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(२३५) चातुर्मास में रहे हुए कितने साधु को इस प्रकार प्रथम ही कहा हुआ हो कि हे शिष्य ! आहरादि तुं लाकर ग्रहण तो उसे लेना कल्पता है, उसे ग्लान को देना नहीं कल्पता है ।
करना,
(२३६) चातुर्मास में रहे हुए साधु को ऐसा पहले से ही कहा हुआ हो कि हे शिष्य ! तुं ग्लान को आहरादि लाकर देना और तुं भी ग्रहण करना ऐसा कहने पर लेना-देना दोनों कल्पते है ।
(२३७) चातुर्मास में रहे हुए साधु-साध्वियों की जो हृष्ट-पुष्ट हो, आरोग्य वाले हो बलवान शरीर वाले हो उनको नौ रस विकृतियाँ बारंबार ग्रहण करना नहीं कल्पता । वे विकृतियाँ इस प्रकार हैं। - १. दूध, २. दही, ३. मक्खन, ४. घी, ५. तेल, ६. गुड़, ७. शहद, ८. मदिरा और ९. मांस । इससें अभक्ष्य विकृति तो कभी कल्पती ही नहीं हैं । कारण होने पर भक्षय विकृति का प्रयोग किया जाता हैं ।
(२३८) चातुर्मास रहे हुए साधुओं में वैयावच्च (सेवा) करने वाले मुनि ने प्रथम ही गुरू महाराज को यों कहा हुआ हो कि हे भगवन ! बीमार मुनि के लिय कुछ वस्तु की आवश्यकता हैं ? इस प्रकार सेवा करने वाले किसी मुनि के पूछने पर गुरू कहे कि - बीमार को वस्तु चाहिये ? चाहिये तो बीमार को पूछो कि दूध आदि तुम्हे कितनी विगई की आवश्यकता है ? बीमार
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