SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 40 500 40 500 40 500 40 एक ही जगह पर बंधन में न रहकर सर्वत्र निरहीभाव से घूमने वाले हुए। शरद ऋतु के जल की तरह इनका हृदय निर्मल बना, कमलपर्ण की भांति निर्लेप बने, याने पानी से उत्पन्न कमलपत्र को जैसे जल बिन्दू भींजा सकता नहीं उसी तरह भगवान को संसार भाव भजा सकते नहीं, कच्छुए की भांति भगवान गुप्तेन्द्रिय, महावराह के मुंह पर जैसे एक ही सींग होता है वैसे भगवान एकाकी बने, पक्षी की तरह भगवान स्वतन्त्र, भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त, हाथी की भांति शूर वीर, बैल की तरह प्रबल पराकमी, सिंह की तरह निर्भय, मेरुपर्वत की तरह स्थिर, समुद्र की भांती गंभीर, चन्द्र की तरह सौम्य, सूर्य की भांति तेजस्वी, उत्तम सोने की तरह शरीर कान्तिवाले, पृथ्वी की भांति परिषहों को सहन करने वाले और घी डाले हुए अग्नि की तरह जाज्वल्यमान बने । ११८) निम्न लिखित दो गाथाओं में भगवान को जैसी जैसी उपमा दी गई है उस अर्थ वाले शब्दों में नाम इस प्रकार से गिनाये गये है। कांसी का बर्तन, शंख, जीव, गगन-आकाश, वायु, शरद ऋतु का जल, कमल-पत्र, पक्षी, महावराह, और मारंड पक्षी (१) हाथी, बैल, सिंह, नगराज मेरु, सागर, चन्द्र, सूर्य, सोना, पृथ्वी और अग्नि (२) 102 4050040 500 40 4500 40
SR No.600025
Book TitleBarsasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy