारे शुकरी शह एवं (पच्चख्खाणं के) पच्चरुखाण, फलदायक होय. हवे ए विशु हिना अर्थ कहे .
तिहां प्रथम सम्यक् प्रकारे (विहिणोचिय कालि के) विधिये करी नचित काले एटले उ चितवेलाये (जं पत्तं के०) जे पञ्चख्खाण प्राप्त थयु एटले सूर्योदयथी पहेलां पच्चरुखाण नचि तकाले जे पाम्युं, एटले जे पञ्चरुखाण कीg, ते यावन्मात्र जेटला काल लगण ग्रहण करयुं, ता वन्मात्र तेटला काल लगे पहोंचाम, तेने (फा सिय के ) फरश्युं कहीये ॥ ४ ॥
पालिय पुण पुण सरियं, सोहिय गु रुदत्त सेस लोयण ॥ तिरिय सम हिय कालो, किहिय लोयण समयसरणे॥४॥
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शव पञ्चकाण नाष्य अर्थसाहित.
अर्थः-बीजं ज्यां लगे पञ्चख्खाण पूरूं न थाय, तिहां लगे (पुणपुण के) वारं वार रूप योग देने सावधानताये (सरियं के) संना रचं जे महारे अमुक पञ्चख्खाण आजे, ए रीते पञ्चरुखाणने स्मरणमा राखवु, ते (पालि प के) पारयुं कहीये..
त्रीजु (सोहिय के) शोनित एटले शो नाव्यु, ते आहारादिक लाव्या होश्ये ते प्रथम (गुरुदत्त के ) गुर्वादिकने निमंत्री आपीने पी (सेस के) शेष रहुं होय जे (जोयणन के) जोजन तेने पोते लेवाश्रकी एटले पञ्चस्काण कीg डे ते पूरण श्रया परी ते वस्तु लावी पदे ला मुरुने पापी पी पोते वावरे ते (सोहियं के०) पञ्चख्खाण शोनाव्युं कहीये. चोथु (स महियकालो के ) समधिककाल ते पञ्चरस्कारा नो काल पूर्ण थया पीपण थोमो अधिक काल लगे पळखीने सबुर करीने पली पच्चरकाण पारे, तेने (तिरिअ के) पच्चख्खाण तिरित एटले तीरथु कहीये. पांच, (नोयणसमय के)लो
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित... २५ जनना समयने विषे नोजननी वेलाये (सरणे के) संन्नार, जे फलाणु अमुक पच्च रकाण हतुं, ते आज महारुं पूर्ण थयु . हवे अशन करूं ? आरोगुं? निस्तारूं ? इत्यादिक विनय ना षा साचवीने जमवू, तेने (किट्टिय के०) पच्च स्काण कीयु कहीये ॥ ५ ॥
इअ पमित्ररिअं आरा, हियं तु अ हवा व सुदि सद्दहणा ॥ जाणण विणय णु नासण, अणुपालण नावसुधात ॥ ॥४६॥ दारं ॥७॥ * अर्थः-उतुं (इअ के) ए सर्व प्रकारे करी (पमियरियं के०) प्रतिचरितं एटले आचरयुं जे पच्चरकाण एटले ए सर्व प्रकारे संपूर्ण निश्राये पमामयुं निराशंसपणे श्रीजिनाज्ञा पालन पूर्वक संयमयात्रा निर्वाहक षटकारण साधनपूर्वक अ प्रमादपणे महोटा कर्मक्षयने कारणे अयं तेने (आराहियं के७) आराधितं एटले आराध्यु क हिये (अहवा के) अथवा प्रकारांतरे करी
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२६ पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. (तु के) वली पण पञ्चरकाणनी (सुचि के०) शुक्षि प्रकारांतरे बीजी ले ते कहे . प्रथम सम्यग्दर्शनी ज्ञवंतना मुखश्री पञ्चस्का ण करवू, अने निःशंकता आचारयुक्त शुः सद्द हणा पूर्वक करवं, एटल करला पञ्चरकाण नपर शुनाव होय ते (सदहणा के) सदहणा शुदि जाणवी, बीजी पचरकाणने इच्य, क्षेत्र, काल अने नावथी जाणीने तथा मूल नत्तरगुणे नेद नंगादिके जाणीने वली जाणन पासे पच्च स्काण करे, ते (जागण के) जाणवापणं ए बीजो अधिकार शुक्ष जारांवो. त्रीजी सुझाना दिक आचारसंयुक्त अतिचार प्रविधि रहित गुरु नी पासे वांदणां देवा प्रमुख विनय साचवीने प चरकाण करवु, ते (विणय के० ) विनयशुद्धि जागवी. चोथी गुर्वादिक कहेता होय ते प्रत्ये आ गारादिक, पोते नांखवू, एटले गुरु पञ्चरकाण करावे, अने पाउलथी पोते आगार नच्चरे, ते (अ गुनासण के) अनुनाषणशुहि जाणवी. पांच मी निराशंसपणे रूमी रीते पाले, जो विषम जय
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पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. २७ कष्ट भाव नपजे तो पण दृढ रहे, परंतु पञ्चका
नंग न करे, पञ्चरकाणथी चूके नहीं, ते (अ णुपालण के०)अनुपालणा शुदि जावी. ठी पूर्वोक्त सर्वप्रकारथी निर्धारारुप इहलोक परलोक नी वांगरहितपणे आशंकादि दोषे करी रहित ते (नावसुइत्ति के०)नावशुदि. इति एटले एम जाणवू.ए उ शुदिपण समस्त सर्वे पञ्चख्खाणोने विषे जाणवी. एमनंगादि विशुझिना विस्तारनां बीजक ग्रंथांतरथी जाणवां. एटले ए आग्मुंब शुध्नुिं चार थयुं। नत्तर बोल अहाशी थया॥६॥ हवे पचरूखाणनुं फल बे प्रकारे थाय, तेनुं
नवमुंहार कहे . पच्चरकाणस्स फलं, शह परलोएय हो विहं तु ॥ इहलोए धम्मिलाई, दामन्नग माइ परलोए ॥४७॥दारं॥॥
अर्थः-(पचरूखाणस्सफलं के) पचख्खा गर्नु फल ते (इहपरलोण्य के) इह लोक तथा परलोक आश्री (इविहं तु के०) बे प्रकार, व
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शत पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. ली (होर के) होय, तेमां कोइएक प्राणीने ३ हलोके एज नवमां तुरत फल थाय, अने कोशए कने परलोके एटले परनवे फल थाय, तिहां (s हलोए के) आ लोकाश्रयी तो (धम्मिलाई के०) धम्मिलादिकनो दृष्टांत वसुदेवहिंमीग्रंथी जाणवो, एटले धम्मिले उत्तरगुण पचख्खाण चारित्ररूप उ महीना पर्यंत आयंबिल प्रमुख तप कर्यु, तेथी तेहीज नवे घसी लब्धि नपनी, शरी रना मल मूत्र सर्व औषधरुप थयां, राजसंपदा जोगवी मोझपदवी पाम्यो, अने (परलोए के) परलोकनेविषे एटले परनवमां ( दामनगमाइ के) दामनकादि प्रमुखना एटले दामनक ना मे व्यवहारीयाना बेटानो दृष्टांत श्रीआवश्यक नियुक्तिप्रमुख ग्रंथथकी जावो. एटले पचरूखा ण फलनुं नवमुं धार . उत्तर बोल नेQ श्रया ॥ ७॥ ___ एमां आ जव आश्रयी पञ्चख्खागना फल संबंधी धाम्मलकुमारादिकना दृष्टांत कहा , तेनी कथा संक्षेपथी लखवी जोइये, परंतु १
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पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित. श्न धम्मिलनो रास उपाइ गयो , तेमां एमनी संपू र्ण कथा घणा सानोने वांचवामां आवी गयेली बे, माटे आंही लखी नथी, जे सऊनोने वांच वानी अनिलाषा होय तेमणे रास वांची लेवो.
