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१५७ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. सुधर्म, ए त्रण तत्त्व प्रादरूं, परी त्रण प्रमार्ज नामां कुदेव, कुगुरु अने कुधर्म, ए त्रण परिहरु, बीजात्रण अकोमामां ज्ञान, दर्शन अने चारित्र, एत्रण आदरं, पठी त्रण प्रमाऊनामां ज्ञानवि राधना, दर्शनविराधना अने चारित्रविराधना, ए त्रण परिहरूं, त्रीजा त्रण अकोमामा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति ए त्रण गुप्ति आदरं, पत्रण प्रमार्जनामां मनोदंग, वचनदंग अने कायदंझ, ए त्रण दंग परिहरूं, एवी रीते मनमा चितव, ए क्रिया करवानी मुहपत्ति एक वेत ने चार अंगुल आत्म प्रमाणनी जोइयें अने रजो हरण तथा चरवलो बत्री अंगुलनो जोश्ये ते मां चोवीश अंगुलनी दांमी अने आठ अंगुलनी दशी जोयें अथवा न्यूनाधिक करी होय तो पण सरवाले बत्रीश अंगुल जोश्य, ए पञ्चीश पमिलेरणा स्त्री पुरुष बेहुयें करवी, ए अमीयारमुं घार थयु, अने उत्तर बोल पञ्चागुं थया ।