Book Title: Barsasutra
Author(s): Dipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
Publisher: Dipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथाय नमः || किज्योति विकास बारसा सूत्र परेल टैंक रोड, आंबावाड़ी, कालाचौकी, मुम्बई-400 033 के सौजन्य से विक्रम संवत 2058 सन् 2002 Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | || 中文 ared and H: || % 命ATED 矿 。 % 使雙雙勇雙 [ RSS , % to 5, Inst, th, -400 033 立即可 p m qq 2058 可可 2002 Far Pe P e Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरिता, नमोनि मो सिद्धाणं 119660 नमो अरिह यारियाणनगो हण, एसो पंच वरझायाणं नमो आया मंगलाणेच See Tes ACCOणसणी पढर्ग पानगुवकारी For Pilvet & Personal use only ww Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405014050 40 500 40 हम उन सभी गुरु भगवंतो, साधु-साध्वीयों के हृदय से आभारी हैं जिन्होंने इन महान ग्रन्थों को लिखने एवं अनुवाद करने का भारी परिश्रम किया हैं जिन्होंने जैन धर्म के इन महान ग्रंथो को सभी संघो तक पहुचाने का बहुआयामी एवं कठोर कार्य किया हैं । प्रकाशक संवत आवृत्ति मूल्य मुद्रक ation International श्री दिपक ज्योति जैन संघ टॉवर, परेल टेंक रोड, आंबावाडी, कालाचौकी, मुम्बई- 400 033 2058 सन् 2002 1000 अमूल्य सुराणा ऑफसेट, फालना, फोन 0293833241, 33341 1405014050040 4500 40 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明明含蛋 張優酷男修身 For Private Penal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FICE AFLER श्री परमतीर्थपति महावीरस्वामीजी अनंतलब्धिनिधान गणधर श्री गौतमस्वामीजी HESv.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशतिधानकावर SOFM प्रभु महावीर के 26 भव प्रभु महावीर से 25 वे भव में हई वीशस्थानक की आराधना Paramal Integer For Private Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री महावीर स्वामिने नमः ।। ।। श्री सर्वज्ञो को नमस्कार ।। || श्री गौतमस्वामिने नमः ।। 卐010 000000000 अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, लोक में रहे हुए सभी साधुओं को नमस्कार, ये पांच नमस्कार सर्व पापों को नाश करने वाले हैं और सब मंगलों में * उत्कृष्ट मंगलरुप है ।। १ ।। (१) उस काल-उस समय में श्रमण भगवान महावीर के जीवन के प्रसंगो में पांच बार हस्तोत्तरा नक्षत्र आया था (हस्तोत्तरा यांने उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र)। वो इस प्रकार (१) हस्तोत्तरा नक्षत्र में भगवान का च्यवन (माता के गर्भ में आगमन) हुआ, (२) हस्तोत्तरा नक्षत्र में आकर एक गर्भस्थान में से दूसरे गर्भस्थान में रखने में आया, (३) हस्तोत्तरा नक्षत्र में भगवान का जन्म हुआ, (४) हस्तोत्तरा नक्षत्र में भगवान ने घर से निकल मुंड बनकर, अनगारत्व याने मुनि प्रवज्या (दिक्षा) ग्रहण की, (५) हस्तोत्तरा नक्षत्र में भगवान को अनंत, उत्तमोत्तम, व्याघात- प्रतिबंध बिना का, आवरणरहित, समग्न और परिपूर्ण ऐसा केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ, (६) स्वाति नक्षत्र में भगवान परिनिर्वाण पाये। For Pilvete Pezana sa daly M MERINT Homention.interiational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐000 (२) उस काल-उस समय में जब ग्रीष्म (उनाले) का चौथा महीना और आठवां पक्ष याने आषाढ महीने का शुक्लपक्ष (सुद पक्ष) चल रहा था, उस आषाढ सुद छट्ट के दिन स्वर्ग में रहे हुए महाविजय पुष्पोत्तर प्रवर पुंडरिक नामक महाविमान में से च्यवकर श्रमण भगवान महावीर महाकुण्डगांव नगर में रहते कोडाल गोत्र के ऋषभदत्त माहण-ब्राह्मण की पत्नी जालंधर गोत्र की देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षी में गर्भरुप उत्पन्न हए। जिस विमानमेंसे भगवान का च्यवन हुआ उस विमान में बीस सागरोपम जितनी आयुष्य स्थिति थी। च्यवन के समय भगवान का आयुष्यकर्म क्षीण (नाश) हो गया था, भगवान का देवभव भी बिल्कुल क्षीण हो गया था, भगवान की देवविमान में रहने की स्थिति (समय) भी पूरी हो गयी थी। यह सब नाश होते ही तरन्त भगवान उस विमान से च्यव करके यहां देवानन्दा माहणी (ब्राह्मणी) की कुक्षी में गर्भरुप आये। जब भगवान देवानंदा की कुक्षि में गर्भरुप में आये तब यहां जंबुद्वीप में – भारतवर्ष कें- दक्षिणार्ध भरत में इस अवसर्पिणी (उत्तरताकाल) का सुषमा और सुषम-दुःषम नाम के आरो का समय बिल्कुल पूरा हो गया था। दुषम-सुषम नामक आरा भी लगभग पुरा हो गया था, अब सिर्फ e Penny Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस दुषम-सुषम आरा के बेतालीस हजार और पिन्चोतेर वर्ष साडा आठ महीने ही शेष रहे थे, उस समय भगवान गर्भरुप आये, भगवान गर्भरुप आने के पूर्व इक्ष्वाकुकुल में जन्म पाये हुए और काश्यप गोत्रवाले इक्कीस तीर्थंकर क्रम से हो गये थे। हरिवंश कुल में जन्म पाये हुए गौतम गोत्र वाले दूसरे दो तीर्थंकर भी हो गये थे, अर्थात् इस प्रकार से तेवीस तीर्थकर हो चुके थे। उस समय भगवान गर्भ रुप आये थे। प्रथम के तीर्थंकरों ने इसके बाद "श्रमण भगवान महावीर अन्तिम तीर्थकर होंगे " ऐसा भगवान महावीर के विषय में पहले ही कहा था। इस प्रकार उपर्युक्त कथनानुसार श्रमण भगवान महावीर पूर्व रात के अन्त में ओर पिछली रात के प्रारंभमें याने बराबर मध्यरात्री में हस्तोत्तरा - उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र का योग होते ही देवानंदा की कुक्षि में उत्पन्न हए। भगवान जब कुक्षि में गर्भरुप आये तब उनका पहले के देव भव योग्य आहार, देव भव के आयुष्य व शरीर छूट गया था और वर्तमान मानव भव के अनुरुप आहार-आयु व शरीर प्राप्त हो गया था। ३) श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान सहित थे। “ अब मै देव भव से व्यवगा " ऐसा जानते थे।" 42010050005000 For Private Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O+0000000000 वर्तमान में देव भव से च्यवन हो रहा है ऐसा वे जानते नहीं थे "। “अब देव भव से मैं च्यव गया हुं ऐसा जानते है। ४) जिस रात में श्रमण भगवान महावीर जालंधर गोत्र की देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षिमें गर्भ रुप में आये उस रात मे अर्धनिद्रा अवस्थामें वह देवानंदा ब्राह्मणी शैय्या (बिछौने) में सोये सोये इस प्रकार के उदार-कल्याणरुप-शिवरुप -धन्य और मंगलरुप और शोभासहित ऐसे चौदह महास्वप्नो को देखकर जागती है। ५) उन चौदह स्वप्नों के नाम इस प्रकार से है:-१: गज(हाथी), २: वृषभ(बैल), ३: सिंह, ४: अभिषेक- लक्ष्मी देवी का अभिषेक, - ५: माला- पुष्पमाला युगल, ६: चन्द्र, ७: सूर्य, ८: ध्वज, ९: कुंभ, १०: पद्मसरोवर, ११: क्षीरसमुद्र, १२: देवविमान, १३: रत्नो का ढेर, १४: निर्धूम अग्नि। ६) उस समय वह देवानंदा ब्राह्मणी इस प्रकार के उदार, कल्याणरुप, शिवरुप, धन्य और मंगलरुप तथा शोभायुक्त ऐसे चौदह महास्वप्नों को देखकर जाग्रत हो खूश हुई, संतुष्ट हुई, मनमें आनन्दित हुई और उसके मन में प्रीति उत्पन्न हुई । उसको अत्यधिक प्रसन्नता हुई। खुशी के कारण उसका हृदय धडकने लगा- प्रफुल्लित हुआ, बादल की धाराओं के गिरने से जिस 04-0卐0000000 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार कदंब का पुष्प खिल जाता है- उसके कांटे खड़े हो जाते हैं उसकी भांति उसके रोम रोम खड़े हो गये। उसके बाद उसने अपने देखे हुए स्वप्नों को याद किये, स्वजों को याद कर वह अपनी शैय्या से खडी होकर धीरे धीरे अचल वेगरहीत राजहंस जैसी चाल से जहां रिषभदत्त ब्राह्मण है वहां उसके पास जाती है, जाकर रिषभदत्त ब्राह्मण को " जय हो विजय हो '' ऐसा कहकर बध जाती है, बधाकर भद्रासन पर अच्छी तरहसे बैठकर आश्वस्त, विश्वास पाईहुई वह दशनाखून सहित दोनों हथेलियों को शिर से लगाकर हाथजोडकर इस प्रकार कहने लगी- " वास्तव मे यह सच है कि हे देवानुप्रिय! मैं आज जब कुछ साई हुई व कुछ जागती हुर्ह शैय्या में विश्राम कर रही थी तब मैने इस प्रकार के उदार यावत् शोभासहित ऐसे चौदह महास्वपनो को देखकर जाग गई। * वे स्वप्न इस प्रकार से हैं। उन चौदह स्वप्नों के नाम इस प्रकार से है:- १: गज(हाथी), २: वृषभ(बैल), ३: सिंह, ४: अभिषेक लक्ष्मी देवी का अभिषेक,५: माला- पुष्पमाला युगल, ६: चन्द्र, ७: सूर्य, ८: ध्वज, ९: कुंभ, १०: पह्मसरोवर, ११: क्षीरसमुद्र, १२: देवविमान, १३: रत्नो का ढेर, १४: निर्धूम अग्नि। हे देवानुप्रिय! इन उदार चौदह महास्वप नों का कल्याणकारी ऐसा विशिष्ट फल होगा, ऐसा मैं मानती हूं"। ७) उसके बाद वह रिषभदत्त ब्राह्मण देवानंदा ब्राह्मणी से स्वप्न संबंधी बात सुनकर, अच्छी तरह समझकर खुश हुआ, संतुष्ट on-C40000500000 an international For Private Pezonal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ, यावत् हर्ष से प्रफुल्लित बना और मेघधारा से सिंचित कदंब पुष्प जिस प्रकार खिलता है, उस प्रकार उसके रोम रोम खड़े हो गये। फिर उसने उन स्वप्नों को यादकर, उनके फल के विषय में सोचने लगा, सोचकर उसने अपने स्वाभाविक-सहज-मतियुक्त बुद्धि के विज्ञान से उन स्वप्नों के अर्थ निश्चित किये, मन से निश्चित कर वह ब्राह्मण *वहां अपने सामने बैठी हुई देवानंदा ब्राह्मणी को इस प्रकार कहने लगा। 000000000 ___८) “ हे देवानुप्रिये! तुमने उदार स्वप्न देखे है। कल्याणकारी, शिवरुप, धन्य, मंगलमय और शोभायुक्त स्वप्न देखे है, तुमने आरोग्य देने वाले, संतोषकारी, कल्याणकारी आयुष्य बढाने वाले और मंगल करने वाले स्वप्न देखे है। उन स्वप्नों का विशेष प्रकार का फल इस प्रकार से है। हे देवानुप्रिये! अर्थ की-लक्ष्मी की प्राप्ति होगी, हे देवानुप्रिये! भोग, पुत्र और सुख की प्राप्ति होगी और वास्तवमें इस प्रकार होगा कि हे देवानुप्रिये! तुम पूरे नव महीने साडेसात दिन बितने पर पुत्र को जन्म दोगी। For Prve & Pesons Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐0000000卐OR यह पुत्र हाथ-पैर से सुकोमल बनेगा, पांचो इन्द्रियो और शरीर से हीन नहीं परन्तु संपूर्ण होगा याने सांगोपांग, अच्छे लक्षणवाला होगा, अच्छे व्यञ्जन युक्त बनेगा, अच्छे गुणों वाला बनेगा, मान में, वजन में और ऊंचाई में बराबर पूर्ण होगा, उचित अंगवाला और सर्वांग सुंदर होगा, चन्द्र जैसा सौम्य, मनोहर एवं प्रिय लगे वेसा - रुपवाला तथा देवकुमार की तुलना लायक होगा। ___९) “और वह पुत्र जब बाल्यावस्था पूरी कर, समझदार बन प्राप्त की हुई समझदारी को पचानेवाला बनेगा। R युवावस्था पाकर वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, ओर अथर्ववेद को-इन चारों वेदों को और पांचवा इतिहास को-महाभारत को- छठा निघंटु नामक शब्दकोष का ज्ञाता बनेगा। ___वह इन सब पूर्वोक्त शास्त्रों को सांगोपांग जाननेवाला बनेगा, रहस्य सहित समझानेवाला बनेगा, चारों ॐ प्रकार के वेदों का पारंगामी बनेगा, जो वेद विगेरे भूल गये होंगे उनको यह तुम्हारा पुत्र याद करानेवाला होगा, वेद के छः अंगों का वेत्ता यानी जानकार बनेगा, षष्टितंत्र नामक शास्त्र का विशारद बनेगा। इसके सिवाय 10500055000 For Pille & Personal use only mantieninternational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10005000 3 सांख्य शास्त्र में, छंदशास्त्र में, व्युत्पत्तिशास्त्र में, ज्योतिषशास्त्र में और दूसरे भी ब्राह्मण शास्त्रों में तथा । परिव्राजकशास्त्र में यह तुम्हारा पुत्र बहुत विद्वान बनेगा | १०) इस प्रकार से । हे देवानुप्रिये। तुमने उदार स्वप्न देखे है, यावत् आरोग्यप्रद, संतुष्टकारी, आयु में वृद्धि करनेवाले, मंगल और कल्याणकारी स्वप्न तुमने देखे है । ११) इसके बाद देवानंदा ब्राह्मणी रिषभदत्त ब्राह्मण के पास स्वप्न फल सम्बन्धी इस बात को सुनकर, समझकर, खुश हुई, यावत् संतुष्ट होकर दशो नाखून इकट्ठे हो वैसे आवर्त कर, अंजली कर रिषभदत्त ब्राह्मण को इस प्रकार कहने लगी। १२) “ हे , देवानुप्रिय! जो आप भविष्य बताते है, ठीक वैसा ही है, हे देवानुप्रिय! आपका कथन किया हुआ भविष्य वैसा ही है, हे देवानुप्रिय! आपके द्वारा प्रकाशित भविष्य सत्य ही है, है देवानप्रिय! यह निःसंदेह है, हे देवानुप्रिय। मैं भी इस प्रकार की चाहना करती हूँ 000000000000 " हे देवानुप्रिय! मैने आपके इन वचनों को सुनते ही स्वीकार किया है, प्रमाणित किया है, हे देवानुप्रिय! यह आपका वचन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain EuStan Internal देवानंदा की कुक्षि में गर्भ अवतरण ऋषभदत्त देवानंदा स्वप्न विचार, इन्द्र की हरिणेगभेषीदेव को आज्ञा 11 www. Hey.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23051 Sor इन्द्रसभा शक्रस्तव से प्रभु स्तुति Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 500 40 4500 40 मैने चाहा है और मुझे मान्य भी है, हे देवानुप्रिय ! जो यह बात आप कहते हो वह यह सच्ची ही बात है", उन स्वप्नों के फल को अच्छी तरह से स्वीकार कर याने इन स्वप्नों के फल को जान समझकर रिषभदत्त ब्राह्मण के साथ उदार - विशाल ऐसे मनोवांछित और भोगने योग्य भोगों को भोगती हुई देवानंदा ब्राह्मणी रहती है। १३) अब उस समय और उस काल में देवों का राजा वज्रपाणि- हाथमें वज्रको रखनेवाला, असुरों के पुरोको - नगरों को नाश करनेवाला - पुरंदर, सो बार श्रावक की प्रतिमा करनेवाला- शतक्रतु, हजार आंखवाला - सहस्त्राक्ष, बड़े-बड़े मेघों को नियंत्रित करनेवाला मघवा, पाक नामक असुर को दण्डित करनेवाला - पाकशासक, दक्षिण तरफ के अर्द्धलोक का अधिपति- दक्षिणार्ध लोकाधिपति, बत्तीस लाख विमान का स्वामी और ऐरावण हाथी पर बैठनेवाला ऐसा सुरेन्द्र अपने स्थान पर बैठा हुआ था । उस सुरेन्द्रने मिट्टी बिनाके अंबर-गगन जैसे स्वच्छ वस्त्र पहने हुए है, यथोचित्त माला व मुकुट धारण किये हुए है ऐसा, सोने के नये आश्चर्यकारी ऐसे या चित्रित कारीगरी वाले और बारंबार चलायमान दो कुण्डलों के कारण जिनके दोनों गाल चमकते थे, इनका शरीर दमकता था, पैर पर लटकती ऐसी लम्बी 13 cation International Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नन्दनवन के फुलों से गूंथी हुई माला जिन्होंने पहनी हुई है, ऐसे यह इन्द्र सौर्धम नामक कल्प (स्वर्ग) में आये हुए ॐ सौधर्मावतंसक नाम के विमान में बैठी हुई सौधर्म नाम की सभा में शक्र नाम के सिंहासन पर बैठे हुए थे। १४) वहां वे बत्तीस लाख विमानवासीदेव, चोरासी हजार सामानिकदेव, तेतीसत्रायास्त्रिंशक देव, चार लोकपाल, अपने अपने परिवार सह आठ बडी पट्टराणी, तीन सभा, सात सैन्य, सात सेनाधिपति, चारों दिशाओं में चोराशी हजार (यान तीनलाख छत्तीस हजार) अंगरक्षक देव और सौधर्म सभा में रहनेवाले अन्य बहत से वैमानिक देव और देवियों Q इन सब पर आधिपत्य भोगता हआ रहता है, याने इन सब अपनी प्रजा का पालन करने का सामर्थ्य यह रखता * है और इन सबका अग्रेसर सुरपति है, स्वामी नायक है, भर्ता-पोषक है, और इन सबका वह महत्तर-महामान्य-गुरु समान है। इसके सिवाय इन सब पर अपने द्वारा नियुक्त देवों से ऐश्वर्य और आज्ञादायित्व दिखाता रहता है। इन सब पर ईश्वर समान मुख्य रुप से उसकी अपनी आज्ञा ही चलती है, इस प्रकार से रहता और अपनी प्रजा का पालन करते हुए, निरंतर चलते हुए नाटक, संगीत, वीणावादन, हाथताली तथा अन्य बाजों और मेहनी जैसी गंभीर For Private & Pasonal use only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवाजवाले मृदंग और सरस आवाज करता ढोल इन सबके बड़े आवाज से भोगने योग्य दिव्य भोगों को भोगता वह इन्द्र वहां रहता है। १५) वह इन्द्र अपने विशाल अवधिज्ञान से संपूर्ण जंबद्रीप की ओर देखता हआ बैठा हआ है वहां वह जंबद्वीप है में भारतवर्ष मे आये हुए माहणकुण्ड नगर में कोडाल गोत्र के रिषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी जालंधर गोत्र की देवानंदा ब्राह्मणी की कक्षी में गर्भरुप श्रमण भगवान महावीर को उत्पन्न हए देखता है। भगवान को देखकर वह खश 2 तुष्ट हुआ, मन में आनन्दित हुआ, खूब प्रसन्न हुआ, परम आनन्द को पाया, मन में प्रीति वाला बना, उसने परम * शान्ति प्राप्त की और हर्ष के कारण उसका हृदय स्पन्दन करने लगा तथा मेघ की धाराओं से सिंचित कदंब है के सुगन्धित फूल की तरह उसकी रोम राजी खडी हो गयी, उसके उत्तम कमल जैसे नेत्र और मुख विकसित हो गये, उसके पहने हुए उत्तम कपडे, बहेरखे, बाजूबंध, मुकुट, कुण्डल और हार से सुशोभित सीना, ये सब उसको हुए हर्ष के कारण हल्के बन गये, लंबा लटकता और बारंबार झुमता (हीलता) झुबका और दूसरे भी इसी For Private Personal use Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405001 40 4500 40 500 40 प्रकार के ही आभूषण जिसने पहने हुए है ऐसा वह शक्र याने इन्द्र भगवान को देखते ही आदर और विनय से शीघ्र ही अपने सिहांसन से खडा हुआ, वह सिंहासन से खड़ा होकर अपने पादपीठ (आसन) से नीचे उतरा, उतरकर वह मोती और रिष्ट एवं अंजन नामक कीमती रत्नों से जड़ी हुई और चमकते मणिरत्नों से सुशोभीत ऐसी अपनी मोजडी वहीं आसन के पास ही उतार दी, मोजडी को उतारकर अपने कंधे पर खेस को जनोइ की तरह लगाकर उत्तरासंग करता है, इस प्रकार उत्तरासंग करके उसने अंजली कर अपने दो हाथ मिलाये और इस प्रकार उसने तीर्थंकर भगवत की ओर लक्ष्य रख सात-आठ कदम उनके सामने जाता है, सामने जाकर वह दाहिना घुटना ऊंचा करता है, दाहिना घुटना ऊंचाकर उसने बांये घुटने को जमीन पर झुकाया, फिर शिर को तीन बार जमीन पर स्पर्श कराकर फिर वह थोडा सीधा अडिंग बैठता है। इस प्रकार अडिंग बैठकर कडा और बैरखा के कारण चिपकी हुई अपनी दोनो भुजाओं को इकट्ठी करता है इस प्रकार अपनी दोनों भुजाओं को इकट्ठी कर ओर दश नाखूनों को अरस परस छुआ कर, दोनो हथेलियों को जोडकर शिर झुकाकर मस्तक 16 > 10 500 40 500 40 5 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर अंजली करके इस प्रकार कहने लगा: १६) अरहंत भगवन्त को नमस्कार हो, 1 तीर्थ को प्रारंभ व प्रारंभ करने वाले ऐसे तीर्थंकरो को, अपने आप बोध पाने 2 वाले स्वयंसंबुद्धोंको, 2 पुरुषों मे उत्तम और पुरुषों मे सिंहसमान, पुरुषों में उत्तम कमल समान और पुरुषों में उत्तम - गंध हरित जैसे, 3 सर्वलोक में उत्तम, सबलोक के नाथ, सबलोक का भला करनेवाले, सर्वलोक में दीपक जैसे, सब लोकमें प्रकाश फैलाने वाले, 4 अज्ञान से अंधबने हुए लोको को आंख समान शास्त्र की रचना करनेवाले, ऐसे ही लोगों को मार्ग बतानेवाले, शरण देनेवाले ओर जीवन देनेवाले याने कभी मरना न पडे ऐसा जीवन को - (मुक्ति को) देनेवाले तथा बोधिबीजको- (समकित को देनेवाले, धर्म को देनेवाले, धर्म का उपदेश करनेवाले, धर्म के नेता, धर्मरूप रथ को चलानेवाले सारथी जैसे, और चतुर्गतिरुप संसार का अन्त करनेवाले, उत्तम चक्रवर्ती, 6 कई भी रुकावट न आवे ऐसे उत्तम ज्ञान दर्शन को प्राप्त किये हुए, घातकर्मों को बिल्कुल दूर कर दिये है ऐसे, 7 जिन याने रागद्वेष रूपी 17 40500405ed Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अन्तर शत्रुओं को जीतनेवाले और जीताने वाले, संसार सागर को तैरने और तैरानेवाले, स्वयं बोध पाये हुए और दूसरों को बोध करानेवाले, स्वयं कर्मों से मुक्त और दूसरों को भी मोक्ष तक पहुंचाने वाले, 8 सर्वज्ञ सब जाननेवाले, सब देखनेवाले, जो स्थान कल्याण रूप है, निश्चल है, निरोगी है, निरन्तर है, नाश नहीं होनेवाला है, किसी भी प्रकारकी पीडा रहित है और जहां पहुंचने के बाद वापस लौटना नहीं होता ऐसे सिद्धिगति नामके स्थान को प्राप्त किया है तथा भयों को जीतनेवाले जिनेश्वरों को नमस्कार हो। तीर्थ का प्रारंभ करनेवाले, अन्तिम तीर्थंकर, पूर्व हुए तीर्थंकरो ने जिनके होने की सूचना दी थी ऐसे और पहले वर्णित सारे गुणोंवाले यावत् जहां पहुँचने के पश्चात फिर कभी लौटना नहीं है ऐसे सिद्धिगति को प्राप्त करने की इच्छावाले ऐसे श्रमण भगवन्त महावीर को नमस्कार हो । - यहाँ स्वर्ग में रहा हुआ मैं वहाँ रहे याने देवानंदा की कुक्षि में रहे हुए भगवान को वंदन करता हूं। वहां रहे हुए • भगवान यहाँ रहे हुए मुझे देखे ऐसा कह करके देवराज इन्द्र श्रमण भगवन्त महावीर को वंदन करते है, नमन करते aton International 18 404500 40 4500 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐00000 o+00000000000 3 है और अपने उत्तम सिंहासन पर पूर्व दिशा की तरफ मुख करके बैठते है। १७) उसके बाद वह देवेन्द्र शक्रको इस प्रकार का चिन्तनरुप, अभिलाषारुप, मनमें संकल्प उत्पन्न हुआ कि - “ऐसा हुआ नहीं, होने योग्य नहीं ओर होनेवाला भी नहीं कि अरिहंत भगवान, चक्रवर्तीराजा, बलदेव, वासुदेव - है उम्रवंश के कुलो में, भोगवंशके कुलो में, राजन्य वंश के कुलो में, इक्वाकु वंश के कुलों में, क्षत्रियवंश के कुलों 卐 में, हरिवंशके कुलों में या दुसरे उसी प्रकार के विशुद्ध जाति, कुल और वंशवाले कुलों में आज पहले आये है, 2 वर्तमान में आते है और भविष्य में भी वे सब ऐसे उत्तमकुलों में आनेवाले है। १८) ऐसी भी लोक में आश्चर्यकारी घटना, अनन्त अवसर्पिणी और अत्सर्पिणी व्यतीत होने पर होती है कि जब अरहंत भगवान विगेरे नाम, गोत्र कर्मका क्षय नहीं किया होता, इन कर्मका वेदन नहीं किया होता और उनके ये कर्म उनके आत्मा से नहीं गिरे 5 होते याने इन कर्मो का उदय होता है तब वैसे अरहंत भगवान , चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव राजा अन्त्यकलमें,R अधमकुलमें, तुच्छकुलमें, दरिद्रकुलमें, भिक्षुककुलमें, कंजुसकुलमें भी आये हुए है, आते है, आयेंगे यानि ऐसे हल्के है Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलोंवाली माताओं की कुक्षि में गर्भतया उत्पन्न हुए है, होते है, होवेंगे फिर भी उन कुलों में वे कभी जन्म लेते नहीं और इसके बाद भी जन्म लेंगे नहीं। १९) यह श्रमण भगवान महावीर जम्बुद्वीप नामके द्वीपमें भारत में माहणकण्ड नामक नगर में कोडाल गोत्रवाले है रिषभदत्त ब्राह्मण की भार्या (पत्नी) जालंधरगोत्र की देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भतया उत्पन्न हुए है। __२०) अतः भूतकाल में हुए तथा वर्तमान कालमें होनेवाले सभी देवराज इन्द्रों का यह आचार (कर्त्तव्य) है कि के 2 अरहंत भगवन्तों को इस प्रकार के अन्तकलों में से या अधमकलोंसे या तच्छकलोंसे से या दरिद्रकलों से या * भिक्षुककुलों से या कंजुसकुलों से परिवर्तन के उगकुलमें, भागकुलमें, राजन्यकुलमे, या ज्ञातकुलमें या क्षत्रियकुलमें या हरिकुलमें, विशुद्ध जातिकुल और वंश के अन्य दूसरे उत्तम कुल में रखना उचित है। ___ इसलिए मेरे लिए वास्तव में कल्याणकारी अवसर है कि, पूर्व के तीर्थंकरो के कथन किये हुए ऐसे अन्तिम 2 तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर को माहणकुण्ड ग्राम नामके नगर से कोडाल गोत्र के ब्राह्मण रिषभदत्त की है 400000 International For Private & Pesonal use only 420 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐urStu-te भार्या-पत्नी जालंधर गोत्रकी ब्राह्मणी देवानंदा की कुक्षि से हटाकर (लेकर) क्षत्रीयकुण्ड ग्राम नाम के नगर में रहनेवाले ज्ञातकुल क्षत्रियों के वंश में उत्पन्न काश्यपगोत्रवाले सिद्धार्थ क्षत्रीय की भार्या वसिष्ठ गोत्र की क्षत्रियाणी त्रिशला को कुक्षि में गर्भतया स्थापित करना उचित है, और फिर त्रिशला क्षत्रियाणी का जो गर्भ है उसको भी जालंधर गोत्र की * देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भतया रखना उचित है ऐसा सोचता है, ऐसा सोचकर पैदल सैना के सेनापति है हरिणगमेसी नाम के देव को आवाज देते है, हरिणगमेसी नाम के देव को बुलाकर उसको इन्द्रने इस प्रकार से कहा: २१) " हे देवानुप्रिय! एसा वास्तव में आज तक हुआ नहीं, ऐसा होने योग्य भी नहीं और इसके बाद भी होनेवाला नहीं है कि अरिहंत भगवान, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेवराजा अन्त्यकुलमें, अधमकुलमें, कंजुसकुलमें, दारिद्रकुलमें, तुच्छकुलमें या भिक्षुककुलमें अद्यापि-आजतक कभी भी आये नहीं है, आते नहीं है और बाद में कभी आयेंगे नहीं! वास्तव में ऐसा है कि अरिहंत भगवन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव राजा उग्रवंश के कुल में, भोगकुलमें, राजन्य कुलमें, ज्ञात कुलमें, क्षत्रिय कुलमें, इक्ष्वाकु के हरिकुलमें या ऐसे ही अन्य विशुद्धजाति-कुल और विशुद्धवंश में आज तक आये है, आते है, और भविष्य में भी उत्तमकुलमें आयेंगे। For Private Pennel 3000000卐ON ion international Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40501405004050040 २२) ऐसा भी लोगों को आश्चर्य में डालनेवाली घटना, अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी व्यतीत होने पर बन जाती है, कि जब नाम - गोत्र कर्म का क्षय नहीं हुआ है, ये कर्म संपूर्णतया भोगा नहीं गया हो और इसी कारण वह कर्म आत्मासे सर्वथा अलग नहीं हुआ हो याने अरहंत भगवानों को ये कर्म उदय में आये हुए हो तब अरिहंत भगवान, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेवराजा अन्त्यकुलमें, हल्केकुलमें, तुच्छकुलमें, कंजुसकुलमें, दरिद्रकुलमें, भिक्षुकुल थे, आते है, या आयेंगे। फिर भी इन कुलों में वे कभी भी जन्में नहीं, जन्मते नहीं और जन्म कभी नहीं लेगें । २३) यह श्रमण भगवान महावीर जंबुद्विप नामक द्वीप में, भारतवर्ष के माहणकुण्डग्राम नगर में कोडाल गोत्र के रिषभदन्त ब्राह्मण की भार्या जालंधर गोत्र देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भतया उत्पन्न हुए है। २४) भूतकाल में हुए, वर्तमान समय में है और भविष्य में होनेवाले देवराज शक्रेन्द्र का पुनित कर्त्तव्य है कि उन अरिहंत भगवन्तो को उस प्रकार के अन्तकुलोंसे, अधमकुलोंसे, तुच्छकुलोंसे, कंजुसकुलोसे, दरिद्रकुलोंसे, भिक्षुककुलोंसे दूर कर यावत् ब्राह्मण कुलसे हटाकर उस प्रकार के उग्रवंश कुलों में या भोगवंश For Pavite & Personal Use Only - 140501405 22 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anuron Internal गर्भापहरण, त्रिशलाराणी की कुक्षि में गर्भ स्थापन Flour Private Personal use oily त्रिशला राणी को 14 स्वप्न दर्शन 23 Holg Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धार्थ राजा का स्नान, मल्लयुद्ध तथा राज्यसभा सिद्धार्थराजा की राज्यसभा में स्वप्न लक्षण पाठक का आगमन angem integ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300000000 - कुलो में, राजन्यवंश कुलों में ज्ञातवंश कुलों में क्षत्रियवंश कुलों में, हरिवंश कुलों में या दूसरे वैसे विशुद्ध जाति-वंश और विशुद्ध कुलवाले कुलों में बदलना योग्य है। २५) हे देवानुप्रिय! तुम जाओ, श्रमण भगवान महावीर को माहणकुण्ड गाम नामे नगर में से कोड़ाल गोत्र के रिषभदत्त ब्राह्मण की भार्या जालंधर गोत्र की देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि से हटाकर क्षत्रियकुण्ड गाम नाम के नगरमें ज्ञातवंश के क्षत्रियों के वंशज और काश्यपगोत्र के सिद्धार्थ क्षत्रिय है उनकी भार्या वशिष्ठ गोत्र की त्रिशला क्षत्रियाणी है उसकी कुक्षिमें गर्भतया स्थापित करके मुझे मेरी इस आज्ञा को शीघ्र ही वापस लौटाओ। २६) उसके बाद पैदलसेना के सेनापति वह हरिणेगमेसी देव, देवेन्द्र शक्र की उपर्युक्त आज्ञा सुन खुश हुआ तथा उसका मन है मयूर नाचने लगा। उसने दोनो हथेली इकट्ठीकर अंजलि जोडकर " देव की जैसी आज्ञा " इस प्रकार इस आज्ञा के वचन को वह सविनय स्वीकार करता है। आज्ञा के वचन को विनयपूर्वक स्वीकार कर वह हरिणगमेसी देव, देवेन्द्र-देवराज शक्रके पास से निकलता है, नीकल कर उत्तर पूर्व की दिशा के भाग में याने ईशान कोण की ओर जाता है, वहां जाकर वैक्रिय समुद्धात से अपने शरीर को बदलने का प्रयत्न करता है, ऐसा करके वह अपने शरीर में रहे हुए आत्मप्रदेश समुह को और कर्मपूद्धगल समूह को For Private Personal use only 5000-4100 p a International Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 संख्यातयोजन लम्बे दण्डाकार शरीर से बाहर निकालता है। वैसा करके वह देव भगवान को एक गर्भ से हटाकर दूसरे गंभ में स्थापित करने के लिए अपने शरीर को निर्मल-अधिक अच्छा बनाने के लिए इस शरीर में रहे हुए स्थुलपुद्गल परमाणुओ को झाड़ता है, याने इन पुद्गल परमाणू जैसे कि रत्न के, वजके, वैडूर्यरत्नके, लोहिताक्षरत्नके, मसारगल्लरत्नके, हंसगर्भ, पुलकके, सौगन्धिकके,ज्योतिरसके, अञ्जनके, अञ्जनपूलके, चांदीके, जातरुपके, सुभगके, अंकके, स्फटिकके और रिष्टरत्नके इन सभी जाति के रत्नों की तरह स्थूल है इसलिए इस प्रकार के अपने शरीर में जो स्थूलपुद्गल परमाणु है उनको झाड देते है और उनके L स्थान पर सूक्ष्म पुद्गलों को याने साररुप ऐसे श्रेष्ठ पुद्गलों को ग्रहण करता है । २७) इस प्रकार भगवान के पास जाने के लिए अपने शरीर को तद्योग बनाने के लिए अच्छे-अच्छे सूक्ष्म पूद्गलों को ग्रहण करके फिरसे वैक्रिय समुद्घात करता है, ऐसा करके अपने मूल शरीर से भिन्न अलग एसा दूसरा उत्तम प्रकार की शीघ्रतावाली, चंचल तेजी के कारण प्रचण्ड (उग्र), अन्य सभी गतियों से विशेष तेज, आवाज करती, दिव्य शीघ्र गति के चलते चलते याने नीचे उतरता वह, असंख्य द्विप समुद्रों के बिचमें तिर्छ रहे हुए जम्बूद्वीप में आया हुआ भरत क्षेत्र है और उसमें जहां माहण कुण्डग्राम नगर आया हुआ है, जिसमें रिषभदत्त ब्राह्मण का घर है, तथा उस घर में देवानंदा ब्राह्मणी 0000 Paytyley O+ 26 ation.international Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000 है, उसके पास आता है। उसके पास आकर ज्योंही श्रमण भगवान महावीर को देखता है, तुरन्त ही उन्हे विनयपूर्वक नमस्कार करता है। प्रणाम करने के पश्चात् उस देवने सपरिवार देवानंदा ब्राह्मणी को अवस्वापिनी नीद्रा में लीन करता है। ऐसा करने पर परिवार सहित देवानन्दा गाढनिद्रा के अधीन बन जाती है। तत्पश्चात् अस्वच्छ पुद्गलों को दूर कर, स्वच्छ पुद्गलों को उनके स्थान पर रखता है। ऐसा कर" हे भगवान! मुझे इस कार्य को करने की आज्ञा दीजिए " ऐसा कहकर अपनी दोनो हाथ की हथेलियों के संप्ट द्वारा भगवान को थोडी भी पीड़ा ना हो इस प्रकार ग्रहण करता है, इस प्रकार से यह देव, श्रमण भगवान महावीर को ग्रहण करके जिस तरफ क्षत्रियकुण्ड गाम नगर है, उस तरफ जहां सिद्धार्थ क्षत्रिय का घर है, उस घर में जहां त्रिशला क्षत्रियाणी रही हुई है, उसके पास आता है, तत्पश्चात परिवार सहित त्रिशला क्षत्रियाणी को भी गाढी याने घोर नीद्रा में रखता है, ऐसा कर वहां रहे हुए अशुद्ध पूगल परमाणूओं को दूर कर, स्वच्छ पुद्गल परमाणुओं को उसके स्थान पर फैलाकर, उन श्रमण भगवान महावीर को थोडा भी कष्ट न हो इस प्रकार त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भतया रखते है, और उस त्रिशला क्षत्रीयाणी के गर्भ को वहां से लेकर जालंधर गोत्रवाली देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में गर्भरूप रखते है, इस प्रकार सब अच्छी तरह कार्यकर वह देव, जिस दिशा से आया था उसी दिशा की ओर वापस चला गया । 