अने परनवे दामनकादिकने फल प्रयुं ते दामनकनो दृष्टांत संप मात्रे लखीये येः-रा जपुर नगरे एक कुलगर रहेतो हतो, तेनो जिन दास श्रावक मित्र हतो, तेनी संगतथी कोश्क दिवसे साधु पाले गयो, त्यां मत्स्यना मांसनो नियम लीधो, अनुक्रमे निद थयुं, तेवारे घणा लोक मत्स्याहारी थके शालिकादि पुरुषे बला कारे इह समीपे आएयो, तिहां ते जालमांना खेला मत्स्यने जोश्ने मूकी आपे. एम त्रण दि वस सुधी बलात्कार कराव्यो, तेवारे एक मत्स्य नी पांख त्रूटी देखी बलात्कारे तेथी निवो, पगी असण ले मरण पामी राजगृह नगरे शेठनो पुत्र अयो, दामनक नाम दीg, ते आठ वर्षनो थयो तेवारे तेनुं कुल मरकोना रोगथो मरण पाम्यु, नबिन प्रयुं, तेवारे ते दामनक को
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शए पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. सागरदत्त व्यवहारीने घरे :खित अको रह्यो. एकदा साधुनुं युगल निदाने अर्थे ते व्यवहारीने घेर आव्युं, तिहां ते बालकने देखीने परस्पर साधु बोल्या जे ए बालक ए घरनो स्वामी श्रशे, ते प्रचन्नप्रवृत्ति घरना अधीशे जाणो तेवारे अम र्षपणे करी ते बालकने मारवा नणी अंत्यजने आप्यो, तेरो अनिझान देखामवा निमित्ते तेनी टचली अंगुली छेदी परं तेने नीतिषय नय देखा को परहो काढयो, पठी ते बालक अनुक्रमे नागे थको ते शेग्नुं जिहां गोकुल , ते ग्रामे आव्यो, तिहां ते गोकुलना स्वामीये तेने स्वरूपवान् तथा विनीत देखी पुत्रपणे थाप्यो, यौवन पाम्यो. पजी अनुक्रमे केटलाएक वर्षांतरे तिहां सागर दत्त शेठ आव्यो, तेणे तेने देखीने नलख्यो, ते वारे कोड कार्यनं निमित्त करी लेख लखीने आ प्यो, तेमां शेठे पोताना पुत्रने लख्यु जे एने विष आपजो. एवो लेख आपी पोताने नगरे मोकल्यो, ते श्रांत अयो को नद्यानमांहे काम देवना प्रासादे आवी सूतो, तिहां वरार्थिनी एवी
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पच्चरुखाण नाष्य अर्थसहित. ए शेग्नी पुत्री कामदेव पूजवा आवी, तिहां तेणे तेने सूतो देखी कागलमा पोताना पिताना अ कर देखी कागल वांच्यो, तेमां विष देवानुं ल ख्यु जोइने पोतानुं नाम विषा ने तेथी तेनी छक थर मनमां विचार्यु जे महारा पिताये मुं दर स्वरूपवान जाणी वर मोकल्यो , पण विष देजो एवं लख्यु २ ते महारा पिता कागल ल खतां नूली गया . विषाने स्थानके विष लखा गयु , अने कामदेवे पण महारा उपर प्रसन्न थ इने ए वर मुमने प्राप्यो, माटे कागलमा विष लख्युं हतुं, तिहां विषा देजो. एम कन्याये अंजन इलाकाये लखोने पागे लेख तेने ठेकाणे मूकी दीघो. अनुक्रमे ते घेर आव्यो, तिहां तरत लम लेश कन्या परगावोने जामाता कीधो. एवी वात सांजलीने शेठ घरे आव्यो. क्रोधाध्मांत थको कहे वा लागो जे मातृपूजन निमिने पाणि ग्रहण मां गलिक वधाववानगो जमाने मोकलो,अने शेठे मारवा सारु अत्यंजने संकेत कराव्यो हतो. हवे ते मातृपूजन निमिने जाय एटलामां विकालवेला
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शएर पञ्चरकाण नाप्य अर्थसहित. जाणी नवपरणीत हतो, माटे शेग्नो पुत्र कहेवा लाग्यो के तमारीवती हुं मातृपूजन करवा जान ब, एम कही ते गयो, एटलामां वच्चे रस्तामां अं त्यजे तेनो संकेत जाणी ते शेठना पुत्रने जमा समजी मारी नांख्यो. नवितव्यताश्री बलवत्तर कोइ नथी. पठी ते पुत्रमरणतुं वृत्तांत सांजलीने हृदयस्फोट शेठ पण मरण पाम्यो. अनुक्रमे घरनो स्वामी दामनक थयो. शषिन्नाषित वचन अन्यथा न थाय. 'अनक्रमे एकदा पागले पहोरे पाहरी देतो ते णे एक मंगल पाठक गाथा कही. तद्यथा ॥ अणु पुखमावहतावि, अन्नना तस्स बहु गुणा हुंति ॥ सुह उस्ककम्म पुमंतो, जस्त कयंतो वहाइ परकं ॥१॥ए गायानो अर्थ सांजली एक लदनुं दान दीर्छ, एम त्रण वार कथा सांजलोत्रण लद दान दीधुं. राजाये ते वात सांजलीने पोतानी पासे ते माव्यो. पनी सर्व वातक बात राजा आगल क ही, राजा हर्ष पाम्यो अको तेने नगरशेग्नी पद वीये स्थाप्यो. एकदा गुरु आव्या सांजली वांदवा
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. २५ गयो, तिहां धर्मदेशना सांजली अने पुरातन नव मत्स्य मांस पच्चरकाणादिक सर्व सनियु, बोधिलान पाम्यो, धर्मानुष्ठान साचवी देवलोके गयो. तिहांथी महा विदेहमा सुकुलमां नपजशे, तिहां बोधिलान पामी चारित्र लही केवलज्ञान पामी परंपराये मोदसुख पामशे,अने केटलाएक तेहीज नवे सिदिपामे. ए बे प्रकारे फलनुं न वमुंहार अयुं ॥ ___एटले सर्व मुलगुण प्रत्याख्यान सर्व उत्तरगु ण प्रत्याख्यान तथा अन्निग्रहादिक देश नत्तरगु ण पण होय, अने श्रावकने देश मूलगुण प्रत्या ख्यान ते अणुव्रत तथा देश उत्तर गुण प्रत्या ख्यान ते गुणवत अने शिदाव्रत जागवां. ते वली बेबे नेदे एक इत्वर ते त्रणकालि अनाग तादि पञ्चरका मूल नत्तर गुण पञ्चरकाण अने देश उत्तरगुण पञ्चस्काण ते शिक्षावतादि तथा देशे मूलगुण पञ्चरकाण अने सर्वेथी नुत्तरगुण पच्चरकाण अने मूलगुण क्रियारूपे एवं पञ्चरकाण धम्मिलादिकने जाणवू. इत्यादिक पक्षस्काणना
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श्व पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. नंग विकल्प घणा , ते गुरुना विनयथी जा पीये, माटे यथागृहीत नंगे पञ्चरकाण आराध वां, तेनुं गमन संपूर्णक्षाराये कहे ॥ ७ ॥ - हवे ग्रंथ समाप्ति अर्थे गाथा कहे .
