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१२ पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. आदिशब्दश्री सचित्त परिदारने विषे (चिय के) निश्चयश्रकी (फासुयं के) फासुक थ चित्त (जलं के०) जल ते (तु के०) जेम यति फासुक निर्जीव पाणी पीये (तहा के०) तेनी पेरं (समावि के) श्रावक पण फासुक पाणी (पियंति के०) पीये तेने पण एहिज आगार कहीये, परंतु ते (य के) वली (तिहादार के०) तिविहार पञ्चरकाण (पचरकंति के०) प चख्खे तेवारेज होय पण उविदारें नहोय. सचि तन्नोजीने पण उपवास, आयंबिल, निविद् प चरूखाण तिविहारें होय ते नष्ण पाणी पीये अने एकासणादि पञ्चख्खागनो नियम नथी. एमां तो ऽविहार, तिविहार, चनविहार ययासन होय ॥ ११ ॥ ___ चनहाहारं तु नमो, रतिंपि मुणीण सेस तिह चनहा ॥ निसि पोरिसि पुरिमे गा, सणा समाण उतिचनहा ॥१५॥३॥
अर्थः-(ममो के.) नोकारसीनु पचकाण