________________
{Ամ
गुरुवंदन जाप्य अर्थसहित.
हवे चार गाथाये करी बत्रीश दोष त्यागवानुं तेरमुं द्वार कहे .
दोसा प्रियहि, पविध प रिपिंमिमं च ढोलगई | अंकुस कन्चन रिंगि, मनुवत्तं माप ॥ २३ ॥ वेश्य बद्ध जयंतं, जय गारव मित्त कारणा तिनं || पडिणीय रु० तमि, सह हिलिम विपलिय चित्रप्रयं ॥ २४ ॥ दिवम दिवं सिं गं, कर तम्मण अघिणा लिधं ॥ कणं उत्तर चूलिप, मूत्र्यं ढहर चुमलि च ॥ २५ ॥ बत्तीस दास परिसुधं, किइ कम्मं जो पनंजई गुरूणं ॥ सो पावइ नि वाणं, प्रचिरेण विमाणवासं वा ॥ २६ ॥ ॥ दारं ॥ १३ ॥
अर्थः- जे अनादार पणे संघांत थको वांदे, ते पहेलो ( अलामिय के० ) अनाहत ( दोस के० ) दोष तथा जे जात्यादिके करी धीगे थ
•