पञ्चकाणमिणं से, विकण लावण जिणवरुहिठं ॥ पत्ता अणंत जीवा, सा सय सुरकं आणाबाहं ॥ ४ ॥ ॥ इति प्रत्याख्यानजाष्यं संपूर्णम् ॥
अर्थः-(पञ्चरकाणं के) पञ्चरकाण ते (5 ए के०) ए यथोक्त का ते प्रत्ये (नावेस के) नावे करीने एटले नावसहित, श्राये करी निः शंकित सम्यग्दर्शन सहित जे रोते (जिपवर के) जिनेश्वर नगवाने ज्ञान क्रिया सहित न जयनयसम्मत (नदिठं के०) कह्यु , प्रकाश्यु ने ते प्रकारे एवा गुणधारण रूप पञ्चरकासने (सेविकण के०) सेवीने, आदरीने, पालीने त्रि कालापेकाये (अणंत जीवा के ) अनंत जीव
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पञ्चस्काण नाप्य अर्थसहित. श्एए जव्यप्राणी ते (सासयसुरकं के०)शाश्वतां सुर (अणाबाहं के) अनाबाध् अव्याबाध निरा बाध, एटले नथी कोइ बधा जिहां एवं जे मो वस्थानक ते प्रत्ये (पत्ता के०)पाम्या, पामे बे, अने पामशे. ॥ ४ ॥ ॥ति नाष्यत्रयं बालावबोधसहितं समाप्तम्॥
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॥अथ उपदेशरत्नकोशः॥
नवएसरयणकोसं नासिअनीसेस खोगदोगचं ॥ नवएसरयणमालं वुलं न मिऊण वीरजिणं ॥१॥ __ अर्थः-( नासिअनीसेसलोगदोगचं) नाश का ने समस्त लोकनां दारिद्य जेणे एवा (वी रजिणं ) वीर जिनने (नमिकण) नमस्कार करीने (नवएसरयणमालं) उपदेश रूप रत्ननी माला ने जेने विषे एवा (नवएसरयणकोसं) नपदेश रूप रत्नना नंमारने (वुद्धं ) हुं कहीश.
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पञ्चरकाण प्राप्य अर्थसहित.
जीवदयाई रमिकइ इंदियवग्गो दमि इसया वि ॥ सच्चं चेव चविकइ धम्म स्स रहस्स मिणमेव ॥ ५ ॥
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अर्थ : - ( जीवदया ) जीव दयाने विषे ( रमिर ) रमण करीये. (इंदियवग्गो) इंडि योना समुहने (दमिक ) दमन करीये. ( स चं) सत्यने (चेव ) निश्वे ( च विकाइ ) बोली ये ( इणमेव ) आज ( धम्मस्स ) धर्मनुं (रदस्तं) रहस्य तत्त्व बे. ॥ २ ॥
सीलं न हु खं मिऊइ न संव सिइ समं कुसी लेहिं ॥ गुरुवयणं न खलिक जइनकइ धम्मपरमचो ॥ ३ ॥
अर्थ : - ( सीलं ) शीयल व्रतने ( हु ) निश्चे ( न खं मिइ ) न खंमन करीये. ( कुसीलेहिं ) कुशीलिया ( समं ) साथै ( न संवसिज्ज ) न वास करीये. ( गुरुवयां ) गुरुना वचनने (न खलिकर) न नल्लंघन करीये. ए प्रकारे (ज) यतिए ( धम्मपरमो ) धर्मनो परमार्थ ( न
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पञ्चरका नाष्य अर्थसहित.
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ऊ) जावो. ॥ ३ ॥
चवलं न चंक मिऊ विरइकाइ नेव नमो वेसो ॥ वंकं न पलोइइ रुठा वि जांति किं पिसुणा ॥ ४ ॥
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अर्थः - ( चवलं ) चपलताए (न चंक मिइ ) न चालीये. (प्रमो ) ननट (वेसो) वेष (नेव ) नहिज ( विरइकर ) धारण करीये. (कं) वांकी दृष्टिए ( न पलोइकर ) न जोई ये. तो ( रुवि ) क्रोध पामेला एवा पण ( पि सुला ) चामोयान (किं ) शुं ( जयंति ) कहे कही शके ? ॥ ४ ॥
नियमिऊइ नियजीहा पवित्र्यारित्र्यं नेव किए कऊं । न कुलकमो प्र लुप्पइ कुविन किं कुणइ कलिकालो ॥ ५ ॥
अर्थ :- ( नियजीदा ) आपली पोतानी जी ह्वाने ( नियमितइ ) नियममां राखीये ( श्रवि श्ररिश्र ) अविचार्य ( क ) कार्य (नेव ) नहीं 'ज ( किए ) करीए (अ) वली ( कुलकमो)
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२०० पञ्चरकाल प्राप्य अर्थसदित. कुलाचारने ( न लुप्पइ ) न लोपीये. तो ( कु विन) कोप पामेलो एवो ( कलिकालो) कली काल ( किं ) शुं ( कुइ ) करे - करी शके ? ५
मम्मं न न लविइ कस्स विप्रालं न दिइ कया वि ॥ को विन नक्कोसि ऊ सऊणमग्गो इमो डुग्गो ॥ ६ ॥
अर्थ:- कोईने (न) वली (मम्मं ) मर्म व चन ( न लविङ ) न कहीये. ( कस्स वि कोईने ( कया वि) कदापि (आलं) कलंक ( न दिइ ) न दईये ( को वि) कोईने ( न न क्को सिकइ ) श्राक्रोश न करीये. ( इमो ) ( समग्गो ) सऊननो मार्ग ( डुग्गो) दुर्गकिल्ला समान वे अर्थात् ते कोईथी पराभव पा मे नहीं ॥ ६ ॥
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सबस्स नवयरिइ न पम्हसिक पर स्स नवारो । विहलं अवलंबिऊ नव एसो ए स विनसाणं ॥ ७ ॥
अर्थ:- (सहस्स) सर्वने ( नवयरिज्जइ ) नप
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पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित... श्ए कार करीये. (परस्स) परनो (नवयारो) नप कार (न पम्हसिज) न विसारीये. (विहलं) दुःखीने (अवलंबिऊर ) अवलंबन आपोये. (ए स) आ (नवएसो) उपदेश (विनसाणं) वि छानोनो ने ॥७॥
को वि न अप्नचिऊइ किऊइ कस्स वि न पत्रणानंगो। दीणं न य जंपिऊ जीविऊ जाव जीअलोए ॥७॥ __अर्थः-(को वि) कोईनी (न अप्रबिऊर) अन्यर्थना-प्रार्थना करीये नहीं. (कस्स वि) कोईनी (पत्रणानंगो) प्रार्थनानो नंग (न कि जार) न करीये. (य) वली (दी) दीन व चन (न जंपिऊइ) न बोलीये. (जाव) ज्यां सुधी (जीअलोए) जीवलोकने विषे (जीवि ऊइ) जीवीये त्यां सुधी ॥७॥ - अप्पा न पसंसिकाइ निंदिऊऽऊणो वि न कया वि॥ बहु बहुसो न हासिऊइ लप गुरुअत्तणं तेण ॥॥
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३०० पचरकाण नाष्य अर्थसहित. ___ अर्थः-(कया वि) कदापि (अप्पा) श्रा स्मानी (न पसंसिकार) प्रशंसा न करीये. (5 ऊयो वि) जननी पण (न निंदिऊ) निंदा न करीये. (बहु) घणु (बहुसो) घणी वार (न हसिइ) न इसीये. (तेण) तेथी करी ने (गुरुअत्तणं ) मोटाईपणुं (लप्रई) पामीये. ए . रिठणो न वीस सिऊद कया विवं चिऊए न वीसबो ॥न कयग्घेहिं हवि ऊ एसो नायस्स नीसंदो ॥१०॥ __ अर्थः-(रिनणो) शत्रुनो (न वीससिज्ज३) विश्वास न करीये. (कया वि) कदापि (वी सबो) विश्वासुने (न वंचिऊए ) बेतरीये न हि (कयग्घेहिं ) कृतघ्न एटले कर्या कामना ह