100000000 ton International For Bee Penal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८) अब वह देव जिस उत्तम प्रकार की, चंचल, प्रचण्ड और दूसरी अन्य गतियों से तेज, शीघ्र दिव्यगति से वापस असंख्य द्वीप- समुद्रों के बिचमें होकर और हजार-हजार योजन की विशाल छलांगे लगाता वह देव जिस और सौधर्म नाम के कल्प में याने देवलोकमें सौर्धमावंतसक नामक विमान में शक्र नामक सिंहासन पर देवेन्द्र-देवराज शक्र जहां बैठा हुआ है, उस तरफ उनके पास आता है, आकर देवेन्द्र - देवराज शक्र की आज्ञा को पुनः उन्हे वापस तुरन्त लौटाता है अर्थात् आपने जो आज्ञा मुझे दी थी उसे कार्यान्वित कर दी है, ऐसी जानकारी देता है। २९) उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान सहीत थे। १: मुझे बदलकर अन्यत्र लेजाया जायेगा ऐसा जानते है, २: किन्तु स्वयं अपने आपको बदलाते नहीं जानते, ३) परन्तु स्वयं बदले गये है ऐसा जानते है। ३०) उस काल और उस समय में जब वर्षा ऋतु चल रही थी और उस ऋतु का तीसरा महीना और पांचवां पक्ष चलता था या महीने का कृष्ण पक्ष तथा उस समय कृष्ण पक्ष की तेरहवी तिथि याने त्रयोदशी आई हुई थी। भगवान को स्वर्ग में से च्यवकर देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आये हुए करीब ब्यासी रात-दिन व्यतीत हो चुके थे और त्रयोदशी के दिन त्यांशीवा रात-दिन चल रहा था, उस त्यांसी वे दिन की ठीक मध्यरात्रि में याने अगली रात का अन्त और पिछली रात का प्रारंभ हो रहा ation International Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 雙雙懷 था ऐसे समय में उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र को योग आने पर हितानुकम्पक ऐसे हरिणेगमेसी देवने शक्र की आज्ञा से माहण कुण्डग्राम नगरमें से कोड़ालगोत्र के रिषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी जालंधर गोत्र की देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि से भगवान को लेकर क्षत्रियकुण्डग्राम नगर में ज्ञातवंश के क्षत्रियों मे से काश्यप गोत्र के सिद्धार्थ क्षत्रिय की पत्नी वाशिष्ट गोत्र की त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में थोडा भी कष्ट न हो इस प्रकार रख दिया। ३१) श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञानवाले थे। १. “ मैं ले जाया जाऊंगा" ऐसा जानते है, २. “मैं ले जाया जा रहा हुं" ऐसा वे नहीं जानते, ३. “किन्तु मैं ले जाया जा चुका हूं" ऐसा वे जानते है | ३२) जिस रात को भगवान महावीर जालंधर गोत्रवाली देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि से लेकर वाशिष्ट गोत्रवाली त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भतया रख दिये, उस रात को देवानन्दा ब्राह्मणी अपने बिछौने में अर्ध जाग्रतावस्थामें उसने अपने आये हुए इस प्रकार के उदार, कल्याणकारी, शिवरूप, धन्य और मंगलकारी शोभावाले ऐसे चौदह महा स्वप्नों को त्रिशला क्षत्रियाणी ने छीन लिया है, ऐसा देखा और देखकर वह जग गई। वे चौदह स्वप्न हाथी, वृषभ विगेरे उपर्युक्त गाथा में कहे हुए है । ३३) अब जिस रात में भगवान महावीर को जालंधर गोत्रवाली देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि से लेकर वाशिष्ठगोत्रवाली 卐00卐0930 29 to International Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000 त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भतया रखने में आये उस रात्रि में वह त्रिशला क्षत्रियाणी अपने उस प्रकार के भव्य शयन खण्ड में रही हुई थी, वह शयन खण्ड याने सोने का कमरा अन्दर से अनेक कलायुक्त चित्रोंवाला, बाहर से सफेदी किया हुआ, घिसकर चमकदार किया हुआ, कोमल बनाया हुआ था तथा उसमें ऊंचे उपर के हिस्से की छत्त पर तरह तरह के चित्र बनाये हुए थे, वहां मणि और रत्नों के दीपक के कारण अन्धकार नष्ट हो गया था। इस शयन खण्ड की फर्श की भूमि मान और विविध प्रकार के स्वस्तिको से अति सुन्दर बनाई गई थी। वहां पांचो प्रकार के रंग युक्त सुगन्धित फूलों से पूरा खण्ड महकता कर दिया था। इसके सिवाय अगर, कंदरूप, दशांग, तुरकी आदि विभिन्न धूप प्रगटाकर उस शयन कक्ष को अति रमणीय व शोभायुक्त बनाया गया था। सुगन्धित अत्तर, केवडा, गुलाब, चमेली, गुलाबजल, केवडाजल आदि पदार्थो से यह कक्ष बहुत शोभायमान बना दिया गया था। ऐसा लगता था मानो यह सुगन्धित गुटिकाओं से महकता न हो। वह त्रिशला क्षत्रियाणी ऐसे उत्तम सुशोभित शयनागार में कोमल शय्या पर सोई हुई थी। शय्या सोने वाले के शरीर के संपूर्ण नापवाली थी। शिर और पैरों के दोनो और ओशीके (तकिये) लगे हुए थे। यह शय्या दोनों तरफ से उन्नत थी और बीच में झुकी हुई और गहरी थी। गंगा नदी के किनारे रही हुई रेत पर पैर रखते ही जैसे कोमल लगे वैसी वह शय्या थी। इस शय्या 30 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐0-10051 और धूल के रजकण से वह मैली न हो जाय। मच्छरों के उपद्रव को मिटाने के लिए लाल कपड़े की मच्छरदानी भी लगी हुई थी। ऐसी यह सुन्दर शय्या, कोमल चमड़ा, रुई, बुर की वनस्पति, मक्खन और आक की रूई से भी अति कोमल थी । पालकों Q से निपुण इस को सुगन्धित पुष्प, अत्तर, आदि पदार्थों से अति सुखद बना दी गयी थी। ऐसी शय्या में अर्ध जाग्रतावस्था में रात्रि की समाप्ति होने पर और अगली रात के प्रारंभ में याने मध्य रात्रि के समय इस प्रकार के उदार चौदह महास्वपनों को देखकर जग जाती हैं। उन चौदह स्वप्नों के नाम इस प्रकार से है:- १: गज(हाथी), २: वृषभ(बैल), ३: सिंह, ४: अभिषेक कराती लक्ष्मी देवी, ५: माला - पुष्पमाला युगल, ६: चन्द्र, ७: सूर्य, ८: ध्वज, ९: कुंभ, १०: पद्मसरोवर, ११: क्षीरसमुद्र, १२: विमान या भवन, १३: रत्न राशि, १४: निर्धम अग्नि। ३४) अब उस त्रिशला क्षत्रियाणी ने सबसे प्रथम हाथी को देखा, वह हाथी विशाल शरीरवाला, चार दन्तवाला, ऊंचा, पानी बरसने के बाद बादल जैसा श्वेत, तथा इकट्ठे किये हुए मोती के हार, क्षीर समुद्र, चन्द्रमा की किरणें, जलबिंदु और चांदी के बड़े पहाड इन सब पदार्थों के समान श्वेत था। इस हाथी के गंडस्थल से सुगन्धित मद-तरल पदार्थ निकलता रहता हैं, 0000000000 313 Eactiveadosanle Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +0000050000 जिसकी सुगन्ध से आकृष्ट अलिगण-भौंरो को समुह चारों ओर घूम रहा है ऐसा इसके गाल का प्रारंभ भाग है, यह हाथी देवेन्द्रों के हाथिओं याने ऐरावण हाथी जैसा हैं, तथा जल से परिपूर्ण भरे हुए बादलों की गर्जना जैसा गंभीर तथा मनोहर इस हाथी की चिंगाड़ है, यह हाथी शुभकारी तथा सभी शुभ लक्षणों वाला है, इस हाथी की जंधा उत्तम है ऐसा हाथी त्रिशलादेवी ने प्रथम स्वपने में देखा। (१) ३५) उसके बाद श्वेत कमल की पखंडियों के ढेर से भी अधिक रुप प्रभाववाला, कान्ति के समुह को चारों दिशाओं में फैलाने के कारण चारों तरफ प्रकाशमान करनेवाला जिसका कंधा मानो अतिशय शोभा के कारण झुक रहा है वैसा, कान्तीवाले मनोहर कन्धावाला, जिसकी रोमराय बहुत पतली-स्वच्छ और कोमल है और उस प्रकार की रोमराय से जिसकी कान्ति चकचकित होती है ऐसा, स्थिर अंगवाला, मांस पेसियों से गठित शरीर है जिसका तथा सुघटित सुन्दर अंगवाला, जिसके सींग बराबर गोल घेरा वाले है ऐसा, अन्य बैलों से विशेषताओ वाला, उत्कृष्ट, तीखे (पैने) और तेल से चुपड़ें हुए ऐसे उत्तम सिंग वाला दिखने में भयकारी फिर भी किसी भी प्रकार का उपद्रव नहीं करने वाला, समान श्वेत शोभित सुन्दर दन्त पंक्तियोंवाला, अगणित गुणवाला, मंगलमय मुंहवाला ऐसे वृषभ को त्रिशला देवी दूसरे स्वपन में देखती है -२-- ForPosts Penge 40000000000 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000 ३६) मोती की मालाओं का ढेर, क्षीरसमुद्र, चन्द्रमा की किरणे, जलबिन्दु और चांदी का विशाल पहाड़ जैसा गोरख वर्णवाला, रमणीय, देखने योग्य, जिनके पॉव स्थिर और मजबूत है, जिनकी दाढ़ें गोल, विशेष मजबूत, बिचमें खाली भाग बिना का, दूसरों Q की तुलना में बढ़कर व पैनी दाढ़ो से जिसका मुंह अतिसुन्दर दिखाई देता है तथा दोनो जिसके होट स्वच्छ-उत्तम कमल के समान कोमल-प्रमाणोपेत, शोभायमान और मजबूत है लाल कमल की पंखुडिया जैसे कोमल मुलायम तालूवाला और जिसकी जिहा बाहर लटकती हुई है वैसा, जिसकी दोनों चक्षु सोनार की घमनी में रक्खे हुए गर्म किये हुए उत्तम सोने की तरह चमकती है वैसी , बराबर गोल और स्वच्छ विद्युत की भांति चमकती हुई आंखोंवाला, विशाल और मजबूत उत्तम जंधावाला, बराबर संपूर्ण स्वच्छ कंधावाला, तथा जिनके केश-कोमल, श्वेत, पतली, सुन्दर लक्षणोपेत पंक्ति है वैसा, चारों ओर फैले हुए केश के आडम्बर से शोभित, जिसकी पूंछ ऊपर उठाने से व गोलाकार बनने से सुन्दर लगता है वैसा, शान्त, दर्शनीय ऐसा आकाश से उत्तर ते हुए और बाद में मुंह में प्रवेश करते हुए ऐसे सिंह को त्रिशला क्षत्रियानी देखती हैं, और वह सिंह कैसा है? अत्यन्त तीक्ष्ण अग्रभाग वालें है नाखुन जिसके तथा मुख की शोभा हेतु पल्लव पत्र की तरह जीभ फैलाई है जिसने ऐसे सिंह को त्रिशला क्षत्रियाणी तीसरे स्वप्न में देखती है।३ (30-00卐0930 Sation international For P & Penale Caly Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७) उसके बाद संपूर्ण चन्द्रमा के समान मुंहवाली त्रिशलादेवी चौथे स्वपन में लक्ष्मी देवी को देखती है। वह लक्ष्मी देवी कैसी है? ऊंचा जो हिमवान पर्वत, उस पर उत्पन्न हुआ जो कमल रुपी मनोहर स्थान, उसके ऊपर बैठी हुई है, सुन्दर रूपवाली हैं, उसके दोनों पावों के पंजे ठीक यथोचित सोने के कच्छुए के समान ऊंचे है । अत्यन्त ऊंचे और मजबुत अंगुठे और अंगुलियों के बिच इसके नाखून मानो रंजित न हो ऐसे लाल, मांस से भरपुर, ऊंचे पतले, तांबे जैसे लाल और कान्ति से चमकदार है। कमल पत्रों के समान कोमल इसके हाथ पांव की उत्तम अंगुलियाँ है । 'कुरुविंदावर्त' नाम के आभरण विशेष, अथवा आवर्त विशेष, उससे सुशोभित, गोलाकार व अनुक्रम से पहले पतली बाद में जाडी इस प्रकार की पैर की पिंडियोंवाली, गुप्त घूंटनवाली, उत्तम हाथी के सूंढ सद्दश-जैसी पुष्ट सांथलवाली, सुवर्णमय कमरबंध (कंदोरे) युक्त है रमणीय व विस्तीर्ण कमर का भाग है जिसका वैसी, घुटे हुए अञ्जन-भौंरे व घटाटोप बने हुए मेघ जैसी श्याम, सरल, सपाट, अंतर रहित, सूक्ष्म, विलास के द्वारा मनोरम, शिरीष पुष्प इत्यादि सुकोमल पदार्थो से भी अधिक सुकोमल व रमणीय हैं, रोम की पंक्तियां जिसकी ऐसी, नाभी मण्डल के द्वारा सुन्दर, विशाल और सुलक्षणों से युक्त "जधन" अर्थात् कमर के नीचे के आगे का भाग जिसका ऐसी मुट्ठी में समा जाय ऐसा व रमणीय त्रिवली युक्त हैं, उदर जिसका ऐसी, चन्द्रकान्तादि विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण, वैडूर्य विगेरे करने cation International 140 1500 40 500 40 500 40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000 वाली. ऐसी ऐश्वर्यादि गुणोपेत लक्ष्मीदेवी को त्रिशला क्षत्रियाणी देखती है। और वह लक्ष्मीदेवी कैसी हैं। हिमवान पर्वत के शिखर पर दिग्गजेन्द्रों की लम्बी व पुष्टसूडो के द्वारा अभिषेक कराती हुई ऐसी लक्ष्मीदेवी को त्रिशला क्षत्रियाणी चौथे स्वप्न में देखती है।....................४ ३८) इसके पश्चात पांचवे स्वप्न में त्रिशलादेवी आकाश से उतरती मालाएं देखती हैं। वे मालाए कैसी है? कल्पवृक्ष के ताजे और रस युक्त पुष्पों की जो मालाएं, उन मालाओं से व्याप्त होने से रमणीय है। और वे पुष्प मालाएं कैसी है? चंपा के, अशोक के, पुन्नाग के, नागकेशर, प्रियंगु, शिरीष याने सरसडे के, मोगरे के. मालती के, जाई-जुई के, अंकोल के, कोज के, कोरिट के, मरवा के, नवमल्लिका के, बकुल के, तिल के, वासंतिका बेल के, सूर्यविकासी कमल, चंद्रविकासी कमल, गुलाब के, मोगरे के, एवं आम मञ्जरियाँ।उपर्युक्त पुष्प व मरियाँ वाली वे मालाएं हैं। और कौन गुणवाली वे मालाएं है? अनुपम और मनोहर सुगंध से दसों दिशाओं को सुगंधित करती है। और वे भी मालाएं कैसी है? सर्व ऋतुओं के सुगन्धित पुष्पों की मालाओं के कारण सफेद है, और देदीप्यमान, रमणीय लाल, पीले विगेरे विभिन्न रंग के पुष्पों के बीच - बीच में गुंथनी करने के कारण मानों कलाकृति वाली न हो? ऐसी आश्चर्यकारी लगती हैं यानी कि उन मालाओं में श्वेतवर्ण अधिक है व अन्दर अन्य वर्ण थोड़े Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40501405004050140 थोड़े हैं और उन मालाओं की अतिशय सुगन्ध के कारण भिन्न-भिन्न जाति के रत्न तथा निर्मल उत्तम जाति का लाल सुवर्ण, उनके जो आभरण और जो आभूषण, उन आभरण आभूषणो से सुशोभित है, मस्तक प्रमुख अंग, अंगुली प्रमुख ऊपांगवाली, Q जिसके स्तन युगल चमकते व निर्मल कलशों के समान गोल और कठन है, तथा मोती के हार, मोगरा फूल की मालाऐं से सुशोभीत तथा उन हारों के बिच में पन्नादि नंगो से शोभायमान, आखों को आकर्षित करने वाले मोती के गुच्छों से उज्जवल - ऐसे मोतियों के हार से शोभित, हृदय पर पहनी हुई सुवर्णमाला द्वारा सुशोभित ऐसा जो कण्ठ में पहना हुआ रत्नमय धागा, उससे शोभीत है। और वह लक्ष्मी देवी कैसी है? कंधे तक लटकते दो कुण्डलवाली, इससे अधिक शोभायमान और सुन्दर कान्तिवाला मानो मुंह कुटुम्बी न हो इस प्रकार उस (मुंह) के साथ शोभने लगी, उसके दिव्य चक्षु युगल कमल के समान निर्मल, विशाल व रमणीय है ऐसी, कान्ति के तेज से चमकते दो कमल जिसके हाथों की शोभा वृद्धि कर रहे हैं और उनमें से मकरंद स्वरुप जल गिर रहा है, ऐसी याने कि-लक्ष्मीदेवी ने दोनो हाथों में दो कमल ग्रहण किये हैं और उनमें से मकरंद गिर रहा है। और वह लक्ष्मीदेवी कैसी है? देवों को पसीना होता नहीं है, सिर्फ क्रीड़ा हेतु ही पवन लेने के लिए कंपायमान यानी चलता हुआ जो पंखा, उससे शोभीत, सम्यक् प्रकार से अलग-अलग केशवाली, श्यामवर्ण वाली, सघन अर्थात अंतर रहित, पतले बालों ation Internation 140 500 40 500 40 500 40 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OPEN000000000 5 आया हुआ षट्पद याने भ्रमरों का समुह उन मालाओं पर, नीचे और दोनो ओर आसक्त-लीन होकर कानो को मधुर लगे वैसे 5 सरस और मधुर गुंजन कर रहा है। इस प्रकार की मालाएं आकाश से उतरती देखती है।.. ............५ ३९) अब छठे स्वप्न में माता चन्द्रमा को देखती है। वह चन्द्रमा कैसा है? गाय का दूध, झाग, जल बिन्दू और चांदी के कलश जैसा श्वेत कांतिवाला, शान्तिदायक, हृदय और नयनों को वल्लभ लगे ऐसा, संपूर्ण मण्डल युक्त यानी सोलह कलाओं से खिला हुआ, घोर अंधकार के द्वारा गाढ व गंभीर ऐसी वन की झाडी में भी अंधकार का नाश करने वाला, मास वर्ष इत्यादि प्रमाण को करनेवाला जो शुक्ल व कृष्ण ऐसे दो पक्ष, उस पक्ष के मध्यमें में रही हुइ जो पूर्णिमा में शोभती कलाओं वाला, कुमुद के वन को विकस्वर करने वाला, रात्रि को शोभायमान करनेवाला, राख, चुना आदि के द्वारा अच्छी तरह से माँजकर (घीसकर) उज्वल बनाये हुए दर्पण जैसा, हंस जैसे उज्जवल वर्णवाला, ग्रह, नक्षत्र, तारा विगेरे जो ज्योतिष, उनके मुंह को शोभायमान करने वाला, अर्थात उनमें अग्रसर, तथा शांत समुद्र के पानी को ऊपर उठाने वाला, कामदेव के तरकस (भाता) समान यानी जैसे धनुर्धारी पुरुष तरकस को पाकर के उसमें से बाणों को लेकर उन बाणों से मृगादि प्राणियों का घात करते हैं, वैसे ही कामदेव भी चन्द्र के उदय को पाकर लोगों को (विरही औरतों को) काम बाण से व्याकुल करता है अर्थात चन्द्रोदय 卐0000001950 tion.international For Pietes Pesanale Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000 होते ही कामदेव कामियों को सताता है। फिर यह चन्द्र शान्त सुन्दर रुपवाला है। आकाश मण्डल का मानो विस्तीर्ण सौम्य व चलन स्वभाव वाला तिलक ही न हो? रोहिणी के मन को सुखकारी तथा रोहिणी का पति और अच्छी तरह से उल्लसित ऐसे पूर्ण चन्द्र को त्रिशलादेवी छठे स्वप्न में देखती है। ....... ४०) उसके बाद तिमीर अंधकार पड़ल को तोडने वाला, तेज से जाज्वलयमान, लाल अशोकवृक्ष, प्रफुल्लित केसुडा, तोते की चोंच, व चीरमी के अर्धभाग जैसा लाल रंगवाला, कमल के वन को विकसित करने वाला, ज्योतिष चक्र पर फिरनेवाला होने से उसके लक्षण का ज्ञाता, आकाश तल में दीपक के समान, हिम समुह को पिघलाने वाला, ग्रह मण्डल का प्रधान नायक, रात्रि को मिटाने वाला, उदय व अस्त के समय मुहूर्त पर्यंत सुखपूर्वक देखा जा सके ऐसा, रात्रि में चोरी-यारी विगेरे अन्याय हेतु भटकने वाले स्वेच्छाचारी चोर-व्याभिचारी आदि को अन्याय से रोकने वाला, ठंडी-सर्दी के वेग को अपने ताप से दूर करनेवाला, प्रदक्षिणा के द्वारा मेरुपर्वत के चारों ओर सतत भ्रमण करने वाला, विस्तीर्ण मण्डल वाला एवं अपनी हजारों किरणों से प्रकाशित चन्द्र तारा इत्यादि की शोभा का नाश करने वाला ऐसे सूर्य को माता सातवे स्वप्न में देखती है।..... .......७ 38 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 093e ४१) उसके पश्चात त्रिशला क्षत्रियाणी आठवें स्वप्न में उत्तमजाति के सुवर्णमय दण्ड पर रहे हुए ध्वज को देखती है। वह ध्वज ॐ कैसा है? हरे, काले, पीले और श्वेत वर्णवाले होने से रमणीय, सुकोमल, और वायु से इधर-उधर लहराते ऐसे जो ढ़ेर सारे र मोर पीच्छ, उस मोर पीछरूपी उसके केश न हो, ऐसे ध्वज को देखती है। यह ध्वज अधिक शोभावाला है। उस ध्वज के ऊपरी हिस्से में सिंह चित्रित है, वह सिंह स्फटिक रत्न, शंख, अंकरत्न, मोगरा का पुष्प, पानी के बिन्दू व चांदी के कलश के समान सफेद है। इस प्रकार के अपने सौंदर्य से रमणीय लगते हुए सिंह से वह ध्वज शोभा दे रहा है। वायु के तरंगो से ध्वज लहराता है, जिससे उसमें चित्रित सिंह भी उछल रहा है, जिससे यहाँ कवि उत्पेक्षा करता है कि - मानो वह सिंह गगन तल को चीर डालने हेतु प्रयास कर रहा हो। यह ध्वज सुखकारी व मन्द वायु के कारण चलायमान होता हुआ, अतिशय बडा व मनुष्यों को सुन्दर देखने योग्य लगता है। ८ 6 (42) उसके पश्चात् उत्तम सुवर्ण तुल्य देदीप्यमान, स्वच्छ जल से परिपूर्ण, उत्तम कल्याण को सूचित करने वाली जगमगाती कान्तिवाला, कमलों के समुदाय से चारों तरफ से सुशोभित ऐसा चांदी का कलश माता को नवमें स्वप्न में दिखाई देता है। सभी प्रकार के मंगल के भेद इस कलश में दृष्टिगत हो रहे है, ऐसा मंगलकारी यह कलश है। उत्तम प्रकार के रत्नजड़ित व कमल के स卐elamyelane sationinternational Forte Penal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 05000 ऊपर रहा हुआ है। जिसको देखते ही चक्षु प्रसन्नता का कारण बनता है ऐसा सुन्दर यह कलश है तथा इसकी तेज चमकती ज्योति चारों ओर अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करती है। प्रशस्त लक्ष्मी का आगार-घर है, सभी प्रकार के दुषणों से रहित है शुभ्र, चमकता उत्तम शोभा वाला है। सभी ऋतुओ के सुगन्धित फूलमालाएँ जिसके कंठ भाग में शोभा बढ़ा रही है ऐसा रजत कलश को माता देखती है। (43) उसके बादमें दशवें स्वप्न में त्रिशला क्षत्रियाणी पद्मसरोवर देखती है। वह पद्मसरोवर कैसा है? उदय होते सूर्य किरणो से खिले हुए है ऐसे हजारों पंखुड़ियों वाले सहस्त्र दल बड़े कमलों के कारण सुगन्धित बना हुआ है तथा उन कमलों के रजकण गिरने से जिसका पानी पीत और लाल रंग का दिखता है वैसा, इस सरोवर में चारों तरफ अनेक प्रकार के जलचर जीव स्वेच्छापूर्वक जलपान कर तृप्त हो विचार रहे है, यह सरोवर विशाल लम्बा-चौडा व अगाध है जिसमें सूर्य विकासी कमल, चन्द्रविकासी कमल, लाल बड़े कमल, सफेद कमल आदि अनेकविध, विविध रंग कमलों की शोभा के कारण देदिप्यमान दिखाई देता है। सरोवर की शोभा और रुप बहुत ही मनोहर है, चित्त को आनंद देनेवाला है, जिस के कारण अलिगण भ्रमर व मस्त मक्खियाँ झुंड के झुंड उन कमलों के रस लेने लगी है ऐसे इस सरोवर Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 500 40 500 40 500 40 में मधुर व आवाज करनेवाले कलहंस, बगुलें, चक्रवाक, राजहंस, सारस, जलचर गर्व से मस्त हो जलोपयोग कर रहे है तथा तरह तरह के पक्षि नर-मादा के जोड़े इसके जल का उत्साहित हो जलास्वादन कर रहें हैं। सरोवर में रहे हुए कमल पत्रों पर जलबिन्दु मोती का रुप धारण कर शोभा बढ़ा रहे हैं। यह सरोवर देखनेवालों के हृदय और नयनों को शान्ति दायक है, इस कमलों मे रमणीय और आल्हादक सरोवर माता दसवें स्वप्न में देखती है। (44) इसके बाद ग्यारवे स्वप्न में माता क्षीरोदधि सागर को दुध का सागर देखती है। इस क्षीर सागर का मध्य भाग, चन्द्र रश्मि- किरण समुह की शोभा जैसा अति उज्जवल है, चारों दिशाओं के मार्गों में अतिशय बढते हुए जलराशिवाला अर्थात उस समुद्र में चारों ओर अगाध जल प्रवाह वाला है। फिर यह क्षीर समुद्र कैसा है। अतिशय चंचल व अति ऊंचे उठते हुए जो कल्लोल यानी तरंगे, उनके द्वारा बारंबार इकट्टा होकर बिखरता हुआ पानी जिसका है वैसा, प्रचण्ड पवन के आघात से चलायमान होनेवाला एवं इसी कारण चंचल बनी हुई जो प्रगट तरंग, इधर उधर नृत्य करती जो भंग यानी तरंग विशेष तथा अतिशय क्षोम को धारण करती हुई याने मानों भय-भ्रान्त न हुई हो ? इस प्रकार चारों ओर टकराती तथा इसी कारण शोभती स्वच्छ व उछलती ऐसी जो उर्मियों याने बड़े बड़े कल्लोल अर्थात् समुद्र लहरें इस तरह तरंग, भंग और उर्मियों के साथ tion International 41 4050140 500 40 500 40 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000 जो संबंध, उसके द्वारा तट की ओर दौड़ता व पुनः लौटता हुआ अत्यन्त देदीप्यमान और दर्शकों के प्रेम को उत्पन्न करने वाला, बड़े मगरमच्छ, मछलियाँ, तिमिनामक सामान्य मच्छ, तिमिगिल नामके बड़े मच्छ, निरुद्ध तिलि तिलक इत्यादि जो तरह तरह के जलचर जीव, उनकी पूंछों के आघात से उत्पन्न होनेवाला कर्पूर जैसा सफेद झाग का विस्तार है जिसमें ऐसा, बड़ी-बड़ी नदियों के वेग से दौड़कर आता हुआ जलप्रवाह, उनसे उत्पन्न पानी के चक्रवाक वाला, गंगार्वत नामका आवर्त विशेष यानी पानी का घेराव विशेष, उस घेराव में व्याकुल होते हुए और घेराव में रहे हुए होने से अन्य स्थान में निकल जाने का अवकाश नहीं होने से उछलते हुए, और उछल कर पुनः उसी घेराव में गिरते हुए तथा इस कारण चक्राकार फिरते हुए चंचल पानीवाला, इस प्रकार के क्षीर समुद्र को शरद ऋतु के चन्द्र समान सौम्य मुखवाली त्रिशला क्षत्रियाणी देखते है। ११ ___ (45) तत्पश्चात् बारवें स्वप्न में माता उत्तमदेवविमान देखती है। वह देवविमान नूतन उदित सूर्यमण्डल के समान चमकती कान्तिवाला, तेज युक्त शोभावाला, उत्तम जाति के सुवर्ण व उत्तम कोटी की महामणियों के समुह से मनोहर बने हुए एक हजार आठ स्तंभ, उन स्तंभों से देदीप्यमान होता हुआ व आकाश को भी दीपाता हुआ, सुवर्ण पत्र में लटकते मोतियों से अतिशय तेजस्वी बना हुआ, जिसमें देवताओं सम्बन्धी लटक रही पुष्पमालाएं देदिप्यमान हो रही है ऐसा, और जिसमें जंगली भेड़िया, वृषभ, अश्व, मानव, मगरमच्छ, भारंडपक्षी, सर्प, मयूर, किन्नरजाति के देव, कस्तुरिया मृग, रुरुजाती की मृग, 42 000000卐urleyON Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000 अष्टापदनामक पशु, चमरी गाय, तरह-तरह के जंगली जानवर, हाथियों, अशोकलतादि वन लताएं, एवं पद्मलताएं याने 卐 कमलिनियाँ-इन सब के मनोहर चित्र, उन सबके द्वारा मन को आश्चर्यचकित करने वाला, मधुर स्वर से गाये जाने वाले गायन एवं बजाये जाने वाले वाजिंत्र, उन गीत वाजिंत्रो के संपूर्ण नादवाला, जल से भराहुआ, घटाटोप बना हुआ व विस्तार वाला जो मेघ, उसकी गर्जना सद्दश देव दुंदुभियों के बड़े शब्दों द्वारा निरंतर सकल जीव लोक को पूर्ण करता हुआ, संपूर्ण जगत को शब्दों से व्याप्त करता हुआ, काला अगर, उत्तम कंद्रुप, सेलारस, जलता हुआ दशांगादि धूप, तथा अन्य भी सुगन्धित द्रव्य, उन सभी पदार्थों की उत्तम सुगंध से रमणीय, नित्य प्रकाशवाला, श्वेत रंग का, उज्जवल कान्तिवाला, उत्तम उत्तम देवताओं से सुशोभित सातावेदनीय के उपभोगवाला, उत्तमोत्तम विमान को त्रिशला देवी बारवे स्वप्न में देखती है।.... ...............१२ ४६) उसके बाद त्रिशला क्षत्रियाणी तेरहवे स्वपनमें रत्नो की राशी देखती है। वह रत्नराशी जमीन पर रही हुई है फिर भी गगन मण्डल के अन्तिम छोर याने किनारे को तेज से चक-चकित करता है। इसमें पुलाकरत्न, वजरत्न, इन्द्रनीलरत्न, यानी नीलम, पन्ना, सस्यकरत्न, कर्केतनरत्न, लोहिताक्षरत्न, मोती, मसारगल्लरत्न, प्रवाल, स्फटिक, सौगन्धिकरत्न, हंसगर्भरत्न, 使雙馬 antieceaninant Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000 श्यामकान्तिवाले अञ्जनरत्न, चन्द्रकान्तमणि, इस प्रकार के भिन्न-भिन्न जाति के उत्तम रत्नों के द्वारा वह रत्नराशि ऊंचा मेरुपर्वत जैसी लगती है, इस प्रकार की रत्नराशी को वह त्रिशलादेवी तेरवे स्वपन में देखती है।.१३ ४७) इसके बाद चौदहवे स्वपन में माता त्रिशला धूयें बिना की अग्नि देखती है। वह अग्नि कैसी है? विस्तारवाली उज्जवल थी व पीली मधु से सिंचित और इसी कारण बिना धुएंवाली, धक-धकती यानी कि धक्-धक् शब्द करती हुई, जाज्वल्यमान जलती हुई, इस प्रकार की जो ज्वालाएँ, उन ज्वालाओं के द्वारा उज्जवल व मनोहर, तर-तम योग से युक्त याने एक दुसरे की अपेक्षा से छोटी-बडी ज्वालाओं का जो समुह, उनके द्वारा मानो परस्पर मिश्रित यानी संकुचित न हो ऐसी अर्थात् एक ज्वाला ऊंची है,दुसरी ज्वाला उससे भी ऊंची है, और तीसरी उससे ऊंची है, इस प्रकार एक दूसरे की अपेक्षा से छोटी-बडी सर्व ज्वालाएं मानो स्पर्धा के द्वारा उस अग्नि के भीतर प्रवेश रही न हों । ऐसी ज्वालाओं का जो ऊंचे जलना, उससे मानो आकाश के किसी प्रदेश को पकाता न हो? अर्थात् वे अग्नि ज्वालाएं आकाश पर्यंत ऊंची होने से मानो आकाश को पकाने की तैयारी करती हो। ऐसी लगती है और अतिशय वेग के द्वारा चंचल है-त्रिशला माता चौदवें स्वप्न में ऐसा अग्नि देखती है।. ..........................................