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श्श् पञ्चस्काण नाष्य अर्थसहित. रावनार गुरु, ए बेहु अजाण होय, ते चोथो नांगो अशुभ जाणवो. ए रीते चार नांगामांथो त्रण नांगे पञ्चरकाण करवानी आज्ञा , अने चोया नांगाने विषे आज्ञा नथी॥ ए मूलगुण, नत्तरगु रारूप पञ्चरकागनु सातमुं हार थयु. नुत्तर नेद व्याशी थया ॥३॥ ___ हवे पूर्वोक्त नंगादिके विचारीने पण जेम संयमयाग हीन थाय नही, ते रीते पचरूखाण की, अकुं पण उ प्रकारनी शुध्येि करी सफल थाय, माटे पञ्चरुखानी उ विशुधिनुं आठमुं हार कहे .
फासिय पालिय सोहिय, तिरिय कि हिय आराहिय उ सुद्धं ॥ पञ्चस्काणं फा सिय, विहिणोचिय कालि जं पत्तं ॥४॥
अर्थः-एक (फासिय के०) फासित एटले पञ्चख्खाण फरश्यु, बाजु (पालिय के.) पा लित एटले पञ्चख्खाण पाल्युं, त्रीगँ (सोहिय के) शोनित एटले पञ्चख्खाण शोनाव्यु, चोथु