नारा (न हविजा) न थईये. (एसो) आ (नायस्स) न्यायनो (नीसंदो) मार्ग ने. १० __ रचिऊ सुगुणे सु बझइ रान न नेह व सु॥ किऊ पत्त परिका दरकाण श्मो अ कसवहो ॥११॥
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पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. ३०१ अर्थः-(सुगुणेसु) सारा गुणीने विषे (र विकार) राजी थईये. (नेहवऊसु) साचा स्नेह रहित पुरुषोने विषे (रान) राग (न बझा) न बांधीये. (पत्तपरिका) पात्रनी परीक्षा (कि आइ) करीये. (इमो अ) आ ज (दरकाण) माह्या पुरुषोनी (कसवट्टो) कसोटीनो पर .११ ___ नाकऊमायरिङ अप्पा पाहिज्जए न वयणिज्जे ॥ न य साहसं चइज्जइ न प्रिज्जइ तेण जगहलो ॥१५॥
अर्थः-(अकऊं) अकार्यने (न आयरिज्ज ३) आचरीये-अथवा आदरीये नहीं. (अप्पा) आत्माने (वयणिज्जे) निंद्य वचनादिकमां (न पाहिज्जए) न पामीये. (य) वली (साहसं) साहस (साहसिकपणा) ने (न चइज्ज)न तजीये. (तेण) तेथी (जगहलो) जगतमां हाथ (नप्रिज्ज) उन्नो राखीये ॥ १॥
वसणे वि न मुज्झिज्जइ मुच्च माणो म नाम मरणे वि ॥ विहवस्कए. वि दि
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३०२ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ज्ज वयमसिधारं खु धीराणं ॥ १३ ॥ ____ अर्थः-(वसणे वि) व्यसन-पुःखमा पण (न मुज्झिज्जइ) न मुंझाइए (मरणे वि) मरण थाय तो पण (नाम) कोमल आमंत्रणने विषे . (माणो) धर्मनुं बहुमान (न मुच्चर) न मू कोये. (विहवरकए वि) लक्ष्मीनो कय श्रये उते पण (दिज्जर) दान दईये. एवं (धीराणं)धी र पुरुषोनुं (असिधार) खम्गनी धार जेवू (व यं) व्रत ने (खु) निश्चे ॥१३॥ . अश्नेहो न वहिज्जइ रूसिज्जइ न य पिये वि पयदिहं । वारिज्ज न क
ली जलंजली दिज्जइ उहाणं ॥१४॥ . अर्यः-(प्रश्नेहो) अति स्नेह (न वहिज्ज ६) न वहन करीये-न धरीये. (य) वली (पिये वि) [प्रय माणस उपर पण (पइदिह) निरंतर (न रूसिज्जर) रोष न करीये. (कली) कजीयो (न वारिज्जइ) वधारीये नहीं.ए रीते (हाणं) दुःखोने (जलंजली) जलांजली दइए ॥१५॥
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पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित. ३०३ न कुसंगेण वसिज्ज बालस्स वि घिप्पए हिनं वयणं ॥ अनयान निवाहि ज्ज न हो वणिज्जया एवं ॥ १५ ॥ ___ अर्थः-(कुसंगण) कुसंगीनी साथे (न व सिज्ज) न वसीये. (बालस्स वि) बालकथकी पण (दिअं) हितकारी (वयणं) वचन (घि प्पए) ग्रहण करीये. (अनयान) अन्यायथी (निवहिज्जइ) निवर्तन पामीये. (एवं) एम करवाथी (वयणिज्जा) वचनीयता एटले निंदा (न हो) न होय ॥१५॥ , विहवे वि न मचिज्ज न विसीइ ज्ज असंपयाए वि ॥ वहिज्ज समन्नावे न हो रणरण संतावो ॥१६॥
अर्थः-(विदवे वि) वैनवने विषे पण ( न मञ्चिज्जइ) न माचोये-न गर्व करीये. (असंप याए कि) संपत्ति रहित पणामां पण (न वि सीइन्जइ) विषाद-खेद न करीये. (समन्नावे) समताने विषे (वहिज्जइ) वर्तीये. तो ( स्पर
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३०४ पञ्चस्काण नाष्यअर्थसहित, ण) सारा माग योगमां (संतावो) संताप (न होइ) न होय ॥ १६ ॥
वन्निज्जर निच्चगुणो न परुळं न य सुअस्स पञ्चकं ॥ महिला न नोजया वि हु न नस्सए जेण माहप्पं ॥१७॥ - अर्थः-(लिञ्चगुणो)नृत्य चाकरना गुण (प रुरकं) परोक्षपणे (न वनिज्ज) न वखाणोये. (य) वली (सुअस्स) पुत्रना गुण (पञ्चकं) प्रत्यक्षपणे (न) न वखाणीये (न) परंतु (म हिला) स्त्रीना गुण (नन्नया वि) बन्ने प्रकारे पण-परोक्ष के प्रत्यक्षपणे पण (न) वखागीये (हु) निश्चे (जेण) जेथी (माहप्पं ) पोतार्नु माहात्म्य-मोटाईपणुं (न नस्स३) नाशन पामे. ___जंपिज्ज पिअवयणं किज्ज ।वण न अदिज्जए दाणं ॥ परगुणगहणं कि ज्जइ अमूलमंतं वसीकरणं ॥ १७ ॥
अर्थः-(पिअवयणं ) प्रिय वचन (जंपि ज्जई) बोलीये. (विन) विनय करीये. (दा
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श्री उपदेशरत्नकोषः ३०५ M) दान ( दिज्जए) दईए. (अ) वली (पर गुणगहणं ) परना गुणनुं ग्रहण (किज्ज)क रीये. ए (अमूलमंतं) अमूल्य मंत्र (वसीकरणं) वशीकरणनो ॥ १७ ॥
पहावे जंपिज्जइ सम्माणिऊइ खलो वि बहुमज्झे ॥ नऊ सपर विसेसो सयल छा तस्स सिझंति ॥ १५॥ ___ अर्थः-(पहावे ) प्रस्तावे-योग्य समये (जं पिज्जइ) बोलीये. ( बहुमज्झे) घणा माणसोनी मध्ये (खलो वि) खल माणस, पण ( संमा पिज्ज) सन्मान करीये. (सपरविसेसो) पो तानो अने परनो विशेष-नेद (नऊ) जाणी ये. तो (तस्स ) ते माणसने ( सयलचा ) स कल अर्थो (सिझंति ) सिद्ध थाय ॥१॥
मंतंताण न पासे गम्मइ नइ परग्गहे अबीएहिं ॥ पमिवन्नं पालिज्ज सुकुली णत्तं हवइ एवं ॥२०॥
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३६ श्री उपदेशरत्नकोष. ___ अर्थः-( मंतंताण ) मंत्र तथा तंत्रने (न पासे ) न जोए (अबीयेहिं ) बीजा विना-ए कला (परग्गहे ) पर घर (नई गम्म) नज ईए. ( पमिवनं ) प्रतिपन्न-अंगीकार करेलु (पा लिऊइ ) पालीये. (एवं) एम करवाथी (सुकुली पत्त) सारं कुलीनपणुं ( हवा ) पायजे ॥३॥
लुंजय मुंजा विऊ पुनिऊ मणोगयं कहिज्ज सयं ॥ दिङ लिऊ नचिअं शबिज्जइ जइ थिरं पिम्मं ॥२१॥ ___ अर्थः-( जइ) जो ( श्रिरं) स्थिर एवा (पिम्मं ) प्रेमने (इबिऊइ) इचिए तो मित्रने घेर (मुंजइ) नोजन करीये. (मुंजाविऊर) तेने नोजन करावीये (मणोगयं) मनमा रहेलो विचार (पुहिज्ज) पूीये अने (सयं) आपणे पोते (कहिऊ) कहीये (नचिअं) योग्य वस्तु (दि ऊर.) दईए अने (लिऊइ) लईये. ॥१॥
को विन अवमन्निऊ न य गधि अइ गुणेहिं निअएहिं । न विम्हन वहि