१४ 000卐ONLSO Porn.international For Private spersonal use only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८) इस प्रकार से ऊपर वर्णित ऐसे शुभ, सौम्य, देखते ही स्नेह उपजाने वाले सुन्दर स्वरुप वाले स्वप्नों को देखकर, कमल 卐 की पंखुड़ियाँ जैसे नेत्रवाली और खुशी के कारण जिसकी रोमराजि खडी हो गई है, वैसी त्रिशला माता बिछौने में जाग्रत हो गये। जिस रात में बड़े यशस्वी अरिहंत-तीर्थकर माता की कुक्षी में गर्भरूप आते है । उसी रात में सभी तीर्थकरों की माताएँ ऐसे चौदह महास्वपनों को देखती है। ४९) उसके बाद वह त्रिशला क्षत्रियाणी ऐसे स्वरूपवाले प्रशस्त ऐसे चौदह महास्वपनों को देखकर जागने पर विस्मित - बनी हुई, संतोष पाई हुई, यावत् हर्ष के वश से उल्लसित हृदयवाली, मेघ की धारा से सिंचित कदंब के पुष्प की भांति जिसकी रोमराजी विकसित हो गई है ऐसी, स्वपनों का स्मरण करने लगी। स्वप्नो का स्मरण करके शय्या से उठती 卐है। उठकर पादपीठ से नीचे उतरती है। उतरकर मन की उतावल से रहित, शरीर की चपलता से रहित एवं बीच में किसी जगह विलंब से रहित ऐसी, राजहंस सश गति के द्वारा जहां सिद्धार्थ क्षत्रिय की शय्या है,जहां सिद्धार्थ क्षत्रिय है वहां आती है। आकर के सिद्धार्थ क्षत्रिय को इस प्रकार के विशिष्ट गणोंवाली याने वचनों से जगाती है। वह वाणी OF-0050003010卐0 cation international For Pont Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OF0000000 कैसी है? इष्ट याने सिद्धार्थ क्षत्रिय को वल्लभ लगे ऐसी, जिसे सुनने की हृदय में इच्छा रहे ऐसी, और इसलिए प्रिययानी उस वाणी पर द्वेष न आवे ऐसी, मनको विनोद कराने वाली, अतिशय सुन्दर होने से मनमें बराबर बस जाए ऐसी अर्थात कभी नहीं भुली जाए ऐसी, सुन्दर ध्वनि, मनोहर वर्ण, और स्पष्ट उच्चारण वाली, समृद्धि को देनेवाली, उस प्रकार के वर्णो से युक्त होने से उपद्रवों को हरने वाली, धन को प्राप्त कराने वाली, अनर्थों के विनाशरूप जो मंगल को करने में प्रवीण, अलंकारादि से सुशोभित, जिसे सुनते ही तुरन्त ही हृदय में अर्थ आ जाय ऐसी, सुकोमल होने से हृदय को प्रिय लगे ऐसी, हृदय को अल्हादकारी यानी हृदय के शोकादि को दूर करने वाली, जिसमें वर्ण, पद तथा वाक्य अल्प और अर्थ अधिक निकले ऐसी, सुनते ही कर्ण को सुखकारी, मधुर एवं लालित्यवाले वर्णो से मनोहरइस प्रकारकी वाणी बोलती वह सिद्धार्थ क्षत्रिय को जगाती है। ५०) उसके बाद वह त्रिशला क्षत्रियाणी सिद्धार्थ क्षत्रिय की आज्ञा पाकर विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण व रत्नों की रचना से आश्चर्यकारी ऐसे सिंहासन पर बैठती है। बैठकर श्रम दूर करके, क्षोभ रहित होकर के, सुखसमाधिपूर्वक, उत्तम आसन वर बैठी हुई उस त्रिशला क्षत्रियाणी ने सिद्धार्थ क्षत्रिय को उस उस प्रकार की इष्ट यावत् (卐urter00 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40051 205 | मधुर भाषा से बांते करते इस प्रकार कहने लगी। ५१) वास्तव में ऐसा है कि हे स्वामी! मैं आज उस प्रकार की शय्या में सोयी और जागती हुई थी तब चौदह स्वप्न | देखकर जाग्रत हुई। वे चौदह स्वप्न ऐसे थे । 1: गज (हाथी), 2: वृषभ (बैल), 3: सिंह, 4: अभिषेक- लक्ष्मी देवी का | अभीषेक, 5: माला- पुष्पमाला युगल, 6: चन्द्र, 7: सूर्य, 8: ध्वज, 9: कुंभ, cc 10: पासरोवर, 11: क्षीरसमुद्, 12: देवविमान, 13: रत्नों का ढेर, 14: निर्धम अग्नि। हे स्वामी! उदार ऐसे उन चौदह महास्वप्नों का कल्याण रूप विशेष फल होगा ऐसा मैं मानती I ५२) उसके बाद, वह सिद्धार्थराजा त्रिशला क्षत्रियाणी से इस बात को सुनकर, समझकर हर्षित हो, संतुष्ट मन वाले बने। प्रमुदित हुये, उनके मनमें प्रीति उत्पन्न हुई, मन बहुत ही प्रसन्न हुआ, खुशी के कारण उसका हृदय स्पन्दन करने लगा तथा मेघ की धारा से सिंचित कदंब के सुगंधी पुष्पों की भांति विकसित बनी हुई रोमराजी वाला ऐसा अति प्रसन्न बना हुआ सिद्धार्थ उन स्वप्नों के विषय में सामुहिक साधारण विचार करता है, फिर स्वप्नों का अलग अलग विस्तार से विचार करता है, उसके बाद अपनी स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धि और विज्ञान के द्वारा उन स्वनों के अर्थ का निर्णय करता है फि cation International Ivate & Personal use 40501405004050140 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40501405 अलग - अलग विशेष फल का निश्चय करके उसने अपनी इष्ट यावत् मंगलरूप, प्रमाणोपेत, मधुर और शोभायमान भाषा से बात करते करते त्रिशला क्षत्रियाणी को इस प्रकार कहा। 53) "हे देवानुप्रिये! तुमने प्रशस्त स्वप्न देखे है। हे देवानुप्रिये! तुमने कल्याण रूप स्वप्न देखे हैं। इसी तरह उपद्रवों को हरने वाले, धन के हेतु रूप, मंगलरूप, सुशोभित, आरोग्य, संतोष, लम्बी आयु, कल्याण व वांछित फल के लाभ को करने वाले ऐसे तुमने स्वप्न देखे हैं'। अब उन स्वप्नों का फल बताते है- वह इस प्रकार है- "हे देवानुप्रिये! रत्न, सुवर्णादि अर्थ का लाभ होगा। हे देवानुप्रिये ! भोग का लाभ प्राप्त होगा। हे देवानुप्रिये ! पुत्र का लाभ होगा। हे देवानुप्रिये ! सुख का लाभ होगा। हे देवानुप्रिये! राज्य का लाभ होगा। वास्तव में ऐसा है कि हे देवानुप्रिये! तुम नौ महीने बराबर संपूर्ण होने के पश्चात उसके ऊपर साडे सात दिन बीत जाने पर हमारे कुल में ध्वज समान, दीपक समान, पर्वत जैसा अचल, मुकुट सद्दश, तिलक समान, कीर्ति को बढानेवाला, कुल का अच्छी तरह निर्वाह करने वाला, कुल में सूर्य सद्दश | तेजस्वी, कुल के सहारे स्वरूप, कुल की वृद्धि करने वाला, कुल के यश में अभिवृद्धि करने वाला, कुल को वृक्ष समान आश्रय देने वाला, कुल की इस प्रकार से विशेष वृद्धि को करने वाला, ऐसे पुत्र को जन्म दोगी। वह जन्मपाने वाला Private & 4045 140 1500 40 500 40 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 500 40 500 40 500 40 पुत्र हाथ पैर से कोमल, संपूर्ण अंगोपांगवाला, थोडी भी न्यूनता बिना का होगा। तथा यह पुत्र शरीर के सभी उत्तम लक्षणों से याने हाथ-पैर की रेखाओं विगेरे से और व्यन्जनों से याने तिल, मसे आदि से युक्त होगा। शरीर के मान- उन्मान, प्रमाण, वजन और ऊंचाई से संपूर्ण होगा। यह पुत्र सर्वांग सुन्दर, सुजात व चन्द्रमा के समान सौम्य कान्तिवाला, मनोहर, वल्लभ है दर्शन जिसका ऐसा होगा। हे देवानुप्रिये! ऊपर वर्णित ऐसे उत्तम गुणोवाले पुत्र को तुम जन्म दोगी। ५४) ‘“जब वह पुत्र बचपन छोडकर आठ वर्ष का होगा तब उसे संपूर्ण विज्ञान का परिणमन होगा, बाद में अनुक्रम से युवावस्था प्राप्त करेगा तब दान देने में तथा अंगीकृत कार्य का निर्वाह करने में समर्थ होगा, रणसंग्राम में बहादूर होगा, पर राज्यों पर आक्रमण करने में पराक्रम वाला होगा, उसके पास विशाल सेना और बहुत सारे वाहन वाला होगा, तथा राज्य का स्वामी ऐसा राजा होगा। अतः हे देवानुप्रिये! तुमने प्रशस्त स्वप्न देखे है यावत् मंगल व कल्याण करने वाले स्वप्न देखे है।" इस प्रकार सिद्धार्थ राजा, दो तीन बार इस प्रकार कहकर त्रिशला क्षत्रियाणी की बहुत प्रशंसा करने लगे। ation International 49 40 500 40 500 40 500 40 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५) उसके बाद उस त्रिशला क्षत्रियाणी सिद्धार्थ राजा से सुन, समझकर अत्यधिक खुश होती है, यावत् विकसित हृदयवाली होकर, दोनों हाथ जोडकर, दश नाखुन मिलाकर, मस्तक पर आवर्त कर, मस्तक पर अंजलि जोड़कर इस प्रकार बोली। ★ ५६) “ हे स्वामी! यह इसी प्रकार है। हे स्वामी! आपने जो स्वप्नों का फल कहा है वह उसी प्रकार सत्य है। हे र स्वामी! आपका कथन निः संदेह है। हे स्वामी! यह ईप्सित है याने फल प्राप्ति हेतु इच्छित है। हे स्वामी! यह प्रतीष्ट है याने आपके मुख से निकलते ही मैने ग्रहण किया है। हे स्वामी! यह ईप्सित और प्रतीष्ट है। जिस प्रकार का आप अर्थ बताते है वह अर्थ सत्य है । ऐसा कहकर स्वप्नों को अंगीकार करती है। अंगीकार करके अपने स्थान पर जाने हेतु वह सिद्धार्थ राजा की अनुमति पाकर, विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण व रत्नों की रचना के कारण आश्चर्यकारी ऐसे सिंहासन से उठती है। उठकर त्वरा (उतावल) रहित, शरीर की चपलता रहित, स्खलना रहित एवं बिचमें किसी * भी स्थान पर विलंब रहित ऐसी राजहंस सद्दश गति के द्वारा जहां अपनी शय्या हे, वहां आती है। आकर इस प्रकार बोली कि------- Forces Paaralan OF-00-0000 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000 ५७) “ स्वरूप से सुंदर, शुभ फल देनेवाले व मंगलकारी, ऐसे मेरे द्वारा देखे हुए; अन्य खराब स्वप्नों से निष्फल न बने अतः अब मुझे सोना उचित नहीं है। ऐसा सोचकर त्रिशला क्षत्रियाणी देव व गुरुजन सम्बन्धी प्रशस्त मंगलकारी और मनोहर ऐसी धार्मिक कथाओं द्वारा स्वप्नों के रक्षणार्थ जागरण करती हुई तथा निद्रा के निवारण द्वारा ऊन स्वप्नों का ही स्मरण करती हुई रहती है। ५८) अब सिद्धार्थ क्षत्रिय प्रभातकालीन समय में कौटुम्बिक पुरुषों को याने सेवकों को बुलाता है। उन कौटुंबिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा कि- “ हे देवानुप्रियो! आज उत्सव का दिन है, जिससे जल्दी बाहर के सभामण्डप को यानी कचहरी को विशेष प्रकार से झाड-फूंक कर धूलादि को दूर कर, सफाई कर सुगन्धित जल का छिंटकाव करके व गाय के गोबर से लिंपवा करके पवित्र करो। तथा उत्तमोत्तम सुगन्धित पंचवर्णी पुष्पों को उचित-उचित स्थानों ॐ पर सजाकर, संस्कार युक्त काला अगरु, उच्चकोर्टी का कंदरुप, सेलारस और जलता हुआ दशांगधूप से सभागृह को सुगन्ध युक्त करो। जहां तहां सुगन्धित उत्तम चूर्ण छंटवाकर तथा सुगन्धित गुटिकाएं रखवाकर मानों कि वह स्थान सुगन्ध का खजाना हो ऐसा जल्दी ही बनाकर और दूसरों से बनवाकर और दूसरो से बनवाकर एक बड़ा सिंहासन 512 卐00tore Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' वहां मध्यमें स्थापित करो। तुमने जो जो सभी तैयारीयाँ कर ली है ऐसी खबर मुझे शीघ्र दो । तत्पश्चात् उन कौटुंबिक पुरुषों को सिद्धार्थ राजा के द्वारा ऐसा कहे जाने पर कौम्बिक पुरुष हर्षित हुए, संतुष्ट हए यावत् प्रफुल्लित हृदय वाले होकर दो हाथ जोड़कर यावत् दश नाखूनों को मिलाकर, आवर्त रचकर मस्तक पर अंजलि, लगाकर "जैसी आप * स्वामी आज्ञा करते है, उसी मुताबिक करेंगे।" इस प्रकार सिद्धार्थ राजा की आज्ञा के वचनों को विनयपूर्वक स्वीकारते हैं। स्वीकार करके सिद्धार्थ राजा के वहां से निकलते हैं, निकलकर के जहां बाहर का सभागार हैं वहां आते हैं। आकर के बाहर के उस सभामण्डप को विशेष प्रकार से जल्दी सुगंधित पानी छांटकर पवित्र कर, यावत् बड़ा सिहांसन स्थापन करने तक का सारा कार्य समापन कर देते हैं। संपूर्ण सजावट करके कौटुम्बिक पुरुष जहां सिद्धार्थ क्षत्रिय - है वहां आते हैं। वहां आ करके दो हाथ जोड़ दश नाखून मिलाकर, मस्तक पर आवर्त कर मस्तक पर अंजलि रचकर सिद्धार्थ क्षत्रिय की पूर्वोक्त आज्ञा को वापस लौटाते है यानी “आपकी आज्ञानुसार हमने कार्य पूर्ण कर दिया हैं।" इस प्रकार निवेदन करते हैं। ६०) बादमें सिद्धार्थ क्षत्रिय कल यानी अगले दिन प्रकट प्रभात वाली रात्रि होने पर कोमल कुंपलें खिल उठी 慢慢等慢% 卐ou है '52 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 500 40 500 40 हिरण की चक्षु मृदुता के साथ धीरे-धीरे खुलने लगी हैं, ऐसा उज्जवल प्रभात होने लगा। फिर लाल अशोक की प्रभा के पूंज समान, केसुडा के पुष्प जैसा, तोते के मुख, चिरमी के आधे भाग की लालास एवं बड़े-बड़े सरोवरों में उत्पन्न कमलों को प्रस्फुटित करने वाला हजारों किरणों के तेज से देदिप्यमान दिनकर-सूर्य निकल गया है तब सिद्धार्थ क्षत्रिय शय्या से उठते है। ६१) सिद्धार्थ राजा शय्यामें से उठकर और बाद में उस शय्या से उतरने हेतु रक्खे हुए पादपीठ पर पैर रखकर, उस | पादपीठ से नीचे उतरते है। नीचे उतरकर जहां कसरतशाला है वहाँ आते है। आकर कसरतशाला में प्रवेश करते है। प्रवेश करके अनेक प्रकार के व्यायामों को करने के लिए श्रम करते है, शरीर की मालीश करते है, परस्पर भुजादि अंगो को मोडते है, मल्लयुद्ध करते है, विभिन्न प्रकार के आसनादि करते है। इस प्रकार परिश्रम करके संपूर्ण शरीर में और अंग प्रत्यंग में प्रीति उत्पन्न करनेवाला, सूंघने योग्य महक से परिपूर्ण, जठराग्नि को उद्दीप्त करनेवाला, ताकत बढ़ानेवाला, सभी इन्द्रियों और अंग प्रत्यंग को सुख से परिपूर्ण करने वाला, कामोत्तेजक जो भिन्न-भिन्न औषधियों के रस से सौ बार पकाया हुआ शतपाक तेल, विभिन्न औषधियों के रस से हजार बार पकाये हुए सहस्त्रपाक तेल विगेरे Private & Personal Use On cation Internationa 53 40501405014050140 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA म अनेक जाति के उत्तम सुगन्धिवाले तेलों से मालीस करवाकर चुपड़वाकर, उन तैल आदि से पुरुषों के द्वारा मर्दन किये गये सिद्धार्थ राजाने तेलचर्म शय्या पर स्थापन होकर, पुरुषों से चपी करवायी, जिससे उन्हें कसरत करते हुए लगी थकान उतर गयी। तेल से मर्दन करने वाले व चंपी करने वाले पुरुष कैसे थे? यह बताते है- मर्दनादि करने के सर्व उपायों में विचक्षण, जिनके परिपूर्ण यानी खोड़-खांपण से रहित जो हाथ और पांव के तलवे सुकोमल है, ऐसे, तेलादि का मर्दन करके शरीर में प्रवेश कराये गये ऐसे तेल विगेरे को पुनः शरीर में से बाहर निकालने के गुणों में अतिशय विशेषज्ञ, अवसर के ज्ञाता, कार्य में थोड भी देर नहीं करने वाले, बोलने में चतुर अथवा मर्दन करने वाले मनुष्यों में प्रथम पंक्ति के अग्रेसर, विनयवान, नयी नयी कलाओं को ग्रहण करने की अपूर्व शक्तिवाले एवं परिश्रम को जितने वाले याने मर्दनादि करते हुए थक नहीं जाय ऐसे मजबूत बांधा के पुरुषों के द्वारा तेलादि मर्दन करवाया तथा चंपी करवाई, जिससे सिद्धार्थ राजा की थकान उतर गयीं। इसके बाद सिद्धार्थ क्षत्रिय व्यायाम शाला से बाहर निकलते 雙雙一雙雙 है। ६२) कसरत शाला से बाहर निकलकर वे जहां स्नानगृह है वहां आते हैं। वहां आकर स्नान घर में प्रवेश करते Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। प्रवेश करने के बाद गूंथे हुए मोतियों से युक्त जो जालियां, उनसे व्याप्त व मनोहर है तथा उसका भूमितल याने फर्श पर तरह-तरह के मोती और रत्न जड़े हुए है, ऐसे रमणीय मण्डप जो विविध जाती के मणि और रत्नों से अद्भूत स्नानपीठ पर सुख पूर्वक बैठे हुए सिद्धार्थ क्षत्रिय को फुलों के रस से भरे हुए यानी अत्तर डाले हुए पानी से, चंदनादि *डालकर सुगन्धित किये हए पानी से, गर्मपानी से, पवित्र तीथीं से लाये हुए पानी से तथा स्वच्छ पानी से कल्याणकारी, उत्तम तरीके की स्नान विधि अनुसार स्नान कराने में कुशल पुरुषों ने नहलाये। न्हाते समय कई प्रकार के रक्षादिके उनके शरीर पर करने में आये। इस प्रकार से कल्याणकारी उत्तम प्रकार की स्नानविधि पूरी होने पर, रुंवार्टीवाले अतिकोमल स्पर्श वाले और सुगन्धित लाल रंग टोवेल शरीर को वस्त्र से शरीर को पोंछड़ाला। यानी जलरहित किया। उसके बाद उन्होंने अखण्ड-फटे टूटे बिना का अति महामूल्यवान वस्त्र पहने। फिर शरीर पर सुगन्धित गोशीर्ष चंदन का विलेपन किया, पवित्र सुगन्धित मालाएं धारण की, तथा केशर मिश्रित सुगन्धी चुर्ण शरीर पर छिंटकाया, मणिमय व सुवर्णमय आभूषण से शरीर अलंकृत किया, याने अठारहसरा हार, नवसरा अर्धहार, त्रिसरा हार, लंबायमान मोती *का झंबनक व कमर में कंदोरादि पहन कर सुशोभित बने। गले की शोभा बढाने वाले सभी प्रकार के, आभूषण धारण 55 100-10000001930 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000 किये, अंगुलियों में सुन्दर विभिन्न प्रकार की अंगूठियां पहनी, केशों को विभन्न फूलों से सजाये। उत्तम प्रकार के कड़े तथा बाजूबंद, बहेरखे से, स्तंभित हो गई है भुजाएं जिसकी ऐसे, इस प्रकार अधिकरुप के कारण शोभावाला बना, कान के कुंडल पहिनने से मुंह चमकने लगा, मस्तक पर मुकुट धारण करने से शिर शोभा देने लगा। हृदय हारों से ढकने के कारण सविशेष दिखाई देने लगा, अंगुठियों से पीली लगने वाली अंगुलियां देदिप्यमान लगने लगी। यह सब पहनने के पश्चात् उसने लंबे व लटकते दुपट्टा याने खेस अपने अंग पर अच्छी तरह से डाला और अन्त में वह सिद्धार्थ क्षत्रिय चतुर कारीगरों की उत्तम कारीगरी से बनाये हुए विविध मणि, सुवर्ण और रत्नजड़ित रमणीय, अत्यन्त कीमती, चमकते बनाये हुए, कोई न जान सके व खुल न जाय वैसे उत्तम प्रकार के सुन्दर वीरवलय धारण किये। अधिक क्या वर्णन करे? मानो कि वह सिद्धार्थ राजा प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष ही हो ऐसे अलंकृत और विभूषित हुए। ऐसे सिद्धार्थ राजा के शिर पर छत्र धारण करने वालों ने कोरंट वृक्ष के पुष्पों की मालाओं से अलंकृत किया है ऐसा छत्र धारण किया तथा साथ ही श्वेत चामर दोनों तरफ बीजे जाने लगे। इस प्रकार से तैयार बना हुआ, अनेक गणनायक याने अपने समुह में उत्तम माने जाने वाले पुरुष, दण्डनायक याने अपने ही देश की चिंता करने वाले, माण्डलीक राजाओं, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 1500 14015 युवराजों, संतुष्ट बने हुए राजा द्वारा दिये गये पट्टबंध से विभूषित किये राजदरबारियों से, कोतवाल, मण्डप के स्वामी, कितने ही कुटुम्ब के स्वामी, राज्य सम्बन्धी काम-काज मंत्री एवं मंत्रियों से विशेष सत्ता धारण करने वाले महामंत्री, खजाने याने तिजोरी के अधिकारी, द्वारपाल याने चोकीदार, अमात्य याने राजा के सम समय में जन्में हुए राज्य • के मुख्य सत्ताधारी वजीर, दास-चाकर, राजा के आसन को ठीक कर समीप बैठने वाले, हमेशा नजदीक रहकर सेवक तुल्य मित्रगण, टेक्स याने कर देने वाले लोग, नगर में निवास करने वाले नागरिक, वणिक-व्यापारी, नगरसेठ, लक्ष्मीदेवी के चिन्हांकित सोने का शिर पर पट्टा बांधने वाले, चतुरंगी सेना के स्वामी, सार्थवाह, राजदूत तथा अन्य राजाओं से अपने राजा की संधी कराने वाले संधिपालक याने एलची, ऊपर दर्शित सर्व पुरुषों के साथ परिवरित ऐसा सिद्धार्थराजा जिस प्रकार श्वेत महामेघ से चन्द्रमा निकलता है जैसा या ग्रहों, चमकते नक्षत्र और ताराओं के बिचमें चन्द्रमा शोभता है उसी भांति सब लोगों के मध्य दर्शनीय चन्द्रमा की भांति वह नरपति स्नान गृह से बाहर आये। वे जहां बाह्य सभा का स्थान है वहां आते है। वहां आकर सिहांसन पर • पूर्वदिशा सन्मुख मुंह करके बैठते है। बैठकर अपने से उत्तर-पूर्व दिशाभाग में याने ईशान कोने में जिन पर श्वेत वस्त्र 57 ६३) स्नान गृह में से बाहर आकर के 405014050040500 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000 बिछाये गये है ऐसे व मंगल निमित्त श्वेत सरसों के द्वारा की गई है पूजा जिनकी ऐसे आठ सिंहासन रखवाता है। आठ सिंहासन रखवाकर अपने से बहुत दूर नहीं व नजदीक भी नहीं इस प्रकार सभा के भीतरी भाग में एक पर्दा बंधवाता है। वह पर्दा कैसा है? विविध प्रकार के मणि और रत्नों से जड़ित होने से सुशोभित है और इसी कारण अत्यधि कि दर्शनीय है, अति मूल्यवान है, जहां उच्चकोटी के वस्त्र बुने जाते है ऐसे उत्तम शहर में बुने हुआ है, और बारीक रेशम का बनाया हुआ है व सैकडों गुंथनियों के द्वारा मन को आश्चर्य में डालने वाला ताणा है जिसमें ऐसा और वृक याने भेड़िया, वृषभ, घोडे, मनुष्य, मगरमच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नरजाति के देव, रुरु जाती के मृग याने हिरण, अष्टापद नामक जंगली पशु, चमरी गाय (नीलगाय), हाथी, अशोकलता, आदि वन मालाएं व पद्मलताएं यानी कमलिनी इन सबके जो मनोहर-चित्ताकर्षक चित्र, उनके द्वारा मन को आश्चर्य करानेवाला, इस प्रकार की अभ्यन्तर यवनिका अर्थात् सभा के भीतरी भाग में अन्तःपुर-रानीवास को बैठने हेतु पर्दा बंधवाता है। पर्दा बंधवाकर उसमें विविध मणि-रत्न जड़ित आश्चर्यकारी, अतिकोमल ओसिका व गद्दीवाला, श्वेत कपडे से ढंका हुआ, अति मुलायम, शरीर को सुखकारी स्पर्शवाला उत्तम प्रकार का एक सिंहासन त्रिशला क्षत्रियाणी को बैठने के लिए रखवाया। -000-00 OF 58 பொன Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४) ऐसा सिहांसन रखवाकर सिद्धार्थ क्षत्रिय कौटुंबिक पुरुषों को बुलाता है। कौटुम्बिक पुरुषों को इस प्रकार से कहा- हे देवानुप्रियो! तुम शीघ्र जाओ और जो आठ है अंग जिसमें ऐसा जो महान् निमित्तशास्त्र याने परोक्ष पदार्थों 2 को बताने वाला शास्त्र उस निमित्त शास्त्रों के सूत्र व अर्थ में पारंगत बने हुए एवं विविध जाति के शास्त्रों में कुशल ऐसे स्वप्न लक्षण पाठकों को याने स्वपनों के फल को अच्छी तरह से कह सके ऐसे विद्वानों को बुलाओ । कौटुम्बिक पुरुषों को इस प्रकार से कहा- हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र जाओ और जो आठ है अंग जिसमें ऐसा जो महान् निमित्तशास्त्र याने परोक्ष पदार्थों को बताने वाला शास्त्र उस निमित्त शास्त्रों के सूत्र व अर्थ में पारंगत बने हुए एवं विविध जाति के शास्त्रों में कुशल ऐसे स्वप्न लक्षण पाठकों को याने स्वपनों के फल को अच्छी तरह से कह सके ऐसे विद्वानों को नों के कल बुलाओ। ६५) उसके बाद वे कौटुंबिक पुरुष सिद्धार्थ राजा के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित हुए, संतुष्ट हुए, यावत् प्रफुल्लित हृदयवाले होकर, दो हाथ जोड़कर, यावत् दश नाखून मिलाकर आवर्त करके, मस्तक पर अंजलि रचकर जो आप स्वामी आज्ञा करते है, उसके उनुसार करेंगे ।" इस प्रकार सिद्धार्थ राजा की आज्ञा के वचनों का विनय tion Interna C 59 40 1500 40 500 40 500 140 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वक स्वीकार करते हैं। स्वीकार करके सिद्धार्थ क्षत्रिय के पास से निकलते हैं। निकल करके क्षत्रियकुण्ड ग्राम नगर के बीच में से होकर जहां स्वप्न लक्षण पाठकों के घर है वहां आते हैं। आकर के स्वप्न लक्षण पाठकों को बुलाते हैं। ६६) उसके बाद वे स्वप्न लक्षण पाठक सिद्धार्थ क्षत्रिय के कौटुंबिक पुरुषों के द्वारा बुलावाया जाने पर हर्षित हुए, संतुष्ट हुए, यावत् मेघ धारा से सिंचित कदंब के पुष्पों की तरह प्रफुल्लित ह्यदयवाले हुए। तत्पश्चात् उन्होंने स्नान किया, बलिकर्म याने इष्ट देव की पुजा की, दुष्ट स्वप्नादि के विनाश हेतु तिलक, कौतुक दही, धौ अक्षतादि से मंगल किया।इसके पश्चात् राजसभा के योग्य और उत्सवादि मंगल को सूचित करने वाले ऐसे उत्तम वस्त्र पहने है जिन्होंने ऐसे, एवं अल्पसंख्या वाले और अधिक मूल्यवाले आभूषणों के द्वारा सुशोभित किया है शरीर जिन्होंने ऐसे मंगल के निमित्त मस्तक में धारण किये है सफेद सरसव और घ्रो जिन्होंने ऐसे सज्जहोकर वे स्वप्न लक्षण पाठक अपने अपने घर से प्रस्थान करते हैं। ६७) घर से प्रस्थान कर क्षत्रियकुंड ग्रामनगर के बीचमें होकर जहां सिद्धार्थ राजा के महलों में मुकुट तुल्य अर्थात् उत्तमोत्तम ऐसे महल का मुख्य द्वार के पास आते है। वहां आकर वे परस्पर इकट्ठे होते हैं और आपस में विचार विमर्ष, 0500050000 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं। तत्पश्चात् सर्व सम्मत एक जन को अग्रसर करके, अगुआ जो कहे उस अनुसार बोलने हेतु निर्णय लेते हैं। जहां बाह्य सभागार में सिद्धार्थ क्षत्रिय है, वहां आते है। आकर अपने दानों हाथ जोड, अंजलि कर सिद्धार्थ क्षत्रिय का "जय हो, विजय हो' ऐसा बोलकर बधाते है। ★ ६८) उसके बाद सिद्धार्थ राजाने उन स्वप्न पाठकों को नमन किया, आदर सत्कार-सम्मान किया। उसके बाद उनके लिए रक्खे हुए सिंहासन पर बैठ जाते है। ६९) तत्पश्चात् सिद्धार्थ क्षत्रिय त्रिशला क्षत्रियाणी को पर्दे में उचित स्थान में बिठाते है। बिठाकर हाथ में फूल-फलादि लेकर विशेष प्रकार के विनय से स्वप्न पाठकों को सिद्धार्थ क्षत्रिय इस प्रकार से कहने लगे- 'हे देवानुप्रयो! वास्तव 5 में ऐसा है कि आज त्रिशला क्षत्रियाणी उस प्रकार की उत्तम शय्या में अर्धजाग्रत अवस्था में थी उस समय इस प्रकार ॐके उदार और महान चौदह स्वप्नों को देखकर जग गई। वे स्वप्न इस प्रकार से थे। उन चौदह स्वप्नों के नाम इस प्रकार से है:- 1: गज(हाथी), 2: वृषभ(बैल), 3: सिंह, 4: अभिषेक- लक्ष्मी देवी का अभीषेक, 5: माला- पुष्पमाला युगल, 6: चन्द्र, 7: सूर्य, 8: ध्वज, 9: कुंभ, 10: पह्मसरोवर 麼修營% 雙雙 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000 - 11: क्षीरसमुद्र, 12: देवविमान, 13: रत्नो का ढेर, 14: निधूम अग्नि। अब हे देवानुप्रियो! इन उदार चौदह महास्वप्नों का फल मै जहां तक सोचता हुं बहुत ही अच्छा होगा। ७०) तत्पश्चात् स्वप्न लक्षण पाठकों ने सिद्धार्थ क्षत्रिय से इस प्रकार की बात सुनकर, समझकर प्रसन्न हुए, उनका हृदय प्रफुल्लित बना। उन्होंने इन स्वप्नों को साधारण तया समझा, फिर उनके विषय में उन्होंने विशेष मनन किया। फिर परस्पर विचारणा की, एक दूसरे ने शंकाओं का निवारण किया, तत्पश्चात् अर्थ निश्चित किया और सर्वानुमत से एक होकर पूर्ण निश्चित बने। फिर वे सिद्धार्थ राजा को शास्त्र प्रमाण वचनों से इस प्रकार कहने लगे: ७१) "हे देवानुप्रिय! वास्तव में ऐसा है कि हमारे स्वप्न शास्त्र में बीयालीस प्रकार के स्वप्न कहे गये है, बडे स्वप्न बताये गये है। इस प्रकार कुल मिलाकर बहत्तर स्वप्न होते है। उसमें हे देवानुप्रिय! अरिहंत की माताएं और चकवती की माताएं अरिहंत और चकवर्ति गर्भ में आने पर तीस बड़े स्वपन में से ये चौदह स्वपन देखकर जगती है। प्रथम हार्थी वृषभादि। ७२) “वासुदेव गर्भ में आने पर वसुदेव की माताएं इन चौदह महास्वप्नों में से कोई सात महास्वप्न देखकर जगती है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३) “फिर, बलदेव की माताएं बलदेव के गर्भ में अने पर इन चौदह महास्वप्नों में से कोई भी चार बड़े स्वप्न में देखकर जाग्रत होती है। ७४) “मांडलिक राजा की माताएं जब मांडलिक राजा गर्भ में आता है तब इन चौदह महास्वप्नों में से कोई भी एक महास्वप्न देखकर जगती है। ॐ ७५) “हे देवनुप्रिय! त्रिशला क्षत्रियाणीने यह चौदह महास्वप्न देखे है वे उदार और मंगलकारी महास्वप्न देखे 3 है। इसके कारण हे देवानुप्रिय! आपको रत्न सुवर्णादि व अर्थ का लाभ होगा। हे देवानुप्रिय। भोग का, पुत्र का, सुख का, व राज्य का लाभ होगा। अन्ततः त्रिशला क्षत्रियाणी नौ महिने परिपूर्ण होकर उपरांत साड़े सात दिन बीत जाने पर आपके कुल में ध्वज समान, अति अद्भूत, कुल में दीपक समान प्रकाश करने वाला, मंगल करने वाला, कुल में पर्वत के समान स्थिर, तथा जिसका कोई भी दुश्मन पराभव न कर सके ऐसा, कुल में उत्तम होन से मुकुट समान, कुल को भूषित करने वाला होने से कुल में तिलक समान, कुल की कीर्ति करने वाला, कुल का निर्वाह 050 OF For Private Pesanal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ करने वाला, कुल में अतिशय उद्योत करने वाला होने से सूर्य समान, पृथ्वी की तरह कुल का आधार, कुल की ॐ वृद्धि करने वाला, सर्व दिशाओं में कुल की प्रख्याति करने वाला, कुल में आश्रय रुप होने से तथा अपनी छत्र छाया 3 में प्रत्येक लोगों का रक्षण करने वाला होने से वृक्ष समान, कुल के तंतु समान यानी कुल के आधार रुप जो पुत्र-पौत्र-प्रपौत्रादि संतति, उस संतति की विविध प्रकार से वृद्धि करने वाला होगा। सुकोमल हाथ पांव वाला, के पांचो इनद्रियों से परिपूर्ण, किसी भी प्रकार की न्यूनता बिना का, लक्षण-व्यन्जन और गुणो से युक्त, मान, वजन Q और ऊंचाई से परिपूर्ण, सर्वांक्ड़, सुन्दर, चन्द्रमा के समान सौम्य आकृतिवाला, मनोहर और वल्लभ सुन्दर रुपवाले पुत्र को जन्म देगी। 5७६) बाल्यावस्था बीतने के बाद वह पुत्र जब पढ़ लिखकर परिपक्व ज्ञानवान बनेगा और युवावस्था को पाकर वह शूर-वीर और बड़ा पराकमी बनेगा, उसके पास में विशाल विस्तार वाली सेना और वाहन होंगे। तीन समुद्र व चौथा - हिमवंत-इन-चारों पृथ्वी के अन्त को साधने वाला ऐसे राज्य का स्वामी-चकवर्ती राजा होगा। अथवा तीन लोक का ॐनायक धर्मवर चातरंग चक्रवर्ती ऐसा जिन बनेगा।अतः हे देवानप्रिय। त्रिशला क्षत्रियाणी ने उदार स्वप्न देखे है यावत् : 卐000000 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405014050 40 500 40 हे देवानुप्रिय ! ये स्वप्न आरोग्यदायक, तुष्टी करने वाले, दीर्घ आयुष्य का सूचक, कल्याण और मंगल कर्ता ऐसे स्वप्न त्रिशला क्षत्रियाणी ने देखे है। this ७७) उसके बाद वह सिद्धार्थ राजा स्वप्न लक्षण पाठकों से स्वप्न सम्बन्धी विवरण सुन-समझकर खुश-खुश हो गया, खूब संतुष्ट हुआ और हर्ष के कारण उसका हृदय स्पन्दन करने लगा। उसने अपने दोनों हाथ जोडकर स्वज पाठकों को इस प्रकार से कहा: ७८) " हे देवानुप्रियो ! यह ऐसा ही है। हे देवानुप्रियों! आपने स्वप्नों का जो फल बताया है वह ऐसा ही है। हे देवानुप्रियो ! यह यथास्थित है। हे देवानुप्रियों! यह इष्ट है यानी मेरे द्वारा इच्छित है, आपके द्वारा कथित मैने स्वीकार किया । हमने इसको अच्छी तरह से मान्य किया है। हे देवानुप्रियो ! तुम्हारे द्वारा कही हुई बात सत्य ही है। इस प्रकार से कहकर विनय पूर्वक उन के विवरण को अच्छी तरह से स्वीकार करते है। ऐसा कर उन स्वप्न पाठकों का उसने बहुत आदर सत्कार किया याने जीवन पर्यंत निर्वाह चल सके ऐसा बहुत प्रीतिदान दिया। उसके पश्चात् स्वप्न पाठकों को विनय पूर्वक लौटाते है याने विदाय करते है। 