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(२७६) चातुर्मास में रहे हुए साधु यदि कोई दूसरी विगई खाना चाहे तो आर्चाय यावत् जिसे गुरू मानकर 卐 विचरता है उसे पूछे बिना विगई खाना नहीं कल्पता । किस तरह से पूछना सो कहते है। हे पूज्य ! यदि आपकी
आज्ञा हो तो अमुक विगई इतने प्रमाण में और इतने समय तक खाना चाहता हूँ । यदि वह आचार्ययादि उसे आज्ञा दे तो वह विगई उसे कल्पती है, अन्यथा नहीं ।
प्र. हे भगवान ! ऐसा क्यों कहते है ? उ. आचार्ययादि इसका लाभ-नुकशान जानते है।
(२७७) चातुर्मास में रहे हुए साधु वात, पित और कफादि संनिपात संबंधी रोगों की चिकित्सा कराना चाहे तो आचार्ययादि से पूछकर कराना कल्पता है। यह सब पूर्व कथनानुसार समझना चाहिये। __(२७८) चातुर्मास में रहे हुए साधु किसी एक प्रकार के प्रशंसा पात्र कल्याणकारी, उपद्रवों को दूर करने वाला, अपने आपको धन्य बनाने वाला, मंगलका कारण सुशोभन और बड़ा प्रभावशाली तप धर्म को स्वीकार करके विचरना
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