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श्री नपदेशरत्नकोष. ३०७ ऊइ बहुरयणा जेणिमा पुहवी ॥३॥ ___ अर्थः-(को वि) कोईने पण (न अवम बिऊर) अपमान न करीये (य) वली (निश्र एहिं) पोताना (गुणेहिं) गुणोए करीने (न गविऊ) गर्व न करीये (विम्हन) विस्मय (न वहिऊर) न वहन करीये (जे) जे कारण माटे (श्मा ) पा (पुहंची ) पृथ्वी (बहुरयसा) बहु रत्नवाली . ॥२२॥ ____ आरंनिऊ लहुअं किऊ कऊम हंतमवि पन्ना ॥ न य नक्क रिसो किऊ सप्तश् गुरुअत्तणं जेण ॥ २३ ॥
अर्थः-प्रथम (लहुअं) नानुं काम (आरं निऊइ) प्रारंन करीये (पहा) पीथी (क ज्जमहंतं) मोटुं कार्य (अवि) पण (किज्ज ६) करीये (य) वली (नक्क रिसो) उत्कर्ष (न किज्ज) न करीये ( जेण) जेथी (गु रुअत्तणं ) गुरुत्व-मोटाई (खप्र२)पामीये ॥२३॥
झाश्श् परमप्पा अप्पसमाणो गणि
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३७ श्री उपदेशरत्नकोष, ऊइ परो। किऊइ न राग दोसो निति ऊइ तेण संसारो ॥ २४॥
अर्थः-(परमप्पा) परमात्मानुं (झाऊइ) ध्यान करीये (अप्पसमायो) आपणा आत्मा सामान (परो) परने (गणिज्जर) गणीये. (राग दोसो) राग अने क्षेष (न किज्जइ) न करीये. (तेण) तेथी करीने (संसारो) संसार (मिनिज्ज) बेदीये. ॥ २४॥
नवएसरयणमालं जो एवं उवइ सुटु निअकंठे । सो नर सिवसुहलहीवन यले रम सहाई ॥२५॥
अर्थः-(एवं ) ए प्रकारे (जो) जे माणस (नवएसरयणमालं) उपदेश रुप रत्ननी माला ने (सु) सारी रीते (निअकंठे) पोताना के उने विषे ( ग्वा) स्थापन करे डे. (सो) ते (नर ) माणस ( सिवसुहलबीबछयले ) शिव सुख रुपी लक्ष्मीना वक्षःस्थलने विषे (सगई ) स्वेवा श्री (रम ) रमे . ॥२५॥
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श्री उपदेशरत्नकोष. ३०॥ एवं परमजिणेसर, सूरिवयणगुंफर म्मियं वहन । जब जणो कंठगयं, वि नलं नवएसमालमिणं ॥२६॥ ___ अर्थः-(एअं) ए प्रकारे (पजमजिरोसर मूरिवयणगुंफरम्मिश्र) पद्म जिनेश्वर मूरिना वचननी रचनावमे करीने रमणिक एवी (वि नलं) विस्तीर्ण (इणं) आ (नवएसमालं) नपदेश मालाने (नवजणो)नव्य जन (कंठ गयं) कंठगत (वह) वहन करो अर्थात कंठे धारण करो. ॥ २६ ॥ इति ॥
॥ इति उपदेशरत्नकोशः समाप्तः॥
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॥ अथ श्रीरत्नाकरपंचविंशिका
पारन्यते॥
श्रेयःश्रियां मंगलकेलिसन, नरेन्दे वेन्नतांघ्रिपद्म। सर्वज्ञ सर्वा तिशयप्रधान, चिरं जय ज्ञानकलानिधान ॥१॥ __ अर्थः-(श्रेयःश्रियां) मोक्षरूपी लक्ष्मीना (मंगलकेलिसन) मांगलिक क्रीमाना गह स मान (नरेन्देवेन्नतांघ्रिपद्म) राजान अमे दे वेन्शेवमे नमस्कार कराया ले चरण कमल जेना एवा वली (सर्वातिशयप्रधान ) सर्व-चोत्रीश अतिशये करीने प्रधान एवा वली (ज्ञानकलानि धान) केवलज्ञाननी कलाना नंमार एवा (स र्व) हे सर्वज्ञ प्रनु ! (चिरं) चिरकाल सुधी (जय) जय पामो ॥१॥ - जगत्त्रयाधार कृपावतार, उर्वारसंसार विकारर्वदा । श्रीवीतराग त्वयि मुग्धनावा, विज्ञ पनो विझपयामि किंचित् ॥२॥
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श्री रत्नाकरपंचविंशिका. ३११ अर्थः-(जगत्त्रयाधार) त्रण जगतना आधा रन्नूत एबा वली (कृपावतार) कृपाने माटे अवतार एटले जन्म जेनो एवा वली (उर्वारसं सारविकारवैद्य) दुःखे करी वारी शकाय एवा संसारना विकारनो नाश करवामां वैद्य समान वली (विज्ञ) विशेष ज्ञानवंत एवा (श्रीवीतरा गप्रनो) हे वीतराग प्रन्नु ? (त्वयि ) तमारे विषे (मुग्धन्नावात् ) मुग्धपणा थकी (किंचित् ) कांईक (विज्ञपयामि) हुं विनंति करुंडु ॥२॥
किं बाललीलाकलितो न बालः, पि त्रोः पुरो जस्पात निर्विकल्पः । तथा य थार्थं कथयामि नाथ, निजाशयं सानुशय स्तवाग्रे ॥३॥
अर्थः-(बाललीलाकलितः) बालकनी की माए करीने युक्त अने (निर्विकल्पः) विकल्प रहित एवो (बालः) बालक (पित्रोः) मा बा पनी (पुरः) पासे सत्य वचनने (किं) शुं ? (न जब्पति) नत्री बोलतो अर्थात् बोले रे न.
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३१५ श्री रत्नाकरपंचविंशिका. (तथा ) तेवी रीते (नाथ ) हे नाथ! ( सानु शयः) पश्चात्तापे करो सहित एवो हुं (तव) तमारी (अग्रे) आगल (निजाशयं) मारा-पो ताना अन्तिप्रायने (यथार्थ ) सत्य रीते (कथ यामि) कहुं बुं ॥३॥
दत्तं न दानं परिशीलितं च,न शालि शीलं न तपोऽजितप्तम् । शुजो न जावो ऽप्यनवनवेऽस्मिन्, विनो मया ब्रांतमहो मुधैव ॥४॥
अर्थः-(विनो) हे प्रनु ? (मया) में (दान) दान (न दत्तं) दी@ नथी. (च) वली (शालि) सुंदर एवं (शीलं) शीयल व्रत (न परिशीलितं) पाल्युं नथी. वली (तपः) तप (न तप्तं ) तप्यु (कर्यु ) नश्री. वली (शुन्नः) शुन्न एवो (ना वः)नाव (अपि) पण (न अन्नवत् ) थयो नथी. (अहो) अहो ! (अस्मिन् )आ (नवे ) संसारमा (मुधैव) फोमटज (ब्रांतं) मारावके जमायुं ले-हुं लम्यो बुं ॥४॥
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श्री रत्नाकरपंचविंशिका. ३१३ दग्धोऽग्निना क्रोधमयेन दष्टो, उष्टेन लोनाख्यमहोरगण । ग्रस्तोऽनिमानाजग रेण माया, जालेन बघोऽस्मि कथं नजे त्वाम् ॥५॥
अर्थः-हुँ (क्रोधमयेन) क्रोध रूपी (अनि ना) अग्निवके (दग्धः) बळेलो (अस्मि) बु. वली (उष्टेन) पुष्ट एवा (लोनाख्यमहोरगेण) लोन्न रूपी मोटा सर्पवमे (दष्टः) मंखाएलो बं. वली (अनिमानाजगरण) अनिमान रूपी अजगरवके (ग्रस्तः) गळाएलो बु. वली (माया जालेन) माया रूपी जाळवमे (बः) बंधाये लो . तेथी (त्वां) तमने (कथं) शी रीते (नजे) हुं नजुं ? ॥ ५ ॥
कृतं मयामुत्र हितं न चेह, लोकेऽपि लोकेश सुखं न मेऽनूत् । अस्मादृशां केवलमेव जन्म, जिनेश जज्ञे जव पूरणाय ॥६॥
अर्थः-(लोकेश)हे लोकना ईश ? (मया)