65 40501405004050040 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150140 ७९) उसके बाद सिद्धार्थ क्षत्रिय अपने सिंहासन से उठता है। उठकर जहां त्रिशला क्षत्रियाणी पर्दे में बैठी हुई है वहां आता है, वहां आकर त्रिशला क्षत्रियाणी को इस प्रकार कहता है: ८०) “हे देवानुप्रिये! स्वप्न शास्त्र में बीयालीस प्रकार के स्वप्न कहे गये है, वहां से लगाकर मांडलिक राजा; गर्भ में आता है तब उनकी माता; तीस महास्वप्नों में से लेकर कोई एक महास्वन देखकर जगती है, वहां तक की संपूर्ण जानकारी जो स्वप्न पाठकों ने कहीं हुई थी वह सब त्रिशला क्षत्रियाणी को कह सुनाते है। ८१) “हे देवानुप्रिये! तुमने तो ये चौदह महास्वप्न देखे हैं, अतः ये सब अति महान् है, इस कारण तुम तीन लोक के नायक, धर्मचक को प्रवर्ताने वाले तथा 'जिन' बनने वाले पुत्र को जन्म देने बाली हो'। वहां तक की संपूर्ण जानकारी त्रिशला क्षत्रियाणी को कह देते है। र बनने वाले पुत्र को जन्म है ८२) उसके बाद वह त्रिशला क्षत्रियाणी सिद्धार्थ राजा से यह सारी बात सुन-समझकर अति प्रसन्न हुई, संतुष्ट हुई और अत्यन्त खुशी के कारण उसका मन-मयूर नाचने लगा तथा स्पन्दित होने लगा। तत्पश्चात् अपने दोनों हाथ जोडकर यावत् स्वप्नार्थ को अच्छी तरह से स्वीकृत करती है। 40 500 40 500 405 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नों की रचना से आश्चर्यकारी ऐसे सिंहासन से उठकर मन की त्वरारहित, शरीर की चपलता रहित, स्खलना रहित, और बिचमें किसी प्रकार के विलंब रहित, ऐसी राजहंस सद्दश गति से जहां अपना भुवन है वहां आती है, वहां आकर अपने कमरे में प्रवेश करती है। ८४) जब से लगाकर श्रमण भगवान् महावीर उस राजकुल में हरिणैगमेषी देव द्वारा संहरित हुए तब से लगाकर कुबेर की आज्ञा को धारण करने वाले ऐसे बहुत से तिर्यगजुंभक देव यानी तिर्छालोक में निवास करने वाले जूभक जाति के देव, शक्रेन्द्र की आज्ञा से यानी की शक्रेन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी और कुबेर ने तिर्यगजुंभक देवों को आज्ञा दी। इस प्रकार कुबेर द्वारा शक्रेन्द्र की आज्ञा से तिर्यग् जुंभकदेव, जो अब से पूर्व में गाढ़े हुए पुरातन काल के महानिधान थे। उन महानिधानों को लाकर सिद्धार्थ राजा के भवन में रखते है। किस तरह से महानिधानो को लाकर तिर्यगजुंभक देव सिद्धार्थ राजा के भवन में रखते है? वे बताते हैं जिनके मालिक सब प्रकार से नष्ट हो गये हैं, जिन भण्डारो की वृद्धि करने वाला भी कोई अवशेष नहीं है, जिन पुरुषों ने निधान जमीन में दबाये हैं उनके गोत्रीय पुरुष तथा धर भी विरान हो गये है, जिनके स्वामी सर्वथा विनाश को प्राप्त हुए हैं- संतान रहित मृत्यु को प्राप्त हुए हैं ऐसे 67 * 卐ORuleso Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निधान, कई गायों में, खानों में, कई शहरों में मिट्टी के विलीन हुए गढ़वाले ग्रामों में, कई शहर की तुलना में शोभा ॐ न पा सके ऐसे गांवों में, कई जिनकी आस-पास चारों तरफ दो-दो कोस में ही गांव हो ऐसे गांवो से, कई जहां जलमार्ग है और स्थलमार्ग भी है वहां से, गांव और नगर की नालियों से, दुकानों में, यक्ष विगेरे देवों के मंदिरों में, मनुष्यों को बैठने के स्थान में अथवा जहां मुसाफिर आकर रसोई पकाता है उन स्थानो में, पानी की प्याऊ में, आश्रमों में याने तीर्थ स्थान या तापस मठो में, कई त्रिकोणात्मक या चतुष्कोणात्मक मार्ग में, बड़े बड़े आम मार्ग में, बाग-बगीचा की भूमि में, श्मशानो में, निर्जन मकानो में, पर्वत की गुफाओं में, शान्ति कर्म न कर सके ऐसे स्थानों में, सभागृहों में शैल गृहो में- इस प्रकार विभिन्न स्थानो में जहां कृपण मनुष्यों द्वारा पहले जो निधान गाढ़े हुए है, उन महानिधानो को लेकर शक्रेन्द्र की आज्ञा से तिर्यग्नुंभक देव सिद्धार्थ राजा के महल में लाकर रखते है। ८५) जिस रात्रि में भगवान महावीर को ज्ञात कुल में संहरण किया, उस रात्रि से लगाकर संपूर्ण ज्ञात कुल चांदी से बिना घड़े हुए सुवर्ण से बढने लगा, धन धान्य से, राज्यश्री से, राष्ट्र से, सेना से, वाहन से, भण्डारो से, कोठारों से, नगरों से अन्तः पुरों से, देशवासी लोगों से, यशःकीर्ति से वृद्धिपाने लगा। इतना ही नहीं किन्तु विस्तीर्ण धन यानी [ 麼一步一步使 5500 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गायादि पशुओं से, सोना, चांदी, रत्न, मणि, मोती, दक्षिणार्वत शंखो से, राज्यपट्ट याने राजाओं की ओर से मिलते खिताबों-पदविओं से, परवाल, लालरत्न, माणिक ऐसे अनेक प्रकार के धन से यह ज्ञात कुल बढने लगा, यावत् परस्पर स्नेह-प्रेम, आदर-सत्कार में भी दिन प्रतिदिन अन्य देशों से आगे बढ़ने लगा। ८६) इसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के माता-पिता को इस प्रकार का आत्मविषयक, चिंतित, प्रार्थित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि “जब से लगाकर अपना यह बालक कुक्षी में गर्भ के रुप में उत्पन्न हुआ है, तब से लगाकर हम हिरण्य, सुवर्ण, धन और धान्य से वृद्धि पाए हुए है, तथा राज्यश्री से, राष्ट्र से, सेना से, वाहनों से, धनभण्डारों से, कोठार से, पुर से, अन्तःपुर से, जनपद से, तथा यशः कीर्ति से बढे है इसके सिवाय धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलालेखों से, माणिकादि सच्चे धन से - हमारे यहां वृद्धि हुई है तथा संपूर्ण ज्ञात कुल में आपस में प्रेम, स्नेह खूब-खूब वृद्धि पाया है तथा एक दूसरे की ओर आदर सत्कार भी खूब बढने लगा है इसलीए जब हमारा यह पुत्र जन्म लेगा तब हम इस पुत्र का नाम सभी वृद्धि के अनुरुप, गुणनिष्पन्न “ वर्धमान " (वृद्धिवान, बढता हुआ) ऐसा रक्खेंगे। 後雙雙 69 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 d 0 500 40 ८७) उसके बाद श्रमण भगवान महावीर प्रभुने गर्भ में यह विचार किया कि “मेरे हलन चलन से माता को | कष्ट न होना चहिए" इस प्रकार माता की अनुकंपा हेतु याने माता की भक्ति हेतु तथा औरो को भी माता की भक्ति करनी चाहिए ऐसा दिखाने हेतु स्वयं गर्भ में निश्चल बने रहे। बिल्कुल चलायमान नहीं होने से निष्पन्द हुए, और अकंप बन गये। इन्होंने अपने अंक्कों पाक्को को संकुचित कर माता की कुक्षि में अत्यन्त गुप्त होकर रहने लगे। ८८) उसके बाद उस त्रिशला क्षत्रियाणी को इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ कि "क्या मेरे गर्भ को किसी दुष्ट देवादिने अपहरण कर लिया है? अथवा क्या मेरा गर्भ मृत्यु को प्राप्त हो गया है? अथवा मेरा गर्भ च्यवित हो गया है, यानी जीव- पुद्गल के पींड स्वरुप पर्याय से नष्ट हो गया है? अथवा क्या मेरा यह गर्भ गल गया है, यानी दव रुप होकर निकल गया है? क्योंकि यह मेरा गर्भ पहले कंपायमान होता था, किन्तु अब तो बिल्कुल कंपता नहीं है। " ऐसे विचारों से कलुषित हुए मन के संकल्प वाली चिन्ता और शोक समुद्र में डूब गई। दोनो हाथों से मुंह ढंक कर आर्तध्यान को प्राप्त वह नीचे द्दष्टि डालते हुए चिन्ता करने लगी। ऐसे अवसर पर सिद्धार्थ राजा का संपूर्ण भवन शोकाकुल हो गया है। जहां पहले मृदंग, वीणादि अनेक वाजत्र बजते थे, लोग दांडिया लेते थें, लोग नृत्य करते थे, 70 405001405014050140 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 050005 of00000500 - नाटककार नाटक करते थे, चारों ओर वाह! वाह! हो रही थी, वहां अब सूनसान हो गया है, और पूरा घर उदास का मग्न हो रहा है। ८९) इसके बाद श्रमण भगवान महावीर माता के मन में उत्पन्न इस प्रकार के विचार-चिंतवन-अभिलाषा रुप मनोगत संकल्प जानकर स्वयं अपने शरीर का एकभाग कम्पित करते है। ९०) तत्पश्चात् वह त्रिशला क्षत्रियाणी प्रसन्न-प्रसन्न हो गई, संतुष्ट हई और प्रसन्नता के कारण उसका मन मयूर नृत्य करने लगा तथा खुश होकर इस प्रकार कहने लगी कि “वास्तव में मेरा गर्भ किसी भी दुष्ट देवादिक से अपहरण नहीं किया गया, द्रवीभुत होकर गिर भी नहीं गया, मेरा गर्भ पहले हिलता-डुलता नहीं था परन्तु अब हलन-चलन करने लगा है। ऐसा कहकर वह त्रिशला क्षत्रियाणी हर्षित बनी हुई संतुष्ट बनी हुई यावत आनन्दातिरेक से प्रफुल्लित हृदयवाली बनती है। ९१) इसके बाद श्रमण भगवान महावीर गर्भ में रहे हुए ही इस प्रकार का अभिग्रह याने नियम स्वीकार करते है कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक मैं गहवास छोडकर दिक्षा ग्रहण नहीं करूंगा। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100030003 ९२) उसके बाद उस त्रिशला क्षत्रियाणी ने स्नान किया, बलिकर्म याने ईष्ट देव का पूजन किया, सकल विघ्नों के विनाश हेतु तिलकादि कौतुक और दही, धौ, अक्षतादि मंगलरुप प्रायश्चित किया तथा सर्व अलंकारो से अलंकृत & होकर, उस गर्भ का नीचे बताये हए आहारादि से पोषण करती है। अति ठंडे नहीं, अतिगर्म भी नहीं, अति चटपटे नहीं, अति कट नहीं, अति कषायले नही, अति खट्टे भी नहीं, अति मीठे नहीं, अति स्निग्ध नहीं, अति रुक्ष भी नहीं, अति हरा नहीं, अति शुष्क नहीं इस प्रकार के आहारादि द्वारा तथा उचित वस्त्र धारण करती है। गंध और मालाओं Q का त्याग किया। ऋतु के ऋतु अनुकुल सुखकारी भोजन करने लगी। वह रोग, शोक, मोह, भय, संताप को छोडकर रहने लगी। उस गर्भ के लिए जो हितकारी हो उसका भी परिमितता से पथ्यपूर्वक गर्भ को पोषण हो इस प्रकार से प्रयोग करने लगी। उचित स्थान पर बैठकर और उचित समय जानकर गर्भ को पोषण मिले ऐसा आहार लेती तथा वह दोष रहित कोमल शय्या व आसनों से एकान्त में सखपूर्वक तथा मन को अनकल आवे ऐसी विहा भूमि में रहने लगी। इसे प्रशस्त दोहद उत्पन्न हुए उन्हें उचित रीति से पूरे करने में आये। इन दोहदों का पूरा ध्यान 100-100030030 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R सिद्धार्थराजा को प्रियंवदादासी द्वारा जन्म बधाई 56 दिक्कुरिकाओ से जन्म महोत्सव i n interna Fore. Ponly Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ con Interndaya शक्रेन्द्र द्वारा पांच रूप बनाकर मेरूपर्वत पर गमन 64 इन्द्रो से जन्माभिषेक 74 www carg Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खा गया। इन दोहदों में थोडी भी कमी नहीं आने दी। इस प्रकार से उसकी मनोकामना पूरी होने से दोहद शांत हुए। इसके बाद अब दोहद रूक गये है ऐसी वह सहारा लेकर सुख पूर्वक बैठती है, सोती है, खडी होती है, आसन पर बैठती है, शय्या में आलोटती है, इस प्रकार गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है। 3 ९३) उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर ग्रीष्मऋतु का पहला महीना, दुसरा पक्ष अर्थात चैत्र मास ॐ का शुक्लपक्ष चल रहा था, उस चैत्र मास के शुक्ल पक्ष का तेरहवा दिन याने चैत्र शुक्ल तेरस के दिन नव महीने Q पूर्णतः व्यतीत हुए थे और साढ़े सात दिन ऊपर बीत चुके थे, सब ग्रह ऊच्च स्थान में आये हुए थे, चन्द्र का प्रथम * योग चल रहा था, सभी दिशाए सौम्य थी । यान अंधकार बिना की और विशुद्ध थी, शुकन जय-विजय के सुचित हो रहे थे,पवन दक्षिण दिशा का सुगंधि और शीतल होने से अनुकुल व पृथवी का मंद स्पर्श करता हुआ था, सर्व प्रकार के धान्यादि से पृथ्वी शोभायमान हो चारों ओर खेती लहरा रही थी और देश में सर्वत्र सकाल, आरोग्य विगेरे सानुकुल संयोगो से हर्ष को प्राप्त होने पर वसंतोत्सवादि क्रीड़ा करते हुए देशवासी लोग खुशी For Postes Pesonal use only ONE卐0000301030 dation international Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40450 0 500 40 500 40 के कारण झुम रहे थे, ऐसे समय मध्यरात्री में उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग होने पर, आरोग्य वाली यानी बिल्कुल पीड़ा रहित ऐसी उस त्रिशला क्षत्रियाणी ने आबाधा रहित ऐसे पुत्र को जन्म दिया। ९४) जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर का जन्म हुआ, वह रात्रि, प्रभु के जन्म महोत्सव हेतु नीचे उतरते हुए और ऊपर चढते हुए विपुल देवों और देवियों से मानो अतिशय आकुल न बनी हो ? तथा आनन्द से फैलते हुए हास्यादि अव्यक्त शब्दो से मानो कोलाहलमय बन गयी न हो ! ऐसी हो गई। ९५) जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर का जन्म हुआ, उस रात्रि में कुबेर की आज्ञा मानने वाले अनेक तिर्यक्जृंभक देवों ने सिद्धार्थ राजा के महल में चांदी की, सुवर्ण की, रत्नों की, देवदूष्य वस्त्रों की, गहनों की, नागरवेल 'प्रमुख' पत्रों की, पुष्पों की, फलों की, कपुर-चन्दादि सुगन्धित चूर्णो की, हिंगलोक प्रमुख विविध वर्णो की वृष्टि और द्रव्य की धाराबद्ध वृष्टि बरसायी । ९६) उसके पश्चात् वह सिद्धार्थ क्षत्रिय भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों ने तीर्थंकर 40 1500 40 500 40 4500 40 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anelam के जन्माभिषेक का महोत्सव करने पर प्रभात के समय में नगर के कोतवालों को बुलाता है। कोतवालों को ॐ बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा | ९७) हे देवानुप्रियो! तुम शीघ्र ही क्षत्रियकुंड ग्राम नगर के कैदखाने में रहे हुए कैदियों को छोड दो। इस प्रकार 3 कैदखाने की शुद्धि करके तोल-नाप को बढ़ा दो, तत्पश्चात् क्षत्रियकुण्ड नगर में अन्दर और बाहर पानी 卐छिंटकावो, सफाई करावो-लिंपावो। तथा सिंगोडे के आकार के तीन कोने वाले स्थान में, जहां तीन रास्तों 12 का संगम होता है उस स्थान से, जहां चार रास्तों का संगम होता है उस स्थात से, जहां अनेक मार्गों का संगम * होता है- उस स्थान से, चार दरवाजे वाले देव मंदिरादि के स्थान से, राजमार्ग के स्थान से तथा सामान्य मार्ग 1 के स्थान से इन सभी स्थानों से, मार्गों के मध्य भाग से और दुकानो के मार्गों से कूड़ा कचरादि को दूर फिंकवाकर जमीन को समान कराके, पानी से छंटवाकर पवित्र करो और नगर में घरों की दिवारों पर गोशीर्ष चन्दन के, लालचन्दन के दर्दर नामक पहाडी चंदन से पांच अंगुली और थापों से युक्त दिवारों को करो। घर 77 Eation.international Forvetes egonal Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000卐00000 के चौक में चन्दन के कलश रक्खवाओ, प्रत्येक दरवाजों पर चन्दन के कलशों से रमणीय बने हुए तोरण बंध ॐ वाओ, जहां तहां शोभा दे वैसे लम्बी लम्बी गोल मालाएं लटकावो, पंचवर्णी सुन्दर सुगन्धित पुष्पों के ढेर लगावो व चारों ओर जमीन पर फूल बिछवावो, फूलों के गुलदस्ते रखाओ, प्रत्येक स्थानों पर अगर, कुंदरु, तुर्की आदि सुगन्धित धूप से संपूर्ण नगर सुवासित बनाओ, ऊची उठती महक से सारा नगर सुगन्ध से परिपूर्ण बने वैसा करो, मानों किसी ने चारों ओर सुगन्धित भरी गुटिकाएं न रक्खी हो ऐसा लगे वैसा करो। 2 इसके बाद नगर के प्रत्येक स्थानों में नटलोक खेलते हो, नृत्य करने वाले नृत्य करते हो, रस्सी पर चढ़कर * खेल करने वाले खेल दिखाते हो, मल्ल कुश्ती करते हो, मुट्ठी से युद्ध करने वाले, मनुष्यों को हास्य कुतूहल * करवाने हो वैसे विदूषक, जो उछल-उछलकर नाचने वाले भांड, कथाओं द्वारा कथाकर जन-मन रन्जन करने वाले, पाठक जो सुभाषित कथन करते हो, रास खेलनेवाले रास खेलते हो, भविष्य वेत्ता, भविष्य बताते हो, बांस पर चढ़कर उसकी चोटी पर खेलने वाले, चित्रपट हाथ में रखकर भिक्षा मांगने वाले, चमडे की मसाक 000000 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड ९८) उसके पश्चात् सिद्धार्थ राजा ने जिनको आज्ञा दी है ऐसे कोतवालादि खुश-खुश हो गये, संतुष्ट हुए, खुशी के मारे उनका हृदय प्रफुल्लित बना। उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़कर सिद्धार्थ राजा की आज्ञा को विनय पूर्वक स्वीकार कर शीघ्र ही कुण्डनपुर नगर में सर्व प्रथम जेल की सफाई का कार्य किया और इसके पश्चात् अन्तिम सांबेला ऊंचे रक्खने तक के सारे कार्यों जो सिद्धार्थ राजा ने बताये थे संपन्नकर राजा के पास जाकर के विनय पूर्वक हाथ जोड, शिर झुकाकर उनकी आज्ञा वापस लौटाते है। याने जैसी आपकी आज्ञा थी वैसा सारा 13 कार्य पूरा कर दिया है। ऐसी जानकारी देते है। है ९९) उसके बाद में सिद्धार्थ राजा जहां कसरत शाला है वहां आते है। आकर यावत् अपने तमाम अन्तःपुर 卐सह अनेक प्रकार के पुष्प, गन्ध, वस्त्र व अलंकारों से अलंकृत होकर, सभी प्रकार के वार्जीत्र बजवाकर, बड़े Q वैभव के साथ, कान्ति युक्त होकर, बडे सैन्य, बहुत से वाहनो के साथ, बड़े समुदाय के साथ तथा एक साथ में बजते अनेक वाजिंत्रो की आवाज के साथ याने शंख, ढोल, नोबत, खंजरी, रणशीणा, हड्क नामक वाजिंत्र, 0000000 lan ication international For Pieles Pezen Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 500 40 500 40 4500 40 मृदंग और दुंदुभि नामक देववाद्य इन सभी वाजिंत्रो की जो गंभीर आवाज व उनकी गूंज रुपी प्रतिध्वनि से युक्त दस दिन पर्यन्त अपनी कुल मर्यादानुसार महोत्सव करते है। इस उत्सव में शहर में कर लेना बंध किया, जिसको जो चाहिए वह बिना किमत दिये किसी भी दुकान से सामान ले सकता है ऐसी व्यवस्था करने में आई । क्रय-विकय बंध किया। राजा सभी लोगों का ऋण अदा कर देगा अतः किसी को भी ऋण लेने की आवश्यक्ता नहीं रहे ऐसी व्यवस्था करने में आई। इस उत्सव में अपरिमित पदार्थ इकट्टे किये गये है, ऐसा सर्वोत्कृष्ट उत्सव मनाने में आया। इस उत्सव तक किसी पर थोडा भी दण्ड़ नहीं किया जाता है। तथा जहां तहां उत्तम गणिकाएं व नृत्यकारों द्वारा नृत्य करने में आ रहा है इसके अलावा इधर-उधर विभिन्न खेलों का आयोजन करने में आया है और निरंतर मृदंग आदि बजाये जा रहे हैं। जब तक उत्सव चल रहा है, मालाएं विगेरे म्लान न हो जाए इसका पूरा ध्यान रक्खा जा रहा है। इसी प्रकार नगर और देश के सभी मनुष्यों को प्रभुदित - प्रसन्न करने में आये है। सभी दश दिन तक आमोद-प्रमोद में मस्त बने रहे ऐसी व्यवस्था की गई है।, 80 - 40 500 40 500 40 500 40 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3000 १००) अब वह सिद्धार्थ राजा दश दिन का उत्सव चल रहा था उसमें सेंकड़ो, हजारो, लाखो देवपूजादि कार्य व दानादि कार्य स्वयं करता दूसरों से भी कराता था। तथा सेकडों, हजारों लाखों लोगों से वधामणी स्वीकार करते हैं। 3 १०१) उसके बाद श्रमण भगवान महावीर के माता-पिता प्रथम दिन कुल परंपरानुसार पुत्र जन्म निमित्त 卐 किया जाने वाला अनुष्ठान करते है, तीसरे दिन चन्द्र-सूर्य के दर्शन का खास उत्सव करते है, छठे दिन रात्रि २ जागरण करते है, इसी प्रकार प्रत्येक प्रकार की कुल मर्यादा पूरी करते हुए ग्यारवां दिन व्यतिक्रान्त होन पर * नालोच्छेदन विगेरे अशुचि ऐसी जन्म क्रियाएं समाप्त होने पर पुत्र जन्म के बारहवें दिन प्रभु के माता-पिता तब ॐ उदारता पूर्वक भोजन, पेयपदार्थ, स्वादिष्ट खाद्य सामग्री तैयार कराते है। तत्पश्चात् अपने मित्रजन, ज्ञातिजन, स्वकीय मनुष्यों, स्वजन याने पितराई, पुत्री-पुत्रादि के सास-श्वसुर विगेरे सम्बन्धीजन, दास, दासी, नोकर, चाकर तथा ज्ञात कुल के क्षत्रियों को भोजन हेतु आमंत्रण देते है। आमन्त्रण देकर बाद में प्रभु के जनक-जननी 40seelam Shantination e Pesonel Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नान करते हैं, इष्टदेवों की पूजादि करते है, विघ्न विनाश हेतु तिलक आदि कौतुक तथा दही, धो अक्षतादि मंगलरूप प्रायश्चित करते है। उत्सव के अनुरुप स्वच्छ पोषाक धारण करते है तथा भोजन समय प्राप्त होने पर वे सब भोजन मण्डप में आकर उत्तम आसन पर सुख पूर्वक बैठे और भोजन हेतु आमंत्रण देकर बुलवाए उन मित्रों, ज्ञाती के मनुष्यों, पुत्र-पुत्रादि स्वकीय मनुष्यों, पित्राइ विगेरे स्वजनों, पुत्र-पुत्रादि के सास- श्वसुरों आदि संबंधियों के साथ उन तैयार करवाये हुए विपुल रसवंतियों का स्वयं स्वाद लेते हुए और दूसरों को आग्रह पूर्वक एक दूसरे को रखते हुए अर्थात् भगवान के माता-पिता अपने पुत्र जन्म महोत्सव में ज्ञातिजनों के साथ भोजन का आनन्द ले रहे है। १०२) भोजन से निवृत्त होकर उन सबके साथ भगवान के माता-पिता बैठक के स्थान पर आकर शुद्ध जल 2 से आचमन किया, दांत मुह को स्वच्छ किया, इस प्रकार परम पवित्र होकर, वहां आये हुए मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन तथा सगे सम्बन्धी परिवारों को भगवान के माता-पिता ने पुष्पों, वस्त्रों, सुगन्धित अत्तरों, मालाओं और 82 2405014050 2050040 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभूषणादि देकर उन सबका सत्कार-सन्मान किया। इस प्रकार का कार्य करने के बाद उन सबसे इस प्रकार कहा| १०३) “पहले भी हे देवानुप्रियों। हमारा यह पुत्र जब गर्भ में आया तब इस प्रकार का विचार-चिन्तन यावत् 3 मनोगत भाव पैदा हुआ था कि जब से लगाकर हमारा यह पुत्र गर्भ में आया है तब से लगाकर हमें चांदी, सोना, ॐ धन, सत्कार, सन्मान प्रीति में बढ़ौती हुई है तथा सामंत राजा हमारे अधीन हुए है। इस कारण जब हमारा यह पुत्र जन्म लेगा तब हम इन कार्यों के अनुसार इसका नाम गुणों के शोभास्पद गुणनिष्पन्न यथार्थ ‘वर्धमान ऐसा ॐ रक्खेंगे। अतः इस कुमार को ‘वर्धमान' नाम से प्रसिद्ध करते हैं । १०४) श्रमण भगवान महावीर काश्यप गोत्र के थे। उनके तीन नाम इस प्रकार से कहे जाते है। उनके माता-पिता के द्वारा रखा हुआ ‘वर्धमान', स्वाभाविक स्मरण शक्ति के कारण दूसरा नाम श्रमण याने सहज 0000000卐00930 83 en inte Forvetes Pesonel Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = स्फुरण शक्ति के कारण उन्होंने तपादि करके साधना का परिश्रम किया जिससे उनका दूसारा नाम ‘श्रमण और कोई आकस्मिक भय आने पर या क्रूर ऐसे सिंहादि जंगली जानवरों का भय आने पर निश्चल रहने वाले अपने द्दढ संकल्प से थोडा भी नहीं डिगने वाले, कोइ भी परिषह याने भूख-प्यास विगेरे संकट आने पर तथा उपसर्ग याने दूसरों की तरफ से किसी भी प्रकार के शारीरिक संकट आने पर थोडे भी विचलित नहीं होते थे । इन परिषहों को और उपसर्गों को क्षमा से और शांत चित्त द्वारा सहन करने में समर्थ थे। भद्रादि प्रतिमाओं का अथवा एक रात्रि को प्रमुख अभिग्रहों का पालन करने वाले, तीन ज्ञान द्वारा शोभित होने से धीमान अर्थात् ज्ञानवाले, 8 शोक और खुशी के प्रसंग आने पर भी दोनों को समान भाव से सहन करने वाले है, सद्गुणों के भण्डार तथा 卐वीरता के विशेष गुणों से युक्त होने से देवो ने उनका तीसरा नाम श्रमण भगवान महावीर रक्खा। १०५) श्रमण भगवान महावीर के पिता काश्यप गोत्र के थे। उनके तीन नाम इस प्रकार से है:-सिद्धार्थ, श्रेयांस और यशस्वी। elambe 84 womanmentary Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain pusation Interi प्रभु का नाम स्थापन व प्रीति भोजन बालक वर्धमान द्वारा आमल की क्रीडा 85.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक वर्धमान को देव स्कन्धे पर बिठा 7 ताडवृक्ष जितना ऊंचा शरीर बनाकर डराता है बालक वर्धमान का पाठशाला गमन 86 Wy.org Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0-30 १०६) श्रमण भगवान महावीर की माता वाशिष्ठ गोत्र की थी, उनके तीन नाम इस प्रकार थे:- त्रिशला, विदेहदिन्ना, प्रियकारिणी याने प्रीतिकारिणी। १०७) श्रमण भगवान महावीर के पितृव्य याने चाचा का नाम स्पार्थव था। बड़े भाई का नाम नंदिवर्धन था। बहिन का 3 नाम सुदर्शना, पत्नी का नाम यशोदा और गोत्र कौडिन्य था। १०८) श्रमण भगवान महावीर की पुत्री काश्यप गोत्र की थी तथा उसके दो नाम थे- प्रियदर्शना व अणोज्जा। _____१०९) श्रमण भगवान महावीर की दोहिती याने पुत्री की पुत्री काश्यप गोत्र की थी तथा उसके भी दो नाम थे। यशस्वती और शेषवती। ११०) श्रमण भगवान महावीर दक्ष थे। उनकी प्रतीज्ञा बुद्धिमत्ता पूर्ण थी। वे स्वयं अति सुंदर थे, सर्व गुण संपन्न थे, सरल तथा विनयवान थे, प्रसिद्ध थे, ज्ञात वंश के कुल दीपक पुत्र थे याने ज्ञातवंश के राजा सिद्धार्थ के पुत्र थे, ज्ञातवंश कुल में चंद्रमा के समान सौम्य थे, विदेह थे याने इनका शरीर ( Gration international Forte Pesona Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यों के शरीर की अपेक्षा अधिक मजबूत बांधावाला था। विदेह दिन्न याने विदेह दिन्ना-त्रिशला माता के तनय याने पुत्र थे। विदेह जन्य याने त्रिशला माता के शरीर से जन्मे हुए थे, विदेह सुकोमल याने गृहस्थावथा में अत्यहि कि कोमल थे और तीस वर्ष गृहस्थावास करके अपने माता-पिता के दिवंगत याने स्वर्गवासी होने पर अपने बड़ों की अनुज्ञा प्राप्तकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी होने पर, फिर भी लोकांतिक-जीत कल्पी देवो ने उस प्रकार की इष्ट, मनोहर, श्रवण प्रिय, मन-पसंद, मनोरंजनकारी, उदार, कल्याणस्वरुप, शिवरुप, धन्यरुप, मंगलरुप, परिमित, मधुर, शोभायुक्त, और हृदयंगम, हृदय को खुश करने वाली, गंभीर और पुनरुक्ति दोष बिना की वाणी से भगवान को निरंतर अभिनंदित किया और उन भगवान की खूब स्तुति की, इस प्रकार अभिनन्दन करते और उन भगवान की खूब स्तुति करते वे देव इस प्रकार से बोले:"हे नंद! आपका जय हो, जय हो, हे भद्र! आपकी जीत हो, आपका कल्याण हो, हे उत्तमोत्तम क्षत्रिय- हे क्षत्रिय नरपुंगव! आपका जय हो, विजय हो, हे भगवंत लोकनाथ! आप बोध प्राप्त करो, संपूर्ण जगत में सभी जीवों के हित, 00-00卐000卐u0930 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु महावीर का परिवार, माता-पिता, भाई-बहिन दीक्षा के लिए नौ लोकांतिक देवों की भगवान से विनंती, तीर्थ स्थापना करो Son inte For Private. Pest e only NESv.org Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु वर्धमान द्वारा वर्षिदान बडे भाई नंदीवर्धन के पास दीक्षा लेने की अनुमति मांगते है For Pivate sPersonal the only HENSy. