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________________ 0000000000 श्यामकान्तिवाले अञ्जनरत्न, चन्द्रकान्तमणि, इस प्रकार के भिन्न-भिन्न जाति के उत्तम रत्नों के द्वारा वह रत्नराशि ऊंचा मेरुपर्वत जैसी लगती है, इस प्रकार की रत्नराशी को वह त्रिशलादेवी तेरवे स्वपन में देखती है।.१३ ४७) इसके बाद चौदहवे स्वपन में माता त्रिशला धूयें बिना की अग्नि देखती है। वह अग्नि कैसी है? विस्तारवाली उज्जवल थी व पीली मधु से सिंचित और इसी कारण बिना धुएंवाली, धक-धकती यानी कि धक्-धक् शब्द करती हुई, जाज्वल्यमान जलती हुई, इस प्रकार की जो ज्वालाएँ, उन ज्वालाओं के द्वारा उज्जवल व मनोहर, तर-तम योग से युक्त याने एक दुसरे की अपेक्षा से छोटी-बडी ज्वालाओं का जो समुह, उनके द्वारा मानो परस्पर मिश्रित यानी संकुचित न हो ऐसी अर्थात् एक ज्वाला ऊंची है,दुसरी ज्वाला उससे भी ऊंची है, और तीसरी उससे ऊंची है, इस प्रकार एक दूसरे की अपेक्षा से छोटी-बडी सर्व ज्वालाएं मानो स्पर्धा के द्वारा उस अग्नि के भीतर प्रवेश रही न हों । ऐसी ज्वालाओं का जो ऊंचे जलना, उससे मानो आकाश के किसी प्रदेश को पकाता न हो? अर्थात् वे अग्नि ज्वालाएं आकाश पर्यंत ऊंची होने से मानो आकाश को पकाने की तैयारी करती हो। ऐसी लगती है और अतिशय वेग के द्वारा चंचल है-त्रिशला माता चौदवें स्वप्न में ऐसा अग्नि देखती है।. ..........................................१४ 000卐ONLSO Porn.international For Private spersonal use only
SR No.600025
Book TitleBarsasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size26 MB
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