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________________ इन सबको निर्जीव शुद्ध स्थान में परठवने याने ड़ालने हेतु पूरा ध्यान रक्खा जाता था। इस प्रकार से पांच समिति को पालते हुए भगवान मन को तथा वचन को और काया को भी अच्छी तरह से प्रवृति कराने वाले बने। मन-वचन-काय गुप्ति का उचित प्रयोग करने वाले हुए। इस प्रकार समिति-गुप्ति वाले भगवान जीतेन्द्रिय, ब्रह्मचारी, अक्रोधी, निरभिमानी, माया रहित तथा निर्लोभी और शान्त बने, उपशान्त हुए, उनके सर्व संताप दूर हो गये। वे आश्रव बिना के, ममता रहित, अपरिग्रही याने अंकिचन बने। अब तो इनके पास गांठ बांधकर सुरक्षित करने जैसी एक भी वस्तु नहीं थीं ऐसे ये अन्दर और बाहर से छिन्नग्रन्थी बने, जिस प्रकार कांसी के बर्तन को पानी स्पर्श नहीं करता उसी भांति उन पर किसी भी प्रकार का मेल छिपकता नहीं था, ऐसे निर्लेप बने, जिस प्रकार शंख पर कोई भी रंग चढता नहीं, उसी तरह, इन पर राग-द्वेष की कोई असर होती नहीं थी। ऐसे ये भगवान अप्रतिहत किसी भी प्रकार का प्रतिबंध रक्खे बिना अस्खलिततया विचरने लगे। जिस प्रकार आकाश किसी सहारे की अपेक्षा रक्खता नहीं उसी भांति भगवान भी दूसरे किसी मदद की अपेक्षा रक्खे बिना निरालंबी हुए। वायु की ॐ तरह अप्रतिहत बने याने जिस प्रकार से वायु एक ही जगह पर नहीं रहता, बिना रोक टोक चला करता है उसी भांति भगवान tion International For Private & Personal Use Only 101 40 500 40 500 40 500 40
SR No.600025
Book TitleBarsasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size26 MB
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