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0500050005000 उसुख और दुखों का निःशेषतया अन्त करने वाला होगा। ऐसा कहकर वे देव 'जय जय ऐसी ऊंची आवाज से गगन व पृथ्वी तल को गूंजित करते है | १११) श्रमण भगवान महावीर को पहले भी याने मनुष्य संबंधी गृहस्थ धर्म में आने पर विवाहित जीवन से पूर्व ही, उत्तम, अभोगिक याने नाश न हो ऐसा ज्ञान दर्शन था। इससे श्रमण भगवान महावीर उस अपने उत्तम ज्ञान दर्शन से अपना निष्कमण काल याने प्रवज्या समय आ गया है ऐसा देखते है, जानते है, इस प्रकार से देखकर चांदी को, सोने को, धन को, राज्य 0 को, देश को, सेना को, वाहनों को, कोशागारों कोठारों को, पुर को, अन्तःपुर को, जनपद को, बहुत सारे धन को, सोना, रत्न, मणि, मोती,शंख राजाओं से प्राप्त खीताब को, प्रवाल और माणिक प्रमुख लाल रत्नादि द्रव्यों को छोड़कर, अपने द्वारा नियुक्त दाताओं द्वारा उचित दान देते हुए याने जिनको देना उपयुक्त है ऐसा घ्यान रखते हुए, अपने गोत्रीय जनों को धन, धान्य, चांदी, सोना, रत्न मणि विगेरे बांटकर, हेमन ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष याने मृगशिर कृष्ण पक्ष आते ही याने मृगशिर कृष्ण दशम का दिन आने पर जब छांया पूर्व दिशा की ओर झुक रही थी याने न ज्यादा व न कम, प्रमाणोपेत थी पौरुषी होने आई थी ऐसे समय में सुव्रतनामक दिन, विजय नामका मुहर्त के आने पर पूज्य भगवान चन्द्रप्रभा नाम की पालखी 0000000000 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 500 40 500 40 1500 40 में बैठे। उनके पिछे पिछे देव, दानव व मनुष्यों के बड़े बड़े समुह रास्ते में चल रहे थे। आगे-आगे कितनेक शंख बजाने वाले, कितनेक चक्रधारी, कितनेक हलधारी थे। विशेष भाट जाति के लोकोने कंठ में सोने का हल लटकाया हुआ था। कितने लोगो ने अपने कंधे पर अन्य लोगों को बिठाया हुआ था, कितने चारण, कितनेक घंट बजाने वाले थे। इस प्रकार की मानव मेदनी से परिवेष्टित भगवान को पालखी में बैठे हुए देखकर, कुल के वृद्ध जन विगेरे स्वजन उस प्रकार की यावत् इष्टादि विशेषणों वाली, वह वाणी कैसी है तो कहते है सुमधुर, कर्णप्रिय, कल्याणकारी, अर्थ में गंभीर, सरल, उदार, शोभायुक्त वाणी से भगवान का अभिनंदन करते हुए, भगवान की स्तुति करते इस प्रकार से कहने लगे: ११२) “हे नंद। आप जय पाओ, जय पाओ, हे समृद्धिमान! आप जय पाओ, जय पाओ! आपका कल्याण हो! आप जीती न जा सके याने वश में न हो सके ऐसी इन्द्रियों को अभग्न याने अतिचार रहित ऐसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र के द्वारा वश करो। तथा जीते हुए याने वश किये हुए क्षांति विगेरे दस प्रकार के श्रमण धर्म का आप पालन करो। आप अपनी ध्येय की सफलता में हमेशा द्दढ रहे, तप से राग-द्वेश नामक मल्लों का विनाश करो। धैर्यता में अति कम्मर कसकर - अत्यन्त द्दढ internatio For Pivate 92 40501405004050140 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LO卐00 - ध्वज को प्राप्त करो। अज्ञान रुपी अंधकार बिना का उत्तम केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करो। जिनेश्वर देवों द्वारा उपदेशित सरल मार्ग का अनुसरण कर के आप परम पद-मोक्ष को प्राप्त करो। परिषहों की सेना का नाश कर हे उत्तम क्षत्रिय! क्षत्रिय नर पुंगव आप जय पाओ! बहुत दिनों तक, बहुत पक्षों तक, बहुत महीनों तक, बहुत ऋतुओं तक, बहुत ★ अयनों तक, बहुत वर्षों तक परिषहों और उपसगों से निर्भय बनकर, बहुत भयकारी भयभीत करने वाले प्रसंगो में क्षमाप्रधान होकर आप विचरण करे। आपके धर्म में याने आपकी साधना में विघ्न न हो,“ ऐसा कहकर लोग भगवान महावीर को जयनादों से गुंजाते है। ११३) उसके बाद श्रमण भगवान महावीर क्षत्रियकुण्ड ग्राम नगर के बिच में से होकर जहां ज्ञातखण्ड नाम का उद्यान है और जहां अशोकवृक्ष है वहां आते है। श्रमण भगवान महावीर महोत्सव को देखने हेतु श्रेणीबद्ध बैठे हुए मानवों की 卐 हजारों नेत्र पंक्तियों से बारंबार देखे जाते हुए, हजारों मुखपंक्तियों से अथवा वचनों की पंक्तियों से बार-बार स्तुति किये जाते हुए, हजारों हृदय पंक्तिओं से “आप जय पाओ' इत्यादि शुभ चिन्तवन के बारंबार प्रबलता से समृद्धि प्राप्त कराते हुए, हजारों मनोरथों की पंक्तियों से बार-बार विशेष प्रकार से स्पर्श कराते हुए, अर्थात "हम प्रभुके आज्ञांकित Foreverespemonituseonly Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवक बने तो भी अच्छा'' इत्यादि प्रकार से लोगों के विकल्पों से बार-बार चिन्तवन किये जाते हुए, भगवान के कान्ति और सुन्दर रूप को देखकर औरते 'ऐसा हमारा पति हो तो कितना अच्छा इस प्रकार से उनके सामने बार-बार ● देखकर मन में प्रार्थना करने लगी, अर्थात् कान्ति और रूप गुण के कारण भगवान इस प्रकार से प्रार्थना कराते हुए और हजारों अंगुलियों की पंक्तियों से बार-बार देखाए जाते हुए, अनेक हजार जो पुरुष और स्त्रियों, उन पुरुष व स्त्रियों के हजारों नमस्कारों की पंक्तियों को दाहिने हाथ से बार-बार ग्रहण करते हुए, हजारों घरों की पंक्तियों का उल्लंघन करते हुए, उनमें जो वीणा, हाथ की तालियां, और भिन्न-भिन्न वाजिंत्रो का बजना, मधुर, सुन्दर जय जय ना सह आवाज वाले सुन्दर मंजुल जय जय नाद घोष को सुनकर भगवान बराबर सावधान होते हुए, अपने छत्र चामरादि संपूर्ण वैभव के साथ, अंग पर पहने हुए सभी आभूषणों की कान्ति युक्त सेना के तीन अंग जल-थल और नभ तथा हाथी, घोडा, ऊंट, खच्चर, पालखी प्रमुख बहुत वाहन, शहरी परिवार आदि सब लोगों का बड़ा समुदाय, संपूर्ण आदर व औचित्य सहित, संपूर्ण संपत्ति व शोभा सह, उत्कंठा के साथ, संपूर्ण प्रजाजन याने वणिक, शुद्र, भीलादि जंगली | लोगों, ब्राह्मणादि अठारह वर्णों के साथ, सभी नाटकों, ताल करने वाले, संपूर्ण अन्तपूर के साथ, पुष्प, वसन सुगन्धित मालाओं के साथ, अलंकारों की संपूर्ण शोभा सह, सभी वाजिंत्रो की प्रतिध्वनि सह, इस प्रकार बडी ऋद्धि, कान्ति 94 Jain Education Internatio 14050140501405440 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु महावीर का दीक्षा वरघोडा प्रभु महावीर की दीक्षा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु के शरीर से सुगन्ध आती है, भौं रो से डंख देना, लोग गंध गुटिका की मांग करते हैं। प्रभु को अकेले विहार, प्रथम चातुर्मास प्रथम पारणा पात्र में Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व बडी सेना, बड़े वाहनों, बडे समुदायों और एक साथ बजते वाजिंत्रो के साथ याने शंख, ढोल, बड़ी ढ़ोल, भेरि झालर, नोबत, खन्जरी, रणसींगा, हुडुक नाम नामदेव की नाद सह भगवान कुण्डलपुर के बिच में से होकर निकलते है। जहां ज्ञातखण्ड वन नामक उद्यान है, उसमें जहां उत्तम अशोकवृक्ष है वहां आते है। hal ११४) वहां आकर के उत्तम अशोकवृक्ष के नीचे अपनी पालखी को स्थापन करवाते है। स्थापन करवाकर, पालखी में से नीचे उतरते है। नीचे उतरकर स्वयं ही आभूषण-माला प्रमूख अलंकारों को उतारते है। अलंकारदि उतारने के पश्चात् अपने ही हाथ से पंचमूष्टि लोच करते है याने चार मुष्ठि से शिर के और एक मुष्ठि से दाढ़ी-मूंछ का लोच करते है। इस प्रकार से केश लुंछन कर निर्जल छट्ट तप से युक्त खान-पान का त्याग कर याने इस प्रकार से दो उपवास किये हुए भगवान हस्तोत्तरा नक्षत्र याने उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र का योग आने पर देवदुष्य वस्त्र ग्रहण कर अकेले ही कोई दूसरा साथ में नहीं इस प्रकार से भाव से मुंड होकर, गृहवास से निकलकर अनगारता को 97 40 500 40 500 40 500 40 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 याने साधुपने को प्राप्त किया याने प्रव्रज्या स्वीकार की। ११५) श्रमण भगवान महावीर एक वर्ष से अधिक एक मास तक चीवरधारी याने कपडा धारण करने वाले हए और उसके बाद अचेल याने कपडे रहित तथा करपात्री हुए। ___११६) श्रमण भगवान महावीर दीक्षा स्वीकार करने के पश्चात् बारह वर्ष से अधिक समय तक साधना समय में त शरीर की ओर उदासीन याने इस समय में शरीर की ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं दिया मानो कि शरीर का साथ बिल्कुल छोड दिया हो वैसे रहे। साधना समय में जो जो उपसर्ग आ रहे थे जैसे कि, देव मानव व तिर्यचों की और से याने क्रूर, भयानक पशु-पक्षिओं की ओर से आने वाले उपसर्ग, अनुकुल व प्रतिकुल उपसर्ग जो जो भी जैसे तैसे उपसर्ग आये उन्हें धैर्य और निडरता से सहन करते है, थोडा भी रोष लाये बिना तेजस्विता से मन को निश्चल बनाकर सहन ॐ करते है। ११७) उसके बाद श्रमण भगवान महावीर अनगार याने साधु बने, इर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभंडमत्त निक्षेपणा समिति और पारिष्ठापनिका समिति याने अपने मल-मूत्र थूक,श्लेश्म और अन्य शारीरिक मल 10--00000卐000卐OK 98 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु को गोवालिया से प्रथम उपसर्ग, शक्रेन्द्र द्वारा उसका निवारण प्रभु का ब्राह्मण को अर्धवस्त्रदान on In For Pilviate Personalitive Gily Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ muson Internat प्रभु को शूलपाणियक्ष द्वारा उपसर्ग For Private & Personal Use Cirily व्यंतरी द्वारा प्रभु को उपसर्ग 100 ary.org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन सबको निर्जीव शुद्ध स्थान में परठवने याने ड़ालने हेतु पूरा ध्यान रक्खा जाता था। इस प्रकार से पांच समिति को पालते हुए भगवान मन को तथा वचन को और काया को भी अच्छी तरह से प्रवृति कराने वाले बने। मन-वचन-काय गुप्ति का उचित प्रयोग करने वाले हुए। इस प्रकार समिति-गुप्ति वाले भगवान जीतेन्द्रिय, ब्रह्मचारी, अक्रोधी, निरभिमानी, माया रहित तथा निर्लोभी और शान्त बने, उपशान्त हुए, उनके सर्व संताप दूर हो गये। वे आश्रव बिना के, ममता रहित, अपरिग्रही याने अंकिचन बने। अब तो इनके पास गांठ बांधकर सुरक्षित करने जैसी एक भी वस्तु नहीं थीं ऐसे ये अन्दर और बाहर से छिन्नग्रन्थी बने, जिस प्रकार कांसी के बर्तन को पानी स्पर्श नहीं करता उसी भांति उन पर किसी भी प्रकार का मेल छिपकता नहीं था, ऐसे निर्लेप बने, जिस प्रकार शंख पर कोई भी रंग चढता नहीं, उसी तरह, इन पर राग-द्वेष की कोई असर होती नहीं थी। ऐसे ये भगवान अप्रतिहत किसी भी प्रकार का प्रतिबंध रक्खे बिना अस्खलिततया विचरने लगे। जिस प्रकार आकाश किसी सहारे की अपेक्षा रक्खता नहीं उसी भांति भगवान भी दूसरे किसी मदद की अपेक्षा रक्खे बिना निरालंबी हुए। वायु की ॐ तरह अप्रतिहत बने याने जिस प्रकार से वायु एक ही जगह पर नहीं रहता, बिना रोक टोक चला करता है उसी भांति भगवान tion International 101 40 500 40 500 40 500 40 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 500 40 500 40 500 40 एक ही जगह पर बंधन में न रहकर सर्वत्र निरहीभाव से घूमने वाले हुए। शरद ऋतु के जल की तरह इनका हृदय निर्मल बना, कमलपर्ण की भांति निर्लेप बने, याने पानी से उत्पन्न कमलपत्र को जैसे जल बिन्दू भींजा सकता नहीं उसी तरह भगवान को संसार भाव भजा सकते नहीं, कच्छुए की भांति भगवान गुप्तेन्द्रिय, महावराह के मुंह पर जैसे एक ही सींग होता है वैसे भगवान एकाकी बने, पक्षी की तरह भगवान स्वतन्त्र, भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त, हाथी की भांति शूर वीर, बैल की तरह प्रबल पराकमी, सिंह की तरह निर्भय, मेरुपर्वत की तरह स्थिर, समुद्र की भांती गंभीर, चन्द्र की तरह सौम्य, सूर्य की भांति तेजस्वी, उत्तम सोने की तरह शरीर कान्तिवाले, पृथ्वी की भांति परिषहों को सहन करने वाले और घी डाले हुए अग्नि की तरह जाज्वल्यमान बने । ११८) निम्न लिखित दो गाथाओं में भगवान को जैसी जैसी उपमा दी गई है उस अर्थ वाले शब्दों में नाम इस प्रकार से गिनाये गये है। कांसी का बर्तन, शंख, जीव, गगन-आकाश, वायु, शरद ऋतु का जल, कमल-पत्र, पक्षी, महावराह, और मारंड पक्षी (१) हाथी, बैल, सिंह, नगराज मेरु, सागर, चन्द्र, सूर्य, सोना, पृथ्वी और अग्नि (२) 102 4050040 500 40 4500 40 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगमदेव द्वारा उपसर्ग चण्डकोशिक द्वारा प्रभु को डसना, प्रभु द्वारा प्रतिबोध dansation interestional 103- JEYPE Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठ पूतना व्यन्तरी द्वारा शीत उपसर्ग सुदनष्ट्रदेव द्वारा नाव में उपसर्ग, कंबल संबल देव द्वारा निवारण For Private Personne Girly 104 wwwy org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस भगवन्त को कही भी प्रतिबंध न था याने भगवान के मन को अब किसी प्रकार का बंधन न रहा था। बंट ा चार प्रकार के होते है:- १-द्रव्य से, २-क्षेत्र से, ३-काल से और ४-भाव से। १. द्रव्य से याने सजीव, निर्जीव और मिश्र याने निर्जीव सजीव ऐसे किसी प्रकार के पदार्थो में भगवान को बांधने का सामर्थ्य नहीं था। २. क्षेत्र से याने गांव में, नगर में, जंगल में, क्षेत्र में, घर में, प्रांगण या आकाश में ऐसे किसी स्थान का बंधन नहीं था। ३. काल से याने समय, आवलिका, श्वासोच्छवास, स्तोक, क्षण, लव, मुहूर्त, अहोरात, पक्ष, मास, ऋतु, * अयन, वर्ष या दूसरा कोई लम्बे समय का संयोग, ऐसे किसी प्रकार के सूक्ष्म, स्थूल या छोटे-बड़े काल ॐका बंधन नहीं रहा। ४. भाव से याने कोध, अभिमान, छलकपट, लोभ, भय, हंसी-मजाक, राग-द्वेष, झगडा, दोषारोपण, चूगलीकरना, पर निंदा, राग-उद्वेग-कपटवृत्ति सह झूठ बोलना और मिथ्यात्व भावो में याने उपर्युक्त 105 0000000 hon international Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 1500 40 500 40 500 40 ऐसी किसी भी वृत्तियो में भगवान को बंधन नहीं था अर्थात् ऊपर बताये हुए चारों प्रकार के प्रतिबंधो में से कोई भी प्रतिबंध भगवान को बांध नहीं सकता था। ११९) श्रमण भगवान महावीर चातुर्मास को छोड़कर, शीतकाल और ग्रीष्मकाल में आठ मास तक विचरते रहते थे। गांव में एक रात्रि ही रहते थे और शहर में पांच रात से अधिक नहीं ठहरते थे, बांस और चंदन के स्पर्श में समान विचार वाले, घास और रत्न या मिट्टि या सोने में समानवृत्ति वाले, रूप से सहन करने वाले इस लोक और परलोक में प्रतिबंध बिना के, जन्म-मृत्यु की आकांक्षा बिना के, संसार का अन्त पानेवाले, कर्मसत्ता को अशेषतया दूर करने में तत्पर ऐसे भगवान विचरण करते है। सुख-दुःख को समान १२०) ऐसे विचरते हुए भगवान अनुपम उत्तम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अनुपम याने निर्दोष वसति विहार, वीर्य सरलता, नम्रता अपरिग्रह भाव, क्षमा, अलोभ, गुप्ति, प्रसन्नतादि गुणों से और सत्य संयम तपादि जिन-जिन गुणों के ठीक-ठीक आचरण से निर्वाण का मार्ग याने सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र से, 106 40501405004050040 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 4 5 रत्नत्रय विशेष पुष्ट बनता है और मुक्ति फल का लाभ अत्यन्त समीप आ जाता है, उन-उन गुणों से आत्मा को पुष्ट करते हुए भगवान रहते है इस प्रकार विचरण करते उनके बारहवर्ष व्यतीत हो जाते है। तेरहवे वर्ष H का मध्यभाग याने ग्रीष्मऋतु का दूसरा महीना चौथा पक्ष चल रहा है, उस चौथे पक्ष का याने वैसाख महीने 3 का शुक्ल पक्ष, उस वैसाख मास के शुक्ल पक्ष की दशम तिथीं को जब छाया पूर्व की ओर झूक रही थी, ॐ पिछली पोरषी लगभग पूरी हुई थी, सुव्रत नामक दिन था, विजय नाम का मुहूर्त था उस समय भगवान जूंभिक R (जभिया) गांव नगर के बाहर, ऋजुवालिका नदी के किनारे एक विरान जैसा पुराने चैत्य के बहुत दूर भी नहीं और समीप भी नहीं इस प्रकार श्यामक नाम के गृहस्थ के क्षेत्र में शाल वृक्ष के निचे गोदोहासन उद्भट बैठकर 5 ध्यान में रहे हए थे वहां इस प्रकार से ध्यान में रहे हए तप और आतापना द्वारा तप करते हए भगवान ने चोविहार छट्ट का तप किया हुआ था, अब उस समय ठीक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग आया हुआ था, उस ध्यान में मग्न भगवान महावीर को अन्तर बिना का उत्तमोत्तम, व्याघात बिना का, आवरण रहित, समग्न और 100 Bles. Par te tư số Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व प्रकार से परिपूर्ण ऐसा केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रगट हुआ। 37 १२१) उसके बाद वो भगवान अरिहंत बने, जिन, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हुए। अब भगवान देव, मनुष्य और असुर सहित लोक के जगत के सर्व पर्याय जानते और देखते है-संपूर्ण लोक में सभी जीवों के आगमन-गमन 3 स्थिति, च्यवन, उपपात उनका मन मानसिक संकल्प-खान-पान, उनकी अच्छी बुरी प्रवृतियों, उनके ॐ भोगेपभोग, उनकी जो जो प्रवृति प्रगट और अप्रगट उन सबको भगवान जानते और देखते है। अब भगवान अरिहंत बने जिससे उनसे किसी भी प्रकार की बात अप्रगट रहे ऐसी नहीं थी। उनके पास करोड़ देव निरंतर है सेवा करने हेतु रहने लगे अब उन्हें एकान्त रहने का नहीं बन सकता। इस प्रकार से अरिहंत बने भगवान उस +समय में मानसिक-वाचिक और कायिक प्रवृत्तिओं में बर्तते हुए समग्र लोक के सभी विचारों को देखते और जानते विचरण करने लगे। 100000000000 108 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभ के कान मैं खीले मारने द्वारा गोवालीया का उपसर्ग तथा खरकवैद्य तथा मित्रों से कान से खीले निकालना चन्दनबाला द्वारा उडद बाकुला बोहराकर प्रभु को 5 महीने और 25 दिन के उपवास का पारणा 109 Jain For Pivme spersionalurecall Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु को गोदोहिका आसन में ऋतुवालिका में केवलज्ञान प्रभु अष्टप्रातिहार्य युक्त होकर विहार Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 १२२) उस काल और उस समय में भगवान महावीर ने अस्थिक गांव में प्रथम चौमासा किया। चंपा नगरी में और पष्ठचंपा में तीन चौमासे किये। वैशाली नगरी में और वाणिज्य गांव में बारहबार, राजगह नगर में और उसके बाहर के नालंदा मुहल्ले में चौदह बार, मिथिला नगरी में छ बार, भद्दिला में दो बार, आलंभिका में एक 3 बार, श्रावस्ती में एकबार, प्रणीत भूमी में याने वजभूमि नामक अनार्य देश में एकबार, अन्तिम चौमासा मध्यम 卐 पावापूरी नगरी में हस्तिपाल राजा के लिपीक कार्यालय स्थान में किया। है १२३) जब भगवान अन्तिम चौमासा करने हेतु मध्यम पावापुरी नगरी में आये तब उस वर्षा ऋतु का चौथा म महीना और सातवां पक्ष चल रहा था, सातवाँ पक्ष याने कार्तिक महीने का कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि थी और वह भगवान की अन्तिम रात्रि थी। उस रात श्रमण भगवान महावीर मोक्ष पाये-संसार छोड़कर चले गये, पुनः जन्म न लेना पडे ऐसा अन्तिम मरण पा गये। उनके जन्म, बुढापा और मृत्यु के सभी बंधन नष्ट हो गये। AM CAROL.international For Private Personal use only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100500 अर्थात् भगवान सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और दुःखों का अन्त याने नाश करने वाले बने-निर्वाण पाये और उनके सारे दुःख मिट गये। भगवान का जब निर्वाण हुआ तब चंद्र नाम का दूसरा संवत्सर चल रहा था, प्रीतिवर्धन नाम का महिना था, नंदिवर्धन नामक पक्ष था, अग्निवेश्य नामक दिन था जिसका दूसरा नाम 'उवसम ऐसा कहा जाता है, म देवानंदा नामक रात्रि थी जिसका दूसार नाम ‘निरइ कहा जाता है, उस रात्री में अर्थ नामक लव, मुहूर्त नामक & प्राण, सिद्ध नामक स्तोक, नाग नामक करण, सवार्थसिद्ध नामक मुहूर्त था ठीक स्वाति नक्षत्र का योग आया हुआ था। ऐसे समय में भगवान का निर्वाण हुआ और उनके सारे दुःख दर्दो का अन्त हो गया। 0000000000 १२४) जिस रात में श्रमण भगवान महावीर काल धर्म पाये उस रात में बहत से देव-देवियां नीचे आते व ऊपर जाते हए होने से चारों ओर प्रकाश फैल रहा था। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु का समवसरण में आगमन, तीन प्रदक्षिणा देकर 'नमो तित्वस्य' कहते है | प्रभु की अनुपस्थिति में गणधर की देशना on Iniesional For Private spamouse only प्रभु का समवसरण और देशना dan Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु के हाथ में तीर्थ की और 11 गणधर की स्थापना गोशालक द्वारा प्रभु पर तेजोलेश्या का छोडना For Private Personal use only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिपीक कार्यालय में भगवान की अन्तिम देशना अपापापुरी में भगवान का निर्वाण Jain on Interpard For Privine Parmonalise only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु का निर्वाण स्थल-जलमंदिर-पावापुरी (बिहार) गौतम स्वामी को प्रभु का निर्वाण समाचार, देव शर्मा प्रतिबोध और गौतमस्वामी को केवलज्ञान For Private Personal use only 116 Simon imes E ry.org Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५) बहुत से देव-देवियां गमन-आगमन से बहुत शोर गुल हो रहा था। १२६) जिस रात को भगवान महावीर कालधर्म पाये उस रात में उनके मुख्य शिष्य गौतम गौत्रे इन्द्रभूति अणगार का भगवान महावीर ऊपर का प्रेमबंधन टूट गया, और इन्द्रभूति अणगार को अन्त बिना का उत्तमोत्तम 3 ऐसा केवलज्ञान और केवलदर्शन उन्पन्न हुआ। म १२७) जिस रात में श्रमण भगवान का निर्वाण हुआ उस रात में काशी देश के मल्लकीवंशक के नौ और कोशल देश के लिच्छवी वंश के दूसरे नौ गण इस प्रकार अठारह गण राजाओ ने अमावस्या के दिन अष्ट पहोर * का पौषधोवास कर वहां रहे हुए थे। उन्होंने सोचा कि भाव उद्योत याने ज्ञान रुपी प्रकाश चला गया है अतः अब हमें द्रव्य उद्योत याने दीपको को प्रकाश करेंगे। १२८) जिस रात में श्रमण भगवान महावीर कालधर्म पाये, उस रात में भगवान महावीर के जन्म नक्षत्र पर क्षुद्र क्रूर (दुष्ट) स्वभाव का २000 वर्ष तक रहने वाला ऐसा भस्मराशि नाम का महाग्रह आया था। OFF000000 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40900500050000 १२९) जबसे वह भस्मराशि नामका महाग्रह भगवान महावीर के जन्म नक्षत्र पर आया था तबसे श्रमण निग्रन्थों और निग्रन्थिओं का आदर-सत्कार दिनो दिन घटने लगा। १३०) जब वह भस्मराशी ग्रह भगवान के जन्म नक्षत्र से दूर हो जायगा तब पुनः श्रमण निग्रन्थों और निग्रन्थियों का पूजा-सन्मान-सत्कार बढने लगेगा। १३१) जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर मोक्ष गये उस रात से जिनकी रक्षा न कर सके ऐसे अतिसूक्ष्म 'कुंथुए' नामक जीव पैदा हुए। वे कुंथुए इतने सूक्ष्म थे कि जो स्थिर थे याने चलते फिरते न थे, वे छद्मस्थ ऐसे निग्रन्थों की तथा निग्रंथियों की दृष्टि -पथ में जल्दी नहीं आते थे, किंतु जो कुंथुए अस्थिर थे, चलते-फिरते थे, वे ही छद्मस्थ ऐसे निग्रन्थ व निग्रन्थियों की दृष्टि पथ में जल्दी आते थे। ऐसे जन्तुओं को देखकर बहुत से निग्रन्थो व निग्रन्थिओ ने अनशन स्वीकार लिया। १३२) यहां पर शिष्य गुरु भगवंत को प्रश्न पूछता है कि- "हे भगवान ! यह आप क्या फरमाते है? अर्थात् उस समय कई साधु-साध्विओ ने अनशन किया इसका क्या कारण है ? गुरु महाराजने उत्तर दिया कि- “आज से लगाकर संयम दुराराध्य होगा यानी संयम का पालन करना कठिन होगा, क्योंकि पृथ्वी जीव जंतु से व्याप्त होगी, संयम के योग्य क्षेत्र 118 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं मिल पायेगा एवं पाखंडियों का जोर बढ़ेगा, अतः अब संयम का पालन दुष्कर होगा ऐसा सोचकर उस समय कई साधु - साध्विओंने अनशन किया। १३३) उस काल और उस समय में भगवान महावीर के इन्द्रभूति आदि चौदह हजार श्रमणों याने साधुओं की संख्या थी। १३४) चन्दनबाला विगेरे छत्तीस हजार आर्या याने साविओं की संख्या थी। १३५) शंख-शतक आदि एक लाख गुणसठ हजार श्रावकों की संख्या थी। १३६) सुलसा, रेवती विगेरे तीन लाख अठारह हजार श्राविकाओं की संख्या थी। १३७) जिन नहीं फिर भी जिन की तरह अच्छी तरह स्पष्टीकरण करने वाले ऐसे तीनसो चौदह पूर्वी थे। 138) भगवान महावीर स्वामी के आमषौषधी आदि लब्धि प्राप्त तेरहसो अवधिज्ञानी थे। १३९) संपूर्ण उत्तम ज्ञान और दर्शन प्राप्त किये हुए सातसो केवलज्ञानी हुए। १४०) श्रमण भगवान महावीर के देव न होने पर भी देव जैसी ऋद्धि प्राप्त यानी देव की ऋद्धि करने में समर्थ ऐसे वैकिय लब्धिवाले मुनिओं की संख्या हुई। OPE001010100 TASHIRTANTANIANS Farve: Penale.Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१) ढ़ाई द्विप में और दो समुद्र में रहनेवाले, मनवाले, संपूर्ण पर्याप्तिवाले ऐसे पंचेन्द्रिय प्राणियों के मनोगत विचारों को जान सके ऐसे विपुलमति ज्ञानी श्रमण याने साधुओं की संख्या थी। १४२) देव मनुष्य और असुरों की सभाओं में वाद-विवाद करते पराजय को प्राप्त न करे ऐसे चारसो वादिओं की याने शास्त्रार्थ करने वालों की उत्कृष्ट संपदा हुई। १४३) श्रमण भगवान महावीर के सातसो शिष्य और चौदहसो शिष्याएं मोक्ष में गई। १४४) श्रमण भगवात महावीर के अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले आठसो मुनि थे अर्थात् कालधर्म पाकर के अनुत्तर विमान में देव के रुप में उत्पन्न होकर, वहाँ से आय पूर्ण होने पर मनुष्यपने को प्राप्तकर के मोक्ष में जाने वाले आठ सो मनि थे । वे कैसे थे ? गति याने आने वाली मनुष्यगति में मोक्ष प्राप्ति लक्षण कल्याणकारी, देव भव में भी वे वीतराग प्रायः होने से देव भव में भी कल्याणकारी और इसीलिए आगामी भव में सिद्ध होने से आगामी भव में भी कल्याणकारी ऐसे आठ सो मुनि थे यानी प्रभु को अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले मुनियों की उत्कृष्ट संपदा इतनी हुई । १४५) श्रमण भगवान महावीर के समय में मोक्षगामियों का मोक्ष में जाने का काल दो प्रकार से हुआ। वह इस तरह। १) युगांतकृद्भूमि व २) पर्यायान्तकृद्भूमि। __'युग'- यानी गुरु, शिष्य, प्रशिष्यादि क्रमानुसार वर्तते पट्टधर पुरुष। उन से मर्यादित जो मोक्षगामियों का मोक्ष में जाने का काल, वह वह 'युगान्तकृद् भुमि कहा जाता है। 120 वहाँ से आयु व भव में भी यानी प्रभु को का मोक्ष 他愛她 देव भव में भी कल्याणकारी । वे कैसे थे ? गति याने यानी प्रभु को अनुतर wwwjainelibravart Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405 1 40 'पर्याय' यानी प्रभु का केवलीत्व प्राप्तिकाल । उसमें जो मोक्षगामियों का मोक्ष में जाने का काल, वह पर्यायान्तकृद्भूमि कहा जाता है। श्रमण भगवान महावीर की तीसरे युग पुरुष तक युगान्तकृद्भूमि हुई अर्थात प्रभु से प्रारंभ करके उनके पट्टधर तीसरे पुरुष ऐसे श्री जंबुस्वामी तक मोक्ष चालु रहा। यह युगान्तकृदभूमि श्री जंबूस्वामी तक ही चली उसके बाद बंध हो गई। चार साल तक का है केवली पर्याय जिनका ऐसे श्री महावीर प्रभु होने पर किसी केवली ने संसार का अन्त किया याने भगवान के केवली बनने के चार वर्ष मुक्ति मार्ग प्रारंभ हुआ और श्री जंबुस्वामी तक चलता रहा। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर तीस वर्ष तक गृहस्थावास में रहकर, बारह वर्ष और साढ़े छः महीने तक छद्मस्थ पर्याय पालकर, तीसवर्ष से कुछ कम यानी उन्तीस वर्ष और साढे पांच महीने तक केवली पर्याय पालकर, कुल • मिलाकर बयालिस साल तक श्रामण्य पर्याय (चारित्र पर्याय पालकर), वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार भवोपग्राही कर्म क्षीण होने पर, इस अवसर्पिणी में दुषम सुषमा नाम का चौथा आरा बहुत बीतने के बाद, चोथा आरा कितना शेष था, तब प्रभु मोक्ष में गये? यह बताते है-चौथे आरे के तीन साल और साढ़े आठ महिने अवशेष रहने पर, मध्यम पावानगरी में, हस्तिपाल 'नामक राजा के कारकूनों की सभा में याने कार्यालय कर्मचारियों के कार्यालय में, राग-द्वेष की सहायता से रहित होने से अकेले यानी राग-द्वेष रहित, और श्रमण भगवान महावीर कैसे थे ? अद्वितीय याने जिस तरह ऋषभदेवादि तीर्थंकर दस हजार विगेरे परिवार के साथ मोक्ष में गये, वैसे भगवान महावीर अकेले ही मोक्ष में गये इसलिए अद्वितीय याने एकाकी ऐसे श्रमण 121 ation Internat 40 500 40 500 405 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40501405014050040 भगवान महावीर, निर्जल छट्ट तप से युक्त, स्वाति नक्षत्र का चन्द्र का योग होने पर, प्रभातकाल रूप अवसर में यानी चार घड़ी रात्रि शेष रहने पर, सम्यक् प्रकार से पर्यकासन में यानी पद्मासन में बैठे हुए, श्री महावीर पुण्य के फल विपाक वाले पंचावन अध्ययन, पाप के फल विपाकवाले पंचावन अध्ययन और बिना के पूछे छत्तीस उत्तर बताकर, प्रधान नाम के मरुदेवी के एक अध्ययन का ध्यान धरते हुए, कालधर्म पाये, संसार समुद्र से पार उतरे, संसार में पुनः न लौटना पड़े ऐसे सम्यक् प्रकार से ऊर्ध्व प्रदेश में गये। और प्रभु कैसे थे ? जरा व मृत्यु के कारण भूत कर्मों को छेदने वाले, तत्व-अर्थ को जानने वाले, भवोपग्राही कर्मों से मुक्त, सर्व दुःखो का अन्त करने वाले, सर्व प्रकार के संताप से रहित, और शरीर व मन सम्बंधी दुःखो को नष्ट करने वाले बने। १४७) आज श्रमण भगवान महावीर के निर्वाण हुए नौ सो वर्ष बीत गये और दसवे सैके का यह अस्सीवॉ संवत्सर चल रहा है याने भगवान महावीर को निर्वाण हुए ९८० वर्ष हो गये। दूसरी वाचना के अनुसार कितनेक कहते है कि नौ सौ वर्ष उपरांत दसवे सैके का यह त्रयान्हवा संवत्सर काल चल रहा है। अर्थात् उनके मतानुसार महावीर निर्वाण समय ९९३ वर्ष हो गये है। तब से कल्पसूत्र सभा समक्ष वांचना प्रारंभ हुआ। 40 500 40 500 40 4500 40 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain quran Internal श्री पार्श्वनाथ भगवान पूर्व भव में पार्श्व प्रभु के जीवने 500 बार जन्माभिषेक का लाभ लिया था तथा वामा माता को देवलोक से आकर दर्शन देते हैं For Private & Po 123 y.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FHORITE वामा माता के 14 स्वप्न दर्शन पाच प्रभु नगर चयां देखते है, कमठ के पास में आकर जलते हुए सर्प को सेवक (नोकर) से नवकार स्मरण Fortes Personely 124 wwwnary.org Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परुषादानीय अरिहंत पार्श्वनाथ चरित्र | १४८) उस काल और उस समय में पुरुषों में प्रधान ऐसे अर्हन् श्री पार्श्वनाथ प्रभु के पांचो कल्याणक विशाखा नक्षत्र में हुए। अर्थात् उनके जीवन के पांचो प्रसंग विशाखा नक्षत्र में आये हुए थे। वो इस प्रकार, १) वे पार्श्वनाथ अरिहंत विशाखा नक्षत्र में च्यवे, याने गर्भ में आये, २) विशाखा नक्षत्र में ही उन का जन्म हुआ, ३) विशाखा नक्षत्र में मुण्ड बनकर, गृहवास का त्यागकर उन्होंने अनगार स्थिति याने दीक्षा स्वीकार की, ४) विशाखा नक्षत्र में ही उनको अनंत, उत्तमोत्तम, अविनाशी, | किसी वस्तु से स्खलना न पाए ऐसा, समस्त आवरण रहित, समस्त पर्यायो सहित सभी वस्तुओं को बतानेवाला, प्रधान केवलज्ञान और केवलदर्शन उन्पन्न हुआ, और विशाखा नक्षत्र में ही उनका निर्वाण याने मोक्ष हुआ। १४९) उस काल और उस समय में पुरुष प्रधान अर्हन श्री पार्श्वनाथ, जो इस ग्रीष्मकाल का पहला मास, पहला पक्ष यानी प्रचैत्र मास का कृष्णपक्ष, उसकी चौथ की रात में, बीस सागरोपम की स्थितिवाले दसवें प्राणत देवलोक से अन्तर रहित आयुष्य में पूरा होने पर दिव्य आहार, दिव्य जन्म और दिव्य शरीर छोड़कर तुरन्त ही च्यवकर यहां ही जंबूद्वीप नाम के द्वीप में भारत की पावन भूमि वाराणसी नगरी में अश्वसेन राजा की वामादेवी पटराणी की कुक्षि में मध्यरात्रि के समय विशाखा नक्षत्र में चन्द्र का 0500050005000 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 ३ ॥