________________
५ देववंदन नाष्य अग्रसहित. ते एक जिननोज जाणवी. तथा (बीया के०) बीजी स्तुति तो (सवाण के0) सर्व तीर्थंकरोनी साधारण नक्तिरूप जाणवी. तथा ( तश्य के०) त्रीजी स्तुति ते (नागस्त के०)शाननी एटले श्रुत सिांत प्रवचननी जाणवी. तथा श्रीजिन शासनना रखवाला (वेयावञ्चगराण के) वैया वृत्त्यना करनार एवा सभ्यग्दृष्टि देवताननी (तु के) वली (नवनगढ़ के० ) नपयोग मनःस्म रणने अर्थ ( चनवाई के ) चोथी स्तुति जाण वी ॥ ५॥ ए. चार शुश्र्नु शोलमुं हार कडं ॥ नुत्तर बोल श्रया ॥
हवे आठ निमित्तनुं सत्तरमुं हार कहे जे.
पाव खवणब इरिआई,वंदणवत्तिा व निमित्ता ॥ पवयण सुर सरणब, नस्स ग्गो श्अ निमित्तठं ॥ ५३॥ दारं ॥१७॥
अर्थः-गमनागमनथी नपना जे (पाव के)पाप ते (खवणन के) खपाववाने अर्थे (इरिआई के) इरियावहिः प्रथम परिक्कमवी ते प्रथम निमित्त