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________________ ३१६ श्री रत्ताकरपंचविंशिका. विद्यानो अभ्यास ( वादाय) वाद विवादने माटे (अनूत् ) थयो. (ईश) हे ईश! (स्वं) मारु पोतार्नु (हास्यकर) हास्यकारक-कृत्यादिक (कि यत् ) केटलुक (ब्रुवे ) कहुं ? ॥५॥ ___ परावादेन मुखं सदोषं, नेत्रं परस्त्रीजन वीक्षणेन । चेतः परापाय विचिंतनेन, कृतं जविष्यामि कथं बिन्नोऽहम् ॥ १०॥ अर्थः-में (परापवादेन) परनिंदावके (मुखं) मुखने, (परस्त्रीजनवीक्षणेन) परनी स्त्रीनने जोवावमे (नेत्रं) नेत्रने, (परापायविचिंतनेन) परर्नु मातुं चिंतधावके (चेतः) चित्तने (सदो ५) दोषवाळु (कृ) कयु. तो ( विनो) हे वि नो ? (अहं) हुं (कथं) शी रीते (नविष्या मि) अईश ?-मारुं शुं श्रशे ? ॥१०॥ विमंबितं यत्स्मर घस्मरार्ति, दशाव शात्खं विषयान्धलेन । प्रकाशितं तन्न वतो हियैव,सर्वज्ञ सर्वं स्वयमेव वेत्सि॥११॥ अर्थः-(विषयांधलेन) विषयोमां अंध श्रये HAP
SR No.022326
Book TitleChaityavandanadi Bhashya Trayam Balavbodh Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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