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३१४ श्री रत्नाकरपंचविंशिका. में (अमुत्र) परलोकने विषे (च) तथा (इह) आ (लोकेऽपि ) लोकने विषे पण ( हितं)हि तकारी कार्य (न कृतं) कयु नथी तेथी (मे) मने (सुखं) सुख (न अन्नत् ) न थयुं तो (जिनेश) हे जिनेश ? (अस्मादृशां) अ मारा जेवानो (जन्म) जन्म (केवलं) केवळ (नवपूरणाय एव) नवोने पूरण करवा माटे ज (जझे) थयो . ॥६॥ ___ मन्ये मनो यन्न मनोज्ञ वृत्त, त्वदास्य पीयूषमयूखलानात् । पुतं महानंदरसं क गोर, मस्मादृशां देव तदश्मतोऽपि ॥ ७॥ ___ अर्थः-(मनोज्ञवृत्त) सुंदर ले आचरण जेनुं एवा (देव) दे देव ? ( यत् ) जे कारण माटे (अस्मादृशां) अमारा जेवार्नु (मनः) मन ( त्वदास्यपीयूषमयूखलानात् ) तमारा मुख रूपी चंना लानश्री (महानंदरसं) मोटा आ नंदना रसने (न तं) ब्युं नहीं (तत्) ते कारण माटे अमाझं मन (अश्मतोऽपि ) परथी पण (कगेरं) कगेर ने एम (मन्ये) हुं मानुं बु.॥७॥
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श्री रत्नाकरपंचविंशिका. ३१५ त्वत्तः सुःप्राप्पमिदं मयाप्नं, रत्नत्रयं नूरिजवज्रमेण । प्रमाद नज्ञवशतो गतं तत, कस्याग्रतो नायक पूत्करोमि॥॥ ____ अर्थः-(मया ) मे (नूरिभवज्रमेण) घणा
नवमां ब्रमण करवाए करीने (त्वतः) तमारा थकी (इदं) आ (सुःप्राप्यं ) अति दुःप्राप्य (रत्नत्रयं) रत्नत्रयीने (आप्त) मेळवी हती (तत्) ते (प्रमादनिज्ञवशतः) प्रमाद अने नि शना वशथी (गतं) जती रही तो (नायक) हे नायक ! (कस्य) कोनी (अग्रतः) आगळ (पूत्करोमि) हुं पोकार करूं ? ॥७॥
वैराग्यरंगो परवंचनाय, धर्मोपदेशो ज नरंजनाय । वादाय विद्याध्ययनं च मेऽनू त्, कियब्रुवे हास्यकरं स्वमीश ॥५॥
अर्थः-(मे) मारो (वैराग्यरंगः) वैराग्यनो रंग (परवंचनाय) परने तरवा माटे (धर्मोप देशः) धर्मनो नपदेश (जनरंजनाय ) लोकने रंजन करवा माटे (च) अने (विद्याध्ययनं)
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३१६ श्री रत्ताकरपंचविंशिका. विद्यानो अभ्यास ( वादाय) वाद विवादने माटे (अनूत् ) थयो. (ईश) हे ईश! (स्वं) मारु पोतार्नु (हास्यकर) हास्यकारक-कृत्यादिक (कि यत् ) केटलुक (ब्रुवे ) कहुं ? ॥५॥ ___ परावादेन मुखं सदोषं, नेत्रं परस्त्रीजन वीक्षणेन । चेतः परापाय विचिंतनेन, कृतं जविष्यामि कथं बिन्नोऽहम् ॥ १०॥
अर्थः-में (परापवादेन) परनिंदावके (मुखं) मुखने, (परस्त्रीजनवीक्षणेन) परनी स्त्रीनने जोवावमे (नेत्रं) नेत्रने, (परापायविचिंतनेन) परर्नु मातुं चिंतधावके (चेतः) चित्तने (सदो ५) दोषवाळु (कृ) कयु. तो ( विनो) हे वि नो ? (अहं) हुं (कथं) शी रीते (नविष्या मि) अईश ?-मारुं शुं श्रशे ? ॥१०॥
विमंबितं यत्स्मर घस्मरार्ति, दशाव शात्खं विषयान्धलेन । प्रकाशितं तन्न वतो हियैव,सर्वज्ञ सर्वं स्वयमेव वेत्सि॥११॥
अर्थः-(विषयांधलेन) विषयोमां अंध श्रये
HAP
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श्री रत्नाकरपंचविंशिका. ३१७ ला एवा में ( स्मरघस्मशर्तिर्दशावशात् ) काम देव रुपी नककनी पीमानी दशाना वशश्री ( यत् ) जे (स्व ) मारा आत्माने ( विझबित) विमंबना पमामी ( तत् ) ते (वन्नतः) आपनी पासे (हिया एव) लाथी ज (प्रकाशितं ) में प्रकाश कयु जे. केमके ( सर्वज्ञ ) हे सर्वज्ञ! ( स्वयमेव ) तमे पोते ज (सर्व) सर्व (वेत्सि) जागो गे. ॥११॥
ध्वस्तोऽन्यमंत्रैः परमेष्ठिमंत्रः, कुशास्त्र वाक्यैर्निहतागमोक्तिः । कर्तुं तथा कर्म कुदेवसंगादवांटि हि नाथ मति व्रमो मे ।। १३ ।।
अर्थः-में (अन्यमंत्रैः) बीजा मंत्रोए करीने (परमेष्ठिमंत्रः) परमेष्ठि मंत्र ( ध्वस्तः) नाश पमामयो (कुशास्त्र वाक्यैः) कुशास्त्रनां वाक्योये करीने (आगमोक्तिः) आगमनां वचनो (निद ता) हणी नांख्यां अर्थात् न सांनळ्या अने (कुदेवसंगात् ) कुदेवना संगथी (कर्म) कर्मने
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३१७ श्री रत्नाकरपंचविंशिका. (वृथा ) फोगट (कर्तुं ) करवाने (अवांनि ) वांग्युं ते सर्व (नाथ) हे नाथ! (मे) मारो ( मतिनमः ) मतिनो विनम डे ( हि ) निश्चे.
विमुच्य दृग्लक्ष्यगतं नवंतं, ध्याता मया मढधिया हदन्तः । कटाक्षवदोजग जीरनानी, कटीतयीयाः सुदृशां विलासाः ___ अर्थः-( मूढधिया ) मूढ बुहिवाळा (मया ) में (दृग्लक्ष्यगतं ) दृष्टि लक्ष्यमा आवेला एवा (नवन्तं ) आपने (विमुच्य ) मूकीने (हृदन्तः) हृदयमां ( सुदृशां) स्त्रीयोना (कटाक्षवदोजग जीरनानीकटीतटीयाः) कटाक, स्तन, गनीर नानी तथा कटी तटना ( विलासाः) विलासोनुं (ध्याताः) ध्यान कयु . ॥१३॥
लोलेक्षणावत्र निरीक्षणेन, यो मानसे रागलवो विलग्नः। न शुधसिधांतपयोधि मध्ये धौतोऽप्पगातारक कारणं किम् १४
अर्थः-(लोलेकणावक्त्रनिरीक्षणेन ) चपल नेत्रवाळी स्त्रीयोनां मुख जोवानी (मानसे)
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श्री रत्नाकरपंचविंशिका. ३१ मारा मनमां (यः) जे (रागलवः) रागनो लेश । विलग्नः ) लागेलो, ते (शुसिान्त पयोधिमध्ये) पवित्र सिमान्त रूपी समुश्मां (धौतोऽपि ) धोया बतां पण (न अगात् ) गयो नहीं तो ( तारक ) हे तारनार प्रन्नु ! (किं का रणं ) तेनुं शुं कारण ? ॥ १५॥
अंगं न चंगं न गणो गुणानां, न नि मलः कोऽपि कलाविलासः । स्फुरत्पन्ना न प्रभुता च का।प, तथाप्यहंकारकदर्थि तोऽहम् ॥१५॥
अर्थः-मारूं (अंग) शरीर (चंगं) सुंदर (न) नथी, वली (गुणानां) गुणोनो ( गणः) समूह (न) नथी. वली (निर्मलः) निर्मळ एवो (कोऽपि) कोई पण (कलाविलासः) कलानो विलास (न) नथी (च) वली (स्फुरत्प्रन्ना) स्फुरायमान कांति जेनी एवी (कापि ) कांई पण (प्रनता) प्रनता (न) नथी. (तथापि ) तो पण (अहं) हुं (अहंका रकदर्थितः) अहंकारथी कदर्थना पामेलो बु॥१५॥
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३० श्री रत्नाकरपंचविंशिका.