जी योग आने पर गर्भतया उत्पन्न हुए। १५०) पुरुष प्रधान अर्हन् श्री पार्श्वनाथ मति, श्रुत व अवधि इन तीन ज्ञान सहित थे। तब "मै देवविमान से च्यपूँगा इस प्रकार श्री पार्श्वप्रभु जानते है। “ मै च्यवित हो रहा हूं ," यह जानते नहीं थे, क्योकिं वर्तमान काल एक समय का अति सूक्ष्म है। "मै च्यवित हुआ ऐसा जानते है इत्यादि सारा वृतांत श्री भगवान महावीर चरित्रानुसार जानना। १५१) उस काल और उस समय में हेमन्त ऋतु का दुसरा महीना, तीसरा पक्ष यानी पोष महीने का कृष्ण पक्ष उसकी दसवीं तिथि में नौ मास और साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर, मध्यरात्रि में विशाखा नक्षत्र से चन्द्र का योग होने पर, आरोग्यवाले अर्थात् जरासी भी पीड़ा से रहित ऐसे उस वामादेवी ने आरोग्य याने बाधा रहित ऐसे पुत्र को जन्म दिया। जिस रात्रि में पुरुषों में प्रधान ऐसे अर्हन् श्री पार्श्वनाथ जन्मे, वह रात्रि प्रभु के जन्म महोत्सव हेतु नीचे उतरते व ऊपर चढ़ते हए अनेक देव-देवियों से यावत् मानो अतिशय संकुचित न हुई हो। तथा हर्ष के कारण फैलते हुए हास्यादि अव्यक्त शब्दों से मानो कोलाहल (शोरगुलमय) न हुई हो ऐसी हो गई। शेष वृतांत श्री भगवान महावीर के चरित्र की तरह ही समझना। विशेष में भगवान का नाम पार्श्व रखा था। १५२) पुरुष प्रधान अर्हन् श्री पार्श्वनाथ दक्ष यानी सर्व कलाओं में कुशल थे। प्रतिज्ञा का सम्यक् प्रकार से निर्वाह करने TOP-1005000000000 126 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वाले, अत्यन्त सुन्दर रुपवाले, सर्व प्रकार के गुणों से युक्त, सरल प्रकृति वाले और पूज्यों का विनय करने वाले थे। भगवान तीस वर्ष तक गहवास में रहकर, जिनका कहने का आचार है ऐसे लोकांतिक देवो ने आकर उस प्रकार की विशिष्ठ गुणवाली इष्टवाणी से इस प्रकार कहा : हे नंद! आप जय पाओ। जय पाओ। हे कल्याणकारी! आपका जय हो! जय हो! उन देवोने इस प्रकार से जय जय शब्दों का प्रयोग किया। १५३) पुरुष प्रधान श्री पार्श्वनाथ मनुष्य में उचित ऐसे गृहस्थ धर्म यानी विवाहादि के पहले भी अनुत्तर यानी अभ्यन्तर अवधि होने से उत्कृष्ट उपयोग वाला केवलज्ञान की उत्पत्ति हो वहाँ तक स्थिर रहने वाला अवधिज्ञान और अवधिदर्शन था। जिससे दीक्षा का समय जानते थे, जानकर सुवर्णादि सर्व प्रकार का धनयाचकों को देते हैं अर्थात वार्षिक दान देते है। यावत् अपने गोत्रियों को सुवर्णादिक धन हिस्से मुताबिक बांट देते है। उसके पश्चात् हेमन्त ऋतु का दूसरा महीना, तीसरा पक्ष याने पोष कृष्ण पक्ष की एकादसी के दिन पहले प्रहर में याने चढ़ते पहोर में विशाला नाम की पालखी में रत्न जड़ित सुवर्ण के सिंहासन पर पूर्वदिशा सन्मुख बैठे हुए और सुर, मनुष्य तथा असुर पर्षदा 00000000000 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 4000 40 500 40 यानी लोगों के समुदाय के द्वारा सम्यक् प्रकार से पीछे गमन किये जाते ऐसे प्रभु दीक्षा लेने हेतु चले। वह संपूर्ण पाठ पूर्वोक्त श्री महावीर स्वामी के मुताबिक कहना। परन्तु विशेष इतना है कि श्री पार्श्वनाथ प्रभु वाराणसी नगरी के बीच में से होकर निकलते है। निकलकर आश्रमपद नाम का उद्यान है, जहां अशोक नाम का उत्तम वृक्ष है, वहां आते है। आकर के वे उत्तम अशोकवृक्ष के नीचे अपनी पालखी रुकवाते है। रुकवाकर पालखी से नीचे उतरते है। उतरकर स्वयं ही आभूषण, मालादि अलंकार उतारते है। तत्पश्चात् अपने ही हाथों से पंच मुष्ठि लोच करते है। लोच करके निर्जल अट्टम तप युक्त विशाखा नक्षत्र में चन्द्र का योग प्राप्त होने पर एक देव दुष्य वस्त्र ग्रहण कर तीन सौ पुरुषों के साथ लोचकर मुंड होकर, गृहवास से निकलकर अणगारपने को यानी साधुपने को प्राप्त हुए । १५४) पुरुषदानीय अर्हन् पार्श्वप्रभु हमेशा के लिए काया पर के ममत्व को छोड़ दिया था। शारीरिक वासनाओं का भी त्याग किया था। इस कारण अणगार अवस्था में वे दैविक, मानवीय एवं पशु-पशुओं से होने वाले अनुकुल •व प्रतिकुल सभी - उपसर्गों को निर्भयता के साथ अच्छी तरह से सहन करते है, क्रोध रहित क्षमा करते है, उनको दीनता रहित और निश्चलता से सहन किया । Education Internationa 128 140 4500 40 4500 420 4500 40 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain gutton International श्री नेमिनाथ प्रभु का चित्र देखकर वैराग्य श्री पार्श्वनाथ प्रभु की दीक्षा 129.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथियों से प्रभु की कमल से पूजा - कलीकुण्ड तीर्थ बनता है कमठ से प्रभु को उपसर्ग on mo (iod For Prve Personal use only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५) इसके बाद वे पार्श्वनाथ प्रभु अणगार हुए यावत् इर्यासमिति वाले बने और उस प्रकार से आत्मा को भावित करते-करते त्यासी रात-दिन बीत गये और चौरासीवा दिन चल रहा था । तब ग्रीष्म ऋतु का प्रथम महीना, प्रथम पक्ष चैत्र मास की कृष्ण चतुर्थी के दिन चढ़ते पहोर धावडी वृक्ष के नीचे वे पार्श्व अणगार निर्जल छ? भक्त किया था, उस समय में ध्यान में लगे हुए थे 卐 तब विशाखा नक्षत्र का योग आने पर उनकों अंनत उत्तमोत्तम ऐसा केवल ज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न हुआ। १५६) पुरुषादानीय अर्हन् पार्श्वप्रभु आठ गण और आठ गणधर थे, उनके नाम इस प्रकार से है :- १. शुभ, २. आर्यघोष, ३. वसिष्ठ, ४. ब्रह्मचारी, ५. सोम, ६. श्रीधर, ७. वीरभद्र और ८. जस। १५७) पुरुषों में उत्तम पार्श्वप्रभु के समुदाय में आर्यदिन्नादि सोलह हजार साधुओं की, पुष्पचूलादि अड़तीस हजार आर्याओं की याने साध्वीजी की, सुंनद विगेरे एक लाख चौसठ हजार श्रावकों की, सुनंदा विगेरे तीन लाख सत्ताविश 30000 For Private Personal Use Only Jan a tion international Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4045 12405014050040 हजार श्राविकाओं की, साढ़े तीन सौ जिन नहीं फिर भी जिनके जैसे और सभी अक्षरों के संयोगो के ज्ञाता याने चौदह पूर्वधरों की, चौदह सौ अवधि ज्ञानियों की, एक हजार केवलज्ञानियों की, ग्यार सौ वैक्रिय लब्धि वालों की और छः सौ ऋजुमति ज्ञान वालों की उत्कृष्ट संपदा हुई। उनके एक हजार श्रमण, दो हजार आर्याएं सिद्ध बनें यानें मोक्ष में गये। उनके साढ़े सात सौ विपुलमतियों की, छः सौ वादियों की और बारह सौ अनुत्तर विमान में जाने वालों की संपदा हुई । १५८) पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्वनाथजी के समय में दो प्रकार की अंत कृदभूमि हुई वो इस प्रकार से एक तो युगांतकृत और | दूसरी पर्यायांतकृत भूमि, अरिहंत पार्श्वप्रभु से चौथे युग पुरूष तक युगान्तकृत् भूमि थी याने चौथे युग पुरूष तक मुक्ति मार्ग चला था । अरिहंत पार्श्व का केवली पर्याय तीन वर्ष का हुआ याने उनको केवलज्ञान होने के पश्चात् तीन वर्ष बीत जाने पर किसी | केवली ने संसार का अंत किया अर्थात् पार्श्वप्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न होने के तीन साल पश्चात् मोक्ष मार्ग प्रारंभ हुआ इस समय को पर्यायातकृद् भूमि कहते है। १५९) उस काल और समय में तीस वर्ष तक गृहवास में रहकर, त्यासी रात-दिन छद्मस्थ पयार्य को प्राप्त करके, | संपूर्ण नहीं किन्तु थोडे न्यून सित्तर वर्ष तक के केवली पर्याय का पालन कर, संपूर्ण सित्तर वर्ष तक श्रामण्य पर्याय 132 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O90 पार्वनाथ प्रभु को केवल ज्ञान पाश्र्वनाथ भगवान का समवसरण intere For Sale Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ प्रभु का निर्वाण - सम्मेत शिखर तीर्थ For Prve & Personal use only 134 www.gey.ory Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 प्राप्त करके कुल सो वर्ष का अपना आयुष्य पालकर वेदनीय, आयु, नाम, और गोत्र का क्षय होने पर दुःषम ॐ सुषमा नाम की अवसर्पिणी बहुत सारी बीतने पर, वर्षा ऋतु का प्रथम महीना, दूसरा पक्ष याने श्रावण शुक्ल आठम के दिन संमेत शैल के शिखर पर अपने सहित चोतीस याने तेतीस अन्य और स्वंय चोतीसवे पुरूषादानीय अर्हन पार्श्व निर्जल मासखमण का तप कर चढ़ते पहोर, विशाखा नक्षत्र का योग आने पर लम्बे 卐 रक्खे हैं हाथ जिन्होंने ऐसे ध्यान में रहे हुए काल धर्म पाये यावत् सर्व दुःखो से मुक्त बने । 000000000000 OF卐000000000 १६०) पुरुष प्रधान अर्हन् श्रीपार्श्वनाथ के निर्वाण काल से बारह सौ साल व्यतीत हुए और तेहरवे सैके का तीसवॉ साल (संवत्सर) काल चल रहा है। याने श्री पार्श्व प्रभु के निर्वाण काल से बारह सौ तीसवें साल श्री कल्पसूत्र पुस्तका रूढ हुआ अथवा सभा समक्ष पढा गया । HEL Only For Private Personale i on international Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3000000000 柳先初步 श्री नेमिनाथ प्रभु का चरित्र १६१) उस समय और उस काल में अर्हन अरिष्टनेमि के पांच प्रसंग चित्रा नक्षत में हए। वे इस प्रकार से थे:अर्हन् अरिष्ट नेमिनाथजी का च्यवन चित्रा नक्षत्र में हुआ, वे च्यवकर चित्रा नक्षत में जन्मे, इत्यादि नक्षत्र के पाठ सह अन्य प्रसंगो के साथ चित्रा में उनका परिनिर्वाण हुआ । १६२) उस समय और उस काल में अर्हन् अरिष्टनेमि वर्षा ऋतु का चतुर्थ मास, सातवॉ पक्ष यानी कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की बारस को जहाँ देवों की उत्कृष्ट स्थिति बतीस सागरोपम की है। ऐसे अपराजित नाम के महाविमान से तुरन्त ही च्यवकर यहॉ ही जम्बनाम के द्वीप में भरत क्षेत्र के शौर्यपुर नगर में समुद्र विजय राजा की पत्नी शिवादेवी की कुक्षि में मध्य रात्रि में चित्रा नक्षत्र में चन्द्रमा का योग प्राप्त होने पर गर्भ के रूप में उत्पन्न हुए यहाँ शिवादेवी माता का चौदह स्वप्न देखना, कुबेर की आज्ञा से तिर्यग् जुंभक देवों का धनवृष्टि करना इत्यादि सर्व वृतान्त श्री महावीर प्रभु की तरह जानना । १६३) उस समय और उस काल में वर्षा ऋतु का प्रथम महीना दूसरा पक्ष यानी श्रावण महीने का शुक्ल पक्ष में समय Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नेमिनाथ भगवान शिवादेवी माता को 14 स्वप्न an a nmintes For Pover tue oily Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुधशाला में नेमिनाथ चक्र, धनुष्य, गदा शंख के साथ खेल, बलवान कौन इसकी परीक्षा कृष्ण की पट्टराणियों से नेमिनाथ को शादी के लिए मनाते हैं m utat on inte For Private Per e chy Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावण सुद पांचम की रात्रि को नौ मास पूरे होने पर यावत् गर्भ स्थिति पूर्ण होने पर, चित्रा नक्षत में चन्द्रमा का योग प्राप्त होने पर, पीड़ा रहित ऐसी शिवादेवी ने पुत्र जन्म दिया । यहाँ जन्म महोत्सव इत्यादि श्री महावीर प्रभु की भांति श्री नेनिनाथ प्रभु के नाम से कहना, तथा जन्म महोत्सव समुद्र विजय ने किया तथा उनका नाम अरिष्ट नेमिकुमार हो ऐसा समझना । (164) अर्हन् अरिष्टनेमि दक्ष थे । वे तीन सौ वर्ष तक गृहवास में रहे । उसके पश्चात अपने आचार के अनुसार लोकांतिक देवों ने उन्हें उद्बोधन किया इत्यादि सारा वर्णन पूर्व की भांति समझना । अब वर्षा ऋतु का प्रथम मास, दूसरा पक्ष याने श्रावण शुक्ल पक्ष आया तब श्रावण शुक्ल छट्ट के दिन चढते पहोर जिनके पिछे देव, मनुष्य और असुरों की मण्डली चल रही है, ऐसे अरिष्ट नेमि उत्तरकुरा नाम की शिबिका में बैठकर द्वारिका नगरी के बिचोबिच होकर जहाँ रैवत नामक उद्यान है, वहाँ आते है। वहाँ आकर अशोक नामक उत्तम वृक्ष के नीचे शिबिका को खड़ी रखते है। उसके पश्चात् उस शिबिका से नीचे उतरते है। फिर स्वंय आभूषण elated For me t o Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालाएँ एवं अलंकारो को उतारकर स्वंय पंचमष्टि लोच करते है, लोच करके निर्जल छट्ट याने दो दिन के 3 उपवास करके चित्रा नक्षत का योग आने पर देव दूष्य वस्त्र ग्रहण कर, दूसरे हजारों पुरूषो के साथ मुंड होकर गहवास से निकल कर अनगारपनेको स्वीकार किया । . १६५) अर्हन् श्री अरिष्टनेमि ने चोपन दिन ध्यान में रहकर हमेशा काया की शुश्रुषा का लक्ष्य छोड दिया था ॐ तथा शारीरिक वासनाओं का भी त्याग कर दिया । इत्यादि सब जैसा पूर्व वर्णन किया वैसा जानना । अर्हन् श्री अरिष्टनेमि ने इस प्रकार के ध्यान में रहते हुए पचपन रात दिन बीताये । वे जब इस प्रकार पंचपनवे रात 3 दिन के मध्य थे तब उस वर्षा ऋतु का तीसरा महीना, पांचवा पक्ष याने आश्विन कृष्ण अमावस्या के दिन के 卐 पिछले भाग में उज्जयंतगिरि याने गिरनारपर्वत पर वेलस वृक्ष नीचे चौविहार अट्ठम तप युक्त टीक उस समय * चित्रा नक्षत्र का योग आने पर उन्होंने अनन्त वस्तु विषयक केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त किया । अब वे समस्त द्रव्य और उनके तमाम पर्यायों को देखते विचरण करते है। 00000000000 140 meramananmigs Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PCla नेमिनाथ की शादी का वरघोड़ा, रथ वापस लौटा नेमिनाथ प्रभु का दीक्षा का वरघोड़ा J ESinternational Fort una Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain grapon Internal नेमिनाथ प्रभु की दीक्षा नेमिनाथ प्रभु का समवसरण तीर्थ स्थापना 142 y.org Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६) अर्हन् श्री अरिष्ट नेमिनाथ के अठारह गण और अठारह गणधर थे । अर्हन् श्री अरिष्ट नेमिनाथ के वरदत्त ॐ विगेरे अठारह हजार साधुओं की, आर्य यक्षिणि विगेरे चालीस हजार आर्याओं याने साध्वियों की उत्कृष्ट संपदा हुई & । नंद विगेरे एक लाख और उगणसितरे हजार श्रावकों की, महासुव्रता आदि तीन लाख छत्तीस हजार श्राविकाओं की, ★ जिन नहीं किन्तु जिनके समान तथा सर्व अक्षरों के संयोगों की अच्छी तरह से जानने वालें ऐसे चार सौं चौदह पूर्वियों १६३) उस समय और उस काल में वर्षा ऋतु का प्रथम महीना दूसरा पक्ष यानी श्रावण महीने का शुक्ल पक्ष में समय श्रावण की, पन्द्रह सौं अवधिज्ञानियों की, पन्द्रह सौं केवल ज्ञानियों की, पन्द्रह सौ विक्रिय लब्धिवालों की, एक हजार - विपुलमति ज्ञानवालों की, आठ सौ वादियों की, और सोलह सौ अनुत्तरोंपपातिकों की उत्कृष्ट संपदा हुई । इनके पन्द्रह 9 सौ श्रमण याने साधु और तीन हजार साध्वियो सिद्ध हुई। (१६७) अर्हन श्रीअरिष्ट नेमि के समय में दो प्रकार की अंतकृद् भूमि हुई। अर्थात श्री नेमिनाथ प्रभु के शासन में मोक्षगामियों के मोक्ष में जाने के काल की मर्यादा दो प्रकार से हुई। वह इस प्रकार युगांतकृद् भूमि व पर्यायंतकृद् भूमि * । अर्हन् श्रीअरिष्ट नेमिप्रभु के पश्चात् आठवे युगपुरूष तक निर्वाण का मार्ग चला यह उनकी युगान्तकृद् भूमि थीं। अर्हन 00000000000 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अरिष्ट नेमिप्रभु को केवलज्ञान होने के दो वर्ष पश्चात् निर्वाण मार्ग प्रारंभ हुआ याने उनकी पर्यायंतकृद् भूमि हुई। (१६८) उस काल और उस समय में अर्हन् श्री अरिष्ट नेमिप्रभु तीन सौ वर्ष तक कुमारावस्था में रहे, चोपन Q रात-दिन छद्मस्थ पर्याय में रहे संपूर्ण पूरे नहीं कुछ कम सात सौ वर्ष तक केवली स्थिति में रहे । इस प्रकार संपूर्ण सात सौ वर्ष तक श्रामण्य पर्याय को पाल कर उन्होंने अपना एक हजार वर्ष तक का आयुष्य पाकर वेदनीय, आयुष्य, नाम और गौत्र कर्म ये चार कर्म संपूर्ण क्षीण हो गये तब दुःषम सुषमा नाम की अवसर्पिणी बहुत सारी व्यतीत होने पर जब ग्रीष्म ऋतु का चौथामास आठवा पक्ष याने आषाढ़ सुदि आठम के दिन उज्जित शैल के शिखर पर उन्होंने दूसरे पांच सौ छत्रीस अणगारों के साथ निर्जल मासखमण तप तपकर के जब चित्रानक्षत्र का योग आने पर रात के पूर्व और पिछे का भाग जुडने पर मध्य रात में पद्मासन में बैठे हुए काल धर्म पाये, यावत् सर्व दुःख से मुक्त हुए । (१६९) अर्हन् अरिष्ट नेमिप्रभु के निर्वाण काल से चौरासी हजार वर्ष बीत जाने पर पंचासी हजार साल के भी नौ सौ वर्ष व्यतीत हुए । और पंचासीवे हजार के दसवे सैके का यह अस्सीवा संवत्सर काल जा रहा है। Niction International 144 40 1500 40 500 40 500 1400 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नेमिनाथ प्रभु का निर्वाण स्थल - गिरनार तीर्थ van een intega 145) Goog Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्र श्री अजितनाथ प्रभु से नमिनाथ प्रभु - 20 तीर्थकर For Private & Personal the Only 146 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 500 40 500 40 4500 40 (१७०) अर्हन् अरिष्ट नेमिप्रभु के निर्वाण काल से पांच लाख चोरासी हजार और नौ सौ वर्ष व्यतीत हुए और पंचाशीवें हजार के दसवे सैके का यह अस्सीवा संवत्सर काल जाता है। (१७१) अर्हन् श्री मुनिसुव्रत स्वामी के निर्वाण काल से ग्यारह लाख चौराशी हजार और नौ सौ वर्ष व्यतीत हुए और दसवे सैके का यह अस्सीवा संवत्वर काल जा रहा है। (१७२) अर्हन श्रीमल्लीनाथ प्रभु के निर्वाण काल से पैंसठ लाख चोरासी हजार और नौ सौ वर्ष व्यतीत सैके का यह अस्सीवा संवत्सर काल जा रहा है। International हुए, (१७३) अर्हन् श्रीअरनाथ प्रभु के निर्वाण काल से एक हजार करोड़ वर्ष व्यतीत हुए । अवशेष पाठ श्री मल्लीनाथ प्रभु की तरह समझना, और वह इस प्रकार है- अर्हन् अरनाथ प्रभु के निर्वाण गमन पश्चात् एक हजार क्रोड वर्ष व्यतीत होने पर श्री मल्लीनाथ प्रभु का निर्वाण और अर्हन् श्री मल्लीनाथ प्रभु के निर्वाण बाद पैंसठ लाख चोरासी हजार वर्ष बीत जाने पर श्री महावीर प्रभु का निर्वाण पाये उसके बाद नौ सो अस्सी वर्ष होने पर अब यह दसवे सैका का दसवे 4050140500 40 500 40 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (卐000 Bअस्सीवां वर्ष जा रहा है। इसी प्रकार श्रेयांसनाथ प्रभु तक समझना (१७४) अर्हन् श्रीकुंथुनाथ प्रभु के निर्वाण काल से एक पल्योपम क चौथा भाग व्यतीत हुआ । उसके बाद पैंसठ लाख वर्ष विगेरे पाठ श्री मल्लीनाथ प्रभु की तरह समझना । (१७५) अर्हन् श्री शान्तिनाथ प्रभु के निर्वाण काल से पौना पल्योपम व्यतीत हुआ । उसके बाद पैंसठ लाख वर्ष विगेरे पाठ श्री मल्लीनाथ प्रभु की तरह समझना । (१७६) अर्हन् श्री धर्मनाथ प्रभु के निर्वाण काल से तीन सागरोपम व्यतीत हुआ । उसके बाद पैंसठ लाख वर्ष विगेरे पाठ श्री मल्लीनाथ प्रभु की तरह समझना । 7 (१७७) अर्हन् श्री अनंतनाथ प्रभु के निर्वाण काल से सात सागरोपम व्यतीत हुऐ । उसके बाद पैंसठ लाख वर्ष विगेरे पाठ श्री मल्लीनाथ प्रभु की तरह समझना । (१७८) अर्हन् श्री विमलनाथ प्रभु के निर्वाण काल से सोलह सागरोपम व्यतीत हऐ । उसके बाद पैंसठ लाख *148 000000000000 है Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 वर्ष विगेरे पाठ श्री मल्लीनाथ प्रभु की तरह समझना । 卐 (१७९) अर्हन् श्री वासुपूज्यस्वामी प्रभु के निर्वाण काल से छयालीस सागरोपम व्यतीत हुऐ । उसके बाद 2 पैंसठ लाख वर्ष विगेरे पाठ श्री मल्लीनाथ प्रभु की तरह समझना । * (१८०) अर्हन् श्री श्रेयांसनाथ प्रभु के निर्वाण काल से एक सौ सागरोपम व्यतीत हुऐ । उसके बाद पैंसठ लाख वर्ष इत्यादि पाठ श्री मल्लीनाथ प्रभु की भांति समझना । (१८१) अर्हन् श्री शीतलनाथ प्रभु के निर्वाण काल से बयालीस हजार तीन वर्ष साड़े आठ मास न्यून एक कोटि सागरोपम व्यतीत हुऐ । उस समय में श्री महावीर प्रभु का निर्वाण हुआ । उसके बद भी नौ सो साल व्यतीत हए और दसवे सैके का यह अस्सी वा संवत्सर काल चल रहा है। (१८२) अर्हन् श्री विधिनाथ प्रभु के निर्वाण काल से दश कोटि सागरोपम व्यतीत हए, शेष पाठ श्री शीतलनाथ प्रभु की तरह समझना । वह इस प्रकार श्री विधिनाथ प्रभु के निर्वाण के बाद बयालीस हजार तीन वर्ष और साडे 00000000 1495 For Private Personal use only ww Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -00卐000000 आठ मास न्यून ऐसे दस कोटी सागरोपम व्यतीत हऐ, उस समय में श्री महावीर स्वामी प्रभु का निवार्ण हआ और उसके बाद नव सौ वर्ष बीत गये इत्यादि पाठ उपर्युक्त अनुसार समझना। (१८३) अर्हन् श्री चन्द्रप्रभस्वामी के निर्वाण काल से एक सौ क्रोड सागरोपम व्यतीत हए, शेष पाठ श्री शीतलनाथ प्रभु की तरह समझना। वह इस प्रकार बयालीस हजार तीन सौ वर्ष साड़े आठ मास न्यून ऐसे एक सौ क्रोड सागरोपम व्यतीत हए, उस समय में श्री महावीर प्रभ का निर्वाण हआ उसके पश्चात् नौ सौ वर्ष बीत गये इत्यादि सब ऊपर कहे अनुसार समझना।। (१८४) अर्हन् श्री सुपार्श्वनाथ प्रभु के निर्वाण काल से एक हजार क्रोड सागरोपम व्यतीत हुए, शेष पाठ श्री शीतलनाथ प्रभु की तरह समझना । वह इस प्रकार बयालीस हजार तीन वर्ष और साड़े आठ मास न्यून ऐसे एक हजार क्रोड सागरोपम व्यतीत हुआ, तभी श्री महावीर प्रभु का निर्वाण हुआ इत्यादि सब ऊपर प्रमाण समझना। 0000000卐049 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 प्रभु की तरह समझना । वह इस प्रकार बयालीस हजार तीन वर्ष और साड़े आठ मास न्यून ऐसे दस हजार क्रोड सागरोपम व्यतीत हए, तब श्री महावीर प्रभु का निर्वाण हुआ इत्यादि सब उपर्युक्त अनुसार समझना। (१८६) अर्हन् श्री सुमतिनाथ प्रभु के निर्वाण काल से एक लाख क्रोड सागरोपम व्यतीत हुए, शेष पाठ श्री * शीतलनाथ प्रभु की तरह समझना । वह इस प्रकार श्री सुमतिनाथ प्रभु के निर्वाण काल के बाद बयालीस हजार तीन वर्ष और साड़े आठ मास न्यून ऐसे एक लाख क्रोड सागरोपम के बाद श्री महावीर प्रभु का निर्वाण हुआ । इत्यादि सब ऊपर लिखे अनुसार समझना। (१८७) अर्हन् श्री अभिनंदनस्वामी के निर्वाण काल से दस लाख क्रोड सागरोपम व्यतीत हए, शेष पाठ श्री शीतलनाथ प्रभु की तरह समझना । वह इस प्रकार श्रीअभिनंदन स्वामी के निर्वाण काल के बाद बयालीस हजार तीन वर्ष और साड़े आठ मास न्यून ऐसे एक लाख क्रोड सागरोपम व्यतीत हुए तब श्री महावीर प्रभु का निर्वाण हआ इत्यादि सब उपर्युक्त भांति समझना । 151 400500040 For Private Personal use only wwviller Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 (१८८) अर्हन् श्री संभवनाथ के निर्वाण काल से बीस लाख क्रोड सागरोपम व्यतीत हुए, शेष पाठ श्री शीतलनाथ प्रभु की तरह समझना । वह इस प्रकार श्री संभवनाथ प्रभु के निर्वाण काल के बाद बयालीस हजार तीन वर्ष और साड़े आठ मास न्यून ऐसे दस लाख क्रोड सागरोपम व्यतीत होने पर श्री महावीरस्वामी का 5 निर्वाण हुआ इत्यादि सब प्रथम कहे अनुसार समझना । ONCE卐卐 (१८९) अर्हन् श्री अजितनाथ के निर्वाण काल से पचास लाख क्रोड सागरोपम व्यतीत हुए, शेष पाठ श्री है शीतलनाथ प्रभु की तरह समझना । वह इस प्रकार श्री अजितनाथ प्रभु के निर्वाण काल के बाद बयालीस 卐 हजार तीन वर्ष और साड़े आठ मास न्यून ऐसे एक लाख क्रोड सागरोपम व्यतीत होने पर श्री महावीर प्रभु का निर्वाण हुआ इत्यादि सब पूर्व लिखे अनुसार समझना । 152 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HEN SAR श्री आदिनाथ प्रभु प्रथम तीर्थकर मरूदेवा माता का 14 स्वप्न दर्शन FRPrivate spirsonal use only ungesen interest Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इयवाकुवंश की स्थापना, प्रभ का विवाह महोत्सव प्रभु द्वारा कुंभकार आदि शिल्प स्थापन AN INLESS FORivmeshrammu Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404500 405 श्री कौशलिक अर्हन् ऋषभदेव अब इस अवसर्पिणी में धर्म के प्रवर्तक होने से परम उपकारी ऐसे ऋषभदेव प्रभु का चरित्र विस्तार से वर्णन किया जा रहा है। (१९०) उस काल और उस समय में कौशलिक (यानी कोशला नगरी में जन्मे हुए) ऐसे अर्हन् श्री ऋषभदेव प्रभु के चार कल्याणक उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में हुए और पांचवा कल्याणक अभिजित् नक्षत्र में हुआ। वह इस प्रकार उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में श्री ऋषभदेव प्रभु सर्वार्थसिद्धि नाम के पांचवे अनुत्तर महाविमान से च्यवित हुए, च्यव करके गर्भ में आये । यावत् ऋषभदेव प्रभु उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में जन्मे, उन्होंने उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में दीक्षा ली, उनको उत्तराषाढा नक्षत्र में केवलज्ञान व केवलदर्शन उत्पन्न हुआ और अभिजित् नक्षत्र में मोक्ष में गये । (१९१) उस काल और उस समय में अर्हन् कौशलिक ऋषभदेव जो इस ग्रीष्मकाल का चौथा मास, सातवाँ पक्ष यानी आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की चौथ की तिथि में, जहाँ देवों की स्थिति तेंतीस सागरोपम की है, ऐसे सर्वार्थ सिद्ध महाविमान से अन्तर रहित च्यव करके इसी जंबुद्वीप नाम के द्वीप में भरत क्षेत्र में, इक्ष्वाकु नाम की भूमि में (क्योंकि उस समय गाँव नगर • आदि नहीं थे ) नाभि कुलकर की मरूदेवा भार्या की कुक्षि में मध्यरात्रि में, और देव संबंधी आहर का त्याग करके यावत् देव संबधी भव का त्याग करके और देव संबधी काया का त्याग करके, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में चन्द्र का योग प्राप्त होने पर, गर्भ के 155 ation International 405014054050040 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप में उत्पन्न हुए । (१९२) कौशलिक अर्हन् ऋषभ तीन ज्ञान से युक्त भी थे, वह जैसे “मैं च्यवुगा" ऐसा जानते है, इत्यादि सब प्रथम श्री महावीर के प्रकरण में आया है वैसा कहना यावत् “माता स्वप्न देखती है' वहाँ तक। वे स्वप्न इस प्रकार है-“गज, वृषभ'' इत्यादि । विशेष में यह कि प्रथम स्वप्न में "मुंह में प्रवेश करते वृषभ को देखती है, ऐसा यहाँ समझना । इसके सिवाय दूसरे सभी तीर्थकर की माताएँ प्रथम स्वप्न में 'मुंह में हाथी को प्रवेश करती देखती हैं । ऐसा समझना । फिर स्वप्न की जानकारी भार्या मरूदेवी,नाभि कुलकर को कहती है। यहाँ स्वप्न फल बताते वाले स्वप्न पाठक नहीं है, इसलिए स्वप्नफल नाभि कुलकर स्वय ॐ कहते हैं। (१९३) उस काल और उस समय में ग्रीष्मऋतु के प्रथम मास, प्रथम पक्ष यानी चैत्र मास की कृष्ण अष्टमी के दिन नौ महीने परिपूर्ण होने के पश्चात् उपरांत सात अहोरात बीतने के बाद यावत् उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का योग आने पर आरोग्यवाली माता ने आरोग्य पूर्वक कौशलिक अर्हन् ऋषभनाम के पुत्र को जन्म दिया । यहाँ पहले कही गई जन्म संबंधी सारी जानकारी उसी प्रकार से जानना यावत् देव और देवियोंने आकर वसुधारा बरसाई' वहाँ तक । शेष सब उसी प्रकार ही समझना । विशेष में कैदी खाने की शुद्धिकरनी, यानी कैद खाने से कैदियो को मुक्त करना, मान - उन्मान की वृद्धि करना यानी नाप तोल की बढोतरी करना, जकात - कर माफ करना, विगेर कार्य करना कुल मर्यादा पालने तथा धूसरी ऊंची करवाना, यानी खेत जोतने, गाड़ियाँ चलाना प्रमुख 000000000卐O 0 FACEU Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिनाथ का राज्याभिषेक विनीता नगरी की स्थापना प्रभु का दीक्षा वरघोडा प्रभु की दीक्षा 4 मुष्ठि लोच, श्रेयांसकुमार द्वारा पारणा Jahren Interesse For Private LPersonal use only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमी-विनमि द्वारा प्रभु की भक्ति श्री आदिनाथ प्रभु को प्रयाग तीर्थ में केवल ज्ञान Fore. Pomale on clean Intel Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरंभ के कार्य बंद करवाने इत्यादि अधिकार छोडकर (क्योंकि उस समय कैदखाने व व्यापार प्रवृति नहीं थी) शेष सर्व उसी अनुसार कहना अर्थात् श्री महावीर स्वामी के संबंधी पाठ के अनुसार समझना। (१९४) कौशलिक अर्हन् ऋषभ, जिनके पांच नाम इस प्रकार कहे जाते है- १. 'ऋषभ' २. 'प्रथम राजा' ३. 5'प्रथम भिक्षाचर' ४. 'प्रथम जिन' ५. 