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७० देववंदन नाष्य अर्थसहित. श्वता एवा (ग्वणजिणे के०) स्थापना जिन ने ते प्रत्ये हुं वांई.तथा पुरकरवरदीवमेनी पहेली गाथा रूप (बठे के) हा अधिकारने विषे अ ढी होपमध्ये श्रीसीमंधर स्वाम्यादि (विहरमाण जिण के) विचरता नाव जिनप्रत्ये बांधू. तथा तमतिमिरपाल इहांथी मामीने सुअस्स नगवन पर्यंत ( सत्तमए के) सातमा अधिका रने विषे (सुअनाणं के) श्रीश्रुतज्ञानप्रत्ये हुं वां. तथा सिक्षा बुझक्षणं ए गाथा रूप (अठ मए के०) आठमा अधिकारने विषे तीर्थ अती
दिक पन्नर नेदवाला एवा (सबसिथुई के०) सर्व सिइन। स्तुति जाणवी ॥४॥
तिबादिव वीरथुश्, नवमे दसमे य न ऊयंत थुई॥ अवायाश्गदिसि, सुदिछि सुर समरणा च रिमे ॥४५॥
अर्थः-तथा जो देवाणविदेवो अने इकोवि न मुक्कारो ए बे गाथा रूप (नवमे के०) नवमा अंधिकारने विषे आ वर्तमान (तिलाहिव के)