आयुर्गलत्याशु न पापबुधिर्गतं वयो नो विषयानिलाषः । यत्नश्च नैषज्यविधौ न धर्मे, स्वामिन्महामोह विमंबना मे॥१६॥ ___ अर्थः-(मे) मारूं (आयुः) आयुष्य (आशु) शीघ्रताथो (गलति) जाय , पण (पापबुद्धिः) पापनी बुद्धि (न) जती नथी. वली (वयः) वय (गतं) गयु, पण (विषयानिलाषः) विष योनी इबा (न) गई नहीं. (च) वली (नैष ज्यविधौ) औषधनी विधिमां (यत्नः) यत्न कर्यो, पण (धर्मे) धर्ममां (न) यत्न कर्यो नहीं, ते सर्व (स्वामिन् ) हे स्वामिन् ! (महामोहविर्स बना) मोटा मोहनी विटंबना . ॥ १६ ॥
नात्मा न पुण्यं न जवो न पापं, मया विटानां कटुगीरपीयम् । अधारि कर्णे त्वयि केवलार्के, परिस्फुटे सत्यपि देव घिाम ।। १७ ॥
अर्थः-- ( देव ) हे देव! ( केवलार्के ) केवल ज्ञान रूपी सूर्य समान ( त्वयि ) तमे ( परि
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श्री रत्नाकरपंचविंशिका. ३११ स्फुटे) अति प्रगट ( सत्यपि ) तां पण (आ स्मा) आत्मा-जीव (न) नथी, (पुण्यं) पुण्य (न) नथी, (नवः) जन्म (न) नश्री तथा (पापं ) पाप (न) नथी. (श्यम् ) एवो (वि टानां) नास्तिक लोकोनी (कटुगीः) कटु वाणी (अपि ) पण (मया) में (कर्णे) कर्णने विषे (अधारि) धारण करी. माटे (मां) मने (धिक) धिक्कार ॥१७॥
न देवपूजा न च पात्रपूजा, न श्राध्ध र्मश्च न साधुधर्मः । लब्ध्वापि मानुष्यमिदं 'समस्तं, कृतं मयारण्यविलापतुल्यम्॥१॥
अर्थः-(मया) में (देवपूजा) देवनी पूजा (न) न करी, (च) वली (पात्रपूजा) पात्र नी पूजा (न) न करी (श्राइ धर्मः) श्रावकनो धर्म (न) न पाल्यो. (च) वली (साधुधर्मः) साधुनो धर्म (न) न पाल्यो, (६) आ (मा नुष्यं) मनुष्य नव (लब्ध्वा) पामीने (अपि) पण (समस्तं ) सर्व (अरण्यविलापतुल्यं) श्र
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३२२ श्री रत्नाकरपंचविंशिका. रण्यमां करेला विलापनी बराबर (कृत) कर्यु.
चक्रे मया सत्स्वपि कामधेनु, कल्पद्रु चिन्तामणिषु स्पृहार्तिः । न जैनधर्मे स्फुट शर्मदेऽपि, जिनेश मे पश्य विमूढनावम् ।।
अर्थः-(मया) में (असत्सु) असत्य एवा (कामधेनुकल्पचिन्तामणिषु) कामधेनु, कल्प वृक्ष अने चिंतामणि रत्नने विषे (अपि) पण (स्पृहार्तिः) वांगनी पीमा (चक्रे) करी. प रंतु (स्फुटशर्म दे) प्रगट सुख आपनार एवा (अपि) पण (जैनधर्मे) जैन धर्म ने विषे (न) वांग करी नहीं. माटे (जिनेश) हे जिनेश्वर ! (मे) मारा (विमूढनावं ) मूढपणाने (पश्य) तमे जुन ॥१५॥ ___ सन्नोगलीला न च रोगकीला, धना गमो नो निधनागमश्च । दारा न कारा न रकस्य चित्ते, व्यचिंति नित्यं मयकाधमेन ॥
अर्थः-(अधमेन) अधम एवा (मयका) में (नित्यं) हमेशां (चित्ते) चित्तमां (सनो
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श्री रत्नाकरपंचविंशिका. ३२३ गलीला) सारा सारा नोगनी लीला (व्यचिंति) चिंतवी. (च) पण (रोगकीला) रोग रूपी खीलो (न) चिंतव्यो नहीं. (धनागमः) धननी प्राप्ति चिंतवी. (च) पण (निधनागमः) मर पनी प्राप्ति (नो) चिंतवी नहीं. (दारा) स्त्री चिंतवी, पण (नरकस्य) नरकनुं (कारा) का रागृह (न) चिंतव्युं नहीं ॥ ३०॥ ___ स्थितं न साधोर्हदि साधुटत्तात्, परो पकारान्न यशोऽर्जितं च । कृतं न तोंड रणादिकृत्यं, मया मुधा हारितमेव जन्म।
अर्थः-(मया) में (साधुवृत्तात) सारा श्रा चरणथी (साधोः) साधु पुरुषना (हृदि) हृद यमां (न स्थितं) रहेवायुं नथी. वली (परोप कारात्) परोपकार करवाथी (यशः) यश (न अर्जितं) नपार्जन कर्यो नथी. (च) वली (ती धोरणादिकृत्यं ) तीर्थनो नहार विगेरे कार्य (न कृतं) कर्यु नश्री. तेथी (जन्म) जन्म (मुधा) फोगट (हारित) गमाव्यो बे (एव) निश्चे ॥१॥
वैराग्यरंगो न गुरूदितेषु, न उर्जनानां
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३२६ श्री रत्नाकरपंचविंशिका. वचनेषु शान्तिः।नाध्यात्मलेशो मम कोऽपि देव, तार्यः कथंकारमयं जवाब्धिः॥२॥
अर्थः-(मम) मने (गुरूदितेषु) गुरुना बचनोने विषे-वचनोवळे (वैराग्यरंगः) वैराग्य नो रंग (न) थयो नहीं. (उर्जनानां) 5ष्ट ज नोनां (वचनेषु ) वचनोने विषे (शांतिः) शांति (न) अई नहीं. वली (कोऽपि ) कांई पण (अ ध्यात्मलेशः) अध्यात्मनो लेश (न) अयो नहीं. तो (देव) हे देव ! (अयं)श्रा (नवाब्धिः ) नवसागर (कथंकारं) शी रीते (तार्यः) मारे तरवो? ॥२२॥
पूर्वे नवेऽकारि मया न पुण्य, मागा मिजन्मन्यपि नोकरिष्ये । यदीडशोऽहंमम तेन नष्टा, भूतोद्भवद्भाविनवत्रयीश ॥२३॥
अर्थः-(मया) में (पूर्व) पूर्व (नवे) नवमां (पुण्यं) पुण्य (न अकारि ) कर्यु नश्री, अने (आगामिजन्मनि ) आबता जन्मने विषे (अपि) पण (नो करिष्ये) करीश नहीं. (यत्)
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श्री रत्नाकरपंचविंशिका.
३२५
जे कारण माटे ( इं ) हुं ( ईदृशः ) एवो बुं. ( तेन ) ते कारथी ( ईश ) दे ईश ! ( मम ) मारा ( जूतोद्भवना विजवत्रयी ) नूत, वर्तमान, अने भविष्य ए त्रणे नवो (नष्टा) नाश पाम्या.