'प्रथम तीर्थकर' ।। (१९५) कौशलिक अर्हन् ऋषभ दक्ष थे, दक्ष प्रतिज्ञा वाले थे, उत्तम रूप वाले, सर्व गुणोपेत, भद्र और विनयवान थे । उन्होंने इस प्रकार बीश लाख पूर्व वर्ष कुमारावस्था में व्यतीत किये, उसके बाद वेसठ लाख पूर्व वर्ष तक राज्यावस्था में बिताये, राज्यावस्था में रहते उन्होंने जिनमें गणित प्रधान है, और शकुनरूत यानी पक्षियों की भाषा जानने की कला है, अन्त में जिनमे, ऐसी बहेत्तर कलाओं को, स्त्रियों की चौसठ कला और सौ शिल्प ये तीन का प्रजा के हित के लिये उपदेशे-सिखाय, इन सबको सिखाने के पश्चात् सौ राज्यों में सौ पुत्रों को अभिषिक्त किये है । उसके पश्चात् लोकान्तिक देवों ने अपने शाश्वत आचारानुसार भगवान को दीक्षा का अवसर बताते हुए 159 canon international For Private Personal use only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHINHAIRMAN विनंती की । इस प्रकार पूर्व वर्णित सारा वर्णन जान लेना । तत्पश्चात् ग्रीष्मकाल का प्रथम मास, पहला पक्ष यानी ॐ चैत्र मास के कृष्णपक्ष की अष्ठमी तिथि में दिन के पिछले प्रहर में सुदर्शना नाम की पालखी में रहे हुए रत्न-जड़ितR सुवर्ण के सिंहासन पर पूर्व दिशा के सन्मुख बैठे हुए, मनुष्य व असुरों सहित पर्षदायानी लोगों के समुदाय के द्वारा सम्यक् प्रकार से पीछे गमन कराते (अनुसराते) हए कौशलिक अर्हन् ऋषभ विनीता नगरी से निकलकर जिस ओर सिद्धार्थ नामक वन उद्यान है, अशोक का उत्तम पेड़, उस ओर आते हैं, आकर अशोक के उत्तम वृक्ष के नीचे शिबिका को रूकवाते हैं इत्यादि सब पूर्व कथनानुसार यावत् 'स्वयं ही चार मुष्टि लोच करते है वहाँ तक कहना । उस समय उन्होंने जल बिना का छट्ट (दो उपवास) तप किया हुआ था, अब उस समय में उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का योग आने पर उग्र, भोग राजन्य और क्षत्रियवंश के चार हजार पुरूषों के साथ एक मात्र देवदूष्य वस्त्र लेकर वे मंडित होकर गृहवास से निकलकर अनगार दशा को स्वीकारा । (१९६) कौशलिक अर्हन् श्री ऋषभ ने एक हजार वर्ष तक हमेशा अपने शरीर की ओर ममत्व छोड़ दिया था, 160 wwwrainelibrary.org Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। फिर जब हेमन्त ऋतु का चौथा महीना, सातवा पक्ष यानी फाल्गुण वदि ग्यारस पक्ष में दिन के पूर्व भाग में पुरिमताल नगरी के बाहर शकट नामक उद्यान में वट के उत्तम वृक्ष के नीचे रहकर ध्यान धारण करते हुए उन्होंने निर्जल अट्टम (तीन उपवास) तप किया हुआ था उस वक्त उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का योग आने पर इस प्रकार ध्यान करते हुए उन्होनें अनन्त ऐसा उत्तम केवलज्ञान -दर्शन प्राप्त किया । (१९७) कौशलिक अर्हन श्री ऋषभ के चौराशी गण और चौराशी गणधर थे। कौशलिक अर्हन् ऋषभ के ऋषभ सेन प्रमुख चौराशी हजार श्रमणों की, ब्राह्मी विगेरे तीन लाख आर्याओं की, श्रेयांस प्रमुख • तीन लाख पांच हजार श्रावकों की, सुभद्रा प्रमुख पांच लाख चोपन हजार श्राविकाओं की, जिन नहीं परन्तु जिन सद्दश चार हजार सात सो पचास चौदह पूर्वधरो की, नव हजार अवधि- ज्ञानियों की, वीश हजार केवल ज्ञानियों की, वीश हजार छः सौ वैक्रिय लब्धिवालों की, ढाई द्वीप में और दो समुद्र में रहने वाले पर्याप्त संज्ञि पंचेद्रिय के मनोभावों को जानने वाले विपुलमति ज्ञान वाले बारह हजार छः सौ पचास, वादियों की उतकृष्ट संपदा थी । कौशलिक अर्हन् ऋषभ के वीश हजार शिष्य सिद्ध हुए और उनकी चालीस हजार आर्याएँ सिद्ध हुई । कौशलिक अर्हन् ऋषभ के बाइस हजार नौ सौ कल्याण गति वाले यावत् ation International 161 40514050 40 500 40 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविष्य में कल्याण पाने वाले ऐसे अनुत्तरौपपातिकों की उत्कृष्ट संपदा हुई। (१९८) अर्हन् कौशलिक श्री ऋषभ प्रभु को दो प्रकार की अंतकृद् भूमि हुई । यानी श्री ऋषभदेव प्रभु के शासन में मोक्ष रगामियों को मोक्ष में जाने के काल की मर्यादा दो प्रकार से हुई । वह इस प्रकार युगांतकृद् भूमि व पर्यायांतकृद् भूमि । युग यानी गुरू, शिष्य, प्रशिष्यादि क्रमानुसार वर्तते पट्टधर पुरूष, उनके द्वारा प्रमित-मर्यादित जो मोक्षगामियों का मोक्ष में जाने का काल वह युगान्तकृद् भूमि कहलाती है। पर्याय यानी प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न होने के काल, उस काल के आश्रय से मोक्षगामियों का मोक्ष में जाने का काल, वह पर्यायांतकृद् भूमि कही जाती है । श्री ऋषभदेव प्रभु से लगाकर उनके पट्टधर - असंख्यात पुरूष तक मोक्ष मार्ग चालु रहा वह युगान्तरकृद भूमि । अब पर्यायन्त कृत भूमि बताते हैं अन्तमुहूर्त का है केवलीपने 3 का पर्याय जिनका ऐसे ऋषभदेव प्रभु के होने पर किसी केवली ने संसार का अन्त किया यानी श्री ऋषभदेव प्रभु को केवल ज्ञान उत्पन्न होने के बाद अन्त मुहूर्त में मरूदेवी माता अंतकृत् केवलि होकर मोक्ष में गये, अर्थात् श्री ऋषभदेव प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद अन्तमुहर्त में मोक्ष मार्ग प्रारंभ हुआ। (१९९) उस काल और उस समय में अर्हन् कौशलिक श्रीऋषभदेव प्रभु बीस लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहकर त्रेसठ लाख पूर्व तक राज्यावस्था में रहकर, इस तरह तिरासी लाख पूर्व तक गृहस्थावास में रहकर, एक हजार वर्ष तक छद्मस्थ1623 Top 10000000 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु का समवसरण तीर्थ स्थापना भरत चक्रवर्ती की आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति और मरुदेवा माता को समवसरण देख हाथी पर केवल ज्ञान Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ peapan Inter JODYS श्री आदीश्वर प्रभु का निर्वाण QW222200 श्री आदीनाथ प्रभु का निर्वाण स्थल अष्टापद तीर्थ 164 ry.org Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40501405014050010 पर्याय पालकर, एक हजार वर्ष न्यून ऐसे एक लाख पूर्व तक केवली पर्याय पालकर, इस तरह संपूर्ण एक लाख पूर्व तक चारित्र पर्याय पालकर, सभी मिलाकर चौराशी लाख पूर्व का अपना सर्व आयुष्य पूर्ण करके वेदनीय, आयु नाम और गोत्र ये चारों भवोपग्राही कर्म क्षीण होने पर, इस अवसर्पिणी में सुषम दुषमा नाम का तीसरा आरा बहुत कुछ व्यतीत होने पर यानी तीसरे आरे के तीन वर्ष साड़ा आठ मास अवशेष रहने पर जो यह हेमन्त याने शीतकाल का तीसरा महीना पांचवा पक्ष यानी माघ कृष्ण त्रयोदशी के दिन अष्टापद पर्वत के शिखर पर श्रीऋषभ अर्हन् दूसरे चौदह हजार साधुओं के साथ पानी बिना का चतुर्दश भक्त तप तपते और उस समय अभिजित नक्षत्र का योग आने पर दिन के चढते पहोर में पल्यंकासन में रहे हुऐ कालगत् हुए याने निर्वाण पाये । (२००) कौशलिक अर्हन् ऋषभ निर्वाण के तीन वर्ष साड़ा आठ महीने कम एक कोटा कोटी सागरोपम जितना समय व्यतीत होने पर श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हुआ । उसके बाद भी नौ सौ वर्ष बीत चुके और अब दसवे सैका का अस्सीवा वर्ष का समय है तब यह ग्रन्थ वाचन हुआ । 165 405405004050140 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IRANDIRTAMIL (卐00000000 स्थविरावलि (२०१) उस काल और उस समयमें श्रमणभगवान महावीर स्वामी के नौ गण और ग्याहर गणधर थे । (२०२) प्रश्न. हे भगवान् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी के नौ गण और 5ग्याहर गणधर थे ? 卐 उत्तर : १. श्रमण भगवान महवीर के सबसे बड़े शिष्य इन्द्रभूति गौतम गोत्रवाले अणगार ने पांच सौ साधुओ को वाचना दी हुई है। 2. दूसरे अग्निभूति गौतम गोत्रवाले अणगार ने पांच सौ श्रमणों को वाचना दी है 3. छोटे गौतम गोत्रीय अणगार वायुभूति अणगार ने भी पांच सौ श्रमणों को वाचना दी थी, 4. भारद्वाज गौत्रीय स्थवीर आर्य व्यक्त ने पांच सौ श्रमणों को वाचना दी थी । 5. अग्नि वैशायन गौत्रीय स्थवीर आर्य सुधर्मा स्वामी ने पांच सौ श्रमणों को वाचना दी थी, 6. वासिष्ठ गौत्रीय स्थवीर मंडित पुत्र ने साडा तीन सौ श्रमणों को वाचना दी थी, 7. काश्यप गौत्रीय स्थवीर मौर्यपुत्र ने भी साडा तीन सौ श्रमणों को वाचना दी थी, 8. गौतम गौत्रीय स्थवीर अंकपित और हारितायन गौत्रीय स्थवीर अचल भ्राता ये दोनों स्थवीर तीन सौ तीन सौ श्रमणों को वाचना देते थे, 9. कौडिन्य गौत्रीय स्थवीर आर्य मेतार्य ★ (卐0000卐ONSON - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ain E प्रभु आदिनाथ के 84 गणधर भगवंत For Pilvine & Personal Use Only 167 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जंबूस्वामी द्वारा 8 पत्नियों 500 चोरों को प्रतिबोध और दीक्षा श्री शय्यंभव भट्ट को प्रतिबोध श्री शय्यंभव भट्ट ने स्तुप में रहते हुए शांतिनाथ प्रभु का दर्शन और दीक्षा massa on Intsers For Pivate sPersonatureply Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405 और स्थवीर प्रभास ये दोनों स्थवीरों ने तीन सौ तीन सौ श्रमणों को वाचना दी थी, इस कारण से हे आर्यो ऐसा कहा जाता हैं कि श्रमण भगवान महावीर के नव गण और ग्यारह गणधर थे । (२०३) श्रमण भगवान महावीर के ये सब ग्यारह गणधर द्वादशांगी के ज्ञाता थे, चौदह पूर्व के वेत्ता थे और • समग्र गणि पिटक के धारक थे। वे सब पानी बिना एक महिना का अनशन कर राजगृह नगर में काल धर्म पाये यावत् सर्व दुःखों से मुक्त हुए। श्री महावीर 'प्रभु' के मोक्ष में जाने के पश्चात् स्थवीर इन्द्रभूति और आर्य सुधर्मा ये दोनों स्थवीर परिनिर्वाण पाये । (२०४) जो इस समय श्रमण निर्ग्रन्थ विचरण करते है-विद्यमान है वे सब आर्य सुधर्मा अनगार के संतान है यानी इनकी शिष्य संतान की परंपरा के है शेष सभी गणधर शिष्य संतान बिना के विच्छेद पाये थे । (२०५) श्रमण भगवान महावीर काश्यप गौत्रीय थे के अंते वासी शिष्य थे। । उनके अग्निवेशायन गौत्रीय स्थवीर आर्य सुधर्मा नाम ation Inters 169 404500 40 500 405 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1500010卐 अग्निवैशायन गौत्रीय स्थवीर आर्य सुधर्मा के काश्यप गौत्रीय स्थवीर आर्य जंब नाम के अन्तेवासी थे काश्यपगौत्रीय आर्य जंबू के कात्यायन गौत्रीय आर्य प्रभव नामक अन्तेवासी थे । कात्यायन गौत्रीय स्थवीर आर्य प्रभव के वात्स्यगौत्रीय स्थवीर आर्य शय्यं भव नाम के अन्तेवासी थे, 3 आर्य शय्यंभव मनक के पिता थे । आर्य शय्यंभव के तुंगियायन गौत्रीय स्थवीर जसभद्द नामक अन्तेवासी था। ___(२०६) आर्य यशोभद्र (जसभद्द) से आगे स्थवीरावली संक्षिप्त वाचना सेइस प्रकारकही हुई है: वो इस प्रकार 2 से, तुंगियायन गौत्रीय स्थवीर आर्य यशोभद्र के दो स्थवीर अन्तेवासी थे । एक माढ़र गौत्र के आर्य संभूति विजय स्थवीर और दूसरे प्राचीन गौत्र के भद्रबाह स्थवीर । माठर गौत्रीय स्थवीर आर्य संभूति विजय के गौतम गौत्रीय आर्य स्थलिभद्र अन्तेवासी थे । गौतम गौत्रीय स्थवीर आर्य स्थलिभद्र के दो स्थवीर अन्ते वासी थे, एक एलावच्च गौत्रिय स्थवीर आर्य महागिरिऔर दूसरे वासिष्ठ गोत्रीय गोत्रिय स्थवीर आर्य सुहस्ती। 170 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 2500 40 4500 40 4500 40 वासिष्ठ गोत्रीय स्थवीर आर्य सुहस्ति के दो स्थवीर अन्तेवासी थे, एक सुस्थित स्थवीर और दूसरे सुप्पडिबुद्ध स्थवीर । ये दोनों कोडिय काकंदक कहलाते थे और ये दोनो वग्धावच्च गौत्र के थे । कोडिय काकंदक तरीके प्रसिद्ध बने और व्याघ्रापत्य गोत्रवाले सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध स्थवीर के कौशिक गोत्रीय आर्य इन्द्रदिन्न नाम के स्थवीर अन्तेवासी थे । कौशिक गोत्रिय आर्य इन्द्रदिन्न स्थवीर के गौतम गोत्रीय स्थवीर आर्यदिन्न नामके अन्तेवासी थे। गौतम गोत्रिय स्थवीर आर्यदिन्न के कौशिक गोत्रिय आर्य सिंहगिरि नाम के स्थवीर अन्तेवासी थे, आर्य सिंहगिरि के जाति स्मरण ज्ञान को पाये हुए और कौशिक गोत्रिय आर्य सिंहगिरि स्थवीर के गौतम गोत्रिय आर्य वज्र नाम के स्थवीर अन्तेवासी थे । गौतम गोत्रिय स्थवीर आर्य वज्र के उत्कौशिक गोत्रिय आर्य वज्रसेन नाम के स्थवीर अन्तेवासी थे । उत्कौशिक गोत्रिय आर्य वज्रसेन स्थवीर के चार स्थवीर अन्तेवासी थे । 1. स्थवीर आर्य नागिल, 2. स्थवीर आर्य ation International 40514054050140 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोमिल, 3. स्थवीर आर्य जयंत और 4. स्थवीर आर्य तापस। स्थवीर आर्य नागिल से आर्य नागिला शाखा, स्थवीर आर्य पोमिल से आर्य पोमिला शाखा, स्थवीर आर्य जयंत 2 से जयन्ती शाखा, स्थवीर आर्य तापस से आर्य तापसी शाखा निकली । 40501405 10 500 40 (२०७) अब और आर्य यशोभद्र से आगे इस प्रकार की स्थविरावली दिखती है। तुंगिकायन गोत्रिय स्थवीर आर्य यशोभद्र के दो स्थवीर शिष्य यथापत्य यानीपुत्र समान स्थवीरअन्तेवासी प्रसिद्ध थे । 1. प्राचीन गोत्रिय आर्य भद्रबाहु स्थवीर और 2. माठर गोत्रिय आर्य संभूतिविजय स्थवीर । प्राचीन गोत्रिय आर्य भद्रबाहु पुत्र के समान, प्रसिद्ध ये चार स्थवीर अन्तेवासी थे । के 1. स्थवीर गोदास, 2. स्थवीर अग्निदत्त, 3. स्थवीर यज्ञदत्त और 4. स्थवीर सोमदत्त । ये चारों स्थवीर काश्यप गोत्रीय थे । ation International 172 40 500 40 500 40 500 40 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ETSEE BHEHREE श्री स्थुलिभद्र स्वामी का कोश्या वेश्या के यहां चौमासा सर्प के बिल के पास में, सिंह की गुफा में कुएँ के किनारे पर, मुनिवर का चातुर्मास रथिक की कला, कोश्या का कमल पर नृत्य Real intervie Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ peden International संप्रति को जन्मते ही राज्य की प्राप्ति होती है, आर्य सुहस्ति द्वारा उपदेश, सवालाख जिनालय और सवा कोड जिन प्रतिमा निर्माण संप्रतिराजा का पूर्व भव दरिद्र, खाने के लिए दीक्षा, शेठ लोग सेवा करते हैं 200 दीक्षा, रथावर्त पर्वत पर अनशन वज्र स्वामी को झोली में अर्पण, साध्वीजी के उपाश्रय में पालना, राज्य सभा में ओघा ग्रहण 174 www. Korg Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काश्यप गोत्रीय स्थवीर गोदास से यहॉ गोदास गण नामक गण निकला । उस गण की चार शाखाएँ कहलाती 21. तामलिप्तिका, 2. कोटि वार्षिका, 3. पंडुवर्द्धनिका, और 4. दासी खर्बटिका । है (२०८) माढर गोत्रिय स्थवीर आर्य संभूति विजय के पुत्र समान प्रसिद्ध ये बारह स्थवीर अन्तेवासी थे । 1. स्थवीर नंदन भद्र, 2. स्थवीर उपनंद, 3. स्थवीर तिष्यभद्र, 4. स्थवीर यशोभद्र, 5. स्थवीर सुमनोभद्र, 6. स्थवीर मणिभद्र, 7. स्थवीर पूर्णभद्र, 8. स्थवीर स्थूलिभद्र, 9. स्थवीर ऋजुमति, 10. स्थवीर जंबु, 11. स्थवीर दीर्घभद्र, 12. स्थवीर पाण्डु भद्र माढर गोत्रिय स्थवीर आर्य संभूतिविजय के पुत्री समान, प्रसिद्ध ऐसी ये सात अन्तेवासिनियाँ थी। 1. यक्षा, 2. यक्षदिन्ना, 3. भूता, 4. भूत दिन्ना, 5. सेणा. 6. वेणा और 7. रेण ये सात स्थलिभद्रजी की बहिने थी। Datict international For Private sPersonal use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०९) गौतम गोत्रिय आर्य स्थूलिभद्र स्थवीर के पुत्र के समान, प्रसिद्ध ये दो स्थवीर अन्तेवासी थे। - 1. एक एलावच्च गोत्रिय स्थवीर आर्य महागिरि, 2. वासिष्ठ गोत्रिय स्थवीर आर्य सुहस्ती एलावच्च 3 गोत्रिय स्थवीर आर्य महागिरि के पुत्र समान, प्रसिद्ध ये आठ स्थवीर अन्तेवासी थे । 1. स्थवीर उत्तर, 37 2. स्थवीर बलिस्सह, 3. स्थवीर धणड्ड, 4. स्थवीर सिरिड्ड, 5. स्थवीर कोडिन्न, 6. स्थवीर नाग, 7. स्थवीर नागमित्र और 8. षडुलूक कौशिक गोत्रिय स्थवीर रोहगुप्त । 3 कौशिक गौत्रिय स्थवीर षडुलूक रोह गुप्त से वहाँ त्रिराशिया संप्रदाय निकला । स्थवीर उत्तर से और स्थवीर बलिस्सह से वहाँ उत्तर बलिस्सह नामक गण निकला । उसकी ये चार शाखाएँ इस प्रकार है। 1. कोसंबिया, 2. सोइत्तिया, 3. कोडंबाणी. 4. चंदनागरी । । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. कोसंबिया, 2. सोइत्तिया, 3. कोडंबाणी, 4. चंदनागरी । ज (२१०) वसिष्ठ गोत्रिय स्थवीर आर्य सुहस्ति के पुत्र के जैसे प्रसिद्ध ऐसे बारह स्थवीर अन्तेवासी थे 31. स्थवीर आर्यरोहण, 2. जसभद्र, 3. मेहगणी, 4. कामिड्डि, 5. सुस्थित, 6. सुप्पडिबुद्ध, 7. रक्षित, 38. रोहगुप्त, 9. इसिगुप्त, 10. सिरिगुप्त, 11. बंभगणि, 12. सोमणि । इस प्रकार से ये बारह सुहस्ति के शिष्य थे । 3 (२११) काश्यप गोत्रिय स्थवीर आर्य रोहण से वहाँ उद्देहगण नामका गण निकला। उसकी ये चार शाखाएँ और छः कुल निकले । प्र. अब वे कौन - कौन सी शाखाएँ कहलाती है ? उ. वे शाखाएँ इस प्रकार से है, 1. उडुबरिका, 2. मासपूरिका, 3. मति पत्रिका और 4. पूर्ण पत्रिका 177NI 000000000000 | son internata Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000 15 प्र. अब कौन कौन से कुल कहलाते है ? उ. कुल इस प्रकार से हैं :- 1. नागभूत 2. सोमभूत 3.उल्लगच्छ, 4. हस्तलिप्त, 5. नंदिज्ज, और 1 6. परिहासक । उद्देहगण के ये छः कुल जानना । 8 (२१२) हारिय गोत्रिय स्थवीर सिरिगुप्त से यहाँ चारण गण नामका गण निकला । उसके ये चार शाखाएँ 卐 और सात कुल निकले हैं। प्र. अब वे कौन कौन सी शाखाएँ हैं ? * उ. वे शाखाएँ इस प्रकार से हैं 1. हारित मालागिरि, 2. संकासिका, 3.गवेधुका, और 4. वजनागरी। प्र. अब वे कौन कौन से कल कहे गये है । . उ. कुल इस प्रकार से है 1. वत्सलिज्ज, 2. प्रीतिधर्मिक, 3. हालिज्ज, 4. पुष्पमैत्रिक 5. मालिज्ज, 6. आर्य वेडक और 7. कृष्ण सह । चारणगण के ये सात कुल है। 20500050000 178 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१३) भारद्वाज गोत्रिय स्थवीर भद्रयशा से उडुवाटिका नामक गण निकला । उसकी चार शाखायें और तीन कुल निकले । 5 प्र. अब वे कौन कौन सी शाखायें है ? 3 उ. वे शाखायें इस प्रकारहैं :- 1. चंपिज्जिया, 2. भदिज्जिया, 3. काकंदिका और 4. 卐मेघहलिज्जिया । R प्र. अब वे कौन कौन से कुल हैं ? है उ. कुलों के नाम इस प्रकार से हैं: - 1. भद्रयशिक, 2. भद्रगुप्तिक, 3. यशोभद्र । उडुवाडियगण 卐के ये तीन ही कुल है Q (२१४) कुंडिल गोत्रिय कामिट्टि स्थवीर से यहाँ वेसवाड़िय नाम का गण निकला । उसकी ये चार शाखायें और चार कुल निकले है । 500500040 or Private Personal use only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OF10000050 प्र. अब वे कौन कौनसी शाखायें है ? . उ. वे शाखायें इस प्रकार है :- 1. श्रावस्तिक, 2. राज्यपालिका, 3. अन्तरिज्जिया और 4. क्षेमलिज्जिया । प्र. अब कुल कौन कौन से है ? उ. कुल इस प्रकार है :-1. गणिक, 2. मेधिक, 3. कामर्द्धिक और 4. इन्द्रपूरक । (२१५) वारिष्ठ गोत्रिय स्थवीर ऋषि गुप्त काकदिक से माणक नाम का गण निकला । उसकी ये चार शाखायें और तीन कुल निकले । प्र. अब वे कौन कौनसी शाखायें है ? उ. शाखायें इस प्रकार है:- 1. काश्यपिका, 2. गौतिमिका, 3. वाशिष्ठिका और 4. सौराष्ट्रिका । प्र. अब वे कौन कौन से कुल है ? 1803 400000000000 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 1500 40 500 40 5 उ. कुल इस प्रकार से है:- 1. ऋषिगुप्तक, 2. ऋषिदत्तिक और 3. अभिजयन्त । (२१६) व्याघ्रापत्य गोत्रीय तथा कोटिक काकंदिक उपनाम वाले स्थवीर सुस्थित और स्थवीर सुप्रतिबुद्ध से कौटिक नामक गण निकला । उसकी चार शाखायें और चार कुल निकले । प्र. अब वे कौन कौनसी शाखायें है ? उ. शाखायें इस प्रकार है:- 1. उच्चनागरी, 2. विद्याधरी, 3. वज्री और 4. मध्यमिका | प्र. अब वे कौन कौन से कुल है ? उ. कुल इस प्रकार से है:- 1. ब्रह्मलीय, 2. वत्सलीय, 3. वाणिज्य और 4. प्रश्नवाहक । (२१७) व्याघ्रापत्य गोत्रिय तथा कोटिक काकंदिक उपनाम वाले स्थवीर सुस्थित और स्थवीर सुप्रतिबुद्ध के पुत्र के समान ये पांच सुप्रसिद्ध स्थवीर अन्तेवासी थे । 1. स्थवीर आर्य इन्द्रदिन्न, 2. स्थवीर प्रियग्रन्थ, 3. काश्यपगोत्र वाले विद्याधर गोपाल, 4. स्थवीर ऋषिदत्त और 5. स्थवीर अर्हदत्त । cation International 181 40 500 40 500 40 500 40 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 500 40 4500 40 4500 40 Hhh स्थवीर प्रियग्रन्थ से मध्यम शाखा निकली । काशपगोत्रिय स्थवीर विद्याधर गोपाल से विद्याधरी शाखा निकली। (२१८) काश्यप गोत्रिय स्थवीर आर्य इन्द्र के गोतम गोत्रिय स्थवीर अज्जदिन्न अन्ते वासी थे । गौतम गोत्रिय स्थवीर अज्जदिन्न के ये दो स्थवीर पुत्र समान प्रसिद्ध शिष्य थे । स्थवीर माढर गोत्रिय आर्य शान्ति सेणिअ और जाति स्मरण ज्ञान वाले कौशिक गोत्रिय स्थवीर आर्य सिंहगिरि । माटर गोत्रिय स्थविर आर्य शांति सेणिअ से यहाँ उच्चनागरी शाखा निकली । (२१९) माढर गोत्रिय स्थविर आर्य शांतिसेणिअ के ये चार स्थविर पुत्र के समान प्रसिद्ध शिष्य थे । 1. स्थविर आर्य सेणिय, 2. स्थविर आर्य तापस, 3. स्थविर आर्य कुबेर और 4. स्थविर आर्य ऋषिपालित । स्थविर अज्जसेणिअ से अज्जसेणिया शाखा निकली । स्थविर आर्य ताप से आर्य पालित तापसी शाखा निकली स्थविर आर्य कुबेर से आर्य कुबेरी शाखा निकली। स्थविर आर्य ऋषिपालित से आर्य ऋषिपालिता शाखा sonal Use Only 182 40 500 40 500 40 500 40 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकली। 卐 (२२०) जाति स्मरण ज्ञान वाले कौशिक गोत्रिय आर्य सिंह गिरि स्थविर के ये चार स्थविर पुत्र समान 3 प्रसिद्ध शिष्य थे । 1. स्थविर धनगिरि, 2. स्थविर आर्य वज, 3. स्थविर आर्य समिअ और 4. स्थविर अर्हदत्त है ।स्थविर आर्यसमिअ आर्यवज से ब्रह्म दीपिका शाखा निकली । (२२१) गौतम गोत्रिय स्थविर आर्य वज के ये तीन पत्र के समान प्रसिद्ध शिष्य थे । 1. स्थविर आर्य वजसेन, 2. स्थविर आर्य पद्म, 3. स्थविर आर्यरथ । स्थविर आर्य वज सेन से आर्य नागिली शाखा निकली । स्थविर आर्य पद्म से आर्य पद्मा शाखा निकली। स्थविर आर्य रथ से आर्य जयंती शाखा निकली । ___(२२२) वात्स्य गोत्रिय स्थविर आर्यरथ के कौशिक गोत्रिय स्थविर आर्य पुष्पगिरि अन्तेवासी(शिष्य) थे । कौशिक गोत्रिय स्थविर आर्य पुष्पगिरि के गौतम गोत्रिय स्थविर आर्य फल्गु मित्र अन्तेवासी (शिष्य) थे । 10-300000000 en intention For Private Personal use only wmwvitam Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐ON (२२३) गौतम गोत्रिय फल्गुमित्र, वसिष्ट गोत्रिय स्थविर धनगिरि, कौत्स्य गोत्रिय शिवभूति तथा कौशिक गोत्रिय दोज्जंतकंट को मैं वंदन करता हुँ। (१) उन सबको शिर से नमन करके काश्यप गोत्रिय चित्त को वंदन करता हुँ। काश्यप गोत्रिय नक्ख को और 13 काश्यप गोत्रिय रक्ख को भी वंदन करता हूँ। (२) ॐ गौतम गोत्रिय आर्य नाग, वासिष्ट वासिष्ट गात्रिय जेहिल और माढर गोत्रिय विष्णु तथा गौतम गोत्रिय कालक को भी वंदन करता हुं । (३) 3 गौतम गोत्रिय (म) अभार को, सप्पलय को तथा भद्रक को वंदन करता हुं । काश्यप गोत्रिय स्थवीर संघ । पालित को नमस्कार करता हैं । (४) काश्यप गोत्रिय आर्य हस्ति को वंदन करता हुं । ये आर्य हस्ति क्षमा के सागर और धैर्यवान थे । तथा * ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास के शुक्लपक्ष के दिनों में काल धर्म पाये थे । (५) OF卐00000000 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Elisco Inte he वल्लभीपुर में 500 आचार्यों का मिलन और वाचना उसम्महर कल्पसूत्र कल्पसूत्र के रचयिता पू. चौदह पूर्वधर भद्रबाहु स्वामीजी For Private & Personal Live Only पुत्र शोक निवारण हेतु पूज्य श्री द्वारा ध्रुवसेन राजा से •साथ आनंदपुर नगर में सभा के समक्ष कल्पसूत्र वांचन 185 www .org Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Con 68 શહરાવ હિ प्रभु महावीर स्वामी से लगाकर देवर्षिगणि क्षमा श्रमण तक की स्थवीरावली Forpivine shrmomtureonly m cater international Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है जिनके निष्क्रमण दीक्षा लेने के समय देवों ने उत्तम छत्र धारण किया वे सुव्रत वाले, शिष्यों की लब्धि से संपन्न ॐ आर्य धर्म को वंदन करता हुं । (६) 9 काश्यप गोत्रिय हस्त को और शिव साधक धर्म को भी वंदन करता हूं | काश्यप गोत्रिय सिंह को और काश्यप गोत्रिय धर्म को भी वंदन करता हं । (७) 卐 सूत्र रूप और उसके अर्थ रूप रत्नों से पूर्ण, क्षमा संपन और मार्दव गुण संपन्न काश्यप गोत्रिय देवद्धि क्षमा श्रमण को पांचो अंगो को झुकाकर नमन करता हूं यानी पंचांग प्रणिपात करता हूं। (स्थविरावली संपूर्ण ) 187 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी 2 (२२४) उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर वर्षा ऋतु के बीश रात सहित एक महीना व्यतीत * होने पर यानी आषाढ़ चौमासा बैठने के पश्चात् पचास दिन बीतने पर पर्युषण पर्व किया है। 5 (२२५) प्र. अब हे पूज्य ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वर्षा काल के एक महीना और बीस दिन 0 पर श्रमण भगवान श्री महावीर ने चातुर्मास में पर्युषण किया है। | उ. जिस कारण प्रायः गृहस्थियों के घर सब तरफ से चटाई से ढके हुए होते है, चुने से धवलित होते है, घास विगेरे से आच्छादित किये हुए होते है, गोबर आदि से लीपे हुए होते है, चारों तरफ बाड़ से सुरक्षित किये जाते हैं, विषम भूमि को खोदकर सम किये जाते हैं, पत्थर के टुकडों कोइ घिसकर कोमल किये जाते है, सुगन्धित किये हुए होते हैं, परनाला रूप पानी जाने के मार्ग वाले किये हुए होते हैं तथा नालियाँ खुदवाई हुई 物与物与初步的 188 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4050140 40 500 40 होती है तथा उन घरों को गृहस्थों ने अपने लिये अच्छे किये हुए होते हैं, गृहस्थों ने काम में लिये हुए होते हैं और अपने रहने के लिये जीवजंतु से रहित किये हुए होते हैं, इसी कारण से कहा जाता है कि श्रमण भगवान महावीर वर्षा ऋतु के और बीस दिन बीतने पर चातुर्मास में पर्युषणा किया । (२२६ से २३०) जिस प्रकार से श्रमण भगवान महावीर ने एक महीना बीस दिन बीतनेपर पर्युषण किया । उसी प्रकार • गणधरों ने, उनके शिष्यों ने, स्थवीरों ने, श्रमण निर्ग्रन्थों ने, आचार्योंने, तथा उपाध्यायोंने, और साधु भगवन्तो ने, वर्षा ऋतु के एक महीना बीस दिन बीतने पर वर्षा (२३१) जिस प्रकार हमारे आचार्यो, उपाध्याया यावत् वर्षा वास रहे हैं । उसी प्रकार हम भी एक महीना और बीस दिन के बीतने पर पर्युषणा करते है। पाच पंचमी की रात्रि उल्लघंन करना उचित नहीं अर्थात् एक ऋतु इस समय से वर्षावास रहना उचित है, किन्तु भाद्रवा सुदि महीने सहित बीस दिन की अन्तिम रात्रि उल्लंघन करना अनुचित है, अन्तिम रात्रि के पूर्व ही वर्षावास याने पर्युषणा करना ही उचित है। tion International 189 40 500 40 4500 40 500 40 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड (२३२) चातुर्मास रहे हुए साधु-साध्वियों को चारों दिशा और विदिशाओं में एक योजन और कोस तक अर्थात् पांच कोस म तक का अवग्रह कल्पता है । उससें जितने समय में भीना हुआ हाथ सूख जाय उतना समय अवग्रह में रहना कल्पता है, परन्तु अवग्रह से बाहर रहना नहीं कल्पता है । (२३३) वर्षा काल में रहे हुए साधु-साध्वियों को चारों ओर पांच कोस तक भिक्षाचर्या जाना आना कल्पता है। जहाँ पर नित्य ही अधिक जल वाली नदी हो और नित्य बहती हो वहाँ सर्व दिशाओं में एक योजन और एक कोस तक भिक्षाचर्या के लिये जाना आना नहीं कल्पता है । कुणाला नामा नगरी के पास ऐरावती नामा नदी हमेशा दो कोश प्रमाण बहती है। वहाँ एक पैर जल में रखे और दूसरा पानी * से ऊपर रखकर चले । यदि इस प्रकार नदी उतर सकता हो तो चारों दिशाओं और विदिशा में एक योजन एक कोश तक भिक्षा निमित्ते जाना आना कल्पता है ।। (२३४) चातुर्मास में रहे हुए साधु को पहले से ही गुरू ने कहा हुआ हो कि हे शिष्य ! बीमार साधु को अमुक वस्तु ला देना तब उस साधु को वस्तु ला देनी कल्पती है किन्तु उस वस्तु को स्वंय काम में लेना नहीं कल्पता है। TO卐0000000000 190 www Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404501405 (२३५) चातुर्मास में रहे हुए कितने साधु को इस प्रकार प्रथम ही कहा हुआ हो कि हे शिष्य ! आहरादि तुं लाकर ग्रहण तो उसे लेना कल्पता है, उसे ग्लान को देना नहीं कल्पता है । करना, (२३६) चातुर्मास में रहे हुए साधु को ऐसा पहले से ही कहा हुआ हो कि हे शिष्य ! तुं ग्लान को आहरादि लाकर देना और तुं भी ग्रहण करना ऐसा कहने पर लेना-देना दोनों कल्पते है । (२३७) चातुर्मास में रहे हुए साधु-साध्वियों की जो हृष्ट-पुष्ट हो, आरोग्य वाले हो बलवान शरीर वाले हो उनको नौ रस विकृतियाँ बारंबार ग्रहण करना नहीं कल्पता । वे विकृतियाँ इस प्रकार हैं। - १. दूध, २. दही, ३. मक्खन, ४. घी, ५. तेल, ६. गुड़, ७. शहद, ८. मदिरा और ९. मांस । इससें अभक्ष्य विकृति तो कभी कल्पती ही नहीं हैं । कारण होने पर भक्षय विकृति का प्रयोग किया जाता हैं । (२३८) चातुर्मास रहे हुए साधुओं में वैयावच्च (सेवा) करने वाले मुनि ने प्रथम ही गुरू महाराज को यों कहा हुआ हो कि हे भगवन ! बीमार मुनि के लिय कुछ वस्तु की आवश्यकता हैं ? इस प्रकार सेवा करने वाले किसी मुनि के पूछने पर गुरू कहे कि - बीमार को वस्तु चाहिये ? चाहिये तो बीमार को पूछो कि दूध आदि तुम्हे कितनी विगई की आवश्यकता है ? बीमार ation International 191 4045 14050040 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 500 40 500 40 150040/ को अपनी आवश्यकतानुसार प्रमाण बतलाने पर उस सेवा करने वाले मुनि को गुरू के पास आकर कहना चाहिये कि बीमार को इतनी वस्तु की आवश्यकता हैं । गुरू कहे जितना प्रमाण वह बीमार बतलाता है, उतने प्रमाण में वह विगइ तुम ले आना। फिर सेवा करने वाला वह मुनि गृहस्थ के पास में जाकर मांगे । मिलने पर सेवा करने वाला मुनि जब उतने प्रमाण में वस्तु मिल गई हो जितनी बीमार को आवश्यकता है, तब कहे कि बस करो । गृहस्थ कहे- 'भगवन्' बस करो ऐसा क्यों कहते हो ? तब मुनि कहे- 'बीमार' को इतनी ही आवश्यकता हैं, इस प्रकार कहते हुए साधु के कदाचित् गृहस्थ कहे कि हे आर्य साध ! आप ग्रहण कीजिये, बीमार के भोजन करने के बाद जो बचे सो आप खा लेना, दूध आदि पी लेना, ऐसा गृहस्थ के कहने पर अधिक लेना कल्पता है । परन्तु बीमार के निश्राय से, लोलुपता से अपने लिये लेना नहीं कल्पता है। (२३९) चातुर्मास में रहे हुए साधुओं को उस प्रकार के अनिन्दनीय घर जो कि उन्होंने या दूसरो ने श्रावक किये हो, प्रत्ययवन्त या प्रीति पैदा करने वाले हों या दान देने में स्थिरता वाले हों या मुझे निश्चय ही मिलेगा ऐसे निश्चय वाले हों, जहाँ सर्वमुनियों का प्रवेश सम्मत हो, जिन्हें बहुत साधु समत हों, या जहाँ घर के बहुत से मनुष्यों को साधु सम्मत हों तथा जहाँ दान देने की आज्ञा दी हुई हो, या सब साधु समान है ऐसा समझकर जहाँ छोटा शिष्य भी इष्ट हो, परन्तु मुख देखकर तिलक 192 140501405014050040 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न किया जाता हो, वैसे घरों में आवश्यकीय वस्तु के लिये बिन देखे ऐसा कहना नहीं कल्पता कि हे आयुष्मान ! यह वस्तु है? इस तरह बिन देखी वस्तु को पूछना नहीं कल्पता हैं। प्र. हे भगवन् ! 