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________________ 5 4 5 रत्नत्रय विशेष पुष्ट बनता है और मुक्ति फल का लाभ अत्यन्त समीप आ जाता है, उन-उन गुणों से आत्मा को पुष्ट करते हुए भगवान रहते है इस प्रकार विचरण करते उनके बारहवर्ष व्यतीत हो जाते है। तेरहवे वर्ष H का मध्यभाग याने ग्रीष्मऋतु का दूसरा महीना चौथा पक्ष चल रहा है, उस चौथे पक्ष का याने वैसाख महीने 3 का शुक्ल पक्ष, उस वैसाख मास के शुक्ल पक्ष की दशम तिथीं को जब छाया पूर्व की ओर झूक रही थी, ॐ पिछली पोरषी लगभग पूरी हुई थी, सुव्रत नामक दिन था, विजय नाम का मुहूर्त था उस समय भगवान जूंभिक R (जभिया) गांव नगर के बाहर, ऋजुवालिका नदी के किनारे एक विरान जैसा पुराने चैत्य के बहुत दूर भी नहीं और समीप भी नहीं इस प्रकार श्यामक नाम के गृहस्थ के क्षेत्र में शाल वृक्ष के निचे गोदोहासन उद्भट बैठकर 5 ध्यान में रहे हए थे वहां इस प्रकार से ध्यान में रहे हए तप और आतापना द्वारा तप करते हए भगवान ने चोविहार छट्ट का तप किया हुआ था, अब उस समय ठीक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग आया हुआ था, उस ध्यान में मग्न भगवान महावीर को अन्तर बिना का उत्तमोत्तम, व्याघात बिना का, आवरण रहित, समग्न और 100 Bles. Par te tư số
SR No.600025
Book TitleBarsasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh Mumbai
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size26 MB
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