किं वा मुधाहं बहुधा, सुधानूकू, पूज्य त्वदग्रेचरितं स्वकीयम् । जल्पामि यस्मात्री जंगत्स्वरूप, निरूपकस्त्वं कि यदेतदत्र ॥ २४॥
अर्थः- (वा) अथवा तो ( सुधानुकूपूज्य ) हे देवोना पूज्य ! ( त्वदग्रे ) तमारी पासे ( श्रहं ) हुं ( स्वकीयं ) मारूं पोतानुं ( चरितं ) चरित्र ( बहुधा ) बहु प्रकारे (किं ) शुं ( जल्पामि ) कहुं ? ( यस्मात् ) जे कारण माटे ( त्वं ) तमे ( त्रिजगत्स्वरूप निरूपकः ) त्रस जगतना स्वरू पनुं निरूपण करनारा बो, तेथी (त्र ) अहितमारे विषे ( एतद् ) आ - मारुं चरित्र (कियत्) शुं मात्र बे ? ॥ २४ ॥ दीनोद्वारधुरंधरस्त्वदपरो, नास्ते मदन्यः कृपापात्रं नात्र जने जिनेश्वर तथाप्येतां न याचे श्रियम् । किं त्वई त्रिदमेव केवलमहो
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३२६ श्री रत्नाकरपंचविंशिका. सद्बोधिरत्नं शिवश्रीरत्नाकर मंगलैकनिल य श्रेयस्करं प्रार्थये ॥२५॥
अर्थः-(जिनेश्वर ) हे जिनेश्वर ! (त्वदप रः) तमाराथी बीजो कोश ( दीनोक्षार धुरंधरः) दीन लोकनो नक्षर करवामां धुरंधर ( नास्ते) नथी, अने (मदन्यः) माराधी बीजो कोई (पत्र)आ (जने) लोकमां (कृपापात्रं )क पार्नु पात्र (न) नथी, (तथापि ) तो पण ( एतां) श्रा-प्रत्यद (श्रियं) लक्ष्मी -धनने (न याचे) हुं मागतो नश्री. (किं तु ) परंतु (शिवश्री रत्नाकर) मोद लक्ष्मीना सागर स मान अने (मंगलैकनिलय) मंगलना अहितीय स्थान रूप एवा (अहो अर्हन्) हे अर्हन देव! (के वलं) फकत (इदं) आ (श्रेयस्करं) कल्याणकारी (सब्दोधिरत्नं) सारा बोधि-रत्न सम्यक्त्वनी (एव)ज (प्रार्थये) हुं प्रार्थना करूं. आश्लो कमां " श्री रत्नाकर" शब्दवमे स्तुति कर्ताए पोतानुं "रत्नाकर सूरि" एवं नाम पण सूचव्युंडे.
॥ इति श्रीरत्नाकरपंचविंशिका समाप्ता ॥
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शुद्धिपत्रिका.
तिहुग्गद गसी बीजी
-चोथी
अग्गहारे पुंजवा त्रीजो
पृष्ठ. लीटी. अशु. ३ १० तिहुगग्द ५ ४ गसी ए ११ बीजुं ए. १५ चोथो ११ १ अग्गारे ११ १५ पूंजवा १४ १५ त्रीजुं ३२ ए नब २५ १० इलेहि २५ १४ मांहोमांहो २६ ११ पहोचाने २७ ५ जब शए १५ पत्रणा ३७ ए समकेत भए १ नेयन ५३ १३ 'नमोबुण
होहिं
माहोमादे पहोंचाने जन पत्रणा समकित नेयन नमुधुणं
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शुक्ष.
३० शुहिपत्रिका. पृष्ठ. लीटी. अशुइ. एच १५ पय ५५ १६. सिझाए ६० ११ हू
पयपय साझाए
प्प, वे,
अहावया
जागवो
आचरणा
६१ १७ लिं ७० १४ अब्वायाइ ७५ १० जें ७ ए जगवो ७ १४ आचारणा उG ६ सुष्टु ७० १७ वंद लिऊ... ७३ ७ पजवाथी . नए १७ साधवी
० ३ चाला ए० १० नोव एश ए पश्चीश ए५ १७ कहेवा
वंदनीय नजवाथी साध्वी चाळा जोवे पच्चीश
केहवा :
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शुभिपत्रिका.
ए पृष्ठ. सीटी. अशुझ. शुद.. ए३ ११ वदण
वंदरा .. ए५ १६ २०६४ इण्६४ १०५ ७ विधि विधिथी १०६ १ गेन्न
थोन्न १०० १६ करवी जाणवी करवी ते जाणवो १३० चोथी
चोथो . १३५ १७ करवानी, करवाने १३६ ११ ज्येष्ट
ज्यष्ठ १३७ 6 कणमाणे कुणमाणे - १३७ ११ पनऊई पऊई १४० ए अलोचना पालोचना १५५ १४ कारबानी काचबानी. १५ १४ अनियाने अनिमाने १५० १६ जागवा जाणवो १६१ ५ ज वांदणां ... जे वांदणां १७० ए बहुसो
बहुसु १७० १५ श्रावस्सियाई आवस्सयाई
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राक्ष
अणुनवमा
वट्टए वंदना
३३० शुक्षिपत्रिका.
पृष्ठ. लीटी. अशुद. १७१ १ए अणुनवणा १७३ ३ वटए १७३ ५ बंद १७४ ५ तुम १७४ १५ शानता १७४ १७ होय १७७ ३ आलाबवा १८४ ६ रान १८४ १२ संदिसावं ०७ १५ रई
१६ याई श२०७ अने श्श् १५ ने
३२ ७ आगर २३ए १५ पक्कानं २६२ ७ य २०१७ याग
तुमम् .. शातना होय तो आलापवा राश्यं संदिसाहु
याई
अने जे
के
आगार पक्कन
योग
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पृष्ठ. जीटी.
२०४ ७ प्राणाबाई
उ
शुपत्रिका. अशु.६.
२०५ ३ बधा
३०२ १५ पइदिद ३०३ ए वयणिका
३०८ Ա सामान ३०८ १६ बन्नयले
३१५
ܐ
MMM
प्राप्प
३१५ १३ ध्ययनं
३१६ ง
बिनो
३१६ १६ शात्खं
३१६ १७ सर्वश
३१७ १
शर्ति
वनतः
३१७ ४ ३१८ Ա हदन्तः ३१८ ६ कटीतयी ३१८ १६ धौ तोऽप्प
३३१
शु..
अणाबाई
बाघा
पइदिदं
वय किया
समान
वनयले
प्राप्य
ध्ययनं
विनो
शात्स्वं
सर्वज्ञ
राति
नवतः
हृदन्तः
कटीतटी
धौ तोप्य
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________________ विज्ञप्ति. सर्व सदगृहस्थोने मुविदित छे के, श्री मेसाणा यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला, आज नव वर्षथी खोलवामां आवी छे, जेमा सर्व अभ्यासीओने माटे, खावा पीवानी तथा पुस्तक विगैरेनी सवड होवाथी आत्मार्थी, परार्थी, अने स्वार्थी, विद्यार्थीओ, निर्विघ्ने पोताना हेतु पार पाडी शके छे, वळी मुनि महाराजाओने पण अभ्यासनी अनुकूळता उंचा प्रकारनी मळी शके छे, कारण के अत्रे न्याय, व्याकरण, अने सर्व धर्म प्रकरणोना अनुभवी अ ध्यापको राखवामां आव्या छे. अभ्यासीओ तैयार थया पछी तेमने लायकात मुजब परीक्षक तथा नाना मोटा गामोना अध्यापकोनी जग्या आपवामां आवे छे. परीक्षको पोताना काम साथे उपदेश द्वारा नवी नवी पाठशालाओ खोलावे छे. सर्व गामोनी पाठशालाओमां जोइतां पुस्तको तथा जरुर जणाय तो शाळाना खर्चमां पण केळवणी खातामांथी मदद आपवामां आवे छे.तेथी शिक्षको तैयार क. रवानो उद्यम शीघ्रताथी चाले छे,जेने माटे हालमा विद्यार्थी ओनी संख्या अठ्ठावीश छे.तेओमां थोडा सिवाय बीजा सर्व कर्मग्रंथनो अभ्यास करे छे. वधारे शिक्षकोनी तथा परीक्षकोनी जरुरीयात होवाथी नवा योग्य विद्यार्थीओनी संख्या वधती जाय छे. तेथी आ कमिटिना मेम्बरोने आशा छे के आवा अद्वितीय खाताने मदद आपवा धानकना धननो समय एशे. ली. जैनश्रेयस्कर मंडळना सेक्रेटेरी. शा. वेणीचंद सुरचंद. मेसाणा-यशोविजयजी जैनपाठशाळा.