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३६ देववंदन नाष्य अर्थसहित. स्कार श्लोकादिरूप कही,शक्रस्तव कही,नना थइ, अरिहंत चेइयाणं कही कानस्सग्ग करी,थुइ कहेवी, ते बीजी (मद्य के०)मध्यम चैत्यवंदना जाणवी. तथा (पणदंम के ) पांच नमोवणा रूप पांच दमकें करी अने (शुश्चनक्कग के) स्तुतिचतुष्क एटले आठ थुइयें करीने, (थय के) स्तवनें क रीने तथा जावंति चेश्याई, जावंत केविसाहु अने जयवीयराय, ए त्रण (पणिहारोहिं के) प्रणि धाने करीने त्रोजी ( नकोसा के ) नत्कृष्टी चै त्यवंदना जाणवी ॥२३॥
अन्ने बिति गेणं, सकबएणं जहन्नं वं दणया॥ तदुग तिगेण मना, नकोसा चनाहि पंचहिं वा ॥२४॥ दारं ॥५॥
अर्थः-(अन्ने के० ) अन्य एटले बीजा वली केटला-एक आचार्य एम (बिंति के०) ब्रुवंति एटले कहे के (गेशं के) एकेन एटले एक (सकबएणं के०) शक्रस्तवें करीने देव वांदीयें ते (जहन्न के) जघन्य (वंदणया के.) चैत्य