'उनको ऐसा कहना नहीं कल्पता' ऐसा क्यों कहते हो ? ऐसा कहने से श्रद्धावाला श्रावक उस वस्तुओं नई लाता हैं खरीदता है उस वस्तु की चोरी करके भी ला सकता है। (२४०) वर्षावास में रहे हुए नित्यभोजी साधु को गोचरी के समय आहार पानी के लिये गृहस्थ के घर एक बार जाना कल्पता है, परन्तु यदि आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी या बीमार की सेवा करने हेतु और जिनके डाढ़ी या बगल के बाल (केश) नहीं आये हों ऐसे छोटे साधु या साध्वी के लिये या आचार्यादि की सेवा का कारण हो तो एक से अधिक बार भी भिक्षा के लिये जाना * कल्पता है और उपर्युक्त साधु साध्वी छोटी हो तो पण एक से अधिक बार भिक्षा के लिये जाना कल्पता है। ____चातुर्मास में रहे हुए एकान्तर उपवास करने वाले साधुओं को जो अब कहेंगे सो विशेष है । वह प्रातः गोचरी जाने के लिये उपाश्रय से निकलकर पहले ही शुद्ध प्रासुक आहार लाकर खाकर-पीकर, पात्रों को निर्लेप करके वस्त्र से पोंछकर प्रमार्जित करके, धोकर यदि वह चला सके तो उतने भोजन में उस दिन रहना कल्पता है। यदि वह साधु आहार कम होने से न चला सकता हो तो उसे दूसरी बार भी आहार पानी के लिए गृहस्थ के घर जाना आना कल्पता है । (SOS卐0000 193-3 ValesPersonali Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४२)(चातुर्मास रहे नित्य छट्ट करने वाले साधु को गृहस्थ के घर आहार पानी हेतु दो बार जाना-आना कल्पता है । (२४३) चातुर्मास रहे नित्य अट्ठम करने वाले साधु को गृहस्थ के घर आहार गोचरी के लिये तीन बार जाना आना कल्पता 1000Reso (२४४) चातुर्मास रहे नित्य अट्टम उपरान्त तप करने वाले साधु को गृहस्थ के घर आहार पानी के लिये सर्व काल में जाना-आना कल्पता है। (२४५) चातुर्मास रहे नित्य भोजन करने वाले साधु को सभी प्रकार के पानी लेना कल्पता है। (२४६) चातुर्मास रहे हुए एकान्तरे उपवास करने वाले साधु को तीन प्रकार का पानी कल्पता है, उत्स्वेदिम, संस्वेदिम, 3 चावलोदक । | (२४७) चातुर्मास में रहे हुए छट्ट करने वाले साधु को तीन प्रकार का पानी कल्पता है, तिलोदक, तुषोदक याने अनाज के धोवण का पानी और जवोदक । (२४८) चातुर्मास रहे हुए अट्टम करने वाले साधु को तीन प्रकार का पानी कल्पता है, - आयाम, (ओसामण), सौवीर Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐00卐卐0 उ (कांजी का पानी) और शुद्ध विकट (गर्म) पानी । म (२४९) चातुर्मास रहे हुए अट्ठम भक्त से अधिक तप करने वाले साधु को गरम पानी लेना कल्पता है, और वह भी आटे चावल अन्य अन्नादि का अंश बिना का दाने कण का नहीं कल्पता है । (२५०) चातुर्मास रहे हुए उपवास के तपस्वी साधु सिर्फ उष्ण जल ही ले सकते है। वह भी दाना या अनाज कण बिना का पानी कपड़े से छना हुआ, वह भी परिमित मापसर, वह भी पर्याप्त पूर्ण । (२५१) चातुर्मास रहे हुए दत्ति की संख्या अभिग्रह करने वाले साधु को भोजन की पांच दत्ति और पानी की पाँच दत्ति, या भोजन की चार दत्ति और पानी की पाँच दत्ति अथवा भोजनकी पाँच और पानी की चार दत्ति लेनी कल्पती है। थोड़ा या अघि क जो एक बार दिया जाता है उसे दत्ति कहते है। उसमें नमक की एक चुट की प्रमाण भोजनादि ग्रहण करते हुए एक दत्ति समझना चाहिये । इस प्रकार दत्ति स्वीकार करने के पश्चात् साधु को उसी भोजन से निर्वाह करना रहता है, उस साधु को दूसरी बार गृहस्थ के घर की ओर आहार पानी के लिये जाना नहीं करता । (२५२) चातुर्मास में रहे हुए निषेध घर का त्याग करने वाले साधुओं को उपाश्रय से लगाकर सात घर तक जहां भोजन 1952 Pet International Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनता हो वहां जाना नहीं कल्पता । कितनेक ऐसा कहते है कि उपाश्रय से लगाकर आगे आये हुए घरों में जहां भोजन बनता है वहां निषेध घर का त्याग करने वाले साधु-साध्विओं को जाना कल्पना नहीं। कितनेक फिर इस प्रकार से कहते हैं कि उपाश्रय से लगाकर परम्परा से आये हुए घरों में जहां भोजन बनता हो वहां निषेध घर का त्याग करने वाले कहते है कि उपाश्रय * से लगाकर परम्परा से आये हुए घरों में जहां भोजन बनता हो वहां निषेध घर का त्याग करने वाले साधु-साध्वियों को जाना नहीं कल्पता । (२५३) वर्षाकाल में रहे हुए करपात्री साधु-साध्वी को कण मात्र भी स्पर्श होता हो इस प्रकार वरसाद गिरता हो अर्थात् । धूंध, ओस विगेरे अप्काय गिरने पर गृहस्थ के घर भोजन पानी के लिए जाना आना नहीं कल्पता । 3 (२५४) चातुर्मास रहे हुए कर पात्री जिनकल्पी आदि साधु को अनाच्छादित जगह में भिक्षा ग्रहण करके आहार करना नहीं 卐कल्पता । अनाच्छादित स्थान में आहार करते हुए यदि अकस्मात् वृष्टि पडे तो भिक्षा का थोड़ा हिस्सा खाकर और थोडा हाथ @ में लेकर उसे दूसरे हाथ से ढ़ककर रक्खे या कक्षा में ढक रखे, इस प्रकार करके गृहस्थ के आच्छादित स्थान तरफ जावे या वृक्ष के मूल तरफ जावे कि जिस जगह उस साधु के हाथ पर पानी के बिन्दु REC4 0000000019 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • विराधना न करें, न पड़े । यद्यपि जिनकल्पी आदि कुछ कम दश पूर्वधर होने से प्रथम से ही वृष्टि का उपयोग कर लेते हैं इससे आधा खाने पर उठना पड़े यह संभवित नहीं हैं फिर भी छद्मस्थता के कारण कदाचित् अनुपयोग भी हो जावे । (२५५) चातुर्मास रहे हुए करपात्री (जिनकल्पी) साधु को कुछ कणमात्र भी स्पर्श हो इस प्रकार कम से कम सूक्ष्मतया गिरती वर्षा के समय आहार पानी के लिये गृहस्थ के घर की ओर जाना कल्पता नहीं । (२५६) चातुर्मास में रहे हुए पात्रधारी स्थवीर कल्पी आदि साधु को अविछिन्न धारा से वृष्टि होती हो अथवा जिससे वर्षा न काल में ओढ़ने का कपड़ा पानी से टपकने लगे या कपडे को भेदन कर पानी अन्दर के भाग में शरीर को भिगोवे तब गृहस्थ के घर के आहार पानी के लिये जाना नहीं कल्पता । कम बरसात बरसता हो तब अन्दर सूती कपड़ा और ऊपर ऊन का कपड़ा ओढकर भोजन-पानी के लिए गृहस्थ के घर जाना साधु को कल्पता है । (२५७) चातुर्मास में रहे हुए और भोजनार्थ गृहस्थ के घर में प्रवेश किये हुए साधु-साध्वी रह रहकर अन्दर से बरसाद । गिरता हो तब बगीचें में या पेड़ के नीचे जाना कल्पता हैं । उपर्युक्त स्थान पर जाने के पश्चात् अगर वहाँ साधु-साध्वी के पहुँचने के पूर्व ही पहेले से तैयार किये हुए भात (चावल) और बाद में पकाना प्रारंभ मसूर की दाल, उदड़ की दाल या • तेलवाली दाल हो तब उसे भात लेना कल्पता है किन्तु मसूरादि दाल लेना नहीं कल्पता है। Cation International 197 1405014050140500140 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140501405014050140) वहाँ अगर उनके पहुँचने के पूर्व पहेले ही तैयार किये हुए दालादि मिलते हो और चावल उनके पहुँचने के पश्चात् तैयार किये हुए हो तो उनको दालादि लेना कल्पता है किन्तु चावलादि लेना कल्पता नहीं हैं। वहाँ उनके पहुँचने के पूर्व दोंनो वस्तुएँ तैयार की हुई हो तो उन्हें लेना कल्पता हैं। वहाँ उनके पहुँचने के पूर्व पहले से तैयार किये हुए हो तो उन्हें लेना कल्पता हैं, और उनमें से जो जाने के पश्चात् बनाया हुआ हो उनको लेना नहीं कल्पता । (२५८) चातुर्मास में रहे हुए और भिक्षा लेने की वृत्ति से गृहस्थ के घर में गये हुए साधु-साध्वियों को जब रूक रूक कर अन्तर से बरसाद बरसता हो तब उसे या तो बाग के पीछे या उपाश्रय के नीचे, चौपाल के नीचे, पेड़ के मूल में चला जाना कल्पता हैं। वहाँ जाने के पश्चात् भी पूर्व ग्रहण किया हुआ आहर और पानी रक्ख कर समय व्यतीत करना उचित नहीं, वहाँ पहुँचते, ही आहार को खाकर पात्र को साफ कर एक स्थान पर अच्छी तरह से बांधकर सूर्य शेष हो तब वहाँ से उपाश्रय की ओर जाना कल्पता है किन्तु रात वहाँ व्यतीत करना कल्पता नहीं हैं। (२५९) वर्षा काल में रहे हुए और आहारार्थे गृहस्थ के घर में प्रवेश किये हुए साधु-साध्वियों को जब रूक रूक कर अन्तर से बरसाद बरसता हो तब आराम (बगीचे) के नीचे या उपाश्रय के नीचे याव्त चला जाना उचित है। 198 40501405014050140 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. वहाँ वह अकेला साधु और अकेली साध्वी को साथ में रहना नहीं कल्पता । २. वहाँ अकला साधु आर दा साध्विया का साथ म धु और दो साध्वियों को साथ में रहना नहीं कल्पता । ३. वहाँ दो साधु और एक साध्वी को साथ रहना नहीं कल्पता हैं। ४. वहाँ दो साधु और दो साध्वियों को भी साथ रहना नहीं कल्पता । वहाँ कोई पांचवा साक्षी रहना चाहिये, फिर वह बाल साधु या बाल साध्वी अथवा दूसरे लोग उन्हें देख सकते हो दूसरो के दृष्टिगत होते हो अथवा घर के चारों तरफ के दरवाजे खुले हो ऐसी अवस्था में उन्हें अकेला रहना कल्पता 50% 0% (२६०) चातुर्मास में रहे हए और आहारादि लेने के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश किये हए साधु को जब रूक रूककर वर्षा बरसती हो तब उसे बगीचे के नीचे या उपाश्रय के नीचे चला जाना चाहिये । वहाँ अकेला साधु को अकेली घर मालीकिनी के साथ रहना नहीं कल्पता। यहाँ भी ऊपर कहे अनुसार चार मांगे समझना । international For Pilvare & Personal use only 199 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000 यदि वहाँ पांचवा स्थवीर साधु या स्थवीरा साध्वी होनी चाहिये या वे दूसरों की नजर में देखा जा सके वैसे रहे हुए होना चाहिये अथवा घर से चारों ओर के दरवाजे खुले होने चाहिये, इस प्रकार उन्हें अकेला रहना उचित नहीं हैं। (२६१) इसी प्रकार से अकेली साध्वी और अकेला गृहस्थ का साथ रहने संबंधी भी चार भांगे जानना। (२६२) चातुर्मास में रहे हुए साधु -साध्वियों को 'मेरे लिये तुम लाना' जिसको ऐसा न कहा हो उस साधु को 'तेरे योग्य मैं लाऊँगा' ऐसी किसी को जानकारी दिये बिना साधु के निमित्त आहारादि लाना उचित नहीं। प्र. हे भगवान ! आप ऐसा क्यों कहते हो ? उ. दूसरे किसी के भी पूर्व कहे बिना, लाया हुई गोचरी (भोजन) को इच्छा हो तो दूसरा उस (गोचरी) को खाता है या नहीं भी खाय । (२६३) चातुर्मास रहे हुए निग्रन्थो या निग्रन्थनिओं को उनके शरीर से पानी गिरता हो या उनका शरीर आर्द्र 2003 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐Syley (भीना-भीजा) हो तो अशन-पान-खादिम या स्वादिम खाना नहीं कल्पता। (२६४) प्र. हे भगवान! वह ऐसा क्यों कहते हो ? उ. जिनेश्वर भगवन्तों ने लम्बे समय तक पानी सूके ऐसे स्थान सात बताये है। वे इस प्रकार से है-दो हाथ, हाथ की रेखाएँ, नाखन, नाखूनों के अग्रभाग, भौ-आंखों के ऊपर के बाल, दाढ़ी और मूर्छ । जब साधु-साध्वियाँ ऐसा समझे कि मेरा शरीर पानी रहित हो गया है सर्वथा सूक गया है, तब उन्हें अशनादि चारों प्रकार के आहार करना कल्पता है। 1 म (२६५) यहाँ ही चातुर्मास में रहे हुए साधु-साध्वियों को आठ सूक्ष्मों को जानने जैसे है, अर्थात छद्मस्थ साधु साध्वियों को बारंबार जहाँ जहाँ वे स्थान करे वहाँ वहाँ पर सूत्र के उपदेश द्वारा जानने चाहिये आंखो से देखना है और देख जानकर परिहरने योग्य होने से विचारने योग्य है। १. सूक्ष्म जीव, २. सूक्ष्म पनक फुल्लि, ३. सूक्ष्म बीज, ४. सूक्ष्म हरित, ५. सूक्ष्म पुष्प, ६. सूक्ष्म अण्ड़े, ७. सूक्ष्म बिल और ८. सूक्ष्म स्नेह। 405000500 2018 For Privates Personal use only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4045 140 1500 40 1500 40 (२६६) प्र. अब वह प्राण सूक्ष्म क्या है ? उ. प्राण सूक्ष्म यानी अत्यन्त छोटे जो चर्म चक्षु से न दिखाई दे ऐसे दो इन्द्रिय 'वाला' विगेरे सूक्ष्म प्राण । ये सूक्ष्म प्राण पांच प्रकार के बताये गये है। जैसे कि १. काले रंग वाले सूक्ष्म प्राण, २. हरे रंगवाले सूक्ष्म प्राण, ३. लाल रंगवाले सूक्ष्म प्राण, ४. पीले रंग के सूक्ष्म प्राण, और ५. श्वेतरंग के सूक्ष्म प्राण । अनुद्धरी नामक कुंथुवे की जाति है जो स्थिर रही हुई हलन चलन न करती हो तो उस वक्त छद्मस्थ साधु-साध्वियों को नजर नहीं आती और जो स्थिर रही हुई, हलन-चलन न करती हो तो उस वक्त छद्मस्थ साधु-साध्वियों को नजर नहीं आती और • जो अस्थिर हो, जब चलती हो तब छद्मस्थ साधु-साध्वियों को नजर आती है। अतः ऐसे सूक्ष्म प्राणों को वांरवार जानना, देखना और त्यागना चाहिये । 202 4045 140 1500 40 500 40 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4045 1 40 45 140 150040 (२६७) प्र. सूक्ष्म पनक कौनसी है ? उ. सूक्ष्म से सूक्ष्म चर्म चक्षु से न देखी जा सके ऐसी सूक्ष्म पनक है। उसके पांच प्रकार है वो इस प्रकार से - १. काली पनक, २. हरि पनक, ३. लाल पनक, ४. पीली पनक, और ५. सफेद पनक । पनक याने लील फूल - सेवाल काई । वस्तु पर एक जाति के उस वस्तु के समान रंग के जो सूक्ष्म जीव उतपन्न होते है, उनको छद्मस्थ साधु-साध्वियों को जानकर अच्छी तरह से देखकर प्रति लेखना करनी चाहिये । (२६८) प्र. अब बीज सूक्ष्म कौन से और किसे कहते है ? उ. बीज जो इतना छोटा कि उसे चर्म चक्षु से देखा नहीं जा सकता वे पांच के होते है, - १. काला जीवसूक्ष्म, २. हरा बीज सूक्ष्म, ३. लाल बीज सूक्ष्म, ४. पीला बीज सूक्ष्म, और ५. श्वेत बीज सूक्ष्म । छोटे से छोटे कण के समान बीज सूक्ष्म बताया गया है। अर्थात् जिस रंग की अनाज की कणी होती है। उसी रंग का बीज सूक्ष्म होता है, छद्मस्थ साधु-साध्वियों को उन्हें बारंबार अच्छी तरह जान, देखकर त्यागना चाहिये । dation International 203 4045 140 1500 40 500 40 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 05050000) (२६९) प्र. हरित सूक्ष्म किसे कहते है ? उ. हरित याने ताजा नया उत्पन्न सूक्ष्म से सूक्ष्म चर्म चक्षु से न दिखाई दे वैसा हरित सूक्ष्म । ये हरित सूक्ष्म भी पांच प्रकार का है। वह इस प्रकार से १. काला हरित सूक्ष्म, २. हरा हरित सूक्ष्म, ३. लाल हरित सूक्ष्म, ४. पीला हरित सूक्ष्म और ५. श्वेत हरित सूक्ष्म । ये हरित सूक्ष्म जिस जमीन पर उत्पन्न होते है तो जमीन के रंग जैसा ही उनका रंग होता है। छद्मस्थ साधु-साध्वी को उनको बारंबार जान पहिचान कर त्याग करना चाहिये। (२७०) प्र. अब पुष्प सूक्ष्म किसे कहते है ? उ. पुष्प यानी फुल, ऐसा फूल जिसे चर्म चक्षु से नहीं देखा जा सकता। ये पुष्प सूक्ष्म भी पांच प्रकार के होते है। वे इस प्रकार से १. काला पुष्प सूक्ष्म, २. हरा पुष्प सूक्ष्म, ३. लाल पुष्प सूक्ष्म, ४. पीला पुष्प सूक्ष्म और ५. श्वेत पुष्प सूक्ष्म। जिस पेड़ पर ये उत्पन्न होते है। उस पेड के जैसा ही उनका रंग होता है और अतः छमसथ साधु-साध्वी ऐसों को अच्छी तरह जान पहिचान कर त्याग करना चाहिये। 100-0000001944 204 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७१) प्र. अब अण्डसूक्ष्म किसे कहते है ? उ. अण्ड यानी अण्डा । चर्म चक्षु से उसे देखना बहुत ही कठिन हैं। ये भी पांच प्रकार के होते है। वे इस प्रकार :- • मधुमक्खी विगेरे डंश देने वाले प्राणियों के अण्डे, २. मकडी के अण्डे, ३. चिंटियों के अण्डे, ४. • चिपकली के अण्डे और ५. काकिडि के अण्डे । छद्मस्थ साधु साध्वी को इन्हें अच्छी तरह से देखकर परिहरने यानी त्याग करना चाहिये । (२७२) प्र. अब सूक्ष्म लयन किसे कहते है ? उ. लयन यानी बिल, चर्म चक्षु से इसे नहीं देखा जा सकता है। वह लयन (बिल) सूक्ष्म । ये लयन सूक्ष्म भी पांच प्रकार के होते है। वे इस प्रकार से :- १. उत्तिंग-गर्दभाकर जीवों के जमीन में बनाया हुआ स्थान, २. पानी सूक जाने पर उस जमीन पर पड़ी हुई तराड़ों में बिल बने हुओं में जो रहते है उन्हें भृगुलयन कहते है, ३. सरल • बिल सीधा बिल उसे सरल लयन कहते है, ४. ताल वृक्ष के आकार का नीचे चौड़ा और ऊपर सूक्ष्म ऐसा जो है 205 r Private & Personal Use Only 140501405014050040 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह तालमुख वह दर भवन और ५. शंबुकावर्त शंख के अन्दर के आंटों के समान भ्रमरों का घर होता है। इनको छद्मस्थ साधु-साध्वियों को अच्छी तरह जान-समझकर त्यागना चाहिये । A (२७३) प्र. अब स्नेह सूक्ष्म किसे कहते है ? उ. स्नेह यानी भिनास ऐसी जो शीघ्र दृष्टि गत न हो उसे स्नेह सूक्ष्म कहते है। स्नेह सूक्ष्म भी पांच प्रकार के होते है। वे इस प्रकार से :- १. ओस जो रात में आकाश से पानी गिरता है, २. हिम बर्फ, ३. महिका धूमस, ४. ओले और भीनी जमीन में से निकले हए तृण के अग्रभाग पर बिन्दु रूप जल जो यव के अंकुरादि पर दिखते है। उन्हें छद्मस्थ Fसाधु-साध्वी को अच्छी तरह देख समझकर परिहरना याने त्याग करना चाहिये । (२७४) चातुर्मास रहे हुए साधु भात पानी के लिये गृहस्थ के घर जाना आना चाहें तो उन्हें पूछे सिवाय जाना आना नहीं कल्पता। किस को पूछना सो कहते है। सूत्रार्थ के देन वाले आचार्य को, सूत्र पढ़ाने वाले उपाध्याय को... 206 WATEReDiction Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानादि के विषय में शिथिल होते को स्थिर करने वाले और उद्यम करने वालों को उत्तेजना देने वाले स्थवीर को, ज्ञानादि के विषय में प्रवृति कराने वाले प्रवर्तक को जिसके पास आचार्य सूत्रादि का अभ्यास करते हैं उस गणि को तीर्थकर के शिष्य गणधर को, जो साधुओं को लेकर बाहर अन्य क्षेत्रो में रहते है, गच्छ के लिये क्षेत्र 3 उपधि की मार्गणा आदि में प्रधावन विगेरे करने वाले उपधि आदि को लाके देने वाले और सूत्र तथा अर्थ दोनों को 卐जानने वाले गणावच्छेदक को अथवा अन्य साधु जो वय और पर्याय से लघु भी हो परन्तु जिसको गुरूतया मानकर • विचरते है उसको । उस साधु को आचार्य यावत् जिसे गुरूतया मानकर विचरते हो उसे पूछकर जाना कल्पता है। प्र. हे भगवान ! ऐसा क्यों कहते है ? उ. सम्मति देने और नहीं देने मे आचार्यादि विघ्न के परिहार को जानते है। (२७५) इसी प्रकार विहार भूमि की ओर जाते या अन्य किसी प्रयोजन के होने पर या एक गाँव से दूसरे -गाँव जाते समय भी पूछकर जाना उचित है। अन्यथा वर्षा ऋतु में दूसरे गांव जाना सर्वथा अनुचित है । 00000000 207 For Private spesome Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७६) चातुर्मास में रहे हुए साधु यदि कोई दूसरी विगई खाना चाहे तो आर्चाय यावत् जिसे गुरू मानकर 卐 विचरता है उसे पूछे बिना विगई खाना नहीं कल्पता । किस तरह से पूछना सो कहते है। हे पूज्य ! यदि आपकी आज्ञा हो तो अमुक विगई इतने प्रमाण में और इतने समय तक खाना चाहता हूँ । यदि वह आचार्ययादि उसे आज्ञा दे तो वह विगई उसे कल्पती है, अन्यथा नहीं । प्र. हे भगवान ! ऐसा क्यों कहते है ? उ. आचार्ययादि इसका लाभ-नुकशान जानते है। (२७७) चातुर्मास में रहे हुए साधु वात, पित और कफादि संनिपात संबंधी रोगों की चिकित्सा कराना चाहे तो आचार्ययादि से पूछकर कराना कल्पता है। यह सब पूर्व कथनानुसार समझना चाहिये। __(२७८) चातुर्मास में रहे हुए साधु किसी एक प्रकार के प्रशंसा पात्र कल्याणकारी, उपद्रवों को दूर करने वाला, अपने आपको धन्य बनाने वाला, मंगलका कारण सुशोभन और बड़ा प्रभावशाली तप धर्म को स्वीकार करके विचरना 500000 208 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहे तो इस विषय में पूर्व कथनानुसार पूछकर ही जाना चाहिये । 卐 (२७९) चातुर्मास रहा हुआ साधु, सबसे अन्तिम मारणांतिक संलेखना का आश्रय लेकर शरीर को नष्ट करने की इच्छा से @ आहार-पानी का त्याग कर पादपोपगतम होकर मृत्यु की अभिलाषा न कर विचरण करना चाहता और इस संलेखना के उद्देश्य से गृहस्थ के घर की ओर जाना चाहे, उस तरफ प्रवेश करना चाहते हए अशन-पान खादिम और स्वादिम आहार करने के लिये चाहता हैं शौंच या पेशाब को परठने, स्वाध्याय करने या धर्म जागरिका जागने चाहे तब इन सभी प्रवृतिओं के सम्बन् AT में भी गुरू को पूछे बिना करना नहीं कल्पता। (२८०) चातर्मास में रहे हुए साधु वस्त्र, पात्र, कम्बल रजोहरण एवं अन्य उपधि तपाने के लिये एक बार धूप में सुकाने के लिये न तपाने से कुत्सापनक आदि दोषोत्पति का संभव होने से बारबार तपाना चाहे तब एक साधु या अनेक साधुओं को मालुम किये बिना उसे गृहस्थ के घर आहार-पानी के लिये आना-जाना य अशनादि का आहार करना, जिन मन्दिर जाना, शरीर चिन्तादि के लिये जाना आना या अशनादि का आहार करना,जिन मन्दिर जाना शरीर चिन्तादि के लिये जाना, स्वाध्याय करना, कार्योत्सर्ग करना एवं एक स्थान में आसन करके रहना नहीं कल्पता। Of00000000 04-09卐ON 209 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 樓 %( 000000000 यदि वहाँ पर नजदिक में कहीं पर एक या अनेक साधु रहे हुए हो तो उन्हें इस प्रकार कहना चाहिये - हे आर्य ! जब तक मैं गृहस्थ के घर जाऊं आऊं यावत् कायोत्सर्ग करूं अथवा वीरासन कर एकद जगह रहूँ तब तक इस उपधि को आप संभाल रखना। यदि वह वस्त्रों को संभाल रखना स्वीकार करें तो उसे गृहस्थ के घर गोचरी के निमित्त जाना, आहार करना, जिन मन्दिर जाना, शरीर चिन्ता दूर करने जाना, स्वाध्याय या कायोत्सर्ग करना एवं वीरासन कर एक स्थान पर बैठना कल्पता है। यदि वह अस्वीकार करें तो नहीं कल्पता। __(२८१) चातुर्मास रहे हुए साधु-साध्वियों को शय्या और आसन ग्रहण न किया हो रहना नहीं कल्पता। ऐसा होकर रहना यह आदान हैं दोष ग्रहण का कारण है। जो साधु-साध्वी शय्या और आसन अभिग्रहण नहीं करते ।शय्या या आसन जमीन से ऊंचे नहीं रखते तथा स्थिर नहीं रखते, बिना कारण (शय्या या आसन को) बांधा करते है। नाप बिना का आसन रक्खते है, आसानादि को धूप में नहीं रखते, पांच समिति में सावधान नहीं रहते, बारबार प्रतिलेखना नहीं करते और प्रमार्जन करने में ठीक ध्यान नहीं रखते । उन्हें उस प्रकार से संयम की आराधना करना कठिन हो जाता है। यह आदान नहीं । जो साधु-साध्वी शय्या और आसन को ग्रहण करते है। उनको ऊंचे और स्थिर रखते है, उनको 210 慢 慢 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • निष्प्रयोजन बांधते नहीं है, आसनो को प्रमाणों पेत रखते है, शय्या या आसनों को धूप में रखते है, पांच समितियों में सावधान रहते है। बारबार प्रतिलेखना करते हैं और ध्यान पूर्वक प्रमार्जन करते हैं उनको इस प्रकर संयम आराधना करना सरल हो जाता हैं । (२८२) चातुर्मास में रहे हुए साधु-साध्वी को स्थंडिल शौच मात्रा लघुनीति के लिये तीन जगह प्रतिलेखनी कल्पती है। जिस प्रकार वर्षा ऋतु में किया जाता है उस प्रकार सर्दी और गर्मी में नहीं किया जाता है। प्र. हे भगवान ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? उ. चातुर्मास में जीव, तृण बीज पनक और बीज से उत्पन्न हुई हरित ये सब अधिक पैदा होती है। अतः इस प्रकार कहा जाता है। (२८३) चातुर्मास में साधु साध्वी को तीन पात्र रखने कल्पते है। एक शौंच हेतु एक लघुशंका के लिये और एक श्लेष्म के लिये । (२८४) चातुर्मास में रहे हुए साधु-साध्वी को अवश्यमेव लोच कराना चाहिये। चातुर्मास (आषाढ़) के बाद लंबे केश तो दूर रहे परन्तु गाय के रोम जितने भी केश रखने नहीं कल्पते। अर्थात् वर्षा ऋतु की बीस रात सहित एक मास की अन्तिम रात को गाय के रोम जितने भी केश नहीं रखने चाहिये। 0550000 For Private Personal use only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्त्रे से मुण्डन कराने वाले साधु साध्वी को महीनें महीने के बाद मुण्डन कराना चाहिये । यदि कैंची से कतरवावे तो पन्द्रह दिन के पश्चात् गुप्त रीति से कतरवाना चाहिये। लोच द्वारा मुण्ड होने वाले छः महीने मुण्ड होना चाहिये तथा वृद्ध स्थवीर बुढ़ापे से जर-जरित हो जाने के कारण एक वर्ष के पश्चात् लोच कराना चाहिये । 7 (२८५) चातुर्मास में रहे हुए साधु साध्वी को पर्युषण के पश्चात् कलेश उत्पन्न करने वाली वाणी न बोलनी चाहिये। जो साधु-साध्वी पर्युषण के पश्चात् भी कलेशकारी वचन बोले तो उन्हें कहना चाहिये कि हे आर्य ! इस प्रकार की वाणी बोलने का आचार नहीं है। आप जो बोलते है सर्वथा अनुचित है, अपना ऐसा आचार नहीं हैं । इसके बाद भी कलेशकारी वचन बोले तो उसे संघ से निकाल देना चाहिये । ॐ (२८६) वास्तव में यहाँ चातुर्मास में रहे हुए साधु-साध्वी परस्पर कलहकारी शब्द व्यवहार करें तो उन्हें छोटे बड़े को और बड़ा छोटे को खमाना चाहिये। | क्षमा देना और लेना, उपशान्त होना और करना सुमति पूर्वक रागद्वेष के अभाव पूर्वक सूत्र और अर्थ संबंधी संपृच्छना या समाधि प्रशन विशेष होने चाहिये । 2125 wwwsaneiures Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐000000000 जो उपशान्त होता है वह आराधक बनना चाहिए है, जो उपशान्त नहीं बनता वह विराधक बनता है अतः अपने आप 卐 उपशान्त बनना चाहिए । प्र. हे भगवान ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? उ. श्रमणत्व का सार उपशम ही हैं, इसलिये ऐसा कहा जाता है। २८७) चातुर्मास रहे हुए साधु-साध्वी को तीन उपाश्रय ग्रहण करने कल्पते हैं। तीन में से दो उपाश्रय का बारबार सफाई करनी चाहिये और जिसका प्रयोग कर रहे है- उसकी प्रतिदिन विशेष प्रकार से सफाई करनी चाहिये। 50000 MINIMIMINAMUMMINI (२८८) चातुर्मास में रहे हुए साधु-साध्वी को अन्यतर दिशाओं का (अवग्रह करके) अमुक दिशा और अनुदिशा अग्नि आदि विदिशाओं का अवग्रह करके अमुक दिशा या विदिशा में आहारार्थे जाता हूँ ऐसा दूसरे साधुओं को कहकर जाना उचित है। प्र. हे भगवान ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क उ. चातुर्मास में प्रायश्चित वहन करने के लिये या संयम के निमित्त छट्ट आदि करने वाले साधु-साध्वी होते । वे तपस्वी तप के कारण दुर्बल तथा कृश अंग वाले होते है अतः थकान लगने से या अशक्ति से कदाचित् कहीं मूर्छा आ जाय या गिर पडे तो उसी दिशा में या विदिशा में पीछे उपाश्रय में रहे साधु खोज करें । यदि 3 कहे बिना गया हुआ हो तो उसे कहाँ खोजने जायें। के (२८९) चातुर्मास में रहे हुए साधु-साध्वी को ग्लान, बीमार की सार संभाल के लिये या वैद्य के लिये चार या पांच योजन तक जाना आना कल्पता है। परन्तु वहाँ रहना नहीं कल्पता है। यदि अपने स्थान पर न पहुँच सकता हो तो मार्ग में भी रहना कल्पता है, परन्त उस जगह रहना नहीं कल्पता, क्योंकि निकल जाने से वीर्याचार का आराधन होता है, जहाँ जाने से जिस दिन वर्षा कल्पादि मिल गया हो उस दिन की रात्रि को वहाँ रहना नहीं कल्पता । वहाँ से निकल जाना कल्पता है। वह रात्रि उल्लघंन नहीं कल्पती । कार्य हो जाने पर तुरन्त ही निकलकर बाहर आ रहना यह भाव है। ल05000 214 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 (२९०) इस प्रकार के इस इस स्थवीर कल्प को सूत्र में कहे अनुसार कल्पना, अनुपालना, कक्षा क्रमे धर्ममार्ग के अनुसार जिस प्रकार सच्चा हो उस प्रकार शरीर से छू कर, क्रियान्वित कर, अच्छी तरह से पालन कर, सुशोभन प्रकार से दीपाकर, किनारे तक ले जाकर, जीवन के अन्त तक पाल कर, दूसरों को समझाकर, 3 अच्छी तरह से आराधना कर और परमात्मा की आज्ञानुसार अनुपालना कर कितनेक श्रमण निर्ग्रन्थ उसी भव 卐में सिद्ध होते हैं. बद्ध होते है मक्त बनते है. परिनिर्वाण पाते है और सर्व दःखों का अन्त करते है। दूसरे कितनेक तीसरे भव में सिद्ध होते है। यावत् सर्व दुःखो का अन्त करते है और उस प्रकार से है स्थवीर कल्प का आचरण करने वाले सात आठ भव से अधिक भटके नहीं अर्थात इतने भवों के अन्दर सिद्ध महोते है। यावत् सर्व दुःखो का अन्त करते है। 2 (२९१) उस काल और उस समय में राजगृही नगर में गुणशील चैत्य में बहुत से श्रमण-श्रमणियों, श्रावक-श्राविकाओं तथा बहुत से देव-देवियों के बिच ही बैठे हुए श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार कहते है,, 0000000000 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषले है, बताते है, प्ररूपणा करते है और 'पज्जोसवणा कप्प' पर्युषण आचार-क्षमा प्रधान आचार नामके अध्ययन न का अर्थ सह, कारण सह, सूत्र सह, सूत्रार्थ सह और स्पष्टीकरण विवेचन सह बांरबार दिखाते है, समझाते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ । 1404500 40 4500 40 Maha पज्जोसवणा कप्प (का हिन्दी अनुवाद) समाप्त हुआ । आठवाँ अध्ययन समाप्त हुआ । ।। समाचारी समाप्त ।। 216 14045 14054050120 www.ammaibrary.or Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 和50% 。 %AD